Thursday 28 May 2020

कोरोना के दौर में ईद

ईदः मेरे हमवतन दुखीमैं कैसे मनाता खुशी ?

0इस बार ज़िंदगी की पहली ईद ऐसी आई। जिसको मनाने का मन ही नहीं किया। ना तो हमने नये कपड़े बनाये और ना ही तरह तरह के पकवान। ना तो हमारे घर कोई आया। ना ही हम किसी के घर गये। हालांकि पिछले साल ही हमारे बाबूजी के दुनिया से विदा होने के बाद आई पहली ईद पर भी हम दुखी ज़रूर थे। लेकिन आप विश्वास कीजिये इतना अकेलापन इतना दुख इतनी बेचैनी तब भी नहीं थी। जितनी इस बार लॉकडाउन के भयावह दर्दनाक और कलेजा मुंह को लाने वाले कभी ना भूलने वाले हादसों लम्हों व चीख़ती तस्वीरों को देखकर हुयी।       

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   कोई माने या ना माने मुझे लगा था कि सरकार ने चौथे दौर के लॉकडाउन में जो बड़े पैमाने पर नागरिकों को छूटें और आज़ादी दी थी। उसके पीछे अन्य वजहों के साथ ही मुस्लिम भाइयों को ईद की खरीदारी करने ईद ठीक से मनाने व अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने की आज़ादी देने के लिये भी गुंजाइश नज़र में रखी थी। चंद लोगों ने कोरोना लॉकडाउन और तबाह व बर्बाद होती इकॉनोमी को नज़रअंदाज़ करके ईद को अपने परंपरागत तरीके से मनाया भी होगा। लेकिन हमने अपने आसपास दोस्तों रिश्तेदारों से फोन पर बात करके पता किया तो ज़्यादातर लोगों ने ईद पर कोई खास जश्न नहीं मनाया।

    जहां तक हमारा अपना सवाल है। हम सोशल मीडिया पर बहुत अधिक समय बिताते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि जहां मेनस्ट्रीम मीडिया पर देश और दुनिया की सच्ची तस्वीर देखने को नहीं मिलती। वहीं सोशल मीडिया पर इतनी ज़्यादा गहराई बारीकी और शिद्दत से सब कुछ टैक्सट ऑडियो और वीडियो की शक्ल में हर पल हम तक पहंुच रहा है कि दिल और दिमाग़ उन लोगों की तकलीफ़ों दर्द व चीखों से लबालब भरा रहता है। हालत यह है कि ऐसा लगता है कि कोई अपना हमवतन बिल्कुल नज़दीकी या खास भूख प्यास रेल रोड एक्सीडेंट कोरोना से जान गंवा चुका है।

    हज़ारों कि.मी. पैदल चलतासाइकिल रिक्शा और बैलगाड़ी दूध व तेल के टैंकर ट्रकों में बंद होकर मौत और ज़िंदगी के बीच झूलता अपने घर जाने को छटपटा रहा है। कोई सड़कों पर 48 डिग्री तपिश में बेसहारा परेशान और लाचार कर्राह रहा है। चीख़ रहा है। रो रहा है। मदद के लिये आवाज़ें दे रहा है। छोटे मासूम बच्चे रोटी रोटी भात भात चिल्ला रहे हैं। पानी की एक एक बूंद को रेगिस्तान व कर्बला की तरह तलाश रहे हैं। ये सब देखकर मेरी भूख उड़ गयी है। मुझे कई रात नींद नहीं आती। कई बार सोचता हूं नींद की दवा लेनी पड़ेगी। कई बार सोचता हूं किसी मनोचिकित्सक से मिलकर सलाह लेनी होगी।

    कई बार अपने इन दुखी हमवतनों की वेदना व्यथा और आंखों से बहते आंसू देखकर मन इतना दुखी हो जाता है कि मैं खुद बैठे बैठे रोने लगता हूं। अचानक हालात पर गुस्सा आने लगता है। बहुत अधिक तनाव महसूस करने लगता हूं। करोड़ों इंसानों के इन दुखों को दो माह से देखते सुनते और पढ़ते रहने से यह दीवानगी बैराग और अजीबो गरीब हालत हो गयी है कि बिना किसी ठोस और बड़ी वजह के परिवार के सदस्यों दोस्तों व संबंधियों से बात करने हंसने बोलने या मनोरंजन को दिल नहीं चाहता है। शेविंग किये एक अरसा बीत गया है।

    कपड़ों पर पै्रस करानी छोड़ दी है। खूश्बू लगाने का शौक कब का विदा हो चुका है। जूते मौज़े पहनने का मतलब ही नहीं है। जब कहीं जाना ही नहीं है। मांस खाना छोड़ दिया है। मिठाई का चाव था लेकिन वह भी बंद कर दी। कराओके सिस्टम पर गाने गया करता था। अब वे तो क्या अच्छे लगेेंगे गाने सुनना तक नहीं सुहाता। हालांकि मन को अकसर समझाता भी हूं कि कभी कभी हालात इंसान के काबू से बाहर हो जाते हैं। एक दिन सब ठीक हो जायेगा। लेकिन दिल है कि मानता नहीं। ऐसे में ईद आई और चली गयी। जब मेरे हमवतन खुश होंगे। लॉकडाउन पूरी तरह खुल जायेगा। कोई भूख प्यास गरीबी लाचारी या कोरोना से नहीं मरेगा। उसी दिन हमारी सच्ची और अच्छी ईद होगी।

0अंध्ेारे मांगने आये थे हमसे रोश्नी की भीख,

 हम अपना घर ना जलाते तो और क्या करते।

;लेखक नवभारत टाइम्स डॉटकॉम के ब्लॉगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं 

Sunday 24 May 2020

लॉकडाउन में मज़दूर

लॉकडाउन-4: मज़दूर कल भी था मजबूर,आज भी है लाचार!

