Monday 29 February 2016

Anti reservation answer

दोस्तो मैं कुछ दिनों से देख रहा हूँ की फेसबुक पर कोई भी मुह उठाकर आरक्षण के विरोध में अपने तर्क एक ज्ञानी की तरह देता है । ज्ञानियों के तर्क कुछ
इस प्रकार होते है

१-आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिएहै
२- आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति आगे आते है।
३- आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है।
४- आरक्षण ने ही जातिवाद को जिन्दा रखा है।
५- आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए था।
६- आरक्षण के माध्यम से सवर्ण समाज की वर्तमान पीढ़ी को दंड दिया जा रहा है।

इन ज्ञानियों के तर्कों का जवाब प्रोफ़ेसर विवेक कुमार जी ने दिया है जो इस प्रकार हैं

१- पहले तर्क का जवाब:-
आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने हेतु सरकार अनेक कार्य क्रम चला रही है और अगर चाहे तो
सरकार इन निर्धनों के लिए और
भी कई कार्यक्रम चला सकती है। परन्तु आरक्षण हजारों साल से सत्ता एवं संसाधनों से वंचित किये गए समाज के
स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है।
प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु
संविधान की धरा 16 (4) तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332 एवं 335 के तहत कुछ जाति विशेष को दिया गया है।

२- दूसरे तर्क का जवाब
योग्यता कुछ और नहीं परीक्षा के प्राप्त अंक के प्रतिशत को कहते हैं। जहाँ प्राप्तांक के साथ साक्षात्कार होता है, वहां प्राप्तांकों के साथ आपकी भाषा एवं व्यवहार को भी योग्यता का माप दंड मान लिया जाता है।
अर्थात obc/sc/st के
छात्र ने किसी परीक्षा में 60 % अंक प्राप्त किये और सामान्य जाति के किसी छात्र ने 62 % अंक प्राप्त किये तो आरक्षित जाति का छात्र अयोग्य है और सामान्य जाति का छात्र योग्य है।
आप सभी जानते है की परीक्षा में प्राप्त अंकों का प्रतिशत एवं भाषा, ज्ञान एवं व्यवहार के आधार पर योग्यता की अवधारणा नियमित की गयी है जो की अत्यंत त्रुटिपूर्ण और अतार्किक है। यह स्थापित सत्य है कि किसी भी परीक्षा में अनेक आधारों पर अंक प्राप्त किये जा सकते हैं। परीक्षा के अंक विभिन्न कारणों से भिन्न हो सकते है। जैसे कि किसी छात्र के पास सरकारी स्कूल था और उसके शिक्षक वहां नहीं आते थे और आते भी थे तो सिर्फ एक।
सिर्फ एक शिक्षक पूरे विद्यालय के लिए जैसा की प्राथमिक विद्यालयों का हाल है, उसके घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था, उसके पास किताब नहीं थी, उस छात्र के पास न ही इतने पैसे थे कि वह ट्यूशन लगा सके।
स्कूल से आने के बाद घर का काम भी करना पड़ता।
उसके दोस्तों में भी कोई पढ़ा लिखा नहीं था। अगर वह मास्टर से प्रश्न पूछता तो उत्तर की बजाय उसे डांट मिलती आदि।
ऐसी शैक्षणिक परिवेश में अगर उसके परीक्षा के नंबरों की तुलना कान्वेंट में पढने वाले
छात्रों से की जायेगी तो क्या यह तार्किक होगा।
इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है। पूरी की पूरी
सांस्कृतिक पूँजी, अच्छा स्कूल, अच्छे मास्टर, अच्छी किताबें, पढ़े-लिखे माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार, पड़ोसी, दोस्त एवं मुहल्ला। स्कूल जाने के लिए कार या बस, स्कूल के बाद ट्यूशन या माँ-बाप का पढाने में
सहयोग। क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों के मध्य परीक्षा में प्राप्तांक योग्यता का निर्धारण कर सकते हैं?

क्या ऐसे दो विपरीत
परिवेश वाले छात्रों में भाषा एवं व्यवहार की तुलना की जा सकती है?
यह तो लाज़मी है की सवर्ण समाज के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की परीक्षा में प्राप्तांक एवं भाषा के आधार पर योग्यता का निर्धारण अतार्किक एवं अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है?

