Wednesday 27 February 2019

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"आरक्षण विरोधी अक्सर एक सवाल करते हैं कि हमारे पूर्वजों के कर्मों की सज़ा हमें क्यों मिल रही है ? आखिर हमारा क्या गुनाह है ? शोषण हमारे पूर्वजों ने किया फिर हमें आरक्षण के रूप में सज़ा क्यों मिल रही है.

इसका जवाब बिल्कुल आसान है.

आपके पूर्वजों ने जो शोषण किया उसका असर अभी तक मौजूद है. आपके पूर्वजों ने शूद्रों पर शिक्षा के लिए प्रतिबंध लगाए , उनके पेशे पर प्रतिबंध लगाए , उनके धार्मिक सामाजिक जीवन पर प्रतिबंध लगाए और उन्हें शैक्षिक , सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर हीन बनाये रखा. यह प्रतिबंध सिर्फ कुछ सालों या दशकों तक नहीं था. यह प्रतिबंध हज़ारों साल तक रहा. उत्तर वैदिक से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक का अंतराल करीब तीन हज़ार साल का है. आपके पूर्वजों ने लगभग तीन हज़ार साल तक इस देश की बहुसंख्य आबादी का शोषण किया.

इसका परिणाम क्या हुआ ?

इसका परिणाम ये हुआ कि आज़ादी के बाद शूद्रों का शिक्षा , नौकरी और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व नगण्य था. इन सभी क्षेत्रों में पूरी तरह से शोषक जातियों का कब्ज़ा था. उनके पास वो तमाम संसाधन और अवसर थे जो शूद्रों का शोषण कर हासिल किए गए थे. यह उनके हज़ारों साल के शोषण का ही असर है कि उक्त क्षेत्रों में शोषक जातियों का वर्चस्व आज भी कायम है.

ऐसा नहीं है कि भारत के आज़ाद होते ही या आरक्षण लागू होने की तिथि से ही हज़ारों साल में हुए नुकसान की भरपाई हो गयी या घोषणा के दिन से ही पूर्व में हुए शोषण का असर और उस समय हो रहा शोषण फौरन खत्म हो गया.

वहीं दूसरी तरफ आज़ादी के बाद शोषक जातियों का देश की संपत्ति , शिक्षा , संस्कृति , राजनीति , सामाजिक जीवन आदि सभी क्षेत्रों में वर्चस्व बरकरार था. उनके शोषण के चलते समाज अपने मूल में गैर समतामूलक , भेदभावपूर्ण और शोषक जातियों के अवैध वर्चस्व के अधीन था. वो पहले की तरह ही सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर श्रेष्ठ बने हुए थे.

अपने पूर्वजों के शोषण के ये लाभ उन्हें पहले की तरह आज भी मिल रहे हैं. ऐसा नहीं है कि आज़ादी या आरक्षण लागू होने के बाद एक झटके में सब खत्म हो गया. अपने शोषक पूर्वजों के चलते ही चाहे संपत्ति हो , शिक्षा हो , राजनीति हो , न्यायपालिका , मीडिया या सामाजिक पदानुक्रम हो , सब जगह यही श्रेष्ठ बने हुए हैं और सब जगह इन्हीं का वर्चस्व है.

ऐसे में जब शोषण का असर और इस शोषण के कारण शोषक जातियों को मिलने वाला लाभ आज भी बरकरार है तो ज़ाहिर है दोनों को समाप्त करने की प्रक्रिया भी अभी जारी रहना जरूरी है.

यह तब तक जारी रहेगी जब तक समाज पूरी तरह विविधतापूर्ण , न्यायसंगत और समतामूलक नहीं बन जाता है.

आरक्षण , प्रतिनिधित्व के माध्यम से समाज को इसी दिशा में आगे ले जा रहा है. यह शोषक जातियों के अवैध और अन्यायपूर्ण वर्चस्व को समाप्त कर वंचित वर्गों को शिक्षा , सरकारी नौकरियों और राजनीति में प्रतिनिधित्व दे रहा है जिससे भारत पहले से अधिक विविधतापूर्ण , न्यायसंगत और समतामूलक बन रहा है. यह देश के विकास में सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित कर रहा है.

यह किसी को सज़ा नहीं दे रहा है बल्कि उन्हें न्याय दे रहा है जिनके साथ अन्याय करने वाली शोषक जाति से होने के कारण आज आप उनसे बेहतर स्थिति में हैं. यह किसी एक की बेहतर स्थिति का निषेध कर शोषित जातियों को आपके समान ही बेहतर स्थिति में ला रहा है. यह समाज में व्याप्त असंतुलन और विशेषाधिकार को समाप्त कर समानता और संतुलन की स्थिति स्थापित कर रहा है. यह कुछ जातियों के वर्चस्व वाले देश की बजाय सबकी भागीदारी वाला राष्ट्र निर्मित कर रहा है.

