Friday 14 September 2018

केरल की बाढ़

केरल की बाढ़ से भी कुछ नहीं सीखेंगे ?

केरल की बाढ़ अब उतार पर है। इसके साथ ही देश अब किसी अन्य राज्य में अगले साल आने वाली बाढ़ पर चर्चा करेगा। केरल में इतनी भयंकर बाढ़ क्यों आईऐसी ही बाढ़ किसी अन्य नये राज्य में ना आयेइसके लिये कोई दूरगामी नीति नहीं बनेगी। गाडगिल जैसे पर्यावरणविद चाहे कुछ भी कहें लेकिन सरकारों की मनमानी पर कोई असर नहीं पडे़गा।    

  सौ साल बाद केरल में इतनी भयंकर बाढ़ आई। जिसमें लगभग पूरा राज्य ही पानी में डूब गया। तमाम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तो हज़ारों जानवर भी बेमौत मारे गये। माल का भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ। लेकिन लगता नहीं बाढ़ का पानी उतरने के साथ ही किसी को इस बात की चिंता हो कि भविष्य में ऐसा विनाश फिर से भुगतना ना पड़े। राज्य और केंद्र सरकार इसे सामान्य घटना के तौर सहजता से लेकर आगे बढ़ चुकी हैं। थोड़ा सा विवाद बाढ़ राहत के लिये भारी भरकम नुकसान और केेंद्र द्वारा उसके लिये मामूली सी रहात राशि देने से हुआ था।

लेकिन वह भी वहां के सीएम पिनराई विजयन के सोच समझकर बोलने से समय से सुलझ गया। इसके साथ ही विदेश से सहायता ना लेने के केंद्र के ज़ोर देने पर बाढ़ से हुए नुकसान की सारी क्षतिपूर्ति स्वयं करने का मामला भी ठंडे बस्ते में जा चुका है। सोशल मीडिया पर केरल की बाढ़ को वहां कम्युनिस्टों यानी नास्तिकों की सरकार होने और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को जाने की अनुमति देने के कोर्ट के फैसले को भी ज़िम्मेदार बताने की मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद नाकाम कोशिश भी की गयी। लेकिन हमें नहीं लगता कि केरल या देशवासी इस पर कोई संज्ञान लेंगे।

साथ ही बिना चेतावनी के डैमों का पानी छोड़ दिये जाने और समय पर फैसला ना लेना भी कोई मुद्दा नहीं। इसके साथ ही यह सवाल भी बार बार उठा कि अगर हम अभी भी केरल सहित देश के दूसरे राज्यों में बार बार आने वाली बाढ़ जैसी आपदाओं के वास्तविक और वैज्ञानिक कारणों की जांच कर उनका समय पर समाधान नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जबकि देश के अधिकांश राज्य इसी तरह की आपदाओं का लगातार और पहले से अधिक भयंकर तरीके से शिकार होने लगेंगे। दरअसल सरकार चाहे कोई भी हो उसमें बैठे लोग या तो जैसे तैसे कुर्सी पर बने रहना चाहते हैं।

अन्यथा वे अपने पद और सत्ता के बल पर अपनी जेबें दोनों हाथों से भरने पर तुल जाते हैं। ऐसे ही सरकार तो किसी भी दल की हो पांच साल के लिये होती है। लेकिन सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की मशीनरी लंबे समय तक वही की वही बनी रहती है। इस सरकारी मशीनरी को यह भ्रम और अहंकार हो जाता है कि उनसे अधिक योग्य और शक्तिशाली दुनिया में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। इसका अंजाम यह होता है कि ये अयोग्य शासक और मनमानी करने वाले प्रशासक बाढ़ या नोटबंदी जैसे विनाशकारी मामलों पर किसी से सलाह की आवश्यकता ही नहीं समझते।