३- तीसरे और चौथे तर्क का जवाब

भारतीय समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है, जो छः हज़ार जातियों में बंटा है और यह छः हज़ार जातियां लगभग ढाई हज़ार वर्षों से मौजूद है। इस श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था के कारण अनेक समूहों जैसे दलित,
आदिवासी एवं पिछड़े समाज को सत्ता एवं संसाधनों से दूर रखा गया और इसको धार्मिक व्यवस्था घोषित कर स्थायित्व प्रदान किया गया।
इस हजारों वर्ष पुरानी श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने
के लिए एवं सभी समाजों को बराबर –बराबर का प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान में कुछ जाति विशेष को आरक्षण दिया गया है। इस प्रतिनिधित्व से यह सुनिश्चित करने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने हक की लड़ाई एवं अपने समाज की भलाई एवं बनने वाली नीतियों को सुनिश्चित कर सके।

अतः यह बात साफ़ हो जाति है कि जातियां एवं जातिवाद भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान था। प्रतिनिधित्व
( आरक्षण) इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए लाया गया न की इसने जाति और जातिवाद को जन्म दिया है। तो जाति पहले से ही विद्यमान थी और आरक्षण बाद में आया है।
अगर आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है तो, सवर्णों द्वारा स्थापित समान-जातीय विवाह, समान-जातीय दोस्ती एवं रिश्तेदारी क्या करता है?
वैसे भी बीस करोड़ की आबादी
में एक समय में केवल तीस लाख लोगों को नौकरियों में आरक्षण मिलने की व्यवस्था है, बाकी 19 करोड़ 70 लाख लोगों से सवर्ण समाज आतंरिक सम्बन्ध क्यों नहीं स्थापित कर पाता है?
अतः यह बात फिर से
प्रमाणित होती है की आरक्षण जाति और जातिवाद को जन्म नहीं देता बल्कि जाति और जातिवाद लोगों की मानसिकता में पहले से ही विद्यमान है।

४- पांचवे तर्क का जवाब

प्रायः सवर्ण बुद्धिजीवी एवं मीडिया कर्मी फैलाते रहते हैं कि
आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए है, जब उनसे पूंछा जाता है कि आखिर कौन सा आरक्षण दस वर्ष के लिए है तो मुह से आवाज़ नहीं आती है।
इस सन्दर्भ में केवल इतना जानना चाहिए कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राजनैतिक आरक्षण जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और
332 में निहित है,
उसकी आयु और उसकी समय-सीमा दस वर्ष निर्धारित की गयी थी।
नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए
आरक्षण की कोई समय सीमा सुनिश्चित नहीं की गयी थी।

५- छठे तर्क का जवाब

आज की सवर्ण पीढ़ी अक्सर यह प्रश्न पूछती है कि हमारे पुरखों के अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, छल कपटता, धूर्तता आदि की सजा आप वर्तमान पीढ़ी को क्यों दे रहे है?
इस सन्दर्भ में दलित युवाओं का मानना है कि आज की सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूँजी का किसी न किसी के रूप में लाभ उठा रही है। वे अपने पूर्वजों के स्थापित किये गए
वर्चस्व एवं ऐश्वर्य का अपनी जाति के उपनाम, अपने कुलीन उच्च वर्णीय सामाजिक तंत्र, अपने सामाजिक मूल्यों, एवं मापदंडो, अपने तीज त्योहारों, नायकों, एवं नायिकाओं, अपनी परम्पराओ एवं भाषा और पूरी की पूरी ऐतिहासिकता का उपभोग कर रहे हैं।
क्या सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपने सामंती सरोकारों और सवर्ण वर्चस्व को त्यागने हेतु कोई पहल कर रही है?
कोई आन्दोलन या अनशन कर रही है?
कितने धनवान युवाओ ने अपनी पैत्रिक संपत्ति को दलितों के उत्थान के लिए लगा दिया या फिर दलितों के साथ ही सरकारी स्कूल में ही रह कर पढाई करने की पहल की है?
जब तक ये युवा स्थापित मूल्यों की संरचना को तोड़कर नवीन संरचना कायम करने की पहल नहीं करते तब तक दलित समाज उनको भी उतना ही दोषी मानता रहेगा जितना की उनके
पूर्वजों को।

