Friday 19 December 2014

मोदी नहीं विकास की जीत

विकास के एजेंडे पर हुयी मोदी की जीत का स्वागत करता हूं

इक़बाल हिंदुस्तानी May 23, 2014परिचर्चा 3 Comments

-इक़बाल हिंदुस्तानी-

-चुनाव अनुमान गलत होने का मतलब सोच गलत होना नहीं है!-

चुनाव नतीजे आने से पहले मैंने अपने आकलन के आधार पर एक लेख लिखा था जिसमें मेरा अनुमान था कि शायद बंगाल और तमिलनाडु की तरह यूपी और बिहार में भी क्षेत्रीय दल एनडीए और विशेष रूप से भाजपा की सीटें एक सीमा से आगे बढ़ने से रोक सकते हैं। इसी आकलन के हिसाब से मैंने यह आशंका जताई थी कि शायद मोदी के विकास के एजेंडे पर जातिवाद, अल्पसंख्यकवाद और क्षेत्रीयता भारी पड़ सकती है जिससे भाजपा सबसे बड़ा दल और राजग सबसे आगे रहने के बावजूद सरकार बनाने के लिये ज़रूरी आंकड़ा ना जुटा पाये। मेरे इस लेख पर आर सिंह जैसे सुलझे हुए कई लेखकों ने बहुत सकारात्मक टिप्पणी की है वहीं एक दो लोगों ने सीधे अपने संस्कार दिखाते हुए अपशब्दों का सहारा लिया है। कुछ लोगों ने मुझे फोन करके भी अपनी नाराज़गी दर्ज की है।

मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरा आकलन गलत साबित हुआ है लेकिन मेरी सोच गलत नहीं है और इसके लिये आप मुझे गाली भी देते हैं तो भी मैं लिखना बंद नहीं कर सकता। रहा मोदी की जीत का सवाल तो मैं यह भी साफ कर दूं कि अगर यह जीत विकास के एजेंडे पर हुयी है तो मैं इसका स्वागत करता हूं, क्योंकि इस समय देश के सामने एनडीए के अलावा कोई सशक्त विकल्प मौजूद नहीं था। जहां तक मेरी इस सोच का सवाल है कि भाजपा हिंदू साम्प्रदायिकता की राजनीति करती रही है लेकिन इस बार मोदी ने चुनाव का एजेंडा काफी सीमा तक सबका साथ-सबका विकास बना दिया, मैं उस पर अभी भी कायम हूं। किसी व्यक्ति, दल या गठबंधन का अंधसमर्थन या विरोध तो कोई पेड वर्कर ही कर सकता है कोई भी निष्पक्ष लेखक वही लिखेगा जो उसको ठीक लगेगा और मैंने यही किया है जिसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।

जो लोग चुनाव नतीजे आने से पहले ही मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की धमकी दे रहे थे, अगर वे मोदी सरकार बनने के बाद और बेलगाम और बदज़बान हो जाते हैं या तो कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि इसीलिये ऐसे लोगों को फासिस्ट कहा जाता है। ऐसी हिंसक सोच के अतिवादी तत्व वामपंथी और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के नाम पर भी अपनी अवैध गतिविधियां चलाते रहे हैं। भाजपा को स्पश्ट बहुमत मिलने के बावजूद यह जान लेना ज़रूरी है कि देश में पड़े कुल मतों का उसे अभी भी 31 प्रतिशत मिला है। अगर उसके घटकों को पड़े 8 प्रतिशत मत भी मोदी के खाते में जोड़ लिये जायें तो भी मतदान करने वाले 61 प्रतिशत मतदाता उसके पक्ष में नहीं रहा है तो क्या इन सबको देश से निकाल दिया जाये? सच्चा कलमकार भांड या किराये का टट्टू नहीं हो सकता, उसको वह लिखना होता है, जो सच होता है और सच कभी किसी के पक्ष में होता है, कभी उसी के खिलाफ भी होता है।

मेरा मानना है कि मानववादी, देशभक्त और समाज के व्यापक हित में लिखने वाले लेखक को निर्भय और गुटनिरपेक्ष होना चाहिये जिससे वह मुद्दों के आधार पर अपने तटस्थ दृष्टिकोण से काले को काला और सफेद को सफेद कह सके। मेरे पहले लिखे गये लेखों में इस बात को उजागर किया गया है कि मुसलमानों को वोट बैंक बनाकर रखने वालों ने दरअसल हिंदू जातिवाद और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मिश्रण बना दिया है जो भ्रष्टाचार महंगाई और घोटालों के साथ विकासहीनता से लंबे समय तक चलने वाला नहीं है। सेकुलरिज़्म के नाम पर किसी सरकार का हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक दिखने का आज नहीं तो कल यही नतीजा होना था। मैं अपने स्वभाव के हिसाब से बिना किसी दबाव के लिखता हूं और इसके लिये आप कोई भी आरोप लगाये, मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