सवाल यह भी है कि अगर उनकी कोई जवाबदेही ही नहीं है तो उनको विकास के नाम पर विनाश करने से रोक भी कौन सकता है?जब कोई आदमी बीमार होने पर यह ना माने कि वह वास्तव में रोग का शिकार है तो वह डाक्टर के पास क्यों जायेगाअगर उसको जबरन अस्पताल में भर्ती करा भी दिया जाये तो वह कोई टैस्ट इंजेक्शन या ऑप्रेशन कराने को तैयार नहीं होगा। यही हालत केरल की बाढ़ को लेकर हमारी सरकारों की है।

 देखोगे तो हर मोड़ पे मिल जायेंगी लाशें,

  ढूंढोगे तो इस शहर में क़ातिल न मिलेगा ।

Sunday 9 September 2018

सरकारी नौकरियां हैं कहाँ ?

गटकरी की बात सही लग रही है ?

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकारी नौकरियों में बार-बार आरक्षण की मांग करने वालों को यह भी देखना चाहिये कि सरकारी नौकरियां हैं कहां? उनका कहना है कि आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिये। वजह चाहे जो हो लेकिन उनका प्रस्ताव सभी वर्गों के गरीबों को आरक्षण देने का चुनावी अधिक लगता है।

गडकरी के यह कहने से कि सरकारी नौकरियां कम ही बची हैं। विपक्ष को बैठे बिठाये सरकार पर हमला करने का एक बड़ा मुद्दा मिल गया है। ज़ाहिर है यही बयान अगर 2014 से पहले यूपीए सरकार के किसी मंत्री ने दिया होता तो भाजपा विपक्ष में रहते इसको बहुत बड़ा मुद्दा बनाती। लोकतंत्र में सरकार और विपक्ष के बीच विरोध के लिये विरोध और सत्ता के अहम में डूबकर खुद को ही देश समझकर उचित व तर्कसंगत विरोध की आवाज़ को भी शासन प्रशासन के द्वारा दबाया जाना दोनों ही गलत माना जाता है। ऐसा वास्तव में होता भी नहीं कि सरकार सभी काम ठीक या गलत करे और विरोध करने वाला विपक्ष हमेशा सही विरोध ही करे।

लेकिन देखने में यह आता है कि जहां विपक्ष सरकार के सही कामों पर चुप्पी साध जाता है। वहीं सरकार में बैठे सत्ताधरी ताकत के नशे में अक्सर इतने अंधे हो जाते हैं कि वे जायज़ विरोध का भी हर समय गला घोंटने में लगे रहते हैं। नितिन गटकरी ने उस सत्ताधारी दल का एक मंत्री होते हुए भी एक कटु सत्य अचानक कह दिया है जिसके मुखिया यानी पीएम हर साल दो करोड़ रोज़गार युवाओें को देने का वादा करके सत्ता में आये थे। हालत आज यह है कि जितने रोज़गार 2014 से पहले मिल रहे थे। वे भी आज कम ही होते जा रहे हैं।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि हमारे देश में आबादी बढ़ने और जागरुकता बढ़ने से उच्च शिक्षा लेने वालों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है। शिक्षित बेरोज़गारों की फौज बढ़ने की एक बड़ी वजह यह भी मानी जा सकती है कि मीडियम क्लास के पास पैसा अधिक आने लगा है। हालांकि देश की प्रगति और उन्नति के लिये यह अच्छे संकेत हैं। लेकिन यह भी सच है कि मोदी सरकार ने जिस तरह से पूंजीपतियों को खुलकर सपोर्ट करना शुरू किया है। उससे वे अधिक रोज़गार पर नहीं अधिक मुनाफा कूटने पर लगे हुए हैं।

इसकी वजह यह है कि हर कॉरपोरेट व्यापारी और कारखाने वाला यह चाहता है कि वह अपने कारोबार का आधुनिकीकरण मशीनीकरण और स्वचालीकरण करके अपने प्रॉडक्शन की लागत घटाकर अधिक से अधिक फायदा कमाये। एक तरह से देखा जाये तो उनका ऐसा सोचना कोई अपराध भी नहीं है। लेकिन यह काम सरकार और रेग्युलेटरी अथॉरिटी का है कि वे यह भी सुनिश्चित करें कि देश में जो भी पूंजी निवेश आये उनको सशर्त आने दिया जाये। उनके सामने शर्त हो कि आप हमारे भारतीय नागरिकों को अधिक से अधिक रोज़गार उपलब्ध करायेंगे।