मंदिरों में घुसाया जाता है .....
जाति देखकर
किराये पर कमरा दिया जातै है...
जाति देखकर
होटल में खाना खिलाया जाता है..
जाति देखकर
कमरा किराये पर दिया जाता है..
जाति देखकर
मकान बेचा जाता है...
जाति देखकर
शादी विवाह कराये जाते है
जातिया देखकर,,,
वोट दिया जाता है..
जाति देखकर
मृत पशु उठवाये जाते है..
जाति देखकर
गाली दी जाती है..
जाति देखकर
साथ खाना खाते है..
जाति देखकर
बेगार कराई जाती है..
जाति देखकर
धिक्कारा जाता है..
जाति देखकर
बाल काटे जाते है..
जाति देखकर
ईर्ष्या पैदा होती है..
जाति देखकर

पर आपको आरक्षण चाहिये आर्थिक आधार पर......
जाति आधारित समाज में समता के लिए आरक्षण
लोकतांत्रिक राष्ट्र में अत्यावश्यक है...
क्योंकि जाति है तो आरक्षण है.....
वरना संसार के
दूसरे किसी देश में जाति नहीं है इसलिये आरक्षण नहीं
है...

जाटों को आरक्षण

जाट आरक्षण: दलित-पिछड़ों को फ़ायदा?
इक़बाल हिन्दुस्तानी  Friday February 26, 2016  


अब आरक्षण बढ़ाने व निजी क्षेत्र भी शामिल करने की मांग उठेगी! जाट काफी समय से आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं। उन्होंने इसके लिये शांतिपूर्ण तरीके से मांग करके भी देखा। लेकिन बहरे सत्ताध्ीशों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। इसके बाद उन्होंने अपने वोटबैंक की ताकत इस्तेमाल करके केंद्र में आरक्षण हासिल भी कर लिया। लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट में स्टे हो गया। इसके बाद उन्होंने उस राज्य यानी हरियाणा में मोर्चा खोला जहां वे सबसे अधिक मज़बूत हैं। पहले उन्होंने अपनी बात लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण ढंग से ही रखी। लेकिन जैसा कि हमारे देश में सभी सरकारों का रूख़ रहा है उनकी बात नहीं सुनी गयी। सरकार ने सोचा वे कुछ दिन हायतौबा मचाकर थक जायेंगे। उसके बाद वे अपने घरों को लौट जायेंगे।
 
लेकिन जाट समाज ऐसा नहीं है कि हार मान ले। फिर उसने वही अराजकता का गैर कानूनी काम किया जो सरकार को समझ में आता है। राष्ट्रीय और निजी सम्पत्ति के साथ जब जानों का भी नुकसान होने लगा तो हरियाणा सरकार झुक गयी। ऐसे में गल्ती किसकी मानी जाये? उन जाटों की जो अपनी बात लंबे समय से अमन चैन के साथ कह रहे थे? या उस असंवेदनशील सरकार की जो बिना हंगामें और तोड़फोड़ के उनकी बात मानना तो दूर सुनने को भी तैयार नहीं थी? हालांकि जो कुछ हुआ वह कानून व्यवस्था के लिये ख़तरा बन गया। चिंता और दुख की बात यह है कि सरकार पुलिस ही नहीं सेना लगाकर भी कानून का राज कायम नहीं कर सकी।
 
हालांकि कानून हाथ में लेना किसी तरह भी ठीक नहीं ठहराया जा सकता। अब सवाल यह है कि हरियाणा सरकार अगर जाटों को इस सबके बावजूद आरक्षण देने को तैयार हुयी है तो कल क्या और जातियां भी इस रास्ते पर नहीं चलेंगी? यह अलग बहस का मुद्दा है कि जाट पिछड़ी जातियों में शामिल होकर आरक्षण के सही हकदार हैं या नहीं? ऐसे तो सच्चर कमैटी की रिपोर्ट में मुसलमानों को भी आरक्षण देने की सिफारिश की गयी है। लेकिन भाजपा तो दूर सेकुलर दल भी यह दुस्साहस नहीं कर पा रहे हैं। कुछ लोगों को आशंका है कि अगर जाट पिछड़ों के आरक्षण में जुड़े तो पिछड़ों का नुकसान होगा। इसकी वजह जाटों का और पिछड़ी जातियों के मुकाबले सम्पन्न और शक्तिशाली होना माना जाता है।
 
