Friday 26 October 2018

संघ की चिंता

संघ को मंदिर नहीं वोटबैंक की चिंता ?

0 विजयदशमी के अवसर पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर बनाने के लिये मोदी सरकार से कानून बनाने की मांग की है। इससे पहले भागवत सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कुछ भी होने पर हर हाल में मंदिर विवादित स्थान पर बनाने की बात भी कह चुके हैं। सवाल यह है कि संघ को ठीक चुनाव के समय ही मंदिर बनाने की याद क्यों आती है? इसका जवाब है कि उनको मंदिर नहीं कट्टर हिंदू वोटबैंक की चिंता सता रही है।
आरएसएस को एक बार फिर मंदिर बनाने की याद आ गयी है। इसके लिये संघ प्रमुख ने मोदी सरकार से कानून बनाने की मांग काफी सोच समझकर आम चुनाव करीब आते देख कर की है। संघ को लग रहा है कि 2014 की तरह मोदी का सबका साथ सबका विकास का नारा 2019 में चुनाव जीतने के लिये काम नहीं करेगा। संघ को यह भी पता है कि मोदी सरकार ने चुनाव जीतने के लिये जितने भी बड़े बड़े वादे किये थे। उनमें से अधिकांश न तो पूरे हुए हैं और न ही चुनाव में शेष बचे 5 माह में पूरे होने के दूर दूर तक कोई आसार हैं।
भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री निति गडकरी तो सार्वजनिक रूप से यह मान भी चुके हैं कि अगर वे ऐसे बड़े बड़े असंभव वादे नहीं करते तो उनका सत्ता में आना लगभग असंभव ही था। लेकिन सवाल यह है कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ा करती क्या भाजपा को यह नहीं पता है? संघ शायद उन कट्टर हिंदुओं की अज्ञानता धार्मिक आस्था और साम्प्रदायिकता का सियासी लाभ उठाना चाहता है। जिनको यह नहीं पता कि कानून बनाकर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ नहीं किया जा सकता। हमारा संविधान इस बात की इजाज़त सरकार को नहीं देता कि वह बाबरी मस्जिद की विवादित जगह पर राम मंदिर बनाने को कानून बना सके।
सबको पता है कि इस तरह का कोई विधेयक संसद में आते ही विपक्ष भारी हंगामा खड़ा करेगा। इसके बाद लोकसभा से अगर भाजपा अपने बहुमत के बल पर राम मंदिर गैर संवैधानिक रूप से बनाने का विधेयक पास भी कर दे तो यह राज्यसभा में जाकर अटक जायेगा। हो सकता है कि संघ परिवार की यही चुनावी रण्नीति हो कि वह विपक्ष को राम मंदिर विरोधी ठहराकर अपना हिंदू वोट बैंक बचाने की एक और नाकाम कोशिश करे। दरअसल संघ जानता है कि वह ऐसा कोई संविधान विरोधी कानून मोदी सरकार से पास ही नहीं करा पायेगा।
वह यह भी जानता है कि जो राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। उस पर सरकार चाहकर भी कोई कानून नहीं बना सकती। संघ को यह भी पता है कि अगर ऐसा कोई कानून दोनों सदनों से अपवाद स्वरूप पास भी हो जाता है तो उसको तत्काल कोर्ट में चुनौती दी जायेगी। अगर सरकार इस मामले मेें कानून सदन से पास न होने की संभावना को भांपकर अध्यादेश का सहारा भी लेती है तो वह भी कोर्ट में नहीं टिक सकेगा। हमारा संविधान धर्मनिर्पेक्ष, जनतांत्रिक और सभी वर्गों के समान अधिकार की गारंटी देता है।
