Friday 21 March 2014

अन्ना - बाबा का यू टर्न

अन्ना -बाबा का यू टर्न उनकी विश्वसनीयता घटा रहा है ?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 राजनीतिक अनुभव की कमी बार बार उनका इस्तेमाल कराती है!
    शुरू में नज़र तो यह आ रहा था कि योगगुरू बाबा रामदेव और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनाये जा रहे काहिल रूख़ के खिलाफ एकजुट हो गये हैं। एक दिन के साझा अनशन का हालांकि प्रतीकात्मक  ही महत्व होता है लेकिन पहले बाबा का रामलीला मैदान में शुरू किया गया आंदोलन सरकार ने जिस तरह से कुचलकर उनके खिलाफ कर चोरी का आरोप लगाकर जांच का शिकंजा कसा था उससे लगता था कि अब बाबा अपने बिछाये जाल में खुद फंसकर रह जायेंगे लेकिन जिस तरह से समय ने करवट ली और सरकार एक के बाद एक घोटाले में फंसी और राज्यों से लेकर नगर निगमों के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी उससे चाणक्य के नियमानुसार दुश्मन पर तब हमला करो जब वो चारों तरफ से पहले ही घिरा हो की कहावत को चरितार्थ करते हुए बाबा रामदेव ने भाजपा और मोदी का खुले आम समर्थन करके यूपीए सरकार पर निर्णायक धावा बोल दिया था लेकिन अब ऐसा लगता है कि बाबा की कुछ मांगों को जैसा का तैसा ना मानने पर बाबा भाजपा से कुछ खफा होते जा रहे हैं।
   उनका यह बयान उनकी मोदी से नाराज़गी की तरफ ही इशारा करता है कि वे भाजपा नेतृत्व के गुलाम नहीं हैं। वे उनका समर्थन बिना शर्त नहीं कर सकते । ऐसा लगता है कि बाबा के चहेते कुछ लोगों को भाजपा ने लोकसभा टिकट ना देकर बाबा को यू टर्न लेने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषरूप से बाबा बिजनौर सीट से अपने चहेते स्वामी ओमवेश को भाजपा का टिकट दिलाना चाहते थे, ऐसे ही उत्तराखंड खासतौर पर हरिद्वार सीट पर भी बाबा की पसंद के प्रत्याशी को भाजपा का टिकट नहीं मिला है लेकिन बाबा यहां भूल गये कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा की अपनी मजबूरी और कमज़ोरियां हैं जिससे वह चाहकर भी बाबा की हर मांग को पूरा नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने पर उसके कार्यकर्ताओं में रोष और विद्रोह पैदा हो जायेगा और उसको संभालना भाजपा के लिये असंभव हो सकता है।
   बाबा की सारे कर ख़त्म कर बैंकिंग टैक्स और बड़े नोट बंद करने वाली बात भी उनके दबाव देने पर मोदी ने  बेमन से बिना आर्थिक विशेषज्ञों की अंतिम राय जाने बाबा की नाराज़गी से बचने के लिये मजबूरी में मानने का साझा सभा में ऐलान किया था जबकि सरकार बनने पर इस मांग को लागू करना टेढ़ी खीर साबित हो सकती है। उधर अन्ना हज़ारे का साथ जब से आम आदमी पार्टी बनाने को लेकर अरविंद केजरीवाल ने छोड़ा है तब से अन्ना एक तरह से अंडरग्राउंड हो गये हैं। पहले उन्होंने कांग्रेस के इशारे पर बोगस लोकपाल पास कराने के लिये एक बार फिर अनशन का सुनियोजित प्रोग्राम किया। इसके बाद जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहां भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है।