इसके विपरीत हमारा मानना है कि इसका दूसरा पक्ष आरक्षित जातियोें के पक्ष में भी जा सकता है। जाट अगर सरकार और सुप्रीम कोर्ट से होते हुए हरियाणा में आरक्षण पाने में कामयाब रहे तो फिर ऐसा ही और प्रदेशों में भी होगा। इससे पहला असर यह होगा कि जाट दूसरी मांग आरक्षण की सीमा पिछड़ों की आबादी के हिसाब से बढ़ाने की मांग उठायेंगे। वे इस पर लगी सुप्रीम कोर्ट की 50 प्रतिशत की सीमा की दलील भी स्वीकार नहीं करेंगे । वे सरकार को संविधान संशोधन कर ऐसा करने को मजबूर करेंगे। वे अपने साथ भविष्य में पटेल और मराठा जैसी और मज़बूत जातियों को भी पिछड़ों को यह समझाकर जोड़ने की कोशिश करेंगे कि आरक्षण की सीमा बढ़ने से पिछड़ों का नुकसान नहीं बल्कि फायदा होगा।
 
वे इसके बाद आरक्षण को निजी क्षेत्र तक बढ़ाने का बीड़ा भी आज नहीं तो कल ज़रूर उठायेंगे। वे इस प्रावधान को संविधान की 7वीं अनुसूची में डालने की मांग भी करेंगे जिससे सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई ही नहीं कर पाये। इसके बाद समाज में जातियों का नया ध््राुवीकरण शुरू हो जायेगा। जाट आरक्षण ख़त्म करने की समय समय पर उठने वाली मांग करने वालों को दलितों और पिछड़ों से पहले पटियाला हाउस के राष्ट्रवादी वकीलों की तरह संघ परिवार वाला फार्मूला अपनाकर मुंह बंद करने को कूटने लगेंगे। ये सब हमारे अनुमान और भविष्य का आकलन है। जाटों को आरक्षण देने की घोषणा से लेकर वास्तव में लागू होने तक कई अगर मगर मौजूद हैं।
 
अब बात करते हैं जाट, गूजर, मराठा और पटेल जैसी सम्पन्न जातियां आरक्षण मांग क्यों रही हैं? कुछ दिन पहले पटेल आरक्षण की मांग को लेकर गुजरात में आंदोलन चला था लेकिन इसका बिना सोचे समझे राजनीतिक कारणों और पीएम मोदी को सबक सिखाने की नीयत से ध्ूार्ततापूर्ण समर्थन करने वाले बिहार के सीएम नीतीश कुमार और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल भूल गये कि ऐसा ही आंदोलन धीरे धीरे उनके राज्यों में भी अन्य उच्च जातियां शुरू कर सकती हैं तब उनके सामने बचाव का कोई रास्ता नहीं होगा। इस मामले में जनता दल यू के वरिष्ठ नेता शरद यादव ने परिपक्वता का परिचय दिया है। उनका कहना है कि आरक्षण पिछड़ों और दलितों को जिस आधार पर दिया गया है उसका संविधान में बाकायदा प्रावधान है।
 
कौन सी जातियां पिछड़ी हैं इसके लिये एक आयोग बना हुआ है। यूपीए सरकार ने जाते जाते राजनीतिक चाल के तौर पर जाटों को आरक्षण दिया था जबकि इसके लिये पिछड़ा वर्ग आयोग ने जाटों को कसौटी पर खरा नहीं माना था। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार के इस बेतुके फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे कर दिया। सवाल यह है कि आखिर कल तक आरक्षण का विरोध करने वाली उच्च जातियां क्यों खुद को पिछड़ा घाषित कर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में कम योग्यता पर लाभ लेना चाहती हैं? सच यह है कि उच्च जातियों में भी मुट्ठीभर लोग ही सम्पन्न और विकसित हो सके हैं। उनका बड़ा वर्ग भी अन्य पिछड़ी, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की तरह ही गरीब और बेरोज़गार है।
 
एक अच्छी और आदर्श व्यवस्था में सभी को अपनी बुनियादी जीवन यापन की सुविधायें मिलनी चाहियें लेकिन हमारे नेताओं ने जो विकास का मॉडल अपनाया है वह हमारी ज़रूरतों के अनुकूल नहीं है। परिणाम सामने है कि सन 2000 में जहां देश के एक प्रतिशत नागरिकों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 37 प्रतिशत हिस्सा था वहीं आज यह बढ़ते बढ़ते 2014 में 49 प्रतिशत पहुंच गया है। इसका मतलब यह है कि देश की आधी सम्पत्ति देश के केवल सवा करोड़ लोगों के पास और आधी सम्पत्ति में देश के बाकी 124 करोड़ लोग गुज़ारा कर रहे हैं।
 