किसी को आरक्षण सज़ा या अन्यायपूर्ण लगता है तो इसका मतलब साफ है कि वह वर्चस्ववादी और असमानता का पैरोकार है. वह इस देश के समस्त संसाधनों को अपनी जागीर समझता है. वह नहीं चाहता कि उसमें सबकी हिस्सेदारी हो. वह नहीं चाहता कि देश के विकास में सबकी भागीदारी सुनिश्चित हो. वह अपने जैसे जातिगत प्रिविलेज वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने में डरता है. वह इस बात से हतोत्साहित रहता है कि वह अपनी जाति वालों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है. उसे देश के इतिहास , समाज और न्याय , समानता व डाइवर्सिटी जैसी अवधारणों की कोई समझ नहीं है.

कभी कोई ऐसा सवाल करने वाला मिले तो चुप मत रहिये. उसे डिटेल में और कायदे से समझाइये...."
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@ Pradyumna Yadav
via - प्रमोद कुमार

Monday 4 February 2019

हमारे बाबूजी....

जब हमारे बाबूजी ने मायावती की सलाह ठुकरा दी...!

0 1985 के आसपास की बात है। बसपा सुप्रीमो यूपी के बिजनौर ज़िले के नजीबाबाद में राजनीति की शुरूआत कर रही थीं। वे हमारे मौसा जी अब्दुल रहीम दूधवालों के घर पर अकसर आती थीं। हमारे बाबूजी यानी पिताजी और मौसा जी आपस में पक्के दोस्त भी थे। लिहाज़ा बहनजी हमारे घर भी कई बार मीटिंग करती थीं। एक बार बहनजी ने हमारे बाबूजी से कहा अपने बेटे से कहो वो मनुवादी मीडिया यानी अख़बारों से दूर रहेलेकिन हमारे बाबूजी ने मायावती की सलाह ठुकरा दी थी।       

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   हमारे बाबूजी यानी पिताजी मुहम्मद दाऊद मुल्तानी का 12 जनवरी को इंतक़ाल हो गया। वे 80 साल के थे। वे काफी समय से बीमार चल रहे थे। उनको सांस की बीमारी थी। जो सर्दियों मेें और ज़्यादा बढ़ जाती थी। उनको और भी कई गंभीर रोग हो गये थे। इलाज के लिये उनको बिजनौर देहरादून और कई बड़े शहरों में ले जाया गया। लेकिन डाक्टरों ने उनको लाइलाज घोषित कर दिया था। वैसे तो सब बच्चो को उनके पिता अपनी हैसियत और हालात के हिसाब से प्यार करते ही हैं। लेकिन हमारे बाबूजी में कुछ खास बातें थीं।

जिनको हम आप सबके साथ शेयर करना चाहते हैं। जब वे 80 के दशक में बसपा के संस्थापक कांशीराम और मायावती के संपर्क में आये तो हम उनकी सियासी सोच से सहमत नहीं थे। हमारा कहना था कि कोई भी जातिवादी पार्टी अच्छा विकल्प नहीं बन सकती। हमने उनसे यह भी कहा कि बसपा अवसरवादी और केवल दलित हितवादी दल है। बसपा सत्ता पाने के लिये केवल मुसलमानों का खुद को सियासत में आगे बढ़ाने के लिये वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल भर करेगी। लेकिन उनका मानना था कि दलित हमारे देश में सबसे कमज़ोर समाज है।

वे यह भी कहते थे कि मुसलमानों की हालत भी कमोबेश दलितों की तरह हर क्षेत्र में पिछड़ी जैसी होती जा रही है। अगर दो कमज़ोर और पिछड़े वर्ग आपस में मिलकर आगे बढ़ंेगे तो अन्य पिछड़ा वर्ग के अति पिछड़े और उच्च जातियों के गरीब भी उनके साथ आ सकते हैं। इसलिये उन्होंने खुद और हमारे मौसा जी जिनको बहनजी ताऊजी कहती थींसाथ लेकर पूरी मुल्तानी बिरादरी और बिरादरी के असरदार नेता रोशन मुल्तानी सिराजुद्दीन मुल्तानी और शायर अख़्तर मुल्तानी आदि के साथ तन मन धन से बसपा के लिये काम किया।

इसका नतीजा यह हुआ कि पहली बार नजीबाबाद से बसपा का विधायक बल्देव सिंह को चुन लिया गया। इसके बाद बसपा और बहनजी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। लेकिन जैसे ही बहनजी ने सपा बसपा गठबंधन तोड़ भाजपा के सहयोग से यूपी में सरकार बनाई। बाबूजी और हमारे मौसाजी का बहनजी की अवसरवादी सियासत से मोहभंग हो गया। हालांकि उन दोनों को भी बहनजी ने शपथग्रहण समारोह में लखनऊ बुलाया था। लेकिन मौसाजी तो वहां जाकर तीन दिन तक बहनजी से मुलाकात तक न होने से निराश हुए। बहनजी के आदेश पर वरिष्ठ बसपा नेता नसीमुद्दनी सिद्दीकी मौसाजी की आवभगत ही करते रहे।