   अन्ना ने यू टर्न लेकर जनलोकपाल की बजाये कांग्रेसी दिखावटी लोकपाल पास कराने का श्रेय तो ले लिया लेकिन इससे अन्ना की छवि पहले से और ख़राब हुयी और उन पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। इसके बाद इतना ही काफी नहीं था कि अन्ना जो राजनीतिक दल बनाने से मना करते थे और केजरीवाल से इसी बात पर दूरी इतनी बना ली थी कि उनके दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गये और किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह पर पूरा विश्वास करते रहे। इसके बाद बेदी और सिंह भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये तो अन्ना मैदान में अकेले खड़े नज़र आये। शायद इतना कुछ भी कम था जो अन्ना ने केजरीवाल को नीचा दिखाने के लिये ईर्ष्या के भाव से ओतप्रोत होकर महिलाओं के लिये सबसे असुरक्षित बन चुके बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का सपोर्ट करने का ऐलान कर दिया।
   उनके समर्थन में टीवी पर अन्ना का एक विज्ञापन भी कई दिन तक चला। इसके बाद बारी आई ममता को पीएम पद का प्रत्याशी बनाने को दिल्ली में साझा रैली की। अन्ना को शायद राजनीतिक अनुभव की कमी की वजह से यह अहसास नहीं था कि ममता का जादू केवल बंगाल में चलता है और उनके नाम पर बिना खाना खर्च और तरह तरह के प्रलोभन दिये दिल्ली रैली में लाखों तो क्या हज़ारों की भीड़ भी नहीं आयेगी। उधर ममता को यह खुशफहमी थी कि अन्ना का नाम ही काफी है और भीड़ उनके नाम से अपने आप एकत्र हो जायेगी। बहरहाल ममता और अन्ना दोनों की इस रैली के असफल होने पर पोल भी खुल गयी और अन्ना के रैली में आने से एनवक्त पर मना करने पर यह भी साबित हो गया कि अब अन्ना का खेल भी ख़त्म हो चुका है।
   कहने का मतलब यह है कि एक दो सप्ताह भूखे रहकर कोई अनशन या आंदोलन सफल बना देना अलग बात है और राजनीतिक फैसला करना बिल्कुल अलग बात है। ऐसा लगता है कि बाबा और अन्ना का आंदोलन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के बाद भी ख़त्म नहीं होगा यह बात कम लोगों को पता है। अन्ना व्यवस्था बदलने का आंदोलन चला रहे हैं। उनको चुनाव नहीं लड़ना, उनके पास धन और सम्पत्ति नहीं है और उनका परिवार भी नहीं है जिससे उनपर किसी तरह का आरोप चस्पा नहीं हो पा रहा है। अन्ना का अब तक  का जीवन ईमानदार और संघर्षशील रहा है। अन्ना ने महाराष्ट्र मंे शिवसेना सरकार के रहते आध दर्जन भ्रष्ट मंत्रियों को इस्तीफा देने को मजबूर किया है जिससे शिवसेना नेता संसद में बेशर्मी से कह रहे थे कि लोकपाल की कोई ज़रूरत नहीं है। उधर लालू का यह कहना भी सही था कि लोकपाल उनके लिये डेथ वारंट है।
   मुलायम का डर भी सही है कि अगर लोकपाल पास हुआ तो उनको पुलिस गिरफ़तार कर लेगी। भ्रष्ट नेताओं को अगर कमज़ोर लोकपाल से इतना डर लग रहा है तो समझा जा सकता है कि मज़बूत जनलोकपाल से भ्रष्टाचारी कितना घबरा रहे होंगे। बाबा रामदेव ने भी अपने एक दिन के दिल्ली अनशन के दौरान पुलिस के गिरफतार करने के प्रयास पर महिला वस्त्र पहनकर चुपके भागने के एक गलत फैसले से यू टर्न लेकर अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता का परिचय दिया था और अनुमान यह लगाया जा रहा है कि भाजपा के सत्ता में आने पर जिस तरह से जीत के लिये मोदी ने भ्रष्ट और दलबदलू नेताओं को थोक में टिकट दिलाये हैं इस से बनने वाली सरकार से भी अन्ना और बाबा बहुत जल्दी निराश हो सकते हैं जिससे सत्ता की बजाये व्यवस्था बदलने की बार बार मांग करने वाले बाबा और अन्ना एक बार पिफर से नई बनने वाली सरकार के खिलाफ यू टर्न लेकर आंदोलन करते नज़र आ सकते हैं।
0 आज ये दीवार पर्दे की तरह हिलने लगी,

  शर्त लेकिन थी कि बुनियाद हिलनी चाहिये।

Sunday 16 March 2014

चुनाव का एजंडा विकास....