अगर आंकड़ों को और खंगाला जाये तो पता चलेगा कि देश के सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों की आय में देश के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के मुकाबले जो अंतर सन 2000 में 1840 गुना का था वह आज बढ़ते बढ़ते 2450 गुना हो गया है। गांधी जी का हमेशा कहना था कि यह अंतर 10 गुना से अधिक नहीं होना चाहिये वर्ना निचले वर्गों में असंतोष और विद्रोह पैदा होना शुरू हो जायेगा। यही वजह है कि पटेल और जाट भी इसे ख़त्म करना असंभव मानकर इसी में घुसकर इसमें अपना हिस्सा बांटना चाहते हैं । जिससे इसका हल यही है कि सरकार सर्वसमावेशी विकास की तरफ बढ़ते हुए लोगों के बीच आय में लगातार बढ़ रही खाई को कम करने के साथ सबका विकास और रोज़गार बढ़ाने के प्रयास शुरू करे नहीं तो ऐसे आंदोलन बढ़ते ही जायेंगे।
   
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा कांटोंभरा बिस्तर नहीं देखा।।

Tuesday 23 February 2016

राष्ट्रवाद नहीं देशप्रेम

देशप्रेम के लिये राष्ट्रवादी होना ज़रूरी नहीं
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

 
0साम्प्रदायिक व हिंसक सोच से कभी भी देश का भला नहीं हुआ!
न तो वामपंथी होना अपराध है और न ही दक्षिणपंथी। अगर देश के कुछ कम्युनिस्ट ग्रुप अतिवादी बनकर नक्सलवादी और माओवादी बन जाते हैं तो उनका खुद वामपंथी सरकारें ही सफाया करने में संकोच नहीं करती। वामपंथी दल अगर भारत की बजाये रूस या चीन का कम्युनिस्ट होने की वजह से पक्ष लेते हैं तो उनका भी विरोध होना चाहिये। वैसे मुझे याद नहीं कभी उन्होंने ऐसा वास्तव मंे किया हो लेकिन आरोप ऐसे ज़रूर लगते रहे हैं। बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट अकसर आरएसएस के साथ वैचारिक टकराव में संघ की तरह हिंसक होते रहे हैं जो गलत है। ऐसे ही जेएनयू में अगर किसी ने चाहे वो कम्युनिस्ट ही क्यों न हो देश विरोधी कुछ किया है तो उसकी निष्पक्ष जांच कराकर कानून के हिसाब से सज़ा बेशक दी जानी चाहिये।
 
 
 जहां तक दक्षिणपंथ का सवाल है यह ज़रूरी नहीं कि जो वामपंथी न हो वो दक्षिणपंथी हो तभी वो देशभक्त होगा। संघ परिवार और मोदी सरकार को यह गलतफहमी है कि जो उनकी तरह राष्ट्रवादी नहीं है वो देशद्रोही है। यही वजह है कि जेएनयू मामले में भाजपा को बैकफुट पर आना पड़ा है। दरअसल यह सोच ही अपने आप में जनविरोधी और अन्यायपूर्ण है कि जो हमारी सोच से सहमत नहीं वो देश विरोधी है। लोकतंत्र में इस तरह की सोच के लिये कोई जगह नहीं हो सकती। यह वही तालिबानी सोच है जो कहते हैं कि जो हमारी बात नहीं मानेगा उसको हम मार डालेंगे। उनके अनुसार वह पक्का सच्चा मुसलमान नहीं है। सच तो यह है कि किसी ने ठीक ही कहा है कि पावर मेक्स करप्ट एंड एब्स्लूट पॉवर मेक्स एब्स्लूट करप्ट।
 
 संघ परिवार को यह लग रहा है कि वे केंद्र की सत्ता में आकर जो चाहें कर सकते हैं और लोगों को जो चाहें मनवा सकते हैं। यह उनकी मात्र खुशफहमी है। वे इतिहास से नहीं सीखते। वे तानोशाह हिटलर का हश्र भूल गये। वे अफगानिस्तान में अवैध घुसपैठ के बाद मुंह की खाने वाले उस समय के सुपर पॉवर रूस का का हाल याद नहीं रख पाये। वे वियतनाम, अफगानिस्तान और ईराक में ताकत के बल पर अमेरिका की बुरी तरह असफलता को भी नहीं देख पाये। उनको यह भी नहीं पता कि देश की जनता नहीं केवल मतदाता जिसने उनको 31 प्रतिशत वोट दिया था उनमें आधे से अधिक राष्ट्रवाद हिंदूवाद और राम मंदिर के पक्ष में नहीं बल्कि विपक्ष में कोई दमदार नेतृत्व न होने से मोदी को एक मौका विकास के लिये देने को उनके साथ आये थे।
 