0कंेद्रीय श्रम मंत्री थावरचंद गहलौत के नेतृत्व में बने मंत्रियों के समूह के अनुसार देश में लॉकडाउन से 9 करोड़ 30 लाख मज़दूर बेरोज़गार हुए हैं। जो कुल श्रम शक्ति का 27.1प्रतिशत है। जबकि दि सेंटर ऑफ़ मॉनिटरिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनोमी के मुताबिक यह आंकड़ा 11 करोड़ 40 लाख से अधिक है। हर साल 1 करोड़ 20 लाख नये नौजवान रोज़गार की तलाश में घर से निकलते हैं। लेकिन 2017-18 में देश में 45 साल में अब तक की सबसे अधिक 6 प्रतिशत बेरोज़गारी बढ़कर कुल 24प्रतिशत लोग खाली हाथ थे। अब ये लॉकडाउन से और बढ़ गये।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   24 मार्च को पहली बार जब हमारे पीएम मोदी ने चार घंटे से भी कम के नोटिस पर देश के 138 करोड़ लोगों को घरों मेें बंद रहने का फ़रमान सुनाया तो कोरोना से बचने को जान है तो जहान है का नारा सबको ठीक ही लगा था। लेकिन अगले दो चार दिन बाद ही जब करोड़ों प्रवासी मज़दूरों को सरकार के वादे के मुताबिक खाना पानी शैल्टरहाउस और दवा मिलने में व्यवहारिक समस्यायें सामने आने लगीं तो तमाम दावों के बावजूद हमने देखा कि राज्यों की सरकारें भी इतनी बड़ी आबादी को सुविधायेें उपलब्ध कराने मेें लाचार नज़र आने लगीं।

  जिस दिन पहली बार लॉकडाउन किया गया। तब तक देश में कोरोना पॉज़िटिव मरीज़ों की संख्या मात्र 552 थी। यानी उसी समय अगर स्वास्थ्य विशेषज्ञों वायरॉलोजी के वैज्ञानिकों महामारी सलाहकारों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा करके पूरी योजना बनाकर लॉकडाउन किया जाता तो प्रवासी मज़दूरों और जो लाखों लोग अचानक जहां के तहां फंस गयेउनको कोरोना संक्रमण का न्यूनतम जोखिम उठाकर उनके राज्य ज़िला नगर या गांव पहंुचाया जा सकता था। खुद सरकार मानती है कि देश में कुल मज़दूरों का 93प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करता है।

   यानी 10 करोड़ से अधिक प्रवासी श्रमिक जहां काम करता है। उसका रिकॉर्ड उससे काम लेने वाले मालिक भी नहीं रखते। यहीं से एक बड़ा सवाल उठता है कि जब राज्य और केंद्र सरकार के पास 90 प्रतिशत से अधिक प्रवासी श्रमिकों का रिकॉर्ड ही नहीं है तो यह दावा कैसे कर दिया गया कि जो मज़दूर जहां है वहीं रहे उसको भोजन राशन और सब अन्य सुविधायें वहीं पहुंचा दी जायेंगी। यह दावा पूरा करना कठिन ही नहीं असंभव था। प्रवासी श्रमिकों के मालिकांे ने उनको बिना काम वेतन तो दूर खाना और उनका बिना किराये के रहना तक स्वीकार नहीं किया।

    इसके बाद राज्य सरकारों ने कम्युनिटी किचन बनाकर जगह जगह खाना बांटना शुरू किया। लेकिन पका हुआ खाना बांटने के केंद्र इतनी दूर दूर और इतने कम थे कि मज़दूरों को वहां तक पहुंचने के लिये आधी रात को लाइन में लगने को निकलना पड़ता था। रात में उनको पुलिस रोकती और मारती थी। एक प्रॉब्लम यह भी थी कि पूरा परिवार भोजन लेने नहीं आता था तो उसको एक ही आदमी का खाना मिलता था। वह भी 24 घंटे में एक बार आधा अधूरा पका अधपका ही दाल भात मिल रहा था। कुछ मज़दूरों को राशन दिया गया। लेकिन उसके पास कमरे पर उसे पकाने को मसाले चूल्हा और दूसरा ज़रूरी सामान ही नहीं था।

    ज़ाहिर है कि ये सब अधिक दिन चलने वाला नहीं था। लिहाज़ा मज़दूरों ने पैदल ही अपने घर जाने को हज़ारों कि.मी. सड़कें नापनी शुरू कर दीं। मरता क्या नहीं करतायानी वे अपने घरों के लिये ना निकलते तो भूखे प्यासे ही मर जातेइस दौरान सफर में मरने वालों का सरकारी आंकड़ा लगभग 150 के आसपास है तो गैर सरकारी 600 के लगभग है। केंद्र ने तब भी इनके लिये रेल नहीं चलाई। खाये अघाये अमीर और सम्पन्न लोग जिन्होंने विदेशों से चारटर्ड प्लेन व देश के कोटा जैसी कोचिंग हब से अपने बच्चों को ए.सी. बसों से अपने घर बुलाकर राहत की सांस लीं।