मैं मोदी या भाजपा का अंधसमर्थन करके राष्ट्रवादी या असली देशभक्त होने का प्रमाण पत्र भी किसी से लेना नहीं चाहता। यह मेरी संविधान से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है जिसके तहत मुझे जो ठीक लगता है, मैं बिना किसी लालच और डर के वही लिखता हूं, इससे कई बार मुस्लिम कट्टरपंथी भी बुरी तरह ख़फ़ा होकर धमकियां देते रहे हैं लेकिन मुझे निष्पक्षता और ईमानदारी से लिखने के लिये सत्य और तथ्य ही काफी हैं। मेरे नाम को देखकर मुझपर अनर्गल टिप्पणी करना मेरी नहीं टिप्पणी करने वाले की साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का पता चलता है। जहां तक आकलन की बात है तो 2004 में टीवी चैनलों के सर्वे में एनडीए को 248 से 284 सीट दी गयीं थीं जबकि उनको 189 ही मिलीं थीं। उधर कांग्रेस को 164 से 190 दी गयीं थीं लेकिन उसको 222 सीट मिलीं थीं।

इतना ही नहीं, एक बार फिर 2009 में एक्ज़िट पोल में एनडीए को 175 से 197 सीटें दी गयीं, लेकिन उसको इस बार भी 116 जबकि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए को दी गयी 191 से 198 की जगह 262 सीटें मिलीं थीं। क्या इसका मतलब यह निकाला जाये कि हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों बार भाजपा की तरफ झुका हुआ था और कांग्रेस से दुर्भावना रखकर उसकी सीटें जान-बूझकर कम दिखा रहा था? अगर दो बार ऐसा हो सकता है तो तीसरी बार इस आशंका को कैसे नकारा जा सकता है कि इस बार ऐसा नहीं होगा? अगर देश के स्तर पर चुनाव सर्वे दो दो बार गलत हो सकता है तो मेरा एक लेखक के रूप में आकलन या अनुमान गलत क्यों नहीं हो सकता? जहां तक मेरी सोच का सवाल है तो उसको पहले लिखे गये लेखों में देखा जा सकता है।

20 अप्रैल को ‘मुस्लिम वोटों का बंटवारा लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत’ 15 अपै्रल को ‘मोदी लहर को भाजपा की बताने का मतलब?’ 7 अप्रैल को बुखारी से ज्यादा सियासत तो आम मुसलमान समझता है।’ 30 मार्च को ‘इमरान मसूदः मुसलमानों का दुश्मन और मोदी का दोस्त’ 11 मार्च को ‘मोदी ने चुनाव का एजेंडा विकास तो तय कर ही दिया है’ 17 फरवरी को ‘दिल्ली में बनेगी अब भाजपा की सरकार’ 15 फरवरी को ‘मुसलमानों के वोट भी ले सकती है भाजपा’ 12 जनवरी को ‘कांग्रेस चाहे जो कर ले, भाजपा की बढ़त को नहीं रोक सकती’ 6 जनवरी को ‘मनमोहन जी आपने 10 साल में देश को पूरी तरह तबाह कर दिया है’ 28 दिसंबर को ‘केजरीवाल ने कांग्रेस की क़ब्र खोद दी है अब दफ़नाना बाकी है।’

12 दिसंबर को प्रवक्ता के संपादक भाई संजीव सिन्हा का नाम मतदाता सूची से भाजपा समर्थक मानकर काट देने पर ‘संभावित विरोध से मताधिकार छीनना लोकतंत्र की हत्या’ 17 नवंबर को ‘कांग्रेस के ना चाहते हुए भी राहुल पर भारी पड़ रहे हैं मोदी’ 16 सितंबर को दंगे तो साम्प्रदायिकता नाम के रोग का लक्ष्ण मात्र हैं’ 17 जुलाई को ‘सेकुलर दलों की अल्पसंख्यक राजनीति भाजपा का खाद पानी’ और 16 मई को ‘बर्क को वंदे मातरम से परहेज़ है तो सांसदी छोड़ें’ लेख में दो टूक लिखा था कि अगर किसी कट्टरपंथी मुसलमान को अपना धर्म इतना ही प्यारा है तो उसको चाहिये कि वह वंदे मातरम से स्थायी रूप से बचने के लिये अपनी सांसदी से त्यागपत्र दे और अपने घर बैठकर अपने मज़हब का ईमानदारी से निर्वाह करे। भविष्य में भी मुझे जो प्रमाण, आंकड़ों, तथ्य और सत्य के हिसाब से ठीक लगेगा मैं वही लिखूंगा चाहे इसका कोई कुछ भी मतलब निकाले मैं इसकी परवाह नहीं करता हूं।
क़ीमत अदा करोगे तो लिख देंगे क़सीदे,
ये लोग व्यापारी हैं फ़नकार मत समझ।।