इसीलिये उसमें सभी नागरिकों को समानता गरिमा और बराबर धार्मिक आज़ादी के साथ सम्मानपूर्वक जीने का बराबर अधिकार भी दिया गया है। इसलिये ऐसा कानून कोर्ट में तुरंत निरस्त हो जायेगा। जिसमें एक वर्ग के धार्मिक स्थल को अवैध रूप से तोड़कर उसमें आस्था के नाम पर रामलला की मूर्ति स्वयं प्रकट होने का दावा कर जबरन राममंदिर बनाने की ज़िद की गयी होगी। कोर्ट जानता है कि संघ केवल हिंदू वोटबैंक बनाये रखने और इस बहाने सत्ता में लंबे समय तक बने रहने की सुचिंतित योजना पर लगातार काम कर रहा है। संघ परिवार यह भी जानता है कि वह चाहे आस्था और हिंदू संस्कृति व सभ्यता की जितनी दुहाई दे।
राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट कानून के आधार पर ही निर्णय देगा। यह बात सर्वोच्च न्यायालय इस विवाद की निरंतर सुनवाई चालू करने से पहले ही साफ कर चुका है। हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट इस मामले में कानून की सीमा से बाहर जाकर इस विशेष और संवेदनशील मामले को सर्वमान्य तरीके से सुलझाने के लिये विवादित भूमि के तीन हिस्से करने का फैसला दे चुका है। लेकिन उससे कोई भी पक्ष चूंकि संतुष्ट नहीं हो सका था।
इसलिये यह मामला सबसे बड़ी अदालत में सुनवाई के लिये गया है। इस दौरान संघ परिवार ने विवादित स्थान पर आधुनिक तकनीक से बहुत गहरे तक खुदाई के दौरान ऐसे अवशेष मिलने का दावा भी जोरशोर से किया था। जिससे यह साबित किया जा सके कि 400 साल पहले यहां मस्जिद बनने से पहले राम मंदिर ही था। संघ ने अपने इस दावे को पुख्ता करने के लिये कई विवादित इतिहासकारों की किताबों का भी सहारा लिया है। लेकिन उसकी कोई भी चाल सुप्रीम कोर्ट को अपना निर्णय मैरिट यानी विवादित ज़मीन के दस्तावेज़ों के अलावा और किसी आधार पर फैसला देने को अभी तक भी तैयार नहीं कर सकी है।
29 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट इस मामले में लगातार यानी दैनिक आधार पर सुनवाई करने जा रहा है। ज़ाहिर है कि संघ को कोर्ट का फैसला आने से पहले ही यह डर सता रहा है कि अगर वह निर्णय मंदिर के पक्ष में नहीं आया और मोदी सरकार इसके लिये कानून बनाकर मंदिर बनाने की तैयारी करती नज़र नहीं आई तो वह विकास रोज़गार और कालाधन करप्शन रोकने में नाकाम होने के साथ अपने परंपरागत कट्टर हिंदू वोटबैंक को क्या जवाब देगा? जीएसटी और नोटबंदी जैसे बेतुके फैसलों से व्यापारी उससे पहले ही बुरी तरह ख़फ़ा हो चुका है।
किसान आत्महत्या से लेकर महंगी पढ़ाई व सबरी माला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का खुला विरोध और मंदिर के लिये संविधान की मूल भावाना का उल्लंघन कर संघ की इस सारी कवायद से एक बार फिर यह साबित हो रहा है कि उसको संविधान और कानून में भरोसा नहीं है। संघ की मंदिर की सियासत पर जॉन एलिया का एक शेर याद आ रहा है-
0 हम वो हैं जो खुदा को भूल गये,
तुम मेरी जान किस गुमान में हो ।