ऐसा करने से यह बदलाव आयेगा कि लोगों का आकर्षण घटती सरकारी नौकरियों से हटकर प्राइवेट नौकरियों की तरफ जायेगा। सरकार को यह भी देखना चाहिये कि पुलिस, शिक्षक और जजों से लेकर जो उसके हर विभाग में दशकों से पद खाली पड़े हैं, उनको तेज़ी से भरा जाये। इसके साथ ही यह बात याद रखी जानी चाहिये कि सरकार चाहे जितने अधिक से अधिक पदों पर नौकरी दे दे लेकिन उनकी संख्या एक करोड़ को भी पार करने वाली नहीं है। जबकि सब जातियों वर्गों और धर्मों के लोगों का सपना हर हाल में सरकारी नौकरी पाना है।

उनको यह भ्रम है कि अगर उनको सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल जाये तो उनको नौकरी हर हाल में मिल ही जायेगी। यह दिन में सपने देखने वाली बात है। आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार की कुल नौरियों की संख्या 2 करोड़ 15 लाख के लगभग है। सोचने की बात है कि एक अरब 32 करोड़ की आबादी वाले देश के लिये ये नौकरियां क्या मायने रखती हैं? दूसरा सवाल यह है कि जब संविधान ने आरक्षण केवल हज़ारों साल तक पक्षपात का शिकार हुए दलितों, आदिवासियों व शैक्षिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ों के लिये ही रखा है तो इसमें सभी वर्ग के गरीबों की बात कहां से आ गयी? गडकरी यह भी जानते होंगे कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण पर रोक लगा रखी है।

अगर सरकार सभी वर्गों के गरीबों के लिये अलग से कुछ आरक्षण का प्रावधान करती भी है तो उसको सुप्रीम कोर्ट स्टे कर देगा। ऐसा यूपीए सरकार के दौर में एक बार हो भी चुका है। सरकार केवल एक ही काम कर सकती है कि वह ऐसी नीतियां बनाये जिससे देश की जीडीपी का अधिक से अधिक लाभ समाज के सभी वर्गों को मिले और उनमें भी जो गरीब और कमज़ोर हैं। उनको पहले और अधिक लाभ मिले।

इसके साथ ही एक काम सरकार को ज़रूर करना चाहिये कि वह आरक्षण की मांग बार बार सशक्त और सम्पन्न जातियों से भी उठने का स्थायी समाधान यह करे। कुल सरकारी सेवाओं में भर्ती करते समय देश की आबादी में जिस जाति की जितनी आबादी है, उसके अनुपात में ही उसका हिस्सा तय कर दिया जाए। अगर सरकार चुनावी वोट बैंक से हिसाब से आरक्षण से छेड़छाड़ करेगी तो उसका लाभ किसी को मिलेगा भी नहीं और देश में आयेदिन कानून व्यवस्था की समस्या अलग से खड़ी होती रहेगी।