    वो बार बार यह सवाल उठाते रहे कि ये मज़दूर घर जा ही क्यों रहे हैंकिसी कवि ने ठीक ही कहा है कि जिसके पैर ना पड़ी बिवाई,वो क्या जाने पीर पराईइसके बाद पूरी दुनिया में थू थू होने पर लॉकडाउन 2 से 3 और 3 से चार होने के बाद सरकार इन मज़दूरों को इनके घर भेजने को बेमन से तैयार हुयी। इसका भी इनसे लागत से बहुत अधिक किराया वसूल किया गया। इस दौरान पहले औरंगाबाद में 16मज़दूर रेल से कटकर तो बाद में औरया में वाहन टकराने से 24 श्रमिकों की दर्दनाक मौत हुयी। कुछ भूख प्यास से कुछ और अन्य बीमारी व कारणों से मारे गये। लेकिन हमारे शासकों के कान पर जूं नहीं रेंगी।

   गर्भवती महिला मज़दूरों की डिलीवरी तक सड़क पर हुयी। एक बच्चे को एक मां अपने सूटकेस पर लेटाकर खींच रही थी तो एक बाप अपनी बैलगाड़ी का एक बैल खाना खरीदने को बेचकर अपने युवा बेटे को बैल की जगह इस्तेमाल कर रहा था। इस दौरान हिंदू मुस्लिम मज़दूरों की एक दूसरे को मानवता के आधार पर रास्ते में बीमार पड़ने या मरने पर खून के रिश्तों की तरह मदद करने और अपनी जान तक दांव पर लगाने की मार्मिक तस्वीरें भी सामर्ने आइं। अफ़सोसनाक बात यह रही कि जब इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी तो कोर्ट ने सरकार से जवाब तलब तो किया लेकिन कोई राहत नहीं दी।

    सरकार ने अदालत में एक अपै्रल को कोरा झूठ बोल दिया कि एक भी मज़दूर सड़क पर पैदल नहीं जा रहा। जो जा रहे थे वे अफवाह का शिकार थे। अब उनको आसपास के स्थलों पर शरण दे दी गयी है। इसके बाद 28 अपै्रल को जब एक बार फिर कोर्ट ने सरकार से पूछा कि उसके पास प्रवासी मज़दूरों के लिये क्या योजना हैतो केेंद्र सरकार ने यह कहकर एक बार फिर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया कि राज्यों से चर्चा करके बतायेंगे।

    इतना ही नहीं कर्नाटक सरकार ने तो पूरी बेशर्मी से इनके लिये चलने वाली सारी रेलें ही रद्द कर दीं। बाद में जब हंगामा मचने पर रेल चलीं तो वहां के हाईकोर्ट ने यह आदेश कर दिये कि जो भी मज़दूर राज्य में आयेंगे वे तभी घुस पायेंगे जब अपना कोरोना टैस्ट करा लें। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगाई। ऐसे ही मज़दूरों की भलाई के नाम पर राजस्थान यूपी और अन्य सरकारों ने काम के घंटे बढ़ाकर12 कर दिये। जो कोर्ट के आदेश पर बाद में वापस लेने पड़े। लेकिन अभी भी पक्ष विपक्ष केे कई राज्यों ने लैबर एक्ट को लागू करने से तीन साल के लिये मना कर दिया है।

    मज़दूरों को घर भेजने से लेकर खाना और यात्रा किराया वेतन व रोज़गार देने तक की आड़ में जो कुछ सभी दलों की सरकारें गरीब विरोधी काम कर रही हैं। उससे लगता है एक बार फिर बंधुआ मज़दूर यानी गुलामी का दौर वापस लौट आया है।                                                                    

Sunday 17 May 2020

कोरोना पैकेज

पैकेज नहीं बॉन्ड हैप्रॉब्लम सप्लाई नहीं डिमांड है!

0कोरोना संकट से निबटने को पीएम मोदी ने जो 20 लाख करोड़ का पैकेज दिया है। उसका हर किसी ने ऐलान होते ही स्वागत किया था। लेकिन जब वित्तमंत्राी ने इसको चार दिन तक विस्तार से समझाया तो विपक्षी नेता राहुल गांध्ी पूर्व वित्तमंत्राी चिदंबरम और अन्य अर्थ विशेषज्ञों ने इसे एक तरह से बॉन्ड यानी कर्ज़ बताते हुए गरीबों को सीध्े नक़द मदद दिये जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। जिससे बाज़ार में डिमांड पैदा हो और रोज़गार के अवसर बढे़ं।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   पीएम मोदी ने लॉकडाउन का ऐलान करते हुए राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोध्न में कहा था कि जान है जहान है। उनका मतलब यह था कि कोरोना से हम सबकी जान को ख़तरा है। लेकिन जैसे ही लॉकडाउन आगे बढ़ा उन्होंने अर्थव्यवस्था की नब्ज़ पहचानते हुए दूसरे संदेश कहा कि जान भी जहान भी। यानी हमें सेहत का ख़याल रखना है। साथ ही रोज़ी रोटी का भी। इसके बाद देश में कुछ आर्थिक गतिविध्यिों की छूट दी गयी। हालांकि आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई की पहले ही व्यवस्था कर दी गयी थी। लेकिन इससे काम नहीं चला तो 1लाख 70 हज़ार करोड़ का पहला आर्थिक पैकेज दिया गया।