Saturday 20 October 2018

मी टू का असर

मी टू का असर तो दिखने लगा है !

मी टू का मतलब होता है मैं भी। अक्तूबर2017 में हॉलीवुड के जाने माने प्रोड्यूसर हार्वे वींस्टीन के खिलाफ कई महिला कलाकारों ने पहली बार यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इसके बाद मी टू एक अभियान बन गया। भारत मंे पहली बार अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर के खिलाफ सेक्सुअल हरैसमेंट के आरोप लगाये। इसके बाद हर क्षेत्र में ऐसे ही और ढेर सारे केस सामने आये।    

एक साल पहले विदेश में रह रही एक भारतीय महिला ने कुछ बुद्धिजीवियों और शिक्षा जगत से जुड़ी जानी मानी हस्तियों के खिलाफ एक लिस्ट जारी की थी। इस सूची में उन लोगों के नाम थे जिनपर अपनी सहकर्मियों और शोधार्थियों के साथ गलत व्यवहार करने का आरोप था। इस सूची के जारी होने के बाद एक आरोपी की सेवा समाप्त कर दी गयी थी। उस लिस्ट में दिये गये आरोपियों के खिलाफ जो महिलायें कार्यवाही की मांग कर रही थीं। जब उनको कुछ ठोस होता नज़र नहीं आया तो उस समय तो वे खामोश हो गयीं। इसके बाद उन्होंने अपनी बात कहने को सोशल मीडिया का सहारा लेकर मी टू अभियान को धार देनी शुरू कर दी।

मी टू अभियान की आंच भारत सरकार के विदेश राज्य मंत्री और वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर तक आ पहुंची है। उन पर अब तक सबसे अधिक यानी लगभग एक दर्जन महिला पत्रकार सहकर्मियाों ने अनुचित व्यवहार के आरोप लगाये हैं। हालांकि इन आरोपों को झुठलाते हुए वे 97 वकीलों की भारी भरकम फौज के साथ मानहानि का दावा करने कोर्ट जा पहुुंचे हैं। हो सकता है कि आरोप लगाने वाली पत्रकार अदालत में केस हार भी जायें। लेकिन यह साफ है कि वे अपने मकसद मेें फिलहाल कामयाब होती नज़र आ रही हैं। हो सकता है अकबर की मंत्री की कुर्सी चाहे बच जाये लेकिन उनकी पाक साफ नज़र आने वाली चमकदार छवि तार तार हो चुकी है।

जो कोर्ट के किसी भी फैसले से समाज में अब पहले की तरह निष्कलंक नहीं रह पायेगी। मी टू की लिस्ट पर गौर करें तो टेरी के पूर्व प्रमुख आर के चौधरी से लेकर तहलका डॉटकॉम के संपादक तरूण तेजपाल के खिलाफ भी अपनी सहयोगियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के केस चल रहे हैं। फास्ट ट्रेक कोर्ट  में चलने के बावजूद इस मामले की सुनवाई चलते हुए पांच साल से अधिक बीत चुके हैं। इतनी देर होने और न्याय मिलने में तरह तरह के दबाव मजबूरियां और सामाजिक व कानूनी दिक्कतें आने से पीड़ितों को सोशल मीडिया का मी टू अभियान अपनी ओर आकृषित कर रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि मी टू के आरोपों को सब आरोपी झुठला ही रहे हों। टीवी कलाकार और तारा सीरियल की लेखिका विंता नंदा ने जब पहली बार आलोकनाथ पर रेप का आरोप लगाया तो नाथ ने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया कि हां उनके साथ रेप ज़रूर हुआ था लेकिन मैंने नहीं किया। बाद में नाथ ने कहा कि अभी वे इस आरोप का न समर्थन कर रहे हैं और न ही विरोध। नाथ पर तारा सीरियल के सैट पर ही1993 में इस धरावाहिक की नायिका नवनीत निशांत से बदसलूकी का आरोप भी लगा था। इसके बाद नाथ को इस सीरियल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था।

एक और अभिनेत्री ने उन पर शराब पीकर पकड़ लेने और दूसरी ने उसके सामने ही कॉस्ट्यूम कमरे में मंगाकर बदलने के लिये नंगा हो जाने के शर्मनाक आरोप भी लगाये थे। इससे पता चलता है कि नाथ इतने सीधे सच्चे भी नहीं है। जितना वो धारावाहिकों के रूल में संस्कारी दिखते रहे हैं। इसके बरअक्स जाने माने लेखक चेतन भगत और अभिनेता रजत कपूर ने सीधे सीधे आरोप लगने पर बिना शर्त माफी मांगकर अपने अंदर बची नैतिकता का परिचय दिया है। हिंदुस्तान टाइम्स के ब्यूरो चीफ प्रशांत झा को एक महिला पत्रकार के ऐसे ही आरोपों के बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा है।