 जब विकास होता नज़र नहीं आया तो उनकी एक साल बाद ही वापसी भी शुरू हो गयी। संघ जनता पार्टी की सरकार का हश्र भूल गया। संघ आज इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा वाली भाषा बोल रहा है। जेएनयू में विवादित नारेबाज़ी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आतंकी ठहराये गये अफ़ज़ल गुरू पर हुए प्रोग्राम को लेकर जो कुछ हुआ वह देशद्रोह की परिभाषा में आता है या नहीं यह तो निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन कोर्ट के निर्णय से असहमति देशद्रोह होती है या नहीं यह बहस का विषय है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोर्ट वही फैसला करता है जो जानकारी, दस्तावेज़ और गवाह सरकार उसके सामने पेश करती है।
 
 अगर सरकार विचारधारा धर्म पद जाति और दलगत आधार पर पक्षपात करके केवल चुनिंदा मामलों को पुलिस से केस दर्ज कराकर अदालत के सामने सुनवाई के लिये ले जायेगी तो फिर कोर्ट के फैसलों का विरोध भी सरकार का ही विरोध माना जाना चााहिये। खुद सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने फैसले बदलता है पुनर्विचार करता है और वापस तक ले लेता है। सही भी है। कोर्ट में भी इंसान ही जज हैं। वे भी भूल और गलती कर सकते हैं। देश में वामपंथी सोच के समर्थक भी बड़ी तादाद में हैं। अल्पसंख्यक मुसलमान भी राष्ट्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं। इन लोगों को राष्ट्रवाद और वंदेमातरम से परहेज़ रहा है। आप इसके बावजूद उनकी देशप्रेम की भावना पर उंगली नहीं उठा सकते।
 
 इतिहास गवाह है संघ परिवार की देश की आज़ादी में कोई खास भूमिका नहीं रही। आरोप यहां तक है कि वे अंग्रेज़ों की चापलूसी करते थे। अटल जी की तो क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही बाकायदा रिकॉर्ड पर मौजूद है। संघ ने आज़ादी का जश्न भी नहीं मनाया था। संघ ने 50 सााल से अधिक समय तक अपने मुख्यालय पर तिरंगा भी नहीं फहराया। संघ पर साम्प्रदायिक होने, गांधी जी की हत्या की सोच पैदा करने, देश में दंगे कराने, अपने विरोधियों के प्रति हिंसक होने, अफवाह फैलाने, अल्पसंख्यकों व दलितों के खिलाफ सोच रखने, पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ देश में हिंसक आंदोलन चलाने, हिंदू आतंकवाद को शह देने , सुप्रीम कोर्ट को धेखा देकर बाबरी मस्जिद शहीद कराने, ब्रहम्णवादी होने और पूंजीवादियों के एजेंट होने के आरोप भी लगते रहे हैं।
 
 ऐसे में वो किस मंुह से देशभक्ति का दावा कर सकता है? सही मायने में तो देशद्रोह की धारा 124 पर भी सरकार को फिर से विचार करना चाहिये क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने फैसलों से इसके दायरे को सीमित कर चुका है। सरकारें अपने विरोध पर इसको देश का विरोध बताकर अकसर दुरूपयोग करती हैं। सुप्रीम कोर्ट का दो टूक कहना है कि जब तक किसी के किसी काम से देश के खिलाफ हिंसक विरोध का ठोस सबूत न हो तब तक देशद्रोह का केस नहीं बनता। देश के संविधान देश की व्यवस्था देश के प्रतीकों लॉ एंड ऑर्डर जनहित और सेना व कोर्ट के खिलाफ अगर कोई सशस्त्र विद्रोह के लिये पहल करता है तो देशद्रोह का मामला बन सकता है।
 