अहबाब के सलूक से जब वास्ता पड़ा,

शीशा तो मैं नहीं था मगर टूटना पड़ा।।

एलजीबीटी

एलजीबीटी: धारा 370 से 377 तक

एल से लेस्बियन, जी से गे, बी से बाईसेक्सुअल और टी से ट्रांस्जेंडर तो काफी लोग जानते थे। लेकिन यह किसी को नहीं पता था कि भाजपा की मोदी सरकार कश्मीर से धारा 370 का हटाने का वादा करके सरकार बनने पर समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाली धारा 377 हटाने पर राज़ी हो जायेगी। यह उसका कालेधन मनरेगा और जीएसटी की तरह एक और यू टर्न है।
-इक़बाल हिंदुस्तानी
सुप्रीम कोर्ट ने जिस दिन व्यक्तिगत आज़ादी को संवैधानिक और मूल अधिकार माना था। यह बात उसी दिन साफ हो गयी थी कि आज नहीं तो कल एलजीबीटी समुदाय को समलैंगिकता की आज़ादी भी आगे चलकर अपराध नहीं रहेगी। लेकिन यहां सवाल यह है कि जो भाजपा भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की दुहाई देकर सत्ता में आई थी। उसने कोर्ट में केंद्र सरकार की ओर से अपना पक्ष रखते हुए समलैंगिकता का विरोध क्यों नहीं किया ? क्या मोदी सरकार दलित एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की तरह ही धारा 377 को भी निरस्त करने के लिये कोई ठोस कदम उठायेगी?
हम आपको दावे से बता रहे हैं कि भाजपा सरकार इस मुद्दे पर विचार तक नहीं करेगी। जबकि यूपीए सरकार के जब सबसे बड़ी अदालत ने संसद से इस मामले में विचार करने को कहा था तो यह भाजपा ही थी जिसने विपक्ष में रहकर कांग्रेस सरकार पर अपसंस्कृति को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर भारतीय सभ्यता के ख़तरे में होने का ढोल पीटा था। क्या हम एक बार फिर यह मानें कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं? एलजीबीटी में आजकल क्यू यानी क्वैर और जुड़ गया है।
लैस्बियन दो महिलाओं के सेक्सुअल संबंध, गे दो बालिग पुरूषों के यौन संबंध बाईसेक्सुअल यानी जिनको दोनों ही जेंडर से संबंध बनाने वाला माना जाता है और ट्रांस्जेंडर मतलब जो जन्मजात और प्रत्यक्ष रूप से अलग अलग होते हैं। क्वैर यानी जिनमें विचित्र तरीके से यौन संबंध स्थापित करने की बात सामने आती है। हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के इस एतिहासिक निर्णय का विरोध केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि समाज का बड़ा वर्ग, धार्मिक कट्टरपंथी और संघ परिवार व सरकार समलैंगिकता को बुरा मानते है।
सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक नैतिकता को इन सबसे बड़ा माना है। न्यायमूति इंदु मल्होत्रा ने तो पश्चाताप जताते हुए यहां तक कह दिया कि इस समुदाय ने जिस तरह का अपमान और बहिष्कार झेला है, उसके लिये इतिहास को इनसे माफी मांगनी चाहिये। खास बात यह है कि सभी पांच जजों ने 493 पेज का यह फैसला सर्वसम्मति से सुनाया है। कोर्ट का दो टूक कहना है कि आदमी अपने शरीर का स्वामी होता है। वह किसके साथ अंतरंगता रखता है। यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। राज्य और समाज को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिये।
चीफ जस्टिस मिश्रा का कहना है कि किसी व्यक्ति की पहचान को नष्ट करना उसकी गरिमा को कुचलने जैसा है। उसकी गरिमा को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें उसकी निजता उसकी पसंद उसकी बोलने की आज़ादी और अन्य सभी अभिव्यक्तियां भी शामिल हैं। किसी व्यक्ति की खास पहचान को स्वीकार करने के लिये धरणा और सोच में बदलाव की ज़रूरत है। कोई भी व्यक्ति जो है, उसे वैसा ही स्वीकार किया जाना चाहिये। उनका यह भी कहना था कि समान सेक्स के प्रति आकर्षण तंत्रिका संबंधी गुणों और जीव शास्त्राीय कारकों की वजह से होता है।
सीजेआई का यह भी कहना है कि अपराधिक अभियोजन के भय से पसंद की स्वतंत्रता का गला नहीं दबाया जा सकता। उन्होंने सबसे बड़ी बात यह कही कि संविधान केवल बहुसंख्यकों के लिये नहीं है। मौलिक अधिकार हर नागरिक को प्राप्त हैं, जो बहुसंख्यकों की अनुमति पर निर्भर नहीं हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने माना कि समलैंगिकता न तो मानसिक रोग है और न ही नैतिक दुराचार। यौनिका का विज्ञान कहता है कि कोई व्यक्ति किसके प्रति आकृषित होता/ होती है, इस पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता । इस बारे में हुए शोध यह बताते हैं कि यौनिक अनुस्थापन जीवन में काफी शुरू में ही निर्धरित हो जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत छोटे ही सही लेकिन एलजीबीटी वर्ग को उसकी लंबे समय से चली आ रही समलैंगिकता की मांग को एक तरह से स्वीकार कर धरा 377 में आंशिक संशोधन कर उसकी आज़ादी का रास्ता खोल दिया है। लेकिन यह मोदी भक्तों के लिये एक और नया झटका है कि जो मोदी सरकार कशमीर से धारा 370 हटाने आई थी वो धारा 377 हटा रही है। एलजीबीटी और उनके समर्थक मामूली से उदार वोटबैंक के मुकाबले समाज के भारी भरकम परंपरावादी पुरातनपंथी और दकियानूसी वोटबैंक को नाराज़ कर सत्ता में रहने के एक सूत्री फार्मूले से भाजपा सरकार एक के बाद एक ऐसे आत्मघाती फैसले करने पर मजबूर होती जा रही है कि उसका असली चाल चरित्र और चेहरा सबके सामने आता जा रहा है।
कुछ लोग यूं ही शहर में हमसे भी ख़फ़ा हैं,
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती ।

