Wednesday 29 March 2017

बूचड़खाने नियम कानून मानें!

*वजह चाहे जो हो बूचड़ख़ाने साफ हों*

 

 

 

मांस का कारोबार बेशक आपका अधिकार है तो नियमानुसार चलना आपकी क़ानूनी ज़िम्मेदारी भी बनती है।
यूपी में सरकार बदल गयी। संयोग से नई सरकार बीजेपी की है। उसका सीएम कट्टर हिंदूवादी छवि का एक महंत आदित्यनाथ योगी को बनाया गया है। योगी के सीएम बनते ही अवैध बूचड़खानों के खिलाफ अभियान शुरू हो गया। साथ साथ बिना लाइसेंस और नियमानुसार मीट न बेचने वाले दुकानदारों पर भी गाज़ गिरनी शुरू हो गयी। इसका सबसे बुरा असर मुसलमानों पर पड़ा है। इसकी वजह बीजेपी सरकार का मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह बताया जा रहा है। इस अभियान के विरोध में विपक्ष के साथ सेकुलर वर्ग की तरफ से आवाज़ बुलंद होने लगी हैं। मीट कारोबारी हड़ताल पर भी चले गये हैं। हम सबकुछ मान सकते हैं। लेकिन यह नहीं मान सकते कि मांस का कारोबार करने वालों को इसके बावजूद नियम कानून से छूट मिलनी चाहिये।
सवाल यह है कि इससे पहले जब मुसलमानों की सबसे बड़ी हमदर्द मानी जाने वाली समाजवादी सरकार चल रही थी तो उसने अपने वोटबैंक को इस मंझधार में लाकर क्यों छोड़ा? उसे किसने रोका था कि वह अवैध बूचड़खानोें का नियमतीकरण कर उनको नियमानुसार कानूनी मान्यता देती? जब मरने के बाद इंतज़ाम के लिये कब्रिस्तान की चारदीवारी पर लाखों रू. खर्चे जा रहे थे तो ज़िंदा रहने के लिये भोजन यानी मांस के लिये नये कानूनी मान्यता प्राप्त स्लॉटर हाउस नये क्यों नहीं बनाये जा सकते थे? अखिलेश सरकार को किसने रोका था कि वह मीट बेचने वाले दुकानदारों को इसके लिये बाकायदा लाइसेंस देती? यह बहाना अब पुराना हो चुका है कि बीजेपी मुसलमानों की विरोधी है इसलिये ऐसा कर रही है।
हालांकि हम जानते हैं कि मीट कारोबार ही नहीं ऐसेे अनेक कारोबार हैं। जो अवैध रूप से आज भी यूपी में चल रहे हैं। यह भी सच है कि कुछ कारोबार ऐसे ही कानून को ठेंगा दिखाकर आगे भी चलते रहेंगे। अगर सरकारी ज़मीनों पर झुग्गी झोंपड़ी हों तो उनको भी हटाने केे लिये सरकार की तरफ से कुछ समय की मोहलत दी जाती है। ऐसे लोगों की सुविधा के लिये कई बार सरकार वैकल्पिक घर बनाकर तब गरीबों को झुग्गी झोपड़ी से हटाती है। लेकिन मीट कारोबारियों के साथ सरकार ने ऐसा नहीं किया है। इसकी एक वजह यह भी लगती है कि सरकार बदलते ही मशीनरी अपनी तरफ से अपने नंबर बढ़ाने और अब तक जेब गर्म कर यह अवैध कारोबार जारी रखने के डर से अपने पाप जल्दी से जल्दी से धोना चाहती है। इसके साथ ही एंटी रोमियो अभियान का भी यही हाल रहा है।
इसके पीछे भी यही वजह बताई जाती है कि छेड़छाड़ करने वाले ज़्यादा लड़के मुसलमान होते हैं। पुलिस इस अभियान को सफल बनाने को लेकर बिना आदेश के ही भाजपा के संकल्प पत्र को इतनी तेज़ी से लागू करती नज़र आई कि खुद सीएम को यह कहना पड़ा कि अनावश्यक कार्यवाही न की जाये। कहने का मतलब यह है कि सरकारें बदलने पर हमारी भ्रष्ट मशीनरी अकसर नये मुखिया की मंशा भांपकर अति उत्साह में अकसर ऐसे गुल खिलाती ही रही हैं। ख़बर तो यहां तक है कि जब एक बार यह चर्चा चली कि बहनजी की सरकार भी बन सकती है तो आज योगी को खुश करने में लगी यह सरकारी मशीनरी लखनऊ में अंबेडकर पार्क में लगे उनके हाथियों को झाड़ पोंछने में भी कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी।
वजह चाहे जो हो अवैध बूचड़खानों के खिलाफ भाजपा सरकार के इस उतावले अभियान से मुसलमानों को एक सबक लेना ही चाहिये कि सरकार चाहे जो हो कारोबार नियमानुसार और कानून के हिसाब से ही किया जाना चाहिये। दूसरी बात सबसे ज़्यादा मीट खाने वाले मुसलमान ही आगे चलकर सेहत के मामले में इस अभियान का फायदा महसूस करेंगे। अगर स्लॉटर हाउस नियमानुसार चलेंगे तो उनमें सफाई और मानकों का पालन होगा। सफाई इस्लाम में आधा ईमान बताई गयी है। यह अजीब बात है कि मुसलमान पाक रहने पर तो बहुत ज़ोर देते हैं। लेकिन सफाई के मामले में अन्य वर्गों से काफी पीछे देखे जाते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का दावा करने वाली इस सरकार से मुसलमानों को मांस नहीं विकास के अपने चांस के लिये थोड़ा इंतज़ार करना चाहिये।
*‘उसके होंठों की तरफ न देख वो क्या कहता है,*
*उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।’*