 संघ परिवार यह दोगलापन कैसे चला सकता है कि जो पीडीपी अफ़ज़ल को शहीद मानती है उसके साथ बीजेपी सरकार बनाती है। जो अकाली आतंकी भिंडरावाला और प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों को शहीद मानते हैं उनके साथ भाजपा सरकार चलाती है। जो गोडसे गांधी जी का हत्यारा था उसका जश्न संघ परिवार के कुछ लोग मनाते है। वामपंथी होना और संघ से असहमत होना कोई अपराध नहीं है। माकपाई भाकपाई नहीं हकीकत तो यह है कि जो इंसान सही मायने मंे वामपंथी होगा वह समाजवादी सेकुलर और मानवतावादी होगा और वह राष्ट्रवादी साम्प्रदायिक और दोगला हो ही नहीं सकता हां वो देशप्रेमी ज़रूर होता है। 
 
 

Tuesday 16 February 2016

JNU में देशद्रोह

ये देशद्रोह है
वो देशद्रोह नहीं ?
-इक़बाल हिदुस्तानी
सिर्फ़ नारेबाज़ी नहीं जनविरोधी सब काम देश विरोधी माने जायें! जेएनयू मे जो कुछ हुआ वह कानून के हिसाब से देशद्रोह है तो कानून को बेशक अपना काम करना चाहिये। भारत के खिलाफ नारे लगाना, हमारे दुश्मन देश पाकिस्तान के समर्थन में आवाज़ उठाना और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर सुप्रीम कोर्ट से मौत की सज़ा पाये एक आतंकवादी के पक्ष में प्रोग्राम करना न केवल हद दर्जे की बेशर्मी और बेहयाई कही जायेगी बल्कि यह लोकतंत्र का दुरूपयोग ही माना जायेगा। इस मामले में यह तर्क भी बचाव का काम नहीं करेगा कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी चूंकि वामपंथियों का गढ़ रही है इसलिये संघ परिवार और उसका छात्र प्रकोष्ठ एबीवीपी जानबूझकर एक सुनियोजित साज़िश के तहत उसको बदनाम कर रहा है। राई का ही पहाड़ बनता है।
 
   सच तो यह है कि वामपंथी सोच के भी कई गुट रहे हैं। इनमें कुछ ऐसे उग्र सोच के भी हैं जो धर्मनिर्पेक्षता और अल्पसंख्यकवाद के नाम पर देशविरोध और मुस्लिम साम्प्रदायिकता और कट्टर हरकतों पर या तो चुप्पी साधे रहते हैं या फिर उनका सपोर्ट करते हैं। यह  सोच प्रतिगामी और अंतरविरोध वाली है जिससे हिंदू साम्प्रदायिकता और मज़बूत होती है। वास्तविकता तो यह है कि जब हम किसी सोच, धर्म, जाति, क्षेत्र या दल से बंध जाते हैं तो एक तरह से पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं। हमें सच देखने के लिये निष्पक्ष और ईमानदार होना चाहिये। इस ताज़ा जेएनयू प्रकरण में कहीं से कहीं तक भी वामपंथी सोच के इस धड़े की देश विरोधी हरकत का समर्थन नहीं किया जा सकता।
 
 
   चाहे इसकी वजह वहां कशमीरी अलगावादी सोच के मुट्ठीभर छात्र और बाहर से आये उनके सपोर्टर ही रहे हों लेकिन आयोजक इस ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते। हम अपने हाथ से अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकते। वामपंथी भी इंसान हैं। इंसान गल्ती और जुर्म भी करता है। इस मामले में कम्युनिस्टों ने भूल की है। विपक्ष की यह मांग तो ठीक है कि बेकसूरों को सज़ा नहीं मिलनी चाहिये लेकिन यह भी ज़रूरी है कि अपराधी किसी कीमत पर भी बचने नहीं चाहिये। जेएनयू की इस घटना से कुछ सवाल मेरे दिमाग़ में कई दिन से घूम रहे हैं कि देश के खिलाफ नारे लगाना, दुश्मन देश के पक्ष में नारे लगाना और किसी आतंकी को शहीद बताना तो देशद्रोह है। लेकिन ऐसे और भी कई काम हैं जो देश की जनता को सीधे नुकसान कर रहे हैं।
 