Photo- love jehad

Thursday 11 December 2014

आर टी आई का हश्र

अकेले मोदी जी के चाहने से क्या क्या बदल सकता है?
        -इक़बाल हिंदुस्तानी
0भाजपा के और नेता व सरकारी मशीनरी उसी ढर्रे पर चल रहे है!
   पीएम नरेंद्र मोदी एक गठबंधन सरकार के मुखिया हैं। यह ठीक है कि उनकी पार्टी भाजपा को अपने बल पर भी बहुमत प्राप्त है लेकिन यह भी सच है कि यह बहुमत दिलाने में गठबंधन दलों का भी योगदान रहा है। यही वजह है कि अभी तक किसी खास मुद्दे पर भाजपा और घटक दलों में आरपार की खींचतान नहीं हुयी है लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसमें पीएम चाहे कितना ही शक्तिशाली और योग्य हो वह अकेले पूरी व्यवस्था को न तो बदल सकता है और न ही चला सकता है। यह मानना ही पड़ेगा कि मोदी 30 साल बाद किसी बहुमत प्राप्त पार्टी के पीएम बने हैं। चुनाव से पहले गुजरात के विकास मॉडल की मीडिया में बहुत चर्चा रही थी जिससे उनको विकास के लिये लोगों ने इतना भारी सपोर्ट दिया है।
    कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से जीडीपी दर लगातार गिरने और महंगाई बढ़ने से लोगों का मोहभंग हो चला था साथ ही आरटीआई के ज़रिये एक के बाद एक घोटाले जब सामने आये तो यह लगने लगा था कि मनमोहन सरकार का भष्टाचार पर अपने बेलगाम घटक दलों की वजह से नहीं बल्कि खुद कांग्रेसियों की मनमानी के चलते कोई नियंत्रण नहीं है। इस बात का ख़याल मोदी को भी है इसीलिये उन्होंने अपनी सरकार को कुछ मामलों में बिल्कुल अलग तरीके से चलाने का फैसला किया है। यह मोदी की ही जीतोड़ कोशिशों का नतीजा है कि डब्ल्यू टी ओ में भारत की खाद्य सुरक्षा नीति को अमेरिका सपोर्ट देने को मजबूर हुआ जिससे हमारे देश के 85 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। भारत का कहना रहा है कि उसकी बड़ी आबादी गरीब है जिसको खाद्यान सुरक्षा मिलना बेहद ज़रूरी है।
   पाकिस्तान के मामले में भी मोदी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार ने जैसे को तैसा की मुंहतोड़ जवाबी नीति बनाकर उसकी सर्दियों से पहले फायर कवर देकर सीमा पर आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ लगभग नाकाम कर दी है। पड़ौसी देशों चीन, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार और भूटान तक से आपसी रिश्ते यूपीए सरकार के मुकाबले एनडीए सरकार मज़बूत करने की लगातार कोशिश कर रही है लेकिन जहां तक देश के अंदर के हालात है वे कुछ खास बदलते नज़र नहीं आ रहे हैैं। विदेशी मीडिया ने तो मोदी सरकार के 6 माह पूरे होने से पहले ही यह कहना भी शुरू कर दिया है कि मोदी सरकार विदेशी निवेश के लिये जो कुछ कह रही है उसका असर ज़मीन पर अभी कुछ खास दिखाई नहीं दे रहा है। इसकी वजह भी समझ में आती है कि अकेले मोदी के चाहने या ऐलान करने से हमारे देश की लेटलतीफ और भ्रष्ट व्यवस्था रातोरात बदलने वाली नहीं है।
   इस भ्रष्ट सिस्टम को भ्रष्ट बनाये रखने में ना सिर्फ नेताओं बल्कि अफसरशाही का भी निहित स्वार्थ छिपा है। मिसाल के तौर पर यूपीए सरकार के ज़माने में जनहित का एक कानून आया था-सूचना का अधिकार यानी आरटीआई। आप माने या ना मानें आरटीआई ने कई बड़े घोटालों को बेनकाब किया। इसका नतीजा यह हुआ कि घोटाले बाज़ इस कानून को ख़त्म करने या कमजोर करने में लग गये। आज हालत यह है कि मोदी की तमाम कोशिशों और पारदर्शिता की घोषणाओं के बावजूद अगस्त 2014 से सूचना का अधिकार आयोग का कोई अध्यक्ष ही नहीं है। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में प्रेसीडेंट रूल के दौरान जब विधनसभा चुनाव हो रहे थे वहां के राज्यपाल ने एक आदेश जारी कर दिया कि सरकारी मशीनरी सूचना देने से पहले यह जांच करे कि सूचना का इस्तेमाल जनहित में ही होगा।