Monday 3 September 2018

2 fatve

इतिहास में दफ़्न वो दो मख़सूस फ़तवे जिनकी वजह से आज मुसलमान तालीम ओ तरक़्क़ी में पसमांदा है।

आज से तक़रीबन एक हज़ार साल पहले 1100 AD में मज़हबे -इस्लाम साइंस के गोल्डन दौर से गुज़र रहा था। ये वो दौर था जब बग़दाद साइंस और जदीद टेक्नोलॉजी का मरकज़ हुआ करता था। दुनिया भर के तालिब ऐ इल्म साइंस की जदीद तालीम के लिए बगदाद का रुख करते थे। उस दौर में यूरोप तालीम के ऐतबार से तारीकियों में डूबा हुआ था। साइंस मुसलमान की पहचान माना जाता था। ये वो दौर था जब दुनियावी तालीम के हर शोबे Algebra , Algorithm , Agriculture , Medicine , Navigation , Astronomy , Physics , Cosmology , Psychology वग़ैरा वग़ैरा में मुसलमान एक पहचान माना जाता था ।
फिर ये हुआ कि ये सब अचानक रुक गया। इल्म , फ़लसफ़ा , ईजाद और दानाई का ये दौर मुसलमानों के बीच से अचानक ग़ायब होने लगा।
वजह ?
वजह बना एक फ़तवा जो अपने वक़्त के इस्लामिक विद्वान कहे जाने वाले इमाम अल ग़ज़ाली ( 1058 - 1111 ) ने अपनी मशहूर किताब तहाफुत अल फ़लसफ़ा  के ज़रिये दिया। किताब की इस तफ़्सीर के मुताबिक़ नम्बर्स के साथ खेलना शैतान का काम है इसलिए Mathematical calculation से मुसलमानों को दूर रहना चाहिए। इमाम अल ग़ज़ाली ईरान के खोर्सान सूबे के तबारन में पैदा हुए। उस दौर के मुसलमानों के बीच उनका इतना रुतबा था कि लोग उन्हें मुजद्दिद और हुज्जत -उल - इस्लाम कहते थे । ज़ाहिर है उस वक़्त के मुसलमानों ने इस फ़तवे के ख़िलाफ़ जाना इस्लाम के ख़िलाफ़ जाना तसव्वुर किया। नतीजा ये हुआ कि मुसलमानों ने उन सब साइंसी ईजादों और रिसर्च से मुंह फेर लिया जिनमें किसी भी तरह की कैलकुलेशन होती थी। और हम जानते हैं कि बिना मैथमेटिकल कैलकुलेशन के आप किसी भी तरह की जदीद टेक्नोलॉजी में कामयाब हो ही नहीं सकते। यानि लगभग हर तरह के साइंस से मुसलमानों ने मुंह फेर लिया ।
अमेरिका के Neil deGrasse Tyson  जिन्हें मौजूदा दौर का आइंस्टीन माना जाता है ,के मुताबिक़ इमाम ग़ज़ाली की यही बुनियादी ग़लती साबित हुई और मुसलमान हर तरह के इल्म से पिछड़ता चला गया। इमाम ग़ज़ाली के इस फतवे के बाद सब कुछ जैसे थम सा गया। किसी ने मानो उसे अपाहिज बना दिया। इनके इस ग़लत इंटरप्रिटेशन की वजह से इस्लाम आज तक नहीं उभर पाया है। उस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाया।
दूसरा बड़ा झटका तब लगा जब प्रिंटिंग प्रेस की ईजाद हुई और जिसको हराम क़रार दिया गया था। तुर्की के ऑटोमन ख़िलाफ़त ( 1299 - 1922 ) के दौर में जब जर्मनी में 1455 में प्रिंटिंग प्रैस की ईजाद हुई तो उस वक़्त के सुंल्तान सलीम (अव्वल) ने ख़िलाफ़त के शैख़ुल -हदीस के कहने पर किसी भी तरह की किताब के छापने पर पाबन्दी लगा दी। और एलान किया कि जो कोई भी प्रिंटिंग प्रेस का इस्तेमाल करता पाया गया उसको मौत की सजा दी जाएगी। ये 1515 की बात है। उस वक़्त ख़िलाफ़त तुर्की से निकलकर साउथ ईस्ट यूरोप , सेंट्रल यूरोप के कुछ हिस्सों , वेस्टर्न एशिया और नार्थ अफ़्रीक़ा तक फैली हुई थी। इस फ़तवे का बहुत दूर तक असर हुआ और उस वक़्त की मुसलमानों की तरक़्क़ी की रफ्तार यकायक थम गई। दूसरी अक़वाम ने उसे हाथों हाथ लिया और साइंस पर मबनी किताबें , रिसर्च पेपर्स , न्यूज़ पेपर्स , इन्वेंशन आर्टिकल्स छापे जाने लगे , दूर दूर तक इल्म फैलने लगा और दूसरी क़ौमें इससे फायदे उठाने लगीं। प्रिंटिंग प्रेस पर मुसलमानों का ये खुदसाख़्ता बैन तक़रीबन 1784 में जाकर हटाया गया लेकिन फिर भी मुस्लिम दुनिया में पहली किताब 1817 में जाकर छापी जा सकी। यानि प्रिंटिंग प्रैस की ईजाद से तक़रीबन 362 सालों की तवील मुद्दत के बाद। इन 362 सालों में पूरी दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी। नई -नई ईजादों और इल्म की रौशनी जो प्रिंटिंग प्रैस के ज़रिये फैली थी मुसलमान उस रौशनी से महरूम ही रहा।
ये थे वो दो फ़तवे जिनकी वजह से मुसलमान आज वहां नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था।