अयोध्या विवाद का हल

अयोध्या विवाद: आगे रास्ता बंद है!

 

 

 

यहां से ही ‘राइट टर्न’ ले सकते हैं दोनों वर्ग!

बाबरी मस्जिद बनाम रामजन्मभूमि विवाद अगर आपसी समझौते से हल हो जाये तो इससे दोनों पक्षों को जीत का अहसास होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस आधा दशक से ज़्यादा पुराने विवाद पर सुनवाई करके कानूनी फैसला देने से पहले दोनों पक्षों को जो सुलह का मौका दिया है। हमको लगता है यह भावुक और संवेदनशील मुद्दा होने से इसका कानूनी हल तलाशना तो अंतिम विकल्प है। लेकिन इसके किसी एक पक्ष में आने से फैसला लागू करना सरकार के लिये बड़ा मुश्किल हो जायेगा। हो सकता है कानूनी और उपलब्ध दस्तावेज़ों के हिसाब से बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी यह मानकर चल रही हो कि सुप्रीम कोर्ट से फैसला उनके पक्ष में ही आयेगा।
शायद इसीलिये सबसे पहले कमैटी की तरफ से उसके वकील जीलानी ने बातचीत से इस विवाद के हल होने से दो टूक मना कर दिया। हालांकि समझौता कराने के लिये मध्यस्थ बनने का प्रस्ताव भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। लेकिन जिस तरह से राम मंदिर की तरफ से पैरवी कर रहे चर्चित वकील और भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी ने सुलह के लिये कोई बात शुरू होने से पहले ही यह शर्त लगाई कि मुसलमानों को मस्जिद सरयू नदी के उस पार बनानी होगी। उससे यह लगता है कि उनकी दिलचस्पी भी समझौते में ना होकर अदालत से ही अपने पक्ष में निर्णय आने का अति विश्वास है।

उन्होंने साथ ही यह चेतावनी भी दी कि अगर मुसलमान विवादित ज़मीन से अपना दावा नहीं छोड़ते तो मोदी सरकार अप्रैल 2018 में राज्यसभा में बहुमत में आने पर इसके लिये कानून बनाकर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करेगी। ज़ाहिर है इससे दूसरा पक्ष दबाव या धमकी के आगे झुककर कभी भी समझौते की बात शुरू नहीं करेगा। इसके बाद एक और बड़ी समस्या यह है कि जो विवाद अब करोड़ों लोगों की भावना से जुड़ गया हो। उसको हल करने के लिये अगर कुछ लोग या कोई संस्था उदारता से आगे भी आती है तो दोनों तरफ से कट्टरपंथी उस समझौते को मानने से मना करेंगे। इसका नतीजा यह होगा कि हर हाल में अंत में फैसला सुप्रीम कोर्ट से ही कराना होगा।