   आरटीआई कानून ऐसी कोई शर्त नहीं लगाता। ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि यूपीए सरकार आम आदमी और गरीबों के हित सबसे उूपर रख कर शासन चला रही थी क्योंकि उनका एजेंडा भी ट्रिंकल डाउन यानी विकास के फायदों के रिसकर सभी वर्गों तक पहुंचने का था। इसके लिये उनका एकमात्र लक्ष्य जीडीपी दर को लगातार बढ़ाने का प्रयास करना था। देश के धनी वर्ग को यूपीए सरकार से यह शिकायत रही है कि वह सरकारी धन राइट्स बेस्ट एप्रोच के ज़रिये गरीबों पर बेवजह और फालतू लुटाकर उनको निकम्मा बना रहा है। इसका सबूत वे मनरेगा से मज़दूरों का बिहार और बंगाल जैसे गरीब राज्यों से पलायन रूकने और उनका मजबूरन मेहनताना बढ़ाने को मानता था। मीडिया के ज़रिये मध्यवर्ग के सहयोग से इस सोच के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया गया।
   खासतौर पर कांग्रेस को भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ निशाने पर लेने के लिये इस तरह की गरीब समर्थक योजनाओं को चलाने का कसूरवार ठहराया गया था जिससे इसके केंद्र और राज्यों में बनी भाजपा नीत सरकारों पर इस बात का दबाव होना स्वाभाविक है कि वह यूपीए सरकार इन आम आदमी समर्थक नीतियों को पलटे। हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योेंकि आम और गरीब आदमी की तादाद हमारे देश में इतनी अधिक है कि कोई भी सरकार उनको ख़फा करके जीतना तो दूर चल भी नहीं सकती। राजस्थान की भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के किसान समर्थक प्रावधानों को पलटने का काम शुरू कर दिया है। केंद्र के बाद सबसे पहले वसुंधरा सरकार ने ही श्रम कानूनों को मज़दूरों की बजाये उद्योगपतियों के पक्ष में मोड़ने का काम अंजाम दिया है।  सरकारी अस्पतालों में प्रफी दवा का काम रोक दिया गया है।
    मनरेगा को केंद्र ने 200 ज़िलों तक सीमित करके इसका बजट कम कर दिया है। पर्यावरण सम्बंधी प्रावधनों पर इसके बाद भी ढील दी जा रही है कि केदारनाथ और कश्मीर की आपदा इसी नालायकी की वजह से आई थी। खाद्य सुरक्षा कानून हालांकि अभी तक लागू नहीं हो पा रहा है लेकिन इसी सोच का नतीजा रहा है कि भूख सूचकांक में भारत ने सात अंकों की छलांग लगाई है। आरटीई यानी शिक्षा का अधिकार कानून का परिणाम है कि प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश का आंकड़ा 95 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। मोदी सरकार का सारा जोर विदेशी निवेश बढ़ाने और उद्योग व्यापार के लिये खुला मैदान बनाने का है लेकिन वह यह भूल रही है कि पेट्रोल डीजल को वह खुले बाज़ार के सहारे पहले ही छोड़ चुकी है और इंटरनेशनल मार्केट में इनके रेट घटने पर वह यूपीए सरकार की तरह अब इन पर एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाकर अपनी टैक्स वसूली बढ़ा रही है।
    साथ ही रसोई गैस के सिलेंडर 12 से घटाकर 9 करने के साथ ही वह उसकी सब्सिडी 20 रू0 किलो यानी 284 रू0 प्रति सिलेंडर फिक्स करने जा रही है। डीज़ल की तरह अप्रैल से गैस पर हर माह सब्सिडी कम करके वह उसको बाज़ार रेट पर बेचना चाहती है। ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे मोदी सरकार से आम जनता का मोहभंग हो सकता है।  
0तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना]
मुझे ज़मीं के मसाइल पर बात करनी है ।।