एनडीटीवी के दो लोगों पर भी एक महिला पत्रकार के आरोपों की जांच चल रही है। इस चैनल ने इस कड़वे सच को खुद ही सार्वजनिक भी किया है। अगर आप याद करें तो अभिनेता जितेंद्र की फुफेरी बहन ने भी उन पर कई दशक पहले यौन शोषण का आरोप लगाया था। लेकिन कानूनी दांव पेंच के ज़रिये वे कोर्ट में यह कहकर बच गये कि लिमिटेशन एक्ट के तहत तीन साल के बाद ऐसे आरोप आरोपी को सज़ा से बचने का पूरा मौका देते हैं। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि उन्होंने ऐसा किया ही नहीं था। लेखिका प्रभा खेतान ने अपनी किताब ‘अन्या से अनन्या’ में लिखा था कि किशोर अवस्था में उनके साथ परिवार के ही एक सदस्य ने रेप किया था।

वापस हम अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर पर लगाये गये आरोपों पर लौटें तो उनका दो टूक कहना है कि उन्होंने उस समय भी सिने एसोसियेशन से शिकायत की थी। लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गयी। उनका यह भी कहना है कि पुलिस ने भी उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया। कोर्ट में चल रहे सेक्सुअल हरैसमेंट के अन्य मामलों की कछुवा चाल महंगे कानूनी खर्च और पुरूष प्रधान समाज के दबाव को देखकर यह माना जा सकता है कि हमारा सिस्टम महिलाओं के साथ समानता मानवता और नैतिकता के उच्च मानदंडों पर खरा नहीं उतरता। मी टू अभियन में कुछ महिलायें फर्जी और झूठे आरोप भी लगा रही होंगी।

लेकिन ऐसा हर कानून और हर क्षेत्र में होता रहा है। इसलिये इस अपवाद और प्रति आरोप पर फिलहाल हम चर्चा नहीं करेेंगे। लेकिन एक बात उन सब मनचले और बेकाबू सैक्सी मर्दों को साफ साफ समझ लेनी चाहिये कि दो तीन दशक पूर्व उनकी जो मनमानी जोर जबरदस्ती महिलाओं के साथ सहज और खामोश स्वीकार्य थी। आज वो सब पहले की तरह बे रोकटोक नहीं चलेगा। साथ ही आज अगर वे महिलाओं के साथ कुछ भी अवांछनीय और असहनीय सैक्स हरकत करते भी हैं और पीड़ित महिला खामोश रह भी जाती है तो कल उनकी पोल वो ज़रूर खोल सकती हैं। सरकार कोर्ट और समाज चाहे जो करे लेकिन मी टू से महिलाओं को एक सुरक्षा कवच और आरोपी पुरूषों को डर ज़रूर लगने लगेगा।

नज़र बचाके गुज़र सकते हो तो गुज़र जाओ,
  मैं एक आईना हूं मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।।         

पुलिस और कानून

पुलिस खुद ही कानून तोड़ रही है?