आज अगर हम इन फ़तवों के बारे में सोचते हैं तो अजीब लगता है कि आखिर इसमें ग़ैर इस्लामी और हराम क़रार दिए जाने जैसा क्या था ! लेकिन ये कहने के लिए माफ़ी चाहता हूँ कि आज भी हम ऐसे ही हैं जैसे उस ज़माने में थे। आज भी अजीब -अजीब फ़तवे दिए जाते हैं और हम अपनी ज़बान सिले रहते हैं , बल्कि कहा जाये कि इन फ़तवों का खैर -मक़दम करते हैं। और हमारी इस फितरत की वजह साफ़ है कि हम मज़हबे -इस्लाम को आज भी ठीक तरह से नहीं समझ पाए हैं। जो हमारे उलेमा ऐ दीन ने कह दिया वो हमारे लिए पत्थर की लकीर की तरह है। हम ये मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि उलेमा ऐ दीन भी ग़लती कर सकते हैं।
बहरहाल अजीब फ़तवों की फेहरिस्त लम्बी है। कुछ और नमूने पेश हैं -
जब हवाई जहाज़ की ईजाद हुई तो बर्रे सग़ीर से फ़तवा जारी किया गया कि जहाज़ में सफ़र करना हराम है। फ़तवे के मुताबिक़ इतनी ऊँचाई पर इंसान का सफ़र करना खुदा की कुदरत को ललकारने जैसा है। इसी तरह जब रेडियो की ईजाद हुई तो फतवा दिया गया कि ये शैतान की आवाज़ है। कैमरा और टीवी पर तो आज तक फ़तवा जारी है। इसी तरह आज कोई ब्लड ट्रांसफ्यूजन को हराम क़रार दे रहा है और कोई हेयर ट्रांसप्लांट को। कोई जेनेटिक इंजीनियरिंग को हराम क़रार दे रहा है।
पूरी दुनिया के साइंसदाँ यूनिवर्स के एक्सप्लोरेशन की खोज के सुनहरे दौर तक पहुँच चुके हैं। ग्रैविटेशनल फाॅर्स वेव्स और Higgs पार्टिकल्स की बात हो रही है। लोग एक्सप्लोर कर रहे है ,यूनिवर्स के क्वांटम स्टेट के बारे में पूछ रहे हैं। Cosmology की infinity के बारे में सवाल उठाये जा रहे हैं। मार्स के सरफेस पर रिसर्च हो रहे हैं। मेडिकल साइंस भी जेनेटिक इंजिनीरिंग तक जा पहुंचा है जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी बस ख़त्म होने को है और ये सिर्फ एक छोटी सी झलक है कि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है। और हम ?
हमारी समझ और मैच्योरिटी का लेवल ये है कि हम अभी तक इस बात से खुश हो जाते हैं कि एक खीरे में " अल्लाह " या " मुहम्मद " लिखा पाया गया है। हमारी समझ का लेवल ये है कि किसी क़ुरबानी के बकरे पर " मुहम्मद " लिखा हुआ पाया गया है। ये आखिर है क्या और हम इससे दीन की क्या ख़िदमत कर रहे हैं ? हम साबित क्या करना चाहते हैं ?
इसी पसमंज़र में आइये देखते हैं कि पिछले सौ सालों में हमने दुनिया को क्या दिया है या क्या उससे लिया है -
आइये देखते हैं कि सन 1900 से 2017 के दौरान नोबेल प्राइज हासिल करने वालों में हम कहाँ है और बाक़ी दुनिया कहाँ है -
पूरी दुनिया में यहूदियों की आबादी ज़्यादा से ज़्यादा एक करोड़ पचास लाख है और मुसलमानों की आबादी लगभग सौ करोड़ पचास लाख। या कह लीजिये कि पूरी दुनिया की आबादी के मुक़ाबले सिर्फ 0. 2% . लेकिन नोबेल पाने वालों में उनकी तादाद 21.97% है। आज तक कुल 892 लोगों को नोबेल दिया जा चुका है उसमे से 196 नोबेल यहूदियों के नाम हैं। यहूदियों के मुक़ाबले मुसलमानों की आबादी लगभग सौ गुना है लेकिन कुल मिलाकर सिर्फ तीन नोबेल। सिर्फ़ तीन। ये है दुनिया को हमारा योगदान।
हो दरअसल ये रहा है कि पिछली एक सदी से हम पहले साइंस और जदीद टेक्नोलॉजी को हराम क़रार देते हैं और फिर मजबूरन उसे अपना भी लेते हैं। मोबाइल हराम , इंटरनेट हराम , फेसबुक हराम , ट्विटर हराम , टीवी हराम , तस्वीर बनाना हराम ........
लगता है उम्मत सिर्फ़ हराम और हलाल का फ़र्क़ करने में ही ख़त्म हो जाएगी।