 
   क्या वाणी से ही देशद्रोह होता है कर्म से नहीं ? जनविरोधी वे सभी काम देशद्रोह की परिभाषा में क्यों शामिल नहीं हैं ? माओवाद और आतंकवाद में अंतर किया जाता है क्यों? माओवादी 78 सीआरपीएफ जवानों को घेरकर मार डालते हैं, ट्रेन बम से उड़ा देते हैं और एक पार्टी के काफिले को घेरकर दर्जनों लोगोें को मौत के घाट के उतार देते हैं लेकिन तब इतना शोर नहीं मचता जितना अब मच रहा है। बड़े बड़े लोग 130 करोड़ लोगों का हक मारकर करोड़ों अरबों रूपयों के टैक्स की चोरी कर काला धन विदेश में जमा करा देते हैं तो देशद्रोह नहीं होता? बिजली चोरी होती है और बैंको का अरबों खरबों रूपया डकार लिया जाता है तो देशद्रोह नहीं होता?
  देश क्या ज़मीन का एक हिस्सा मात्र है? उसकी जनता का भूमि के उस टुकड़े से कोई सरोकार नहीं है? क्या जनता को माइनस करके भी कोई देश राष्ट्र बना रह सकता है? खाने पीने के सामान और दवा में मिलावट कर हज़ारों लाखों लोगोें को बेवक्त मरने दिया जाता है तो देशद्रोह नहीं होता? गरीब आदमी बिना इलाज के मर जाये तो देशद्रोह नहीं होता? भ्र्रष्टाचार से कमीशन खाकर ऐसी इमारते, सड़के और पुल बनाये जाते हैं जिससे सैकड़ों हज़ारों लोग दुर्घटना होने पर मारे जाते हैं तो देशद्रोह नहीं होता? फ़र्जी डिग्री बेची जाती हैं, सेना के लिये नकली बुलैटप्रूफ जैकिटें रिश्वत खाकर खरीदी जाती हैं, जिससे हमारे सैनिक दुशमन के हाथों बेवक्त शहीद हो जाते हैं।
 
 
   लैब में जांच रिपोर्ट पैसा खाकर बदल दी जाती हैं, नेता दंगा कराकर वोटबैंक बनाते हैं, आरक्षण की मांग को लंबे समय तक रेल और सड़क जाम होती हैं, कभी कभी मीडिया न्यायपालिका और स्कूल  पैसे कमाने को जनता को गुमराह करते हैं, सस्ते और घटिया हथियार पुलिस अर्धसैनिक बलों को थमाये जाते हैं, सीमा, कस्टम और चैक पोस्ट पर बंधी बंधाई रकम खाकर देशविरोधी सामाग्री देश में घुसने दी जाती है, दूध के नाम पर ज़हर बेचा जाता है, पुलिस फर्जी एनकाउंटर कर देती है, फर्जी केस दर्ज कर बेकसूरों को जेल भेज देती है, आतंकवादी बताकर दसियों साल को जीते जी उनके पूरे परिवार को बदनाम कर देती है, नेताओं अमीरों और अपराधियों को क्लीनचिट दे देती है तब देश्द्रोह नहीं होता???
 
 
  अब मोदीभक्त यह न कहें कि जेएनयू के देशद्रोह मामले से इन सवालों का क्या मतलब है? जब असहिष्णुता बढ़ने के मामले में कलाकार अपने पुरस्कार वापस कर रहे थे तो तब संघ परिवार भी तो ऐसे ही सवाल उठा रहा था कि अब क्यों तब क्यांे नहीं लौटाये थे सम्मान? हमारा कहना इतना है कि देशद्रोह का मामला हो या देश विरोध का या आतंकवाद का  हमारी सामाजिक, धार्मिक, जातीय राजनीतिक पार्टियों और सरकार की सोच निष्पक्ष होनी चाहिये। आज सबसे बड़ी समस्या हमारा यह दोगलापन ही है कि जब हम पर आंच आती है तो हम बहुत चीख़ते चिल्लाते हैं लेकिन जब दूसरों पर कोई जुल्म ज्यादती या नाइंसाफी होती है तो हम यह सोच कर चुप्पी साध लेते हैं कि हमारा विरोधी है तो सबक मिलने दो।
    ये दो पैमाने समाज सरकार और देश को आगे नहीं बढ़ने देते । जो ठीक है वो ठीक है। जो गलत है वो गलत है। गलत और सही आदमी विचारधारा पार्टी हैसियत और धर्म देखकर जब तक तय होगा यह समस्या सुलझेगी नहीं और उलझती जायेगी। वैचारिक और तार्किक लड़ाई को हिंसा और सत्ता की शक्ति से कभी जीता नहीं जा सकता। इसका सबसे बड़ा नमूना दुनिया का सबसे बड़ा दारोगा अमेरिका है जो अफगानिस्तान और ईराक से मुंह की खाकर आतंक को और मज़बूत कर आया है।
    
दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये,
आईना सामने रख लिया कीजिये ।।