उपेक्षा का आभास पहले ही हो जाने से हमारे बाबूजी लखनऊ गये ही नहीं। इसके बाद बहनजी ने कई बार बाबूजी और मौसाजी को याद किया । गैस कनेक्शन के कूपन भेजे। परिवार के बच्चो को सरकारी नौकरी दिलाने का नेताओं वाला झूठा वादा किया। लेकिन उनका तो बहनजी के साथ ही सियासत से भी पूरी तरह रिश्ता ख़त्म हो चुका था। हमारे बाबूजी ने बहनजी को कई बार यह भी याद दिलाया था कि जिस तरह से वे उनके बार बार जोर देने पर भी मुझे और मेरे छोटे भाई शमशाद मुल्तानी व नौशाद मुल्तानी को पत्रकारिता से अलग करने को तैयार नहीं थे।

उसी तरह मेरे बार बार अपील करने पर भी बिना अनुभव किये वे बहनजी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे। हमारे बाबूजी के कुछ उसूल थे। उन्होंने न तो जीवनभर कभी किसी से कोई रक़म किसी काम के लिये खुद उधार ली और न ही हमें लेने दी। वे मुल्तानी बिरादरी के सदर थे। मुल्तानी बिरादरी का नियम था कि कोई शादी में बैंडबाजा नहीं इस्तेमाल करेगा। उनके समझाने के बावजूद जब हमारे परिवार के कुछ लोगों ने उनको बिना बताये हमारी शादी में बैंड बजवाया तो उन्होंने नैतिकता के आधार पर बिरादरी के सदर पद से इस्तीफा दे दिया।

उनको सिनेमा देखने का भी शौक था। लेकिन एक बार जब उन्होंने देखा हम भी अपने दोस्तों के साथ सिनेमा हाल में फिल्म देखने गये हैं तो उन्होंने उस दिन के बाद सिनेमा हॉल का रूख़ नहीं किया। उन दिनों लड़कियों को शिक्षा दिलाने का दस्तूर नहीं था। लेकिन जब हम बड़े हुए और हमने उनको ऐसा करने के लिये समझाया तो वे राज़ी हो गये। इसका फायदा यह हुआ कि भाइयों के साथ साथ हमारी छोटी बहनों को भी स्कूल जाकर पढ़ने का मौका मिला। हालांकि हमारे परिवार की आर्थिक हालत बहुत मज़बूत नहीं थी। लेकिन हमारे ज़रूरी खर्च से लेकर शिक्षा तक का वे बखूबी इंतज़ाम तब तक करते रहे जब तक हमने पोस्ट ग्रेज्युएट तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर ली। जो मकान उन्होंने खरीदा था। उसके मालिक बहुत गरीब और बूढ़े थे। उन्होंने उनको बिना किराये के उसी मकान में जीवनभर रहने की छूट दे दी। बाद में एक वकील के बहकावे में आकर मकान के पूर्व स्वामी ने खुद को मकान का असली मालिक बताते हुए हमारे बाबूजी के खिलाफ कोर्ट में केस कर दिया। हालांकि वो केस हम हाईकोर्ट से जीत गये लेकिन उनकी मानवता और रहमदिली देखिये कि वे जब नगीना या बिजनौर मुकदमे की तारीख पर जाते तो मकान के पूर्व स्वामी का किराया अपने पास से लगाते थे। केस की पैरवी के दौरान कभी कभी उनके पास पैसा न होने पर उनको अपने पास से खाना भी खिलाते थे।

अपने आधा दर्जन भाइयों में हालांकि वे तीन से छोटे थे। लेकिन परिवार की आर्थिक व्यवस्था शादी जायदाद की देखरेख और नये निर्माण का काम उनको ही सौंपा जाता था। जिसको वे बखूबी निभाते थे। कभी पक्षपात का आरोप या कोई विवाद नहीं हुआ। दादिलाही मकान छोटा पड़ता देख उन्होंने अपने बाकी 5 भाइयों के लिये अपना हिस्सा छोड़ दिया। अपने परिवार के लिये अपने हिस्से की दुकान की छत पर अलग मकान अपने खर्च पर बना कर तैयार कर लिया था। अपने सब बहन भाइयों की शादी कारोबार और मकान और दुकान आदि का इंतज़ाम कराने के बाद सबसे बाद में लगभग27 साल की उम्र में अपनी शादी की थी। उनके इस दुनिया से जाने के बाद हमें अहसास हो रहा है कि बच्चो के लिये बाबूजी का क्या मतलब होता है। हम उनकी मग़फ़िरत और जन्नतुल फिरदौस में जगह मिलने की दुआ करते हैं।             

0 वो एक शख़्स तुम्हें याद किया करता था,

  आज मसरूफ़ है बहुत उसे तुम याद करो।।     

सहयोग-नौशाद मुल्तानीशमशाद मुल्तानी