Monday 29 June 2020

चीन का बायकॉट

ऐसे कर सकते हैं हम चीन का बायकॉट!

0चीन ने 1962 की जंग के बाद एक बार फिर हमारी सीमा में घुसपैठ कर एशिया का साम्राज्यवादी देश बनने का सपना पूरा करने की हिमाकत की है। इतिहास गवाह है कि नेहरू सरकार ने भी चीन पर अपनी गल्ती नहीं मानी थी और आज मोदी सरकार भी चीन के अवैध कब्ज़े को अनदेखा कर उसी चूक को दोहराती नज़र आ रही है। ऐसे में जनता चीन को आर्थिक चोट देने के लिये उसके माल का बायकॉट कर सबक सिखाने का रास्ता अपनाना चाहती है तो बुराई क्या है?        

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने चीनी सामान का विकल्प तलाशने का काम बहुत पहले शुरू कर दिया था। अमेरिका ने तो बाकायदा उससे टैरिफ वार शुरू कर दिया था। ट्रेड वार मेें अमेरिका ने जब चीनी सामान के आयात पर टैक्स बेतहाशा बढ़ाया तो जवाब में चीन ने भी अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ काफी बढ़ा दिया था। लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका को जहां 0.9 प्रतिशत तो चीन को पूरे एक प्रतिशत का नुकसान हुआ। अमेरिका ने इसके साथ ही चीन को अन्य देशों और दूसरे मोर्चों पर भी घेरा। अमेरिकी कम्पनियां चीन में अपना उत्पादन बंद कर नीदरलैंड थाइलैंड और वियतनाम चली गयीं।

    इससे पहले कि अमेरिका चीन के खिलाफ कुछ और कड़े आर्थिक कदम उठाता। चीन ने एक तरह से उसके सामने घुटने टेक दिये। चीन ने जनवरी 2020 में अमेरिका से इन सारे विवादों पर बैठकर बात शुरू की। चीन ने वादा किया कि वह भविष्य में करेंसी मेनिपुलेशन रोकेगाइंटलैक्चुअल प्रोपर्टी को कवच उपलब्ध करायेगासाथ ही कॉपीराइट ट्रेडमार्क व पेटैंट्स की चोरी रोकने में मदद भी करेगा। चीन ने यह आश्वासन भी दिया कि वह भविष्य में विदेशी कंपनियों को अपनी टैक्नालॉजी चीन में उत्पादन करने पर चीन को ज़बरदस्ती देने के लिये दबाव नहीं बनायेगा।

    इसके अलावा भी अमेरिका ने मौका देख कुछ और कड़ी व एकतरफा शर्तों के साथ चीन के साथ एक बार फिर से फ्री ट्रेड एग्रीमेंट सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये। हालांकि हम यह दावा नहीं कर रहे कि हम भी चीन पर अमेरिका की तरह से उतना ही दबाव बनाकर उसको झुकने के लिये मजबूर कर सकते हैं। लेकिन इतना तो साफ है कि चीन झुकता है। उसको झुकाने वाला अमेरिका जैसा मुल्क चाहिये। चीन के साथ आप चाहे जितना झूला झूलें और चाहे जितना गले मिल लें। लेकिन बेवफाई और अहसान फरामोशी उसके मिज़ाज में है।

    पहले भी चीन हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाते लगाते हमारी सीमा में घुस आया था। उसने 1962 की जंग में किये गये अवैध कब्जे़ को आज तक नहीं छोड़ा है। अब उसने गलवान घाटी के साथ अन्य दो तीन और सीमा क्षेत्रों मेें अवैध घुसपैठ कर लगभग 60 किलो मीटर अंदर तक हमारे देश में नाजायज़ जगह घेर ली है। उसने हमारे तीन बड़ अफसरों सहित 20जवानों को भी शहीद कर दिया है। हमारी सरकार के पास दो ही विकल्प थे। एक  तो वह चीन को बलपूर्वक पीछे उसकी वास्तविक सीमा रेखा तक वापस धकेल दे।

    दूसरा नेहरू सरकार की तरह वह चीन द्वारा कब्ज़ाये गये क्षेत्र पर चुप्पी साधकर भविष्य में फिर से ऐसा ना हो इस रण्नीति पर काम करे। ऐसे में सरकार ने लगता है कि दूसरा विकल्प चुना है। उधर जनता का गुस्सा चीन के प्रति बढ़ता ही जा रहा है। चीनी सामान के बायकॉट की आवाज़ें तेज़ हो गयी हैं। हालांकि जनता को चाहिये था कि वह सरकार पर दबाव बनाती कि सरकार चीनी सामान के आयात पर या तो पूरी तरह रोक लगा दे या फिर उस पर टैरिफ़ इतनी अधिक बढ़ा दे कि वह अन्य देशों के उत्पादोें के मुकाबले काफी अधिक महंगा हो जाये। लेकिन सरकार इस मामले में अभी कशमकश में नज़र आती है।

   सरकार ने फिलहाल इतना ज़रूर किया है कि उसके डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल ट्रेड ने ई कॉमर्स कंपनियों जैसे अमेज़न फिलिपकार्ट व पेटीएम को निर्देश दिये हैं कि वे यह सुनिश्चित करें कि उनके सप्लाई किये जाने वाले प्रोडक्ट मूल रूप से किस देश के हैं। ये खरीदने वालों को बिना किसी खास मशक्कत के पता चल जाना चाहिये। 2018-19 के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो पता चलता है कि भारत ने चीन से 70 बिलियन डॉलर का सामान आयात किया तो मात्र16.70 बिलियन डॉलर का माल उसे निर्यात किया।

    इसमें भी सबसे अधिक हमने 76 प्रतिशत सामान इलैक्ट्रानिक्स और 65 से 70 प्रतिशत फार्मास्युटिकल्स यानी दवा आदि का आयात किया है। इस आंकड़े से पता चलता है कि हमारी निर्भरता चीन पर अन्य देशों से बहुत अधिक ही बढ़ चुकी है। इसका हमें विकल्प तलाशना ही होगा। जहां तक चीनी साफ्टवेयर का सवाल है। अपने मोबाइल से इन चीनी एप को हम तत्काल डिलीट कर सकते हैं। इनके विकल्प हमारे अपने देश व दूसरे देशों के मौजूद हैं। जहां तक हार्डवेयर की बात है तो अगली बार जब आप फोन लैपटॉप या कंप्यूटर व अन्य कोई ऐसा  सामान खरीदने जायें तो सेमसंग एचटीसी नोकिया या भारतीय लावा व माइक्रोमैक्स का सामान खरीद कर चीन को आर्थिक नुकसान पहंुचा सकते हैं।

   लेकिन इसके लिये हमें टिकटॉक जैसे एप और सस्ते चीनी सामान का मोह व लालच छोड़ना होगा। अब बात कर लेते हैं कि चीन की कंपनियों को कैसे नुकसान पहंुचा सकते हैं। इसे हमें चार हिस्सों में बांटकर समझना होगा। एक-चीन की कंपनी का बनाया सामान। दो- किसी विदेशी कंपनी का चीन में बनाया सामान। तीन-चीन से आये पार्ट्स से बना सामान। चार-चीन की किसी कंपनी के भारी निवेश से चल रही कंपनी का बना सामान। इसमें हम चीन की किसी भी कंपनी के बने सामान का खुला और सीधा बहिष्कार कर सकते हैं। लेकिन याद रहे कि एप्पल का चीन में बना फोन ना खरीदने से चीन का नहीं एप्पल का अधिक नुकसान होगा।

    इस तरह के माल की खरीद से बचना मुमकिन भी नहीं है। भारतीय व अन्य विदेशी कई कंपनी चीन में माल बनाकर पूरी दुनिया में इसलिये बेच रही हैं कि वहां वह बहुत सस्ता पड़ता है। अब देखते हैं कि चीन की कंपनियों जैसे पेटीएम ज़ोमाटो स्वीगी व बाईजस जिन्होंने 50 प्रतिशत से अधिक पूंजी किसी अन्य कंपनी के साथ लगा रखी है। उनका बायकॉट किया जा सकता है। क्योंकि इनके लाभ का बड़ा हिस्सा चीन जा रहा है। जहां तक चाइनीज़ फूड का सवाल है। उसका बायकॉट करना समझ से बाहर है। आज दुनिया पूरी तरह एक ग्लोबल विलेज बन रही है।

   भारत में बिकने वाला चाइना का खाना चीन से आयात नहीं होता है। मिसाल के तौर पर चाइजीज़ मेमोज़ भारत में ही बनते हैं। होटल भी भारतीय लोगों का है। उसमें शैफ़ और कुक और बैरे भी हमारे ही नागरिक हैं। ऐसे में इन आइटम का बहिष्कार कर हम अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रहे होंगे। ऐसे ही चीन के खिलौने बेचने वाली किसी दुकान या घर का चीनी टीवी तोड़ना मूर्खता ही कहलायेगी। सच तो यह है कि चीन का सामना इतना सस्ता और इतना आकर्षक है कि उसे ग्राहक खरीदते समय सारी देशभक्ति और राष्ट्रवाद भूल जाता है।

   वैसे भी जनता की स्मृति इतनी कमज़ोर और इतनी क्षणभंगुर होती है कि वह आज जोश में खूब उबल रहा है। लेकिन सीमा पर विवाद ठंडा पड़ते ही सबकुछ भूलकर फिर से चीनी सामान खरीदने निकल पड़ेगा। ऐसे मंे सरकार से आशा की जाती है कि वह चीन को लंबी सोच विचार से तय रण्नीति के हिसाब से मात देने को गैर चीनी देशों के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट तेज़ी से बढ़ाये। मिसाल के तौर पर ऑस्ट्रेलिया के साथ8 साल से तो यूरूपीय यूनियन के देशों के साथ10 साल से हमारी सरकार बातें ही कर रही है। जबकि वियतनाम जैसे छोटे से देश ने यह काम कर हमें पीछे छोड़ दिया है। हमें यह सवाल भी खुद से करना चाहिये कि अमेरिका जैसे मित्र देश की कंपनियां चीन छोड़कर दक्षिण कोरिया क्यों जा रही हैं हमारे देश में क्यों नहीं आ रही हैं?                                            

सहल

@हमारा नवासा सहल...
हमारे 9 माह के नवासे सहल की पिछले दिनों अचानक तबियत बहुत खराब हो गयी तो उसको 2 दिन हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा
अब वो बिल्कुल ठीक होकर घर आ गया है...
दुआ कीजिये बच्चा स्वस्थ ही रहे!
शायद 10 साल से ज़्यादा हो गए शायरी लिखे, लेकिन जब जज़्बात दिल से निकलते हैं तो कविता नज़्म खुद ब खुद ऐसे बन जाती है...* 
जैसे सहल की तबियत खराब होने से सही होने तक ये बन गयी 😄😄
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
बुख़ार को उसने खूब हराया।
पहली बार अस्पताल हो आया
हंसा न खाया सबको डराया
नाना नानी का बड़ा सरमाया
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
मम्मी पापा को 2 रात जगाया
सबके चेहरों का रंग उड़ाया
सबने दुआ को हाथ उठाया
तब जाकर टैस्ट नॉर्मल आया
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
झूला वाकर घर छोड़ आया
बॉटल को भी न हाथ लगाया
केला सेरालेक तक न खाया
पापा ने भी क्यों नहीं घुमाया
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
लाड प्यार से जो पलता आया
हॉस्पिटल लगा जेल का साया
डॉक्टर भी उसे कभी न भाया
ए सी बच्चा गर्मी से घबराया
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
'कछुए' ने क्या नसीब है पाया
मम्मी पापा का प्यारा जाया
टाइम पर इलाज मिल पाया
इंफेक्शन को खोज हराया
*सहल स्वस्थ हो घर लौट आया...* 
😅😛😄😍🤣😊🤭🤓

Monday 22 June 2020

कोरोना और अख़बार

कोरोना से उखड़ रही हैं अख़बारों की सांसे ?

0‘‘प्रिंट मीडिया दो दशक से बंद होने की आशंका से ग्रसित था। आज कोरोना ने पूरे ब्रिटेन में 380 साल पुराने अख़बार उद्योग को नष्ट कर दिया है। लगता नहीं अब अख़बार बच पायेंगे।’’ कोरोना के इस विकट दौर में अख़बारों के संकट पर यह टिप्पणी जाने माने अख़बार द गार्जियन ने की है। जानकारों का यह भी कहना है कि यह आहिस्ता आहिस्ता ख़त्म होते प्रिंट मीडिया की एक लंबी बीमारी है। जिसे कोरोना महामारी ने अख़बारों की सांसे उखाड़कर और तेज़ किया है।        

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   हाल ही में एक बड़े पत्रकार ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द बयान करते हुए बताया कि उनका वेतन 30 प्रतिशत से अधिक कम कर दिया गया है। उनका कहना है कि अमेरिका और दूसरे विकसित देशों की तरह फरलो यानी बिना वेतन लंबी छुट्टी पर भेजने का सिलसिला भारतीय मीडिया हाउस भी तेजी से अपना रहे हैं। कई पत्रकारों की नौकरी चली गयी है तो कई अख़बार या तो बंद हो गये हैं या फिर उनके पेज व एडिशन कम हो गये हैं। इसकी वजह कोरोना महामारी से बचने को लंबे लॉकडाउन से मीडिया के बंद होते विज्ञापन भी हैं।

    इस बारे में शेवंती नाइनन ने द टेलीग्राफ में विस्तार से चर्चा करते हुए एक लेख लिखा है। इस लेख मेें नाइनन ने बताया है कि पूरी दुनिया में अख़बार क्यों संकट में हैंइंडियाज़ न्यूज़ पेपर्स रिवॉल्यूशन जैसी पुस्तक लिखने वाले ऑस्टेªलिया के मीडिया एक्सपर्ट राबिन जैफ्री अभी इस मुद्दे पर गहन विचार विमर्श कर अपनी राय दुनिया के सामने रखने वाले हैं। राबिन ने 1991 के बाद हमारे देश में एल पी जी यानी लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल नीतियां अपनाये जाने के बाद पूंजीवादी विकास में प्रिंट मीडिया के बदलाव पर बहुत कुछ लिखा था।

    राबिन आज इस बात पर गहन चिंतन में है कि किस तरह से क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अख़बारों के साथ जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी का विकास हुआ था। वह आज ख़तरे में है। जानकारों का कहना है कि कोरोना से पहले लोग तीन चार तक अख़बार लेते थे। लेकिन आज उनके घरों में इस मुद्दे पर गरमा गरम बहस और विवाद हो रहा है कि अख़बार फालतू खर्च है कि नहींकई घरों में एक अख़बार वह भी सबसे सस्ता वाला लेने पर एकराय बनी है। दरअसल कम लोगों को पता है कि जो अख़बार भी वे पढ़ते हैं कि वह जितने पेज का होता है।

    लगभग उतने रूपये ही उसकी लागत होती है। लेकिन यह आपको 2 से 5 रूपये में आराम से मिलता रहा है। इसकी वजह यह है कि इसको बेचने का घाटा इसको मिलने वाले विज्ञापनों से पूरा होता रहा है। लेकिन आज पिं्रट मीडिया की लाइफलाइन यानी विज्ञापनों पर ही ज़बरदस्त चोट पड़ रही है। जहां सरकार ने दिये जाने वाले अपने हिस्से के सबसे बड़े बजट वाले विज्ञापन या तो बंद कर दिये हैं। या फिर ना के बराबर रह गये हैं। वहीं सरकार ने विगत कई साल से सभी मीडिया के लगभग दो हज़ार करोड़ के बिलों का भुगतान भी नहीं किया है।

    इसकी वजह यह भी मानी जा रही है कि जो विज्ञापन पहले सरकार मीडिया में अपनी बात रखने और अपने खिलाफ जोरशोर से चलने वाले अभियान को धीमा करने के लिये देती थी। मीडिया ने आज सरकार के सामने दंडवत करके वो दोनों ही कारण खुद ख़त्म कर दिये हैं। ऐसे में मीडिया को विज्ञापन देने या उनका पेमेंट करने की सरकार को क्या ज़रूरत हैउधर अख़बार पहले ही आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे। लेकिन आज कोरोना की इस अफवाह ने उनके ताबूत में एक तरह से अंतिम कील ठोंक दी है कि इसकी स्याही और काग़ज़ में कोरोना का संक्रमण हो सकता है।

    जबकि दुनिया की हर लैब डाक्टर और वैज्ञानिक ने साफ कर दिया है कि ऐसा कुछ नहीं है। खुद अख़बारों ने भी अपने स्तर पर इस अफवाह को रोकने के लिये जोरदार प्रयास कर अपने ऑफिस से लेकर प्रैस तक बड़े पैमाने पर सेनिटाइज़ेशन का अभियान चलाया है। सच यही है कि अख़बारों की छपाई का सारा काम आजकल पूरी तरह से मशीनों से होता है। इस दौरान इस पूरी प्रक्रिया में किसी का हाथ किसी अख़बार से टच तक नहीं होता है। यहां तक कि पैकिंग के लिये इन अख़बारों के बंडल की गिनती भी मशीन ही करती है।

    इस लेखक ने खुद लोकप्रिय चिंगारी और बिजनौर टाइम्स दैनिक अख़बारों की डैस्क पर कई साल संपादन सहयोगी का काम करने के दौरान इस पूरी प्रोसेज़ को करीब से देखा है। यहां तक कि डब्ल्यू एच ओ ने भी यह स्पश्ट किया है कि अख़बार सच्ची और प्रमाणिक जानकारी का ज़रिया है। इनको छूने पकड़ने और पढ़ने से कोरोना होने का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन इन दोनों कारणों ने मिलकर प्रिंट मीडिया के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। यह सच अपनी जगह है कि अख़बारों के सामने आज के संकट का एक बड़ा कारण आधुनिक तकनीक यानी इंटरनेट भी है।

   डिजिटल मीडिया ने पिं्रट मीडिया को धीरे धीरे साइबर मीडिया में बदलने को मजबूर कर दिया है। आप अगर पिछले दो तीन दशक का इतिहास देखें तो पायेंगे कि गूगल और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने इन अख़बारों की खास खास ख़बरे चुराकर बिना किसी शुल्क के अपने उपभोक्ताओं को 24 घंटे लगातार परोसकर पिं्रट मीडिया को धीमा ज़हर देने का काम किया है। इस दौरान इंडियन न्यूज़ पेपर्स सोसायटी ने सूचना प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखकर अख़बार उद्योग को संकट से बचाने के लिये विज्ञापन दर 50प्रतिशत बढ़ानेन्यूज़ पिं्रट का सीमा शुल्क 5प्रतिशत घटाने और दो साल तक टैक्स में छूट की मांग की है। कम या ज़्यादा पूरी दुनिया में ही अख़बारों के सामने यह संकट मौजूद है। लेकिन पिं्रट मीडिया के विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा आज इलैक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया की तरफ खिसक जाने से यह संकट कोरोना के साथ मिलकर और भी गहरा गया है।                                                                      

(लेखक नवभारत टाइम्स डॉटकॉम के ब्लॉगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं  ।)       

Sunday 7 June 2020

अनलॉक 1 में हम

अनलॉक-1 में हमारा व्यवहारआ कोरोना हमें मार ?

0सरकार ने 25 मार्च से जब सख़्ती से लॉकडाउन लगाकर कोरोना से लड़ना चाहा तो कुछ लोगों का कहना था कि लॉकडाउन की ज़रूरत ही नहीं थी। इसके बाद सरकार को भी अहसास हुआ तो उसने जान भी जहान भी का नारा देकर लोगों की रोज़ी रोटी को लॉकडाउन में कुछ छूट दीं। इसके बाद भी जब बात नहीं बनी और नौबत यह आ गयी कि सरकार के पास वेतन देने तक को पैसा नहीं था और घरों मेें बंद गरीब मज़दूर लोग भूखों मरने की कगार पर आ गये तो अनलॉक एक का ऐलान हुआ। लेकिन अब हालत यह है कि लोग मास्क व डिस्टैंसिंग का पालन तक नहीं कर रहे हैं।       

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   कभी कभी सरकार उसका नेतृत्व और उसके निर्णय को लागू करने वाली पुलिस व अन्य अधिकारियों की मशीनरी ऐसे दोराहे पर आ जाते हैं। जहां उनको यह तय करना बड़ा कठिन होता है कि कौन सा रास्ता सही होगा?दरअसल यह समय की कसौटी पर भविष्य ही तय करता है कि कौन सा फैसला सही साबित हुआकोविड 19 यानी कोरोना वायरस डिसीज़ 2019 का जितना डर और बड़े पैमाने पर लोगों की जान जाने का नुकसान का अंदेशा शुरू शुरू में था। उस दौरान हमारी सरकार ने जिस तरह से पहले 21 और बाद में 19 और फिर दो दो सप्ताह का बारी बारी से लॉकडान लगाया।

   ऐसा लगा कि इसके अलावा कोई चारा ही नहीं था। हालांकि इस लॉकडाउन को लगाने का तरीका और इसके सख़्ती से लागू करने का पुलिस का अति उत्साह व बल प्रयोग आलोचना का विषय भी ठीक ही बना। लेकिन इस दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने पहले से बेहतर करने और लोगों को कोरोना की भयावहता का अहसास कराने का शासन प्रशासन एनजीओज़ व जागरूक नागरिकों का सतत अभियान काफी काम आया। दो माह बाद सरकार को भी यह लगा कि हमारे जैसे गरीब अविकसित और कम शिक्षित देश में इतना सख़्त और इतना लंबा लॉकडाउन व्यवहारिक और आवश्यक नहीं है।

   साथ ही अमेरिका यूरूप के मुकाबले हमारे यहां ही नहीं बल्कि गर्म मुल्कों व पूरे दक्षिण ऐशिया में कोरोना का असर बहुत कम हुआ। इसकी कुछ बड़ी वजह में से हमारे यहां लगने वाला बीसीजी का टीका और हम लोगों का इम्युनिटी सिस्टम मज़बूत होना भी था। इसके बाद सरकार ने अनलॉक एक शुरू किया। जिसमें कोरोना के सबसे अधिक केस वाले स्थानों को छोड़कर बाकी सब जगह लगभग लॉकडाउन ना के बराबर ही रह गया। लेकिन इस दौरान भी सरकार ने जनता को पूरी सावधानी और बचाव को व्यापक दिशा निर्देश जारी किये।

    मगर देखने में यह आ रहा है कि कड़े नियम कानून की तो बात ही क्या हैलोग मामूली और बुनियादी बचाव यानी मास्क या उसके विकल्प का इस्तेमाल और 6 फुट की फिज़िकल दूरी तक का पालन नहीं कर रहे। जिन दुकानों की बारी सप्ताह में जिन तीन दिन है। वे पूरे सात दिन दुकान खोले बैठे हैं। वहां आने वाले ग्राहक पांच की सीमा लांघकर भीड़ के रूप में दुकान में घुसे चले जा रहे हैं। रिक्शा कार बाइक बस रेल और हवाई जहाज़ों तक में बीच की सीट खाली छोड़ने के नियम की अनदेखी हो रही है। लोग बार बार मना करने के बावजूद धार्मिक स्थलों और बाबाओं के पास थोक में जमा हो जा रहे हैं।

   वे एक दूसरे को स्पर्श करने में भी परहेज़ नहीं कर रहे हैं। एटीएम राशन की दुकान बैंक अस्पताल रेलवे स्टेशन बस स्टैंड और अन्य भीड़ वाली जगहों पर लोग सेनिटाइज़र का इस्तेमाल उपलब्ध होने के बावजूद करना भी गवाराह नहीं कर रहे हैं। दुख की बात यह है कि ऐसा अनपढ़ गरीब व कम शिक्षित व विपन्न लोग ही नहीं बड़े बड़े सूटेड बूटेड व्हाइट कॉलर जॉब वाले लोग भी कर रहे हैं। लोग यह बात पूरी तरह से भूल गये हैं कि सरकार ने लॉकडाउन को अनलॉक किया है। लेकिन कोरोना बीमारी ने हमें अभी टीका या दवाई बन जाने तक छूट या आज़ादी नहीं दी है।

   यह अजीब बात है कि देश में जब 552कोरोना केस थे तो हम सजग थे। लेकिन आज जब यह लेख लिखे जाने के समय तक2,36,657 कोरोना के मामले सामने आ चुके हैं तो हम लापरवाह गैर ज़िम्मेदार और निश्चिंत नज़र आ रहे हैं। यह तो ऐसा लग रहा है कि जैसे हम अपने लापरवाह व्यवहार से कोरोना को चुनौती दे रहे हों कि आ कोरोना हमें मार?