मोदी ने चुनाव का एजेंडा विकास तो बना ही दिया है!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 क्षेत्रीय दल सुशासन के बल पर ही इस लहर से बच सकते हैं?
    भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से कोई सहमत हो या असहमत, प्रेम करे या घृणा और समर्थन करे या विरोध लेकिन उनके 2014 के चुनाव को विकास के एजेंडे पर लाकर सत्ताधरी यूपीए गठबंधन के लिये बड़ी चुनौती बन जाने को अब कांग्रेस और सपा के नेता भी स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि गुजरात पहले से ही और राज्यों के मुकाबले विकसित था या मोदी के शासनकाल में ही उसने विकसित राज्य का दर्जा हासिल किया है लेकिन इस सच से मोदी के विरोधी भी इन्कार नहीं कर सकते कि आज मोदी को भाजपा ने अगर पीएम पद का प्रत्याशी प्रोजेक्ट किया है तो इसके पीछे उनकी कट्टर हिंदूवादी छवि कम उनका विकासपुरूषवाला चेहरा ज्यादा उजागर किया जा रहा है।
   इतना ही नहीं मोदी भाजपा का परंपरागत एजेंडा राम मंदिर, समान आचार संहिता और कश्मीर की धारा 370 हटाने का मुद्दा कहीं भी नहीं उठा रहे हैं। मोदी, भाजपा और संघ इस नतीजे पर शायद पहंुच चुके हैं कि भाजपा को अगर सत्ता में आना है तो हिंदूवादी एजेंडा छोड़ा भले ही ना जाये लेकिन उस पर ज़ोर देने से शांतिपसंद और सेकुलर सोच का हिंदू ही उनके समर्थन में आने को तैयार नहीं होता। इसलिये बहुत सोच समझकर यह रण्नीति बनाई गयी है कि चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ और ‘‘सबका साथ सबका विकास‘‘ मुद्दे पर लड़ा जाये तो ज्यादा मत और अधिक समर्थन जुटाया जा सकता है। यही वजह है कि 1991 की तरह ना तो आज देश में मंदिर मस्जिद का मुद्दा गर्म किया जा रहा है, ना ही रामरथ यात्रा निकाली जा रही है और ना ही हिंदू राष्ट्र के नाम पर दंगे भड़काने वाला उन्मादी माहौल बनाया जा रहा है।
   इसके साथ ही भाजपा के वरिष्ठ नेता यह जानते हुए भी कि मुस्लिम उनको अभी खुलकर वोट देने को तैयार नहीं होगा यह प्रयास करते नज़र आ रहे हैं कि कम से कम मुसलमान भाजपा प्रत्याशियों को हराने के एक सूत्री एजेंडे पर ‘‘लोटानमक’’ एक ना करें। इसी रण्नीति के तहत भाजपा मुसलमानों के साथ भी न्याय करने और उससे अगर कोई गल्ती हुयी हो तो माफी तक मांगने को तैयार होने की बात कह रही है। सेकुलर माने जाने वाले नेता चाहे जितने दावे करंे लेकिन मैं यह बात मानने को तैयार नहीं हूं कि गुजरात में मोदी केवल 2002 के दंगों और साम्प्रदायिकता की वजह से लगातार जीत रहे हैं। आज के दौर में मतदान में भी गड़बड़ी इस सीमा तक नहीं की जा सकती कि मीडिया व विपक्ष को पता ही ना चले। सच तो यह है कि देश के 81 करोड़ मतदाताओं में से 47 प्रतिशत युवा है जिनको हिंदू राष्ट्र और राममंदिर से ज्यादा अपने रोज़गार और क्षेत्र के विकास की है।
   देश की जनता भ्र्रष्टाचार से भी तंग आ चुकी है वह हर कीमत पर इससे छुटकारा चाहती है, यही वजह है कि केजरीवाल की जुम्मा जुम्मा आठ दिन की आम आदमी पार्टी से उसे भाजपा से ज्यादा उम्मीद नज़र आई तो उसने आप को सर आंखों पर लेने में देर नहीं लगाई। आज भी केजरीवाल की नीयत पर उसे शक नहीं है भले ही वह उसकी काम करने की शैली और कुछ नीतियों से सहमत नहीं हो। सही मायने में मोदी के गुजरात जाकर केजरीवाल ने जो 16 सवाल उठाये हैं वह सकारत्मक और विकास की नीति पर बहस की शुरूआत मानी जा सकती है।