मॉब लिंचिंग सहित ऐसे अनेक मामले आये दिन सामने आते हैं जिनमें या तो पुलिस कानून हाथ में लेने वालों का खामोश रहकर साथ देती नज़र आती है, या फिर वो कहीं कहीं अति उत्साह में अपने सत्ताधारी आक़ाओें को खुश करने के लिये गैर कानूनी कामों मंे खुद शरीक हो जाती है। आख़िर पुलिस संविधान विरोधी काम क्यों करती है?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
यूपी के बिजनौर ज़िले के कोतवाली देहान थाने में पुलिस एक आदमी को पकड़ कर लाती है। आरोप है कि उसने अपनी प्रेमिका को धोखा दिया है। वह आदमी शादीशुदा है। वह आदमी मुसलमान है। पुलिस उसपर दबाव बनाती है कि या तो वह अपनी प्रेमिका को समझाये नहीं तो उसकी शिकायत पर केस दर्ज कर उसको जेल भेजा जायेगा। यहां तक मामला कानून के दायरे में नज़र आता है। उसकी प्रेमिका उस आदमी से हर हाल में शादी पर अड़ जाती है। पुलिस उस आदमी से उसकी पहली पत्नी को थाने में ही तलाक तलाक तलाक कहलवाकर उसकी प्रेमिका से थाने में ही मुल्ला जी को बुलवाकर निकाह करा देती है।
पुलिस को पता होना चाहिये था कि तीन बार तलाक बोलकर अपनी पत्नी को छोड़ने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट रोक लगा चुका है। साथ ही केंद्र सरकार इसके खिलाफ संसद से विध्ेायक भी पास कर चुकी है। जो राज्यसभा से पास न होने पर केंद्र सरकार अध््यादेश जारी कर चुकी है। लेकिन पुलिस को तो अपनी जेब गर्म करने और अपने आकाओं को खुश करने के अलावा कुछ पता ही नहीं है। जब मीडिया में इस मामले की चर्चा जोरशोर से होने लगी तो एसपी ने जांच शुरू कराई। जो काम पुलिस ने कराया था। उसके लिये उस प्रेमी और उसके परिवार के खिलाफ आनन फानन में मुकदमा कायम किया गया।
लेकिन आरोपी पुलिस वालों के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गयी। दूसरा मामला मेरठ का है। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट, सराकर और संघ कहता है कि उनकी पूरी आस्था संविधान मेें है। दूसरी तरफ एक मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की को पढ़ाई के बारे में एक साथ मिलने पर विश्व हिंदू परिषद के लोग मिलकर जमकर पुलिस की मौजूदगी मेें पीटते हैं। इतना ही नहीं खुद 100 नंबर वैन में पुलिस उस हिंदू लड़की को पीटती है। उसका चेहरा भी खोलकर उसकी पहचान सार्वजनिक की जाती है। उसको पीटते हुए और गालियां देते हुए पुलिस वाले उसकी वीडियो भी बनाते हैं।
उस वीडियो को सोशल मीडिया पर भी पोस्ट कर दिया जाता है। शायद सोशल मीडिया पर थोड़ी हायतौबा मचाकर मानवतावादी और सेकुलर वर्ग चुप्पी साध जाता। लेकिन इस वीडियो पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की नज़र पड़ जाने से उन्होंने ट्विटर पर ही यूपी पुलिस को मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का डर दिखाया तो पुलिस हरकत में आ गयी। सीधे डीजीपी से लेकर एसएसपी तक ने मामले से पुलिस को बचाकर उन तीन दर्जन विहिप कार्यकर्ताओं के खिलाफ केस दर्ज कर लिया। जो खुद पुलिस की शह पर ही कानून हाथ में ले रहे थे।
हालांकि पुलिस का दावा है कि दोषी पाये जाने पर आरोपी पुलिस वालों पर भी कानूनी कार्यवाही की जायेगी। लेकिन सबको पता है कि पुलिस के खिलाफ गवाह और सबूत जुटाना और उनको कोर्ट में बयान देने के लिये अपनी बात पर टिकाना कितना मुश्किल होता है। कुछ दिन बाद ये मामला रफा दफा कर दिया जायेगा। सवाल यह है कि पुलिस ऐसी क्यों है? जो पुलिस कानून का राज कायम करने के लिये है। वह करप्ट सत्ताधारियों के हाथ का खिलौना क्यों बन जाती है? जिस पुलिस को संविधान के हिसाब से जनता की सेवा करने को भर्ती किया गया है।
जिस पुलिस को जनता के खून पसीने की कमाई से दिये गये टैक्स से धन से वेतन मिलता है। जिस पुलिस को भर्ती करते समय कानून संविधान और निष्पक्षता से अपना काम करने की कसम खिालाई जाती है। वह पुलिस लव जेहाद या मॉब लिंचिंग के गैर कानूनी मामलों में कानून हाथ में लेकर प्रेमी प्रेमिकाओं को उनका धर्म अलग अलग होने की वजह से सत्ताधारी दल के दबंगों के हाथों पीटे जाने या जान से मार दिये जाने पर चुप्पी क्यों साध जाती है? गोरक्षकों के तो कई मामलों में खुद पुलिस पर पीड़ित को यातनायें देने इलाज में देरी करने या जानबूझकर उल्टा आरोपियों को बचाकर पीड़ित के खिलाफ झूठा केस दर्ज करने के आरोप भी सामने आये हैं।
हालांकि सेकुलर दलोें के राज में भी पुलिस सरकार में बैठे सत्ताधारियों के हिसाब से मामलों को कानून की सीमा से बाहर जाकर उल्टा पुल्टा करती रही है। लेकिन आज बिना संविधान खत्म किये बिना उसे बदले और उस पर अमल की कसम खाकर भी सत्ताधारी और पुलिस जिस तरह से संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। ये सब अराजकता हमारे मुल्क के लिये अच्छी नहीं है। सरकार चाहे किसी की भी हो पुलिस व एडमिनिस्ट्रेषन हर हाल में निष्पक्ष रहना चाहिये। वर्ना वह दिन दूर नहीं जब जनता में सरकार और पुलिस की बची खुची छवि भी खत्म हो सकती है।
0 सोचा था कि जाकर उससे फ़रियाद करेंग,
कमबख़्त वह भी उसका चाहने वाला निकला।