हमारी 130 करोड़ की आबादी के सामने यह पैकेज बहुत छोटा लगा। इसके बाद पीएम मोदी ने हमारी जीडीपी के 10 प्रतिशत के बराबर यानी कुल 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज जब घोषित किया तो सबको लगा कि अब प्रवासी मज़दूरों बीपीएल परिवारों विध्वाओं वरिष्ठ नागरिकों किसानों बेरोज़गारों विकलांगों रोज़ कमाने रोज़ खाने वालों स्वरोज़गार वालों और मीडियम क्लास नागरिकों को नकद सहायता के रूप में बड़ी सहायत मिलेगी। लेकिन चूंकि हमारे पीएम न तो ऐसे मुद्दों पर अपनी कैबिनेट अर्थ विशेषज्ञों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से राय लेते हैं।

इसलिये जब इस विशाल पैकेज की डिटेल सामने आई तो लगा कि यह बाज़ार में डिमांड बढ़ाने की बजाये सप्लाई बढ़ाने की एक बिना सोची समझी योजना है। इससे कई माह पहले भी सरकार ने आरबीआई से 1लाख 46 हज़ार करोड़ रिजर्व पफंड से लेकर बड़ी पूंजीपतियों उद्योगपतियों और कॉरपोरेट सैक्टर को दिये थे। लेकिन उससे रोज़गार बढ़ना तो दूर और उल्टा लोगों की नौकरियां जाने का सिलसिला दिन ब दिन तेज़ होता गया। पीएम मोदी ने यह ऐतिहासिक पैकेज देते हुए एक लाइन यह भी जोड़ी थी कि पहले के राहत पैकेज और रिज़र्व बैंक द्वारा बढ़ाई गयी लिक्विडिटी को भी इस पैकेज में जोड़ लिया गया है।

दरअसल सारा खेल इसी एक लाइन में था। यह तो माना जा सकता है कि पहले का 1,70,000करोड़ इसमें जोड़ लिया जाये। लेकिन पीएम ने आरबीआई का पफ़रवरी व मार्च में बैंको को 8लाख 04 हज़ार करोड़ का लिक्विडिटी पफंड मंे इसमें जोड़ लिया। जो बैंको को विभिन्न क्षेत्रों को लोन उपलब्ध् कराने के लिये दिया गया है। इन दोनों को जोड़ें तो कुल 9 लाख 74हज़ार करोड़ तो इसका मतलब पहले ही दिया जा चुका है। आगे सरकार एमएसएमईज़ यानी माइक्रो स्मॉल और मिनी एन्टरप्राइजे़ज को बाकी बची रकम 10 लाख 26 हज़ार करोड़ में से 3 लाख 70,000 करोड़ का पैकेज लोन के रूप में अपनी आसान गारंटी और कुछ ब्याज सब्सिडी पर देगी।

    ऐसे ही बिजली सप्लाई करने वाली डिस्कॉम को 90,000 करोड़ एनबीएपफसीज़ एचएपफसीज़ और एमएपफ़आईज़ को75,000 करोड़ टीडीएस टीसीएस एवं ईपीएपफ में कंपनियों की तरपफ से उनका हिस्सा 56,750 करोड़ व रियल स्टेट को40,000 करोड़ हाउसिंग को 70,000 करोड़ किसानों को कर्ज़ के लिये 2 लाख 36000करोड़ और सबसे कम पफेरी लगाने वालों को5000 करोड़ व प्रवासी मज़दूरों को मात्रा3500 करोड़ के साथ बाकी बची रकम 79750करोड़ अन्य विभिन्न मदों में वित्तमंत्राी घोषित करेंगी।  

    अर्थव्यवस्था के जानकारों रघुराम राजन अमतर््य सेन और अभिजीत बनर्जी आदि व विपक्ष का कहना सही लगता है कि इस समय लगभग 12 करोड़ मज़दूर बेरोज़गार हो चुके हैं। उनके परिवार के औसत 5 सदस्य भी मानें तो ये संख्या 60 करोड़ यानी हमारी आबादी का कुल आध हिस्सा है। ऐसे ही स्वरोज़गार वाले किसान वकील मीडियाकर्मी और अन्य वर्गों के रोज़गार खो बैठे लोगों को जोड़ा जाये तो इनकी तादाद देश की आध्ी आबादी से भी अध्कि हो जायेगी। ऐसा नहीं है कि इनको लॉकडाउन खुलने के बाद भी काम नहीं मिलेगा। लेकिन अभी कई महीने या साल दो साल बाद तक भी इनको रोज़गार वंचित रहना पड़ सकता है।