   गुजरात मंे  पिछले 10 सालों में लघु उद्योगों का बंद होना, बेरोज़गारी बढ़ना, शिक्षित युवाओं को 5300 रू0 मासिक ठेके पर नौकरी देना, सरकारी स्कूलों व अस्पतालों की हालत दयनीय होना, सरकारी कामों में भ्र्र्रष्टाचार बढ़ना, बड़े उद्योगपतियों को किसानों की ज़मीन छीनकर कौड़ियों के भाव देना, केजी बेसिन की गैस के दाम पर  मोदी का चुप्पी साधना, अंबानी परिवार के दामाद सौरभ पटेल को राज्य का मंत्री बनाना, चुनावी हवाई यात्रा का हिसाब ना देना , गुजरात के 800 किसानों का आत्महत्या करना, कच्छ के सिख किसानों की ज़मीन ना छीनने का मोदी का पंजाब में ऐलान करना और फिर भी जबरन भूमि अधिगृहण को सही ठहराने के लिये गुजरात सरकार का सुप्रीम कोर्ट जाना क्या बताता है, नर्मदा का बांध का सारा पानी किसानों को ना देकर उद्योगपतियों को देना, चार लाख किसानों को कई साल से आवेदन के बाद भी बिजली का कनेक्शन ना मिलना और मोदी के साफ सुथरी सरकार देने के दावे की पोल खोलते हुए उनके मंत्रीमंडल में खाद घोटाले में निचली अदालत से तीन साल की सज़ा पा चुके ज़मानत पर चल रहे बाबूभाई बुखारिया और 400 करोड़ के मछली घोटाले में आरोपी पुरूषोत्तम सोलंकी जैसे दागी मंत्रियों का मौजूद होना भ्र्रष्टाचार और विकास को लेकर एक सार्थक और सकारात्मक बहस का आग़ाज़ ही माना जा सकता है।     
     अनुमान यह लगाया जाता है कि गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को दोस्तों और दुश्मनों के बारे में जवाहर लाल नेहरू और पटेल दोनों नेताओं का स्वभाव मिला है। मोदी अपने परिवार से अपने को खुद  ही काट चुके है। यह भी बड़ी वजह है कि मोदी विरोधियों के हाथ उनकी पारिवारिक कमज़ोरियां नहीं लग पाती है। 2002 के दंगों के दाग़ के अलावा मोदी का दामन भ्रष्टाचार को लेकर लगभग बेदाग माना जाता रहा है। दरअसल मोदी भाजपा की कमज़ोरी और ताकत दोनों ही बन चुके है। इस समय हैसियत में वह पार्टी में सबसे प्रभावशाली नेता माने जाते हैं। उन्हें चुनौती देने वाला कोई विकासपुरूषनहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि अगर भाजपा 200 तक लोकसभा सीटें जीत जाती है तो चुनाव के बाद जयललिता, चन्द्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और मायावती को राजग के साथ आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी।
   लोजपा के पासवान और इंडियन जस्टिस पार्टी के उदितराज जैसे दलित नेता पहले ही भाजपा के साथ आ चुके हैं। इन सबके आने के अपने अपने क्षेत्रीय समीकरण और विशेष राजनीतिक कारण है। कोई भाजपा या मोदी प्रेम के कारण नहीं आयेगा। इन सबके साथ एक कारण सामान्य है कि कांग्रेस के बजाये भाजपा के साथ काम करना इनको सहज और लाभ का सौदा लगता है। इस बार जनता का मूड कांग्रेस के साथ ही क्षेत्रीय और धर्मनिर्पेक्ष दलों से भी उखड़ा नज़र आ रहा है, जहां तक केजरीवाल की आप का सवाल है वह अभी राजनीति में बच्चा ही है। मोदी अगर विकास के नारे पर जीतकर सरकार बनाने में सफल हो जाते हैं तो उनकी मजबूरी होगी कि सबका साथ सबका विकास हर हाल में करें।
0कैसे आसमां में सुराख़ हो नहीं सकता,

 एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।।

Monday 3 March 2014

बीजेपी को मुस्लिम वोट ?