Friday 19 October 2018

क्या सच में बदल रहा है आरएसएस?

दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘भविष्य के भारत’ पर विचार रखते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो कुछ कहा वो उनके विरोधियों के लिये ही नहीं बल्कि अब तक चली आ रही भाजपा की रणनीति के लिये भी नया है। सवाल यह है कि क्या संघ की कथनी की तरह करनी पर भी इसका कोई बदलाव नज़र आयेगा या ये सब मोदी सरकार की नाकामियोें से पार पाने को सुनियोजित चुनावी रणनीति है?

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज देश में सबसे शक्तिशाली संगठन है। उसकी 57 हज़ार यूनिट में प्रतिदिन 15 से 20 लाख लोग एकत्र होते हैं। उसके 36 से अधिक प्रकोष्ठ हैं। आप उसे पसंद करें या नापसंद लेकिन उसके वजूद से इनकार नहीं कर सकते। हालांकि संघ को उसके विरोधी साम्प्रदायिक और कट्टर फासिस्ट संस्था मानते हैं। लगभग सारे ही विपक्षी दल उससे दूरी बनाकर रखते हैं। संघ अब तक जो कुछ कहता रहा है। इस बार उससे कुछ अलग हटकर उसने संविधान और तिरंगे झंडे को सर्वोच्च बताया है।
संघ ने मुसलमानों को भी हिंदूराष्ट्र के अस्तित्व के लिये ज़रूरी माना है। इसका मतलब यह भी समझा जा सकता है कि जब मुसलमानों को विरोधी और आतंकी बनाकर नहीं डराया जायेगा तब तक हिंदू एक होकर भाजपा को सपोर्ट नहीं कर सकता। संघ ने आज़ादी के आंदोलन मेें कांग्रेस सहित विभिन्न गैर हिंदूवादी विचारधाराओं का भी योगदान स्वीकार किया है। उसने आरक्षण को भी जातीय भेदभाव ख़त्म होने तक जारी रखने की ज़रूरत बताई है। हालांकि संघ ने समलैंगिकता तक को मान्यता दे दी है। लेकिन कश्मीर की धारा 370, 35 ए और हिंदू राष्ट्र के अपने दूरगामी मकसद को अभी भी नहीं छिपाया है।
राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यकरण करके देश को हर हाल में हिंदूराष्ट्र बनाने का उसका मिशन जारी रहेगा। संघ ने अपने इस संवाद में विपक्षी दलों को सवाल और शंकाएं दूर करने के लिये आमंत्रित किया था। लेकिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के संघ के प्रोग्राम में जाने को लेकन पिछले साल हुयी आलोचना से कोई भी सेकुलर नेता संघ के सम्मेलन में शरीक नहीं हुआ। हालांकि यह एक तरह से वैचारिक छुआछूत ही है। अगर हम अपने विरोधी देश से अपने तमाम सैनिकों के बलिदान के बाद भी बात कर सकते हैं तो संघ से भी एक न दिन उसके विरोधियों को बात करके ही मानसिक और तार्किक स्तर पर उसको मात देनी होगी।
हालांकि संघ ने जो कुछ कहा है उसके पीछे उसकी यह रण्नीति हो सकती है कि कैसे कट्टर हिंदुओं के साथ ही उन उदार और सेकुलर हिंदुओं को भी अपने साथ जोड़ा जाये जो उसकी साम्प्रदायिक कट्टर और संकीर्ण नीतियों की वजह से उससे आज तक दूरी बनाकर चल रहा है। संघ के सामने आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका राजनीतिक प्रकोष्ठ भाजपा अपने पूर्ण बहुमत से सत्ता में है। भाजपा की देश के आधे से अधिक राज्यों में भी पहली बार सरकारें बन चुकी हैं। भाजपा का ही स्पीकर प्रेसीडेंट और वाइस प्रेसीडेंट भी है। फिर भी भाजपा की मोदी सरकार जनता की समस्याओं का कोई हल नहीं तलाश कर सकी है।