    अर्थव्यवस्था के दो महत्वपूर्ण पहिये होते हैं। एक डिमांड दूसरा सप्लाई। आप बाज़ार में जाकर देखें तो आपको शायद ही किसी चीज़ की कमी मिले। देश में हर वस्तु के गोदाम भरे पड़े हैं। दुकानदार और होलसेल डीलर आगे और ऑर्डर देने को तैयार नहीं है। उसका कहना सही है कि बाज़ार में मांग नहीं है। मांग इसलिये नहीं है कि लोगों की जेब में पैसा नहीं है। उनके रोज़गार चले गये हैं। ऐसे में सरकार ने बैंको के ज़रिये और अध्कि रकम लोन उपलब्ध् कराकर उल्टा काम किया है। बैंको का एनपीए पहले ही बढ़ता जा रहा है। उद्योगपति मांग न होने से और अध्कि उत्पादन करने को और अध्कि कर्ज़ लेेन को तैयार नहीं है।

    बैंक और एनपीए बढ़ने के डर से नया लोन देने को तैयार नहीं है। इससे रोज़गार बढ़ने की बजाये और घटने की आशंका इसलिये भी बढ़ जाती है कि ध्ंध ना चलने से कंपनियां और अध्कि लोगों को नौकरी से निकालकर अपनी लागत व खर्च कम करना चाहेंगी। इसलिये सरकार से पैकेज में लोन के रूप में एक तरह से बॉन्ड नहीं डिमांड बढ़ाने को आध्ी से अध्कि परेशान किसान गरीब व बेरोज़गार जनता के बैंक खाते में सीध्े नक़द रकम जो 20 लाख करोड़ भाग 130 करोड़ कर दी जाती तो लगभग हर किसी को 15000 रू. दिये जाने की आशा थी। लेकिन प्रॉब्लम वही है कि जिनके हाथ में सत्ता है। वे खुद जानते नहीं और एक्सपर्ट व विपक्ष की सलाह मानते नहीं।                                         

कोरोना और काँग्रेस

मोदी के हर फै़सले का अंध विरोध ना करे कांग्र्रेस!