मुसलमानों का वोट भी ले सकती है भाजपा?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0बाबरी मस्जिद व गुजरात दंगे उसके रास्ते का बड़ा पत्थर बने हैं!
        भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि अगर कोई गल्ती हुयी है तो वे मुसलमानों से सौ बार सिर झुकाकर माफी मांगने को तैयार हैं, हालांकि उनके इस बयान पर संघ परिवार ने ही दबी जुबान से नाराज़गी दर्ज की है लेकिन मिशन मोदी 272 के हिसाब से राजनाथ ने यह सकारात्मक पहल की है। उधर मुसलमानों के सबसे बड़े लीडर समझे जाने वाले सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खां ने दो क़दम आगे बढ़कर इसमें यह जोड़ दिया है कि भाजपा को अगर माफी मांगनी ही है तो वह खुलकर स्वीकार करे कि उसने बाबरी मस्जिद शहीद की थी और वह उसे फिर से बनाने को तैयार है। साथ ही खां ने मांग की है कि मोदी गुजरात दंगों की ज़िम्मेदारी कबूल कर दंगापीड़ित मुसलमानों को न्याय दिलायें, उनका पुनर्वास करें और उनको पर्याप्त मुआवज़ा भी दें तो मुसलमान भाजपा को माफ करने के बारे मंे सोच सकता है।
   इसके साथ ही मुसलमानों पर अपनी मज़बूत पकड़ रखने वाले दारूलउलूम देवबंद ने राजनाथ के बयान को सियासी स्टंट बताते हुए सिरे से नकार दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं भाजपा और मोदी की लगाम आरएसएस के हाथ में है और संघ का हिंदूवादी ऐजंडा किसी से छिपा नहीं है। यही वजह है कि मोदी, पूरी भाजपा और संघ ने राजनाथ के बयान को आगे नहीं बढ़ाया है। खुद मोदी बंग्लादेश के घुसपैठियों को लेकर हिंदू और मुस्लिम के आधार पर शरण देने की बात कह चुके हैं। हालांकि मोदी इस बार और चुनाव की तरह हिंदूवादी विवादास्पद मुद्दे जानबूझकर नहीं उठा रहे हैं जिससे मुसलमान भाजपा को वोट भले ही ना करें लेकिन उनका भाजपा प्रत्याशियों को हर कीमत पर हराने का एकसूत्री अभियान ठंडा पड़ सके।
   इसका कुछ ना कुछ असर मुसलमानों पर तो पड़ेगा ही साथ ही इससे वह हिंदू मतदाता जो भाजपा को साम्प्रदायिक मानकर वोट नहीं करता था इस बार कांग्रेस सहित तमाम सेकुलर दलों से मुस्लिमपरस्त नीतियों के कारण नाराज़ होकर मोदी के विकास के दावों को परखने के लिये भाजपा की तरफ़ रूख़ कर सकता है। इससे पहले पार्टी अध्यक्ष राजनानथ सिंह ने जयपुर में मुसलमानोें को आश्वासन दिया था कि भाजपा शासित राज्यों में उनके हितों के रखवाले वह खुद बनेंगे। भाजपा ने विकास और मुस्लिम मुद्दे पर एक सम्मेलन का आयोजन कर मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की है कि कथित सेकुलर माने जाने वाले दल उनको वोटबैंक मानकर केवल सत्ता पाने के लिये इस्तेमाल करते हैं जबकि भाजपा अल्पसंख्यकों के लिये विज़न डाक्यूमेंट जारी करेगी और हज व वक़्फ पर सकारात्मक बहस चलाकर उनकी भलाई की योजनाएं लागू करने का एजेंडा सामने रखेगी।