फैसला अगर राममंदिर के पक्ष मंे आ गया तो चाहे देश में अल्पसंख्यक खुद को ठगा सा महसूस करें। लेकिन वर्तमान केंद्र और राज्य की सरकारें तत्काल राम मंदिर का निर्माण शुरू करा देंगी। अल्पसंख्यकों के लिये इस मामले में फैसला चुपचाप मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होगा क्योंकि वे लगातार यह कहते रहे हैं कि कोर्ट का जो भी अंतिम फैसला आयेगा वह उनको हर हाल में मान्य होगा। लेकिन इस बात की संभावना अधिक है कि बड़ी अदालत का निर्णय बाबरी मस्जिद के पक्ष में आ सकता है। इसकी वजह कानून के जानकार यह बताते हैं कि गवाही से लेकर उपलब्ध दस्तावेज़ मस्जिद के पक्ष में ही मौजूद हैं। जबकि मंदिर पक्ष का दावा अपनी धार्मिक मान्यता आस्था और भावना के आधार पर काफी मज़बूत है।
साथ ही उनके पक्ष मंे भूगर्भ वैज्ञानिकों की वह जांच रपट भी है। जिसमें विवादित स्थान के नीचे मंदिरों के ढांचे मौजूद होने का दावा किया गया है। लेकिन कोर्ट कानून के अलावा बाकी इस तरह की बातों का अपने फैसले में अब तक संज्ञान लेता नहीं रहा है। हालांकि इलाहबाद हाईकोर्ट ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करते हुए मंदिर पक्ष की भावनाओं का सम्मान भी अपने फैसले मंे किया था। लेकिन यह कानून के एतबार से सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पायेगा। आपको याद होगा 1994 में कांग्रेस सरकार ने संविधान की धारा 143 एक के तहत इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी थी। पांच जजों की पूर्ण पीठ ने सरकार का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया था कि वह अगर उनकी सलाह को अनिवार्य रूप से लागू करे तो वह सलाह दे सकते हैं।

लेकिन अब यह मामला निचली अदालत से उच्च नयायालय होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय में अपील के तौर पर कानूनी हिसाब से गया है। अब अगर दोनों पक्षों में इस पर बाहर कोई सर्वमान्य समझौता नहीं होता है तो सब से बड़ी अदालत को इसका निर्णय हर हाल में करना ही होगा। चूंकि यह एक टाइटिल केस है तो इसका फैसला किसी एक के पक्ष मंे ही जाना है। कोर्ट पर इस मामले मंे प्रतिदिन सुनवाई करके जल्दी फैसला देने का दबाव भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 23 दिसंबर 1949 को जब यह विवाद मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने से शुरू हुआ था। उस समय तो यह केवल स्थानीय मामला था। अयोध्या निवासी इसको आपसी प्यार और भाईचारे से शांति के साथ निबटा सकते थे।

बाद में जब विवादित मस्जिद का ताला खोलकर उसमें राजीव सरकार ने पूजा और दर्शन की सुविधा उपलब्ध करा दी तो मस्जिद पक्ष भी वहां नमाज़ पढ़ने की मांग करने के लिये सड़कों पर उतर आया। शायद उसी भूल का पश्चाताप करने को मुसलमानों को राजीव सरकार ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर गैर कानूनी तलाक के बावजूद आईपीसी की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता देने से आज़ाद कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे को पूरे देश के हिंदुओं की आस्था का मुद्दा बना दिया। भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के ज़रिये न केवल इस मामले को चुनाव में भुनाकर अपनी लोकसभा की सीट 2 से सीध्ेा 88 कर लीं।

बल्कि बाद में यूपी में अपनी सरकार आने पर सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बावजूद कारसेवकों को न रोककर विवादित बाबरी मस्जिद शहीद करा दी। इसके बाद सियासत में बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसी विवाद का नतीजा है कि आज भाजपा केंद्र सहित कई राज्यों में सरकार चला रही है। आज कट्टर हिंदुओं का वही वर्ग शाहबानों केस की तरह कोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष मंे ना आने पर अभी से सरकार से कानून बनाने की मांग कर रहा है। हमें लगता है कि चाहे जैसे हो विवादित स्थान पर आज नहीं तो कल मंदिर बन ही जायेगा। अगर फैसला सुप्रीम कोर्ट से मस्जिद के पक्ष में भी आता है तो हिंदू बहुसंख्यकों की नाराज़गी के डर से कोई भी सरकार वहां फिर से मस्जिद बनाने का जोखिम नहीं उठा पायेगी।
इस लिये मुसलमानों की समझदारी और कुर्बानी देश की एकता और भाईचारे के लिये यही हो सकती है कि वे खुद ही विवादित जगह हिंदू भाइयों को मंदिर बनाने के लिये उपहार के तौर पर दे दें। साथ ही हिंदू भाई वहीं पास में अपनी तरफ से एक बड़ी आलीशान मस्जिद मुसलमानों को खुद बनाकर भेंट कर दें। नहीं तो देश में एक बार फिर से तनाव खूनख़राबा और दंगों का दौर शुरू हो सकता है। हमें शक नहीं पूरा यकीन है कि इसके बावजूद अब वहां फिर से बाबरी मस्जिद बनना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आगे का रास्ता बंद हो जायेगा। इसलिये बेहतर यही है कि दोनों पक्ष यहीं से राइट टर्न ले लें तो दोनों का मान सम्मान और आपसी भाईचारा भी बचा रहेगा और देश की एकता अखंता भी सुरक्षित बनी रहेगी।