0पहले कांग्रेस ने कोरोना को काबू रखने के लिये लगाये गये लॉकडाउन का विरोध किया। उसके बाद मीडिया को जारी होने वाले सरकारी विज्ञापनों का विरोध करते हुए उनको रोकने की मांग की। और अब कांग्रेस सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाले महंगाई भत्ते की चंद किश्तों को रोकने पर मोदी सरकार को कोस रही है। इसके बावजूद जनता में मोदी की लोकप्रियता और कांग्रेस का विरोध दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। कांग्रेस को सोचना चाहिये कि ऐसा क्यों है?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   लोकतंत्र में बेशक विपक्ष का काम सत्तापक्ष की गलत नीतियों फैसलों और मनमानी का विरोध करना होता है। लेकिन विरोध के लिये विरोध करने से जिसका विरोध किया जाता है। वह पहले से और अधिक मज़बूत होता जाता है। साथ ही जो सहानुभूति और समर्थन विरोध करने वाले विपक्ष को जनता का मिलना चाहिये था। वह भी उल्टे कम होता जाता है। आजकल कांग्रेस जो मुख्य विपक्षी दल हैउसके साथ कुछ ऐसा ही मामला हो रहा है। 2014 में जब से कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बाहर हुयी है। उसने इस मुद्दे पर कभी गंभीरता से चिंतन मनन नहीं किया कि क्या वजह है कि 2019 आते आते वह और भी कमज़ोर और पीएम मोदी लगातार मज़बूत होते जा रहे हैं। कोरोना से निबटने को लेकर यह ठीक है कि मोदी सरकार से कुछ भूल कमियां और विशेषज्ञों से विचार विमर्श की कमी रही है। लेकिन इस मुद्दे पर कोई दो राय नहीं है कि इसका असर कम करने को फिलहाल सरकार के पास लॉकडाउन ही एकमात्र इलाज था। लेकिन कांग्रेस ने इसका विरोध करके खुद अपना राजनीतिक नुकसान किया। इसके बाद जब राहत पैकेज की बात आई तो यह भी ठीक है कि सरकार गरीब कमज़ोर और असहाय वर्ग को उतनी सहायता राशि राशन या पका हुआ भोजन नहीं परोस पाई जितना ज़रूरत थी। लेकिन पैसे की कमी पूरी करने को सरकार को मीडिया के हज़ारों करोड़ के विज्ञापन बंद करने का सुझाव देना कांग्रेस का मानसिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है। इससे बचा खुचा मीडिया भी कांग्रेस के खिलाफ हो गया। दूसरे मीडिया जिसका बड़ा हिस्सा पहले ही मोदी सरकार के गीत गा रहा था। पहले से अधिक मोदी सरकार के पक्ष मंे झुक गया। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाता है। आज नहीं तो कल वह ज़िंदा रहेगा तो उसके निष्पक्ष रहने का रास्ता भी निकल सकता है। इसके बाद कांग्रेस ने मोदी सरकार के अब तक के सबसे अच्छे न्यायसंगत और सामाजिक समानता के फैसले सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के तीन महंगाई भत्ते रोकने के फैसले का विरोध करके अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। क्या कांग्रेस को पता नहीं है कि केंद्र सरकार के 48 लाख कर्मचारी और 65 लाख पेंशनभोगी लोगों के जनवरी जुलाई 2020 और जुलाई 2021 के डीए की तीन किश्तें रोकने से सरकार को 37,530करोड़ रू. की बचत होगी। अगर राज्य सरकारें भी ऐसा करें तो 82,566 करोड़ रू. की बचत हो सकती है। अगर ये दोनों रकम जोड़ें तो एक लाख करोड़ से अधिक होगी। ये सब पैसा कोरोना से लड़ने को स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च हो तो हमारा हैल्थ बजट दोगुना हो जायेगा। ज़ाहिर है जिस तेज़ी से कोरोना के केस सामने आ रहे हैं। उसका असली उभार जून जुलाई में पीक पर होगा। ऐसे में हमें कोरोना से लड़ने को पहले से अधिक बजट की ज़रूरत होगी। ऐसे में कोई भी मोदी सरकार के इस फैसले को गलत नहीं बता सकता। अलबत्ता कांग्रेस की मोदी सरकार से बुलैट ट्रेन और सेंटर विस्टा के निर्माण की मांग फिलहाल रोकने को उचित माना जा सकता है। लेकिन जहां तक उसका सरकारी कर्मचारियों के डीए रोकने से कम वेतन वालों को समस्या आने का लचर तर्क का सवाल हैवह पूरी तरह गलत है। मिसाल के तौर पर दिल्ली के एक सरकारी चपरासी का मूल वेतन 18000 है। उसमें डीए और अन्य भत्ते जोड़े जायें तो यह लगभग 30,000 हो जाता है। नेशनल सैंपल ऑर्गनाइजे़शन का कहना है कि पांच लोगों के परिवार के लिये किसी सरकारी कर्मचारी का यह सबसे कम वेतन देश के 85 प्रतिशत लोगों की कुल मासिक आय से अभी भी अधिक है। एन एस ओ के 2017-18 के 75वें दौर के मासिक खर्च के आंकड़े जोड़कर देखा जाये तो उस कर्मचारी को 1500 रू. के डीए का नुकसान होगा। लेकिन दिल्ली के ही निजी क्षेत्र के अकुशल श्रमिक के 14,842 वेतन के सापेक्ष यह अभी भी अधिक है। सरकारी सर्वे बताते हैं कि देश के अधिकांश परिवार 10,000 से कम मासिक आय पर जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कांग्रेस किस वर्ग के पक्ष में खड़ी हैक्या कांग्रेस नहीं जानती कि कोरोना के बाद लगे लॉकडाउन से 12 करोड़ मज़दूरोें की नौकरी चली गयी है। क्या उसको यह नहीं पता कि स्वरोज़गार वाले करोड़ों लोग मजबूरन घरों में बंद रहकर अपने कारोबार से पूरी तरह हाथ धो बैठे हैं। क्या कांग्रेस यह भी नहीं जानती कि तमाम निजी क्षेत्र की नौकरी जा रही हैं। हालत यह है कि 80 लाख से अधिक प्राइवेट कर्मचारियों ने अपना 3200 करोड़ से अधिक का भविष्य निधि का पैसा भुखमरी से बचने को रिटायर होने से पहले ही निकाल लिया है। जहां तक सरकारी कर्मचारियों के हाथ में अधिक पैसा आने से बाज़ार में मांग बढ़ने का कांग्रेस का दावा है। अगर यह पैसा गांवों और गरीबों के हाथ में आये तो बाज़ार में अधिक मांग निकलती है। अलग अलग राज्यों में फंसे हुए मज़दूरों के लिये रेल चलने पर मोदी सरकार द्वारा किराया वसूलने पर उनका किराया कांग्रेस द्वारा दिये जाने का मास्टर स्ट्रॉक सोनिया गांधी का अब तक का सबसे सही और बड़ा सराहनीय फैसला था। मगर बाकी मामलों में अनेक गल्ती मनमानी और देरी करने के बावजूद मोदी सरकार को कांग्रेस और विपक्ष अब तक ठीक से घेर नहीं पाया है। अलबत्ता केरल दिल्ली और राजस्थान की कई विपक्षी राज्य सरकारों ने कोरोना से सफलतापूर्वक निबटकर देश के सामने एक शानदार मिसाल ज़रूर पेश की है।                                                     

Tuesday 5 May 2020

कोरोना हर्ड इम्युनिटी

कोरोना हर्ड इम्युनिटी: लॉकडाउन का ख़तरनाक विकल्प ?

0सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मारकंडेय काटजू ने लॉकडाउन को कोरोना से बचाव ना मानते हुए इसे तत्काल हटाने की मांग की थी। अब रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने रोज़ एक लाख लोगों के टैस्ट किये बिना लॉकडाउन को निरर्थक बताया है। विपक्षी कांग्रेस नेता राहुल गांधी तो पहले ही इसे पॉज़ बटन बता चुके हैं। लेकिन अब दुनिया में लॉकडाउन का विकल्प हर्ड इम्युनिटी को लेकर चर्चा तेज़ हो गयी है। रिसर्च क्या कहती हैं?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   प्रैस कौंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मारकंडेय काटजू ने कहा कि कोरोना बेशक बड़ी घातक महामारी है। लेकिन इससे लॉकडाउन लगाकर नहीं निबटा जा सकता क्योंकि ऐसा करने से देश की40 से 50 करोड़ जनता रोज़गार छिनने और घरों में बंद होने से भूख से मरने का ख़तरा है। उनका यह भी कहना है कि आंकड़े बताते हैं कि हर साल दुनिया ही नहीं भारत में इन्फुलुएंज़ा,मलेरियाडेंगूटीबीकैंसर और डायबिटीज़ से लाखों लोग मरते हैं। उनका मतलब शायद यह था कि कोरोना से इन बीमारियों से अधिक लोग नहीं मरेंगे।