    पार्टी उपाध्यक्ष मुख़्तार अब्बास नक़वी का दावा है कि कांग्रेस के 50 साल के राज में मुसलमान विकास के आखि़री पायेदान पर चला गया है। उनका कहना है कि कांग्रेस जैसे धर्मनिर्पेक्ष दल वोटों की खातिर ही भाजपा और साम्प्रदायिकता का हल्ला मचाते हैं। उनका यह भी कहना है कि भाजपा सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहती है। बताया जाता है कि नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बनाये जाने के बाद मोदी ने महासचिवों और कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के सदस्यों की पहली बैठक में ही अल्पसंख्यकों तक पहुंचने की कवायद शुरू करने पर जोर दिया है। इससे पहले गुजरात चुनाव के दौरान ज्वाइंट कमैटी ऑफ मुस्लिम ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इंपॉवरमेंट नाम की दस तंजीमों की संयुक्त कमैटी का चेयरमैन सैयद शहाबुद्दीन को बनाया गया था ।
    शहाबुद्दीन की मांग थी कि अगर भाजपा मुसलमानों को लेकर वास्तव मंे गंभीर है तो 20 ऐसी विधानसभा सीटों पर चुनाव में मुसलमानों को टिकट दें जहां मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत तक है। सवाल अकेला यह नहीं है कि मोदी गुजरात के दंगों के लिये गल्ती मानते हैं कि नहीं बल्कि यह है कि भाजपा अपनी मुस्लिम विरोधी सोच को बदलती है कि नहीं। सबको पता है कि भाजपा राममंदिर, मुस्लिम पर्सनल लॉ, अल्पसंख्यक आयोग, कश्मीर की धारा 370, वंदे मातरम, मुस्लिम यूनिवर्सिटी, हिंदू राष्ट्र, धर्मनिर्पेक्षता और आतंकवाद को लेकर विवादास्पद राय रखती है। इसी साम्प्रदायिक सोच का नतीजा है कि वह आतंकवादी घटनाओं में पकड़े गये बेक़सूर नौजवानों को आयोग द्वारा जांच के बाद भी रिहा करने के सरकार के प्रयासों का जोरदार विरोध करती है। वह सबको भारतीय ना मानकर हिंदू मानने की ज़िद करती है।
   वह दलितों के आरक्षण में मुसलमान दलितों को कोटा देनेेेे या पिछड़ों के कोेटे में से अल्पसंख्यकों को कोटा तय करने या सीध्ेा मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने का विरोध करती है जबकि सच्चर कमैटी की रिपोर्ट चीख़ चीख़कर मुसलमानों की दयनीय स्थिति बयान कर रही है। भाजपा के लिये एक मिसाल यह सामने है कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार ने उन 70 मुस्लिम नौजवानों से खुलेआम माफी मांगी है जिनको मई-2007 के हैदराबाद की मक्का मस्जिद बम धमाकों के आरोप में पुलिस की हिंसा और अपमान का पांच साल तक बेकसूर होने के बावजूद शिकार होना पड़ा था। इस मामले मंे राज्य सरकार ने 20 लोगों को तीन तीन लाख और बाकी को 20-20 लाख रू. का मुआवज़ा भी दिया है। वहां की सरकार ने एक अच्छा क़दम यह उठाया है कि इन बेगुनाह युवकों को चरित्र प्रमाण भी जारी किया है जिससे इनको भविष्य में आतंकवादी कहे जाने के किसी लांछन का सामना ना करना पड़े।
   पुलिस ने मालेगांव, अजमेर दरगाह व समझौता एक्सप्रैस मामलों में जिन बेकसूर मुस्लिम युवकों को पकड़ा था उनमें से लगभग सभी निर्दोष पाये गये क्योंकि जांच में इन विस्फोटों में हिंदूवादी संगठनों का हाथ पाया गया था। गुजरात की मोदी सरकार और भाजपा भी चाहे तो एक बार नरसंहार के लिये मुसलमानों से खुले दिल से माफी मांगे और उनके साथ पक्षपात बंद कर उनका पुनर्वास शुरू करे तो आज नहीं तो कल इस खाई को पाटा जा सकता है, नहीं तो भाजपा और मोदी को इस भूल की बड़ी सियासी कीमत लगातार चुकानी पड़ेगी। भाजपा के मुसलमानों के तुष्टिकरण के आरोप को खुद भारत सरकार के आंकड़े झुठलाते हैं। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अनुसार 1947 में देश में मुस्लिमों में साक्षरता का प्रतिशत 30 था जबकि यह उच्च शिक्षा के हिसाब से 8.5 था।
   आज जब देश में साक्षरता का प्रतिशत 70 पहंुच चुका है तो मुसलमानों में उच्च शिक्षा का प्रतिशत मात्र 2.4 है। ऐसे ही आबादी में 8.5 प्रतिशत का अंतर होने से अल्पसंख्यकों को जहां 1.20 लाख तो दलितों व आदिवासियों को 9.5 लाख छात्रवृत्ति दी जा रही है। मुस्लिम आबादी और उसकी पुलिस में मौजूदगी के हिसाब से देखा जाये तो यूपी में 19 फीसदी होने के बावजूद मात्र 4.73 प्रतिशत, बिहार में 25 की जगह 8.19, बंगाल में 17 की जगह 7.35, असम में 31 की जगह 4.42, और इसके विपरीत महाराष्ट्र में आबादी 10.06 प्रतिशत होने के बाद भी जेलों में बंद मुसलमानों की तादाद 32.4 फीसदी, गुजरात में 9.06 के मुकाबले जेल में 25 प्रतिशत और दिल्ली में 11.7 प्रतिशत आबादी के बरक्स जेल में बंद मुसलमानों का प्रतिशत 29 है।
   अगर इस बात को पलटकर देखा जाये तो मुसलमानों को उनकी आबादी के हिसाब से हर क्षेत्र में बहुत कम हिस्सा मिलने से यह गैर मुस्लिमों का तुष्टिकरण जाने अनजाने हो रहा है। इतिहास गवाह है कि 1984 में भाजपा लोकसभा की मात्र 2 सीटों तक सिमट कर रह गयी थी लेकिन हिंदूवादी राजनीति करने के लिये जब उसने रामजन्मभूमि विवाद को हवा दी तो वह दो से सीधे 88 सीटों पर जा पहुंची। इसके बाद उसने उग्र हिंदूवाद की लाइन पकड़कर पार्टी को डेढ़ सौ सीटों तक पहुंचा दिया। राजनाथ या मोदी ही नहीं भाजपा जब तक आरएसएस के नियंत्रण में अपनी साम्प्रदायिक राजनीति छोड़कर सभी भारतीयोें के लिये ईमानदारी से भलाई का काम करना शुरू नहीं करती तब तक भ्रष्ट कांग्रेस की जगह क्षेत्रीय दल चुनाव में उससे आगे आते जायेंगे, यह बात 2014 के चुनाव में एक बार फिर साबित हो सकती है।  
  0उसके होठों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

   उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।।