यहां तक कि राम मंदिर समान नागरिक संहिता और कश्मीर की धारा 370 तक हटाने में मोदी सरकार नाकाम रही है। कालाधन बेरोज़गारी भ्रष्टाचार बैंको का एनपीए विदेश नीति पाकिस्तान कश्मीर हिंसा माओवाद नोटबंदी जीएसटी गिरता रूपया बढ़ता तेल एलपीजी किसान आत्महत्या रेलवे एयर इंडिया और सरकारी स्कूलों व अस्पतालों की खस्ताहाली यहां तक कि थाने और तहसील से लेकर आयकर व बिक्रीकर कार्यालयों की लालफीताशाही रिश्वतखोरी व मनमानी में कोई अंतर नहीं आया है। जहां तक भाजपा द्वारा हिंदूवादी नीतियां लागू कर देश को हिंदू राष्ट्र बनाना था।
दूसरी तरफ दलित एक्ट, संविधान और आरक्षण को खत्म न कर पाने से उल्टा सुप्रीम कोर्ट का सवर्णों के पक्ष में आया फैसला पलट देने से उससे दलित तो खुश होेकर वोट देगा नहीं लेकिन यह संभावना ज़रूर बन रही है कि सवर्ण कांग्रेस की तरह उससे भी मोहभंग होने से 2019 के चुनाव में या तो उसके खिलाफ वोट करेंगे या फिर नोटा पर मतदान करेंगे नहीं तो किसी को भी वोट न देकर चुपचाप अपने घर बैठेंगे।
संघ को यह डर सता रहा है कि 2004 में तो वाजपेयी की गठबंधन सरकार हारने पर दो बार यूपीए की सरकार बनने से वह यह कहकर बच निकला था कि एनडीए सरकार दो दर्जन घटकों की सरकार थी। जिससे वे अपने हिंदुत्व के वादे पूरे नहीं कर सके। लेकिन आज जब भाजपा की 282 सांसदों की अपनी बहुमत की सरकार है। जिसमें संघ का एक आज्ञाकरी स्वयंसेवक पीएम बना हुआ है। आज तक वाजपेयी सरकार के दौर की तरह यह चर्चा कभी जनता के बीच नहीं आई कि मोदी ने संघ की कोई बात मानने से मना किया हो। कहने का मतलब यह है कि वर्तमान मोदी सरकार एक तरह से पूरी तरह से संघ की ही सरकार है।
सरकार और वो भी पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनने से पहले संघ यह दावा किया करता था कि अगर कभी भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी तो वह देश की कायकल्प कर सकता है। लेकिन आज हकीकत सबके सामने आ गयी है। राफेल घोटाले से लेकर नोटबंदी घोटाले तक और निचले स्तर पर प्रशासन का करप्शन बदस्तूर न केवल जारी है। बल्कि पहले से भी अधिक बेशर्मी और खुलेआम चालू है। ऐसे में संघ खुद में बदलाव दिखाकर कांग्रेस की तरह तमाम कमियों और बुराइयों के बावजूद अपनी सरकार के प्रति विरोधियोें का गुस्सा व नफरत कम कर यथास्थिति की सरकार लंबे समय तक चलाने का सपना देख रहा है।
लेकिन हमें नहीं लगता कि संघ की कथनी करनी एक हो सकती है? या संघ अपनी साम्प्रदायिक व कट्टर हिंदूवादी सोच सच मेें छोड़ने को गंभीर है।
मस्लेहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है ।