लेकिन यहां काटजू साहब यह भूल गये कि अगर किसी के यहां साल में दो तीन बार चोरी होती है तो क्या चौथी बार चोर को चोरी की इजाज़त केवल इस वजह से ही दे दी जाये कि उसके यहां तो चोरी पहले से ही होती चली आ रही हैै। साथ ही यह भी याद रखना चाहिये कि कोरोना छुआछूत की सी महामारी है। जो संपर्क मंे आने वाले दूसरे लोगों को लगातार संक्रमित करती रहेगी। जबकि हर साल होने वाली अन्य बीमारियों का स्वभाव ऐसा नहीं है। जहां तक रघुराम राजन का सवाल है। उनकी इस बात में दम है कि अमेरिका में रोज़ डेढ़ लाख टैस्ट हो रहे हैं।

जबकि उसकी आबादी 30 करोड़ है। हमारे देश में मात्र 25 से 30 हज़ार टैस्ट हो रहे हैं। जिनको बढ़ाकर कम से कम एक लाख किया जाना चाहिये। अगर अमेरिका के हिसाब से चलें तो यह संख्या पांच लाख तक होनी चाहिये। यह बात भी सही है कि जितने अधिक लोगों का टैस्ट होगा। उतने ही अधिक कोरोना पॉज़िटिव हम तलाश सकेंगे। उनका लॉकडाउन के चलते उपचार करके अन्य लोगों को संक्रमण होने से बचाया जा सकेगा। अमेरिका की पिं्रसटन यूनिवर्सिटी की रिसर्च में पता चला है कि अगर लॉकडाउन का विकल्प हर्ड इम्युनिटी को माना जाये तो इसके लिये देश के 60 प्रतिशत लोगों को संक्रमित होने के लिये 7 माह का समय लगेगा।

इसके बाद कोरोना का वायरस नये शिकार नहीं तलाश कर पायेगा। हालांकि अभी भी कोरोना होकर उबर चुके लोगों के खून से प्लाज़मा लेकर अन्य कोरोना रोगी को चढ़ाने से उसकी इम्युनिटी बढ़ने की बातें सामने आ रही हैं। लेकिन हमारी सरकार का कहना है कि यह अभी अनुसंधान का मामला है। यह बात साफ है कि न तो अभी कोरोना की कोई वैक्सीन बनी है। ना ही कोरोना की कोई दवा सामने आई है। ऐसे मंे सवाल यह है कि कब तक लॉकडाउन के बल पर कोरोना को रोकने का प्रयास सफल हो सकता है।

 दिल्ली की एक स्वास्थ्य संस्था की रिसर्च में पता चला है कि भारत में 93 प्रतिशत लोग 65साल से कम उम्र के हैं। इस संस्था का कहना है कि 50 से कम आयु वाले लोगों पर कोरोना का बहुत कम असर होता है। यानी जवान और अध्ेाड़ रोगी कुछ दिन हल्के फुल्के लक्ष्णों के बाद घर पर रहकर ही कोरोना से जीत सकते हैं। गंभीर रोगियों को अस्पताल में भर्ती किया जा सकता है। जानकारों का कहना है कि इससे पहले ही अर्थव्यवस्था का हो चुका नुकसान लॉकडाउन आगे ना बढ़ने से रूकेगा। साथ ही लोगों की और नौकरी जाने का ख़तरा टलेगा।

घर में बंद गरीब और मज़दूर बाहर निकलकर जैसे तैसे कुछ भी काम धंधा कर अपना परिवार भूख से मरने से बचा सकेगा। जानकारों का यह भी कहना है कि अभी हमने 130 करोड़ जनता को एक तरह से क्वारंटाइन किया हुआ है। जबकि बच्चो और बुज़ुर्गों को ही घर में बंद रखने की ज़रूरत थी। आज किसी को कोरोना हो जाये तो उसके शरीर के अंदर कोरोना वायरस जाकर खुद को लाखों वायरस मंे विकसित कर लेता है। जब उस आदमी के शरीर में एंटी बॉडीज़ यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जाती है तो कोरोना वायरस खत्म करने लगती है।

ऐसे में उसके शरीर से लाखों कोरोना वायरस बाहर निकलकर अन्य स्वस्थ लोगों को अपना शिकार बनाने लगते हैं। लेकिन एक समय ऐसे आता है कि जब लोगों की बड़ी संख्या वायरस से संक्रमित होकर उससे सफलतापूर्वक लड़ने की क्षमता पा जाती है। इसी को हर्ड इम्युनिटी कहा जाता है। इसे लॉकडाउन का विकल्प भी कहा जा रहा है। एक इस्राईली विशेषज्ञ ने दि जेरूसलम पोस्ट से कहा कि लॉकडाउन में संक्र्रमण दर उतनी सामने नहीं आई। जितना अनुमान हम लोगों ने लगाया था। नॉर्थ ईस्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जैफ हॉव ने बोस्टन ग्लोब में लिखा है कि जब कभी भी लोग घर से बाहर निकलेंगे तो कोरोना संक्रमण फिर से बढ़ने लगेगा।