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है

Wednesday 22 March 2017

आफ़रीन को गाने दो....

*आफ़रीन को गाने दो, मियां आप मत गाओ!*

 

 

 

*मौलानाओं के इसी तरह के कट्टरपंथ ने मुसलमानों को समाज में अलग थलग कर दिया है!*

उसका नाम नाहिद आफ़रीन है। वह 16 साल की बेहतरीन सिंगर है। वह इंडियन आइडल के जूनियर सिंगर कंपटीशन में सेकंड टॉपर रही है। 2016 मंे जानी मानी अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा द्वारा अभिनीत फिल्म अकीरा मंे आफरीन ने बेहतरीन गाना गाया है। असम के 46 मौलवियों ने 25 मार्च को लंका इलाके के उदाली सोनई स्थित बी बी कॉलेज में उसके परफॉर्म करने के खिलाफ मुसलमानों को शरीयत की दुहाई देते हुए एक फरमान जारी कर दिया है। इसके लिये इलाके में लड़की होकर उसके गाने के खिलाफ पर्चे बांटकर माहौल बना दिया गया है। फरमान न मानने पर उसे और उसके परिवार को हमले से लेकर सामाजिक बहिष्कार तक की धमकी मिल रही है।
हालांकि मीडिया ने इस अपील को फ़तवा क़रार दिया है। लेकिन इसके फ़तवा न होने और अपील होने के बावजूद इस बात पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि इससे आफ़रीन भारी तनाव में आ गयी है। उसके घर के आसपास के लोग उसके परिवार पर खुदाई फौजदार बनकर दबाव डाल रहे हैं कि वह अपना गाने का प्रोग्राम न केवल खत्म करे बल्कि भविष्य में इस विधा से तौबा करे। हालांकि इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। आपको याद होगा इससे पहले कश्मीर की एक कमसिन लड़की ज़ायरा को आमिर ख़ान की फिल्म दंगल में एक्टिंग करने की वजह से फेसबुक पर जमकर ट्रॉल किया गया था। इससे तंग आकर ज़ायरा को यहां तक सफाई देनी पड़ी थी कि कश्मीर की लड़कियां उसको अपना आइडियल ना मानें।
उसने कट्टरपंथियों की धमकियों से डर कर माफी भी मांगी थी। इसके बाद उसको अपना फेसबुक एकाउंट बंद करना पड़ा। और पीछे चले तो कश्मीर के प्रगाश रॉक बैंड का नाम आपको याद होगा। इसमें आधा दर्जन मुस्लिम लड़कियां अपने गीत संगीत से पूरे देश में लोकप्रियता का डंका बजा रही थीं। उनके खिलाफ बाकायदा कश्मीर के सबसे बड़े मुफ़ती ने फरमान जारी किया था। ऐसा होते हुए ही वहां के कट्टरपंथियों और उग्रवादियों को उन बच्चियों को डराने धमकाने का लाइसंेस मिल गया था। उसके बाद किसी ने प्रगाश बैंड और उनके प्रोग्राम के बारे मंे नहीं सुना है। यह सिलसिला काफी लंबा है। आज जिस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर मुसलमान गर्व करते हैं।
उसके संस्थापक सर सय्यद अहमद खां के खिलाफ भी उस समय के मौलानाओं ने फ़तवा जारी कर दिया था। मौलानाओं का यहां तक दावा था कि अंग्रेज़ी पढ़ना ही नाजायज़ है। हालांकि समय ने उनको गलत साबित कर दिया। आज मुसलमान एएमयू में भी पढ़ रहा है और अंग्रेजी भी खूब पढ़ रहा है। कहने का मतलब यह है कि अगर किसी को यह लगता है कि गाना या अंग्रेज़ी पढ़ना गुनाह है तो वह खुद इससे परहेज़ कर सकता है। लेकिन जब आफ़रीