Monday 27 June 2016

इफ़्तार नहीं विचार

मुसलमानों को इफ़तार नहीं उदार विचार दो
इक़बाल हिन्दुस्तानी

कांग्रेस ने इस बार रमज़ान में इफ़तार पार्टी नहीं करने का फैसला किया है। उसका कहना है कि इसके बदले वो गरीबों को खाना खिलायेगी। साथ ही ईद पर अनाथ बच्चो को कांग्रेस तोहफे बांटेगी। हालांकि मोदी के पीएम बनने के बाद से प्रधनमंत्री द्वारा दी जाने वाली हर साल की इफ़तार पार्टी पहले ही बंद हो चुकी है। इससे पहले जब एपीजे कलाम हमारे प्रेसीडेंट बने थे। उन्होंने भी प्रेसीडेंट की तरफ से दी जाने वाली इफ़तार पार्टी की जगह उस पर खर्च होने वाले पैसे से गरीब बच्चो की मदद का फैसला लिया था। इन तीनों मामलों की वजह अलग अलग है। जाहिर सी बात है कि हिंदूवादी सोच के चलते मोदी कोई भी ऐसी परंपरा आगे नहीं बढ़ायेंगे। जिससे कट्टर हिंदू वर्ग को यह लगे कि सत्ता मेें आने के बाद ये भी मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत कर रहे हैं।
   
उधर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे का मकसद मुस्लिम विरोधी न होकर सही मायने में मानवीय था। लेकिन जहां तक कांग्रेस का सवाल है। उसके पीछे कई बातें छिपी हो सकती हैं। एक तरफ उस पर भ्रष्ट होने के आरोप लगते रहे हैं। दूसरी तरफ संघ परिवार ने उसकी छवि हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक की बना दी है। इसका नतीजा यह है कि वह जिस जिस प्रदेश में सत्ता में थी। भाजपा का चुनाव में मुकाबला नहीं कर पा रही है। उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का ठप्पा कुछ इस तरह से चिपकाया गया है कि वह चाहकर भी उसको अपने माथे से हटा नहीं पा रही है। साथ ही अगर वह ऐसा करती भी है तो उसको मुस्लिम वोट के बचे खुचे वर्ग के खफा होने का खतरा सताने लगता है।
   
कांग्रेस ने एक बाद एक चुनावी हार से तंग आ कर अपने वरिष्ठ और साफ सुथरी छवि के नेता ए के एंटोनी के नेतृत्व में एक कमैटी बनाई थी। इस कमैटी का काम उन कारणों को तलाशना था। जिनकी वजह से भाजपा का कांग्रेसमुक्त भारत का नारा लगातार फलीभूत होता जा रहा है। कभी देश के आध्ेा से अधिक राज्यों और चार दशक तक केंद्र में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस आज केवल कर्नाटक जैसे बड़े राज्य सहित मात्र गिनती के 6 प्रदेशों में सत्ता में रह गयी है। कमाल की बात यह है कि एंटोनी साहब ने कांग्रेस पर लगे भ्रष्टाचार के दाग को हटाने के लिये तो कोई ठोस योजना नहीं पेश की। अलबत्ता उसको एक बार फिर से सोफ्ट हिंदुवादी लाइन पर चलाने और मुस्लिम परस्ती का ठप्पा हटाने के लिये कुछ टिप्स पार्टी प्रेसीडेंट को दिये थे।
    
बताया जाता है कि उन टिप्स में एक यह भी था कि पार्टी की छवि हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक से छुटकारा पाया जाये। इसके लिये सबसे पहले पार्टी की तरफ से दी जाने वाली इफ़तार पार्टी से किनारा किया गया है। संघ परिवार ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि कोई भी मुसलमानों के लिये कुछ करेगा तो उस पर फौरन हिंदू विरोधी होने का ठप्पा चस्पा कर दिया जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं इसके साथ ही ऐसा प्रचार करने से भाजपा हिंदू समर्थक अपने आप ही हो जाती है। हमारा मानना भी यही है कि किसी भी सेकुलर पार्टी को मुसलमानों के नाम पर इफ़तार पार्टी जैसे तमाशे न करके उनको उदार विचार दिये जाने चाहियें।
   
मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि अगर वास्तव मंे सेकुलर नेता और पार्टियां मुसलमानों का भला करना चाहती हैं तो उनको इसके लिये मुसलमानों के लिये इफ़तार पार्टी जैसे नाटक और ढोंग करने की क्या ज़रूरत है? अगर देश में सबका विकास होगा तो मुसलमानों का विकास अपने आप ही हो जायेगा। साथ ही अगर विकास शिक्षा और रोज़गार का अधिक लाभ कोई उनका सच्चा हमदर्द सेकुलर लीडर मुसलमानों को देना चाहता है तो वह गरीबों के लिये थोक में भलाई की योजनायें चलाये तो अधिकांश मुसलमानों का भला खुद ब खुद हो जायेगा। क्योंकि मुसलमान आज मुल्क मंे सबसे गरीब है। लेकिन तब वोटबैंक का क्या होगा? 
 
वो तो लम्हा है चला जायेगा दस्तक देकर,
कम से कम सुन तो लो वो कहता क्या है।

Monday 20 June 2016

कैराना पलायन

कैराना: सभी का रुख़ गै़र ज़िम्मेदाराना....
इक़बाल हिन्दुस्तानी 
यूपी के शामली ज़िले के क़स्बे कैराना पर सभी दलों का रूख़ गैर ज़िम्मेदाराना माना जाना चाहिये। सबसे पहले इस मामले को चर्चा का विषय बनाने वाली भाजपा की बात करते हैं। यह सच होते हुए भी कि कैराना से लोगों का पलायन हुआ है। चाहे इसकी वजह बेरोज़गारी रही हो या नागरिक सुविधाओं का अभाव। यह भी सच है कि भाजपा ने इस मुद्दे को अपनी पुरानी रणनीति के अनुसार 2017 के असैंबली चुनाव के लिये अभी से हिंदू धु्रवीकरण का औज़ार बनाने की ठान ली है। उसको पता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 सीटें जीतने में मुज़फ्फरनगर का दंगा उसके बहुत काम आया था। उधर सेकुलर कहे जाने वाले दलों का इस मामले में जो अल्पसंख्यक परस्त और कानून व्यवस्था के मूल मुद्दे से आंखें चुराने वाला रूख़ है।
  
वह भी उल्टा असर दिखायेगा और भाजपा को अपना साम्प्रदायिक प्रचार तेज़ करने में और मदद करेगा। एक तरफ भाजपा चिल्ला चिल्ला कर हिंदुओं को बता रही है कि आप लोग गैर भाजपा दलोें के राज में सुरक्षित नहीं हो। इसका कारण वह सेकुलर दलों का मुस्लिम वोटबैंक बताती रही है। एक बार को हर किसी को यह बात सही लगेगी कि अगर हिंदू हिंदुस्तान में ही सुरक्षित नहीं है तो वह कहां सेफ रहेगा? भाजपा का सीधा सा गणित है कि हिंदू सेफ इसलिये नहीं है कि उसे मुसलमान से ख़तरा है। अब भाजपा ने एक मुस्लिम बहुल कस्बे में एक मुस्लिम बदमाश द्वारा किसी हिंदू नागरिक से रंगदारी मांगने और न देने पर उसकी हत्या करने की अपराधिक घटना को भी हिंदू मुस्लिम मुद्दा बड़ी आसानी से बना दिया है।
   
जहां हिंदू माओवादी यह काम हिंदुओं के साथ भाजपा के राज में करते हैं। वहां भाजपा को सांप सूंघ जाता है। भाजपा को लगता है कि अगर मुस्लिम कहीं बहुमत हैं तो वे अपने मुस्लिम बदमाश को भी सपोर्ट करते हैं। भाजपा ने कैराना की तुलना कश्मीर से हिंदू पंडितों के पलायन तक से ऐसे कर दी। मानो जहां मुसलमान बहुसंख्यक हो जायेगा वहां हिंदू को पलायन करना ही पड़ेगा। दरअसल भाजपा ने दो अलग अलग प्रॉब्लम को अपने चुनावी लाभ के लिये मिक्स कर दिया है। इसका नतीजा भी उसके मन माफिक आ रहा है। यूपी की सपा सरकार ने पहले तो कैराना से किसी के भी पलायन को झुठला दिया। यह भी भाजपा के पक्ष में गया।
  
इसके बाद कैराना से भाजपा सांसद हुकम सिंह के वो कारनामे गिनाये जिससे यह लगे कि वे अपनी व्यक्तिगत रंजिश की वजह से सपा सरकार पुलिस और प्रशासन को बदले की भावना से बदनाम कर रहे हैं। इससे हुकम सिंह कुछ दबाव में भी आये और वह इस मसले को हिंदू मुस्लिम न बताकर कानून व्यवस्था की नाकामी से जोड़ने लगे। हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई भी हो। लेकिन  पुलिस तो यह दावा करती है कि कैराना से कोई भी वहां के कुख्यात बदमाश मुकीम काला की वजह से कस्बा छोड़कर नहीं गया। बस यहीं से वह समस्या से आंखे चुराने लगती है। इससे पलायन करने वाले दो चार नहीं वहां रहने वाले लाखों हिंदुओं को भी यही लगेगा कि उसकी परेशानी को भाजपा ही हल कर सकती है।
  
सपा सरकार तो समस्या को ही स्वीकार नहीं कर रही तो वह इसका हल क्या करेगी? पुलिस ने बड़ी मासूम सफाई दी है कि मुकीम काला और उसके गैंग के 25 में से 24 लोग जेल में हैं। पुलिस का सवाल है कि वो और क्या कर सकती है? पलायन करने वाले या रंगदारी से तंग आ चुके लोगों का आरोप है कि पुलिस की मिलीभगत से काला जेल से ही अपने काले कारनामे अंजाम दे रहा है। लोगों का यह भी कहना है कि काला के गैंग में दो दर्जन नहीं सैंकड़ों बदमाश हैं। जो रंगदारी में एक हिस्सा दलाली के तौर पर मिलने पर उसका वसूली का धंधा चलाते हैं। जब कोई रंगदारी देने से मना करता है तो उसको सबक सिखाने के लिये काला गैंग के बाहर के शूटर भी इस्तेमाल करता है।
  
काला जेल से मोबाइल पर धमकी तक देता है। हमारी पुलिस कितनी सच्ची अच्छी और ईमानदार है। यह किसी से छिपा नहीं है। सबसे बड़ा सवाल अगर हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को यह लगता है कि यह सरकार अपने मुस्लिम वोटबैंक को बचाने के लिये उनकी सुरक्षा तक नहीं कर सकती बल्कि उनको परेशान करने वाले बदमाश से मिली हुयी है तो फिर भाजपा को यह दुष्प्रचार करने में क्या नुकसान है? क्योंकि उसके पास चुनाव जीतने को कोई विकास का मॉडल तो है नहीं।
 
हारेगा अभिमन्यु ही लाख सीख ले दांव,
कदम कदम पर बसे हैं चक्रव्यूह के गांव।

Saturday 11 June 2016

मुस्लिम लेडी

मुस्लिम लेडी अब पिटने को तैयार नहीं?

पाकिस्तान की सीआईआई यानी काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी की सिफारिश मुस्लिम महिलाओं ने मानने से दो टूक मना कर दिया है। सीआईआई की इस सिफारिश में कहा गया था कि औरत की थोड़ी पिटाई में कोई बुराई नहीं है। यह कौंसिल संसद को इस्लामी रोशनी मंे कानून बनाने के लिये सलाह देती है। सीआईआई की सिफारिश में कहा गया है। अगर औरत अपने पति का कहा न माने, उसके मुताबिक कपड़े न पहने और अगर सेक्स को मना करे तो उसकी पिटाई की जा सकती है। पाकिस्तान की महिलाओें ने इन सिफारिशों को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका साफ साफ कहना है कि उनको इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि ये सिफारिशें इस्लामी हैं या नहीं?
   
उनका तो बस इतना ऐलान है कि जो पति ऐसी हिमाकत करेगा। उसे इसकी कीमत चुकानी होगी। दो चार महिला एक्टिविस्ट ने तो बड़े साहसी और मज़ेदार कमेंट दिये हैं। उनका कहना है कि अगर उनके पति ने उनपर भूलकर भी हाथ उठाया तो वे अपने पति का हाथ तोड़ डालेंगी। उनका यह भी कहना है कि ऐसा करते समय उनको यह भी सोचने की ज़रूरत नहीं होगी कि इसका अंजाम क्या होगा? यानी वे तलाक और जेल जाने तक को तैयार हैं। लेकिन पति से पिटने का सवाल ही नहीं है। एक पाकिस्तानी महिला का कहना है कि अगर उनका पति उनको घर की चार दीवारी में मारेगा तो वे उसको हज़ारों लोगों की महफिल में मारेगी।
   
एक और बोल्ड महिला नेत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर उनपर कोई भी मर्द हाथ उठायेगा तो वह उसको हथौड़े से मारेगी। जब उनसे पूछा गया कि इससे तो मारने वाले मर्द की जान भी जा सकती है। तो उस महिला का बड़ा दिलचस्प जवाब था कि इसकी चिंता आप मत करो। जान जाने की चिंता तो उस मर्द को करनी है। जो महिला को पीटने की हिमाकत करेगा। जब संवाददाता ने उस बहादुर और मज़बूत विचारों वाली लेडी से यह पूछा कि सीआईआई ने पत्नियों की हल्की पिटाई के लिये कहा है। आप तो इसके बदले मर्द की जान ही लेने का इरादा जता रही हैं। तो उस लेडी का जवाब था कि आप जानबूझकर अंजान बन रहे हैं।
  
आपको यह पता होना चाहिये कि कोई भी मर्द एक थप्पड़ के बदले अपनी जान से हाथ नहीं धोना चाहेगा। इसका नतीजा यह होगा कि या तो वह औरत पर हाथ उठायेगा ही नहीं। और अगर वह फिर भी अपनी वहशत से बाज़ नहीं आया तो दो चार को जब इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी तो आगे से औरत पर हाथ उठाने से पहले सौ बार सोचा करेंगे। उस समझदार और इरादों की पक्की लेडी का दावा था कि कुछ पाने के लिये कुछ खोना तो पड़ता ही है। उसका मतलब यह था कि अगर पति मौलानाओं के दिखाये महिला विरोधी रास्ते पर चलते हैं तो उनकी जान बचाने की ज़िम्मेदारी भी मौलानाओं की  होगी।
  
प्रगतिशील और आत्मनिर्भर पाकिस्तानी महिलाओं का यहां तक कहना है कि अगर मर्दों को यह अधिकार इस्लाम ने दिया है कि वे औरतों की पिटाई कर सके तो औरत को भी अपना बचाव करने का अधिकार संविधान ने दिया है। उनका दो टूक कहना है कि दुनिया का ऐसा कोई नियम कानून वे नहीं मानेंगी। जिसमंे उनको औरत होने की वजह से पीटा जाये। पता नहीं हिंदुस्तान की औरतों ने पाकिस्तान की इन बहादुर और सक्षम औरतों के इतने बोल्ड बयान पढ़ें हैं या नहीं? लेकिन एक बात तय है कि अब पाकिस्तान हो या कोई और मुस्लिम मुल्क किसी भी वर्ग और धर्म की औरत अधिक समय तक अन्याय और अत्याचार सहन नहीं करेगी।
  
आज का सच तो यह है कि जो मौलाना ये दकियानूसी सिफारिश करे रहे हैं उनके अपने परिवार की औरतें भी ये फरमान नहीं मानेंगी।
 
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।

Thursday 9 June 2016

मथुरा कांड

मथुरा कांड: हंगामा है क्यों बरपा!


यूपी के मथुरा में स्थित रामबाग में जो कुछ हुआ। वह दुखद तो है लेकिन इसमें हंगामा या हैरत की क्या बात है? अगर यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा कि मथुरा उस रोग का एक मामूली लक्ष्ण मात्र है। जो हमारी राजनीति को घुन की तरह खा रहा है। सत्यग्रहियों का नेता रामवृक्ष जो यादव जाति का था। यूपी में सपा के नाम से यादवों की सरकार है। सबको पता है कि आज दलों की राजनीति जाति से भी चलती है।  इसलिये अगर रामवृक्ष को शिवपाल या रामगोपाल का कानून से बाहर जाकर वरदहस्थ मिला हो तो इसमें कोई नई बात तो नहीं है। सवाल यह है कि जो संघ परिवार खुद धर्म के नाम पर सियासत करता है। वो किस मुंह से इस मामले पर हायतौबा मचा रहा है।
   
मुझे गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बयान पर हंसी आ रही है। वो कह रहे हैं कि सपा सरकार उनसे मथुरा कांड की सीबीआई जांच की मांग करे। वाह भाई वाह यूपी सरकार अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे? वो भी ऐसे समय में जब चुनाव में एक साल भी नहीं बचा है। वो भी उस केंद्र सरकार से जो किसी भी गैर भाजपा सरकार को बहुमत होते हुए भी फूटी आंख नहीं देख पा रही। अभी उत्तराखंड का रावत सरकार गिराने का मामला बहुत पुराना नहीं हुआ। यह माना कि इस कांड में शासन और प्रशासन की सुस्त या जानबूझकर देरी से की गयी कार्यवाही में दो पुलिस अफसर और दो दर्जन से ज़्यादा सत्यग्रही जान से हाथ धो बैठै। मगर क्या इस घटना पर ही यूपी की अखिलेश सरकार से इस्तीफा मांगने का आधार बनता है?
   
अगर हां तो मोदी ने 2002 में हज़ारों लोगों के दंगों में मारे जाने पर भी इस्तीफा क्यों नहीं दिया था? वो भी तब जब उनपर दंगों में सरकारी शह देने का गंभीर आरोप तक लगा था। वो भी तब जब उनकी ही भाजपा की केंद्र सरकार के तत्कालीन पीएम वाजपेयी उनसे इस्तीफा लेना चाहते थे। इससे पहले हाल ही में हरियाणा में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनकारियों ने जो अराजकता फैलाई और भाजपा की खट्टर सरकार केवल वोटबैंक को बचाने के लिये गूंगी बहरी बनी रही तब उनसे इस्तीफा क्यों नहीं मांगा गया था? हम यह नहीं कहना चाहते कि यूपी सरकार ने जो किया वह ठीक किया। हम यह भी नहीं कहना चाहते कि जब और दलों की सरकारें भी ऐसा करती हैं तो केवल सपा सरकार ने ऐसा कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?
   
हम तो यह कहना चाहते हैं कि हमारे यहां सरकार चाहे जिस राज्य की हो चाहे जिस दल की हो और मामला चाहे जितना गंभीर हो। लेकिन कानून अपना काम नियम के हिसाब से करता कब है? पहले इस मामले की कमिश्नर से जांच का ऐलान हुआ। इसके बाद अलीगढ़ के मंडालयुक्त से जांच की घोषणा की गयी। इसके बाद जब सीबीआई जांच की मांग जोर पकड़ने लगी तो एक सदस्यीय न्यायिक जांच बैठा दी गयी। सबको पता है कि ऐसी जांचों का क्या अंजाम होता है? दरअसल हमारी सत्ता नहीं व्यवस्था बदले जाने की ज़रूरत है। लेकिन सब एक दूसरे पर कुछ इस तरह आरोप लगाते रहते हैं। मानो वे खुद तो दूध के ध्ुाले हों। जब थानेदारों ज़िलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों की नियुक्ति जाति के आधार पर खुलेआम मंत्री कर रहे हों।
   
वहां उस सिस्टम में कौन नियम कानून की बात सुनेगा? यही हुआ कि लोगों को सरकार से निराश होकर कोर्ट जाना पड़ा। कोर्ट का आदेश आ गया। लेकिन उस पर भी जब अमल नहीं हुआ और अदालत की मानहानि की तलवार लटक गयी। तब पुलिस प्रशासन मजबूर होकर आनन फानन में आधी अधूरी तैयारी के साथ रामबाग़ खाली कराने निकला। ऐसे में तो ऐसे ही होता है। ऐसे में हंगामा है क्यों बरपा?
 
आर्जु़ओं को घटाने में भला है दिल का
कम हो सरमाया तो नुक़सान भी कम होता है।
 
लेखक -इक़बाल हिंदुस्तानी

Saturday 4 June 2016

जेल में बन्द कौन ?

जेल में बंद अपनी आबादी से ज़्यादा कौन...

देश के 4,20,000 लोग जेलों में बंद हैं। 2013 की सरकारी रपट के मुताबिक इनमें से 68 प्रतिशत लोग विचाराधीन कै़दी हैं। गौर करने वाली बात यह है कि जेल में बंद कुल लोगों में से 22 प्रतिशत दलित 20 प्रतिशत मुसलमान और 11 प्रतिशत आदिवासी हैं। सोचने की बात यह है कि इन तीनों की कुल आबादी देश की जनसंख्या का 39 प्रतिशत है। लेकिन जेल में बंद इन तीनों वर्गों का अनुपात 53 प्रतिशत है। हालांकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि इनको धर्म या जाति की वजह से पूर्वाग्रह के आधार पर बिना किसी जुर्म के जेल में डाला गया होगा। लेकिन यह भी सच है कि ये तीनोें वर्ग आम तौर पर कमज़ोर और गरीब माने जाते हैं।
    
एक तथ्य और है। वह यह कि दलित और मुसलमानों के प्रति एक तरह का भेदभाव भी कभी कभी कहीं कहीं सरकारी मशीनरी की कार्यशैली में देखा जााता है। हमें लगता है कि इनकी आबादी से इनका अनुपात अधिक होने का सबसे कारण इनका अन्य वर्गों से गरीब व कमज़ोर होना ही अधिक है। एक पत्रकार के रूप में अकसर थाने रिपोर्टिंग के लिये जब हमारा जाना होता था। तब हमने देखा कि पुलिस कभी कभी अपना लक्ष्य पूरा करने के लिये फर्जी चालान भी करती है। इनमंे ज़ाहिर है कि वह ऐसे लोगों को अकसर निशाना बनाती है। जिनका कोई सिफारिशी या ज़मानत लेने वाला मुश्किल से ही मिलता है। अकेले पुलिस विभाग को इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराना तो गलत होगा।
   
लेकिन यह भी सच है कि पुलिस और प्रशासन के उच्च अधिकारी थानों को विभिन्न धाराओं में चालान का एक टार्गेट देने लगे हैं। एक अजीब बात यह भी देखने मंे आती है कि बजाये अपराधों पर नियंत्रण के एफआईआर पर नियंत्रण करने पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि जब वास्तव में अपराध होता है। और गंभीर अपराध होता है। तो अगर अपराधी अमीर और पहुंच वाला है तो उसके खिलाफ रपट तक दर्ज नहीं हो पाती। इतना ही नहीं अगर किसी दबाव या आंदोलन की वजह से आरोपी के खिलाफ रपट दर्ज हो भी जाये तो बाद में पुलिस जांच के नाम पर उस केस से गंभीर धारायें निकाल देती है। कई बार उल्टा रपट कराने वाले के खिलाफ फर्जी आरोपों में मुकदमा कायम कर दिया जाता है।
   
पुलिस जब किसी ताकतवर अपराधी से हमसाज़ हो जाती है। तो वह रपट से लेकर जांच और चार्जशीट तक में देरी हेराफेरी गवाहों को डराना धमकाना और केस के तथ्यों से छेड़छाड़ से भी बाज़ नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि ये सब धनवान बड़े पद और बड़ी सिफारिश पर अकसर होता है। इसका दूसरा दुखद पहलू यह है कि जिन कमज़ोर और गरीब लोगों पर फर्जी आरोप और झूठे मुकदमें कायम हो जाते हैं। उनकी कोई मदद करने को आगे नहीं आता है। साथ ही आजकल कोर्ट में केस की पैरवी करना भी गरीब आदमी के बस की बात नहीं रह गयी है। कई बार तो यहां तक देखने में आता है कि जिस आदमी को फर्जी मामले में जेल भेजा गया है।
    
उसके परिवार को सालों तक यही पता नहीं लगता कि उनका आदमी कहां गायब हो गया? उसके बाद अगर वे जैसे तैसे कर्ज लेकर या अपना घरेलू सामान गृवीं रखकर अपने आदमी की पैरवी करते हैं तो उसको ज़मानत मिल जाती है। अब ज़मानत मिलने के बाद भी समस्या बनी रहती है। आजकल ज़मानत कराने में इतनी भारी रकम लगने लगी है कि उसका इंतज़ाम भी गरीब आदमी नहीं कर पाता। उधर जेल में बंद होने से उसका काम धंधा चौपट हो जाता है। उसकी और परिवार की बदनामी जो होती है सो अलग है। कहने का मतलब यह है कि आजकल कोर्ट में न्याय मिलने में ही देरी नहीं गरीब को इंसाफ मिलना ही मुश्किल है।
 
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।

Thursday 2 June 2016

भूख से मौत.....

वाह सरकार! भूख नहीं हार्ट अटैक से मौत?

यूपी के बंुदेलखंड क्षेत्र बांदा का एक मज़दूर भूख से मर गया। सरकार का दावा है कि वह भूख नहीं हार्टअटैक से मरा है। ख़बर है कि वह चार दिन से भूखा था। जब भूख उसकी सहनसीमा से बाहर हो गयी तो वह सरकारी राहत लेने के लिये घर से निकला था। बताया जाता है कि रास्ते में उसने ख़ाली पेट धूप से बढ़ी प्यास को बुझाने के लिये पानी पिया। इसके फौरन बाद उसने वहीं दम तोड़ दिया। अजीब बात यह है कि एक तरफ प्रशासन ने शासन को यह झूठी रिपोर्ट भेजी कि उस मज़दूर की मौत भूख से नहीं दिल का दौरा पड़ने से हुयी। दूसरी तरफ प्रशासन द्वारा तत्काल उसके घर अनाज भी भेजा गया है। सवाल यह है कि जब मज़दूर भूखा था ही नहीं तो उसके घर राशन भेजने की ज़रूरत क्यों पेश आई?
   
आंकड़े यह भी बताते हैं कि उसी दिन बुंदेलखंड के तीन और किसानों ने जान दे दी। यह भी सच है कि सरकार ने इस इलाके़ में कुछ राहत प्रोग्राम शुरू किये हैं। साथ ही राहत कार्यों की निगरानी के लिये बड़े अफसरों को जवाबदेह बनाया गया है। गरीब और बेरोज़गार लोगों को रोज़गार देने के लिये इस क्षेत्र में मनरेगा योजना का धन भी बढ़ाया गया है। इसके बावजूद हालात लगभग जस के तस बने हुए हैं। भूख से मौत होने और उसको सरकार द्वारा झुठलाने का मामला नया नहीं है। वो तो भला हो मीडिया का जो समय समय पर आज के इस घोर स्वार्थी और अनैतिकता के दौर में भी समाज व सरकार को आईना दिखाता रहता है। कई बार कुछ सरकारें अपने चेहरे के दाग़ साफ करने की बजाये उल्टा मीडिया के ही पीछे पड़ जाती हैं।
    
उनका दावा होता है कि सरकार को विपक्ष के इशारे पर बदनाम किया जा रहा है। मज़ेदार बात यह है कि यही विपक्ष जब कालांतर में सत्ता में आ जाता है। तो बिल्कुल ऐसा ही आरोप यह भी सत्ताधारी दल बनकर अख़बार और टीवी चैनल पर लगाता है। राजनीतिक दलों का यह दोहरापन अकेले मीडिया को लेकर नहीं है। वह अकसर पुलिस पर भी सरकार के इशारे पर विरोधियों को कुचलने और उसकी आवाज़ दबाने का आरोप लगाता है। लेकिन जैसे ही वह खुद सरकार बन जाता है। वह अपने ही आरोपों को भूलकर वही सब करने लगता है जो गलत करने का आरोप वह सत्ता में रहते दूसरे दलों पर लगाता था। सच तो यह है कि जो पूंजीवादी नीतियां हमारी सभी सरकारों ने अपना रखी हैं। उनसे समाज में गैर बराबरी बढ़ रही है।
    
खुद सरकार के जारी किये आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। इसका नतीजा यह है कि धन और पूंजी चंद हाथों में सीमित होती जा रही है। जाहिर है ऐसा होने से बेरोज़गारी और भुखमरी बढ़नी ही थी। अब समय आ गया है जब इस बात की जांच पड़ताल की जाये कि अगर देश के लिये समाजवादी व वामपंथी नीतियां कारगर नहीं थी तो क्या वर्तमान उदारवादी और पंूजीवादी नीतियां कारामद साबित हो रही हैं? पनामा पेपर्स बता रहे हैं कि धनवान पंूजीपति उद्योगपति व कई पेशेवर बड़े लोग देश में कमाया पैसा देश में निवेश न कर टैक्स चुराने के लिये विदेशों में ले जा कर छिपा रहे हैं। ऐसा करने से देश को दोहरा नुकसान हो रहा है। एक तो कर बचाकर सरकार को राजस्व का चूना लगाया जा रहा है।
    
दूसरे पूंजीवाद की ट्रिकल डाउन की थ्योरी को झुठलाया जा रहा है। एक बात और अगर कोई आदमी कर्ज में डूबा है। कोई आदमी बेरोज़गार है। कोई आदमी असाध््य रोग से पीड़ित है। और कोई भूख से मरने के कगार पर है। सरकार तब तक उसकी कोई ठोस सहायता नहीं करती जब तक वह मौत को गले नहीं लगा लेता है। सरकारी मशीनरी का भी यही हाल है कि वह रिश्वत और कमीशन में इस क़दर डूब चुकी है कि कोई मरे या बचे उसकी बला से। यहां दुष्यंत कुमार का यह शेर याद आता है-
 
रोटी नहीं तो क्या हुआ ज़रा सब्र तो करो,
आजकल दिल्ली में जे़रे बहस है यह मुद्दा।।