उनका कहना है कि जब तक लॉकडाउन के दौरान पर्याप्त संख्या में लोगों को तीन टी यानी ट्रेस टैस्ट और ट्रीटमेंट ना दे दिया जाये। तब तक लॉकडाउन का कोई खास लाभ होने वाला नहीं है। उनका यह सवाल भी वाजिब है कि आप लॉकडाउन कब तक बढ़ा सकते हैंविशेष रूप से गरीब और विकासशील देशों की इकॉनोमी का तो लगातार लॉकडाउन से दिवाला ही निकल सकता है। उधर हर्ड इम्युनिटी के विकल्प के विरोधी कहते हैं कि यह प्रयोग बहुत ख़तरनाक है। उनका कहना है कि हर्ड इम्युनिटी के लिये आधी आबादी ही नहीं 60 से 85प्रतिशत जनता को इन्फैक्टेड होने के लिये खुला छोड़ना होगा।

ऐसे मंे यह ठीक ठीक कोई नहीं बता सकता कि इसका कितना कैसा और कब तक असर होगाअगर यह जोखि़म उठाकर 10 से 20प्रतिशत लोगों को कोरोना का गंभीर शिकार बनना पड़ा तो भारत जैसे देश में यह संख्या 10से 20 करोड़ से अधिक हो सकती है। ऐसे में इतनी बड़ी रोगियोें की फौज को उपचार कैसे दिया जायेगाकिसी भी देश के पास इतने संसाधन अस्पताल आईसीयू वैंटिलेटर और यहां तक कि क्वारंटाइन सेंटर तक नहीं हैं। खुद अमेरिका इस मामले में इतना शक्तिशाली देश होकर गच्चा खा गया हैै। ब्रिटेन ने शुरू शुरू में हर्ड इम्युनिटी का कंसैप्ट अपनाने का साहस दिखाया था।

लेकिन यह देर से लिया गया फैसला था। उसके पीएम बोरिस जॉनसन जब खुद कोरोना के शिकार होकर अस्पताल पहुंच गये तो उसने इस कदम से तौबा कर ली। इसके बाद बाकी देशों को भी यह विकल्प मज़ाक लगने लगा। उधर स्वीडन ने दावा किया है कि उसने अपनी राजधानी स्टॉकहोम में हर्ड इम्युनिटी के विकल्प को कामयाबी से अपनाया है। लेकिन उसकी परिस्थितियां कुछ अलग तरह की हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी हर्ड इम्युनिटी के विकल्प के पक्ष में नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के महामारी विशेषज्ञ जाइडियोन मेयेरोविट्ज़ ने गार्जियन अख़बार को बताया कि हर्ड इम्युनिटी वंचित और कमज़ोर वर्ग के गरीब लोगों की बड़ी कुर्बानी लेगा।

वे इसे अर्थव्यवस्था बचाने को बड़ी कीमत चुकाना और अनैतिक व अमानवीय मानते हैं। साथ ही वे हर्ड इम्युनिटी हासिल करने के लिये उच्च जोखिम वालों यानी बच्चो और वरिष्ठ नागरिकों को बचाने की योजना को अव्यवहारिक मानते हैं। उनका कहना है कि जब एक बार कोरोना वायरस को खुलकर अपना खेल करने को आज़ाद छोड़ दिया जायेगा तो यह कम इम्युनिटी वाले नौजवान वर्ग को भी अपना बड़ा श्किार बना सकता है। कैनेडा की मुख्य जन स्वास्थ्य अधिकारी का भी यह मत है कि सवाल कोरोना संक्रमितों की संख्या या उनमें कम दिख रहे लक्ष्णों का नहीं है।

यह भी हो सकता है कि ऐसे रोगियों में परंपरागत बुखार सूखी खांसी और सांस लेने में तकलीफ ना होकर कोरोना वायरस चुपचाप उनकी किडनी लीवर ब्रेन और हार्ट को भारी नुकसान कर दे। ब्लूमबर्ग के एक शोधपत्र में कहा गया है कि हर्ड इम्युनिटी की बजाये हम सबको बाज़ार में इसका वैक्सीन आने का इंतज़ार करना चाहिये। उनका कहना है कि दुनिया मंे ऐसे तीन दर्जन से अधिक प्रयोग खोज और विकल्प तलाश किये जा रहे हैं जिनसे आज नहीं तो कल कोरोना का टीका या दवा मिल ही जायेगी। तब तक हमें लॉकडाउन या हर्ड इम्युनिटी पर शासन व्यवस्था की तानाशाी या लोकतंत्र में क्या बेहतर हैचर्चा और तर्क वितर्क करते रहना चाहिये। फिलहाल तो कोरोना को मुख़ातिब करके यह शेर ही कहा जा सकता है-                                                    

0 मैं अपने ख़ौफ़ की हद पर खड़ा हूं,

  अब इसके बाद घबराना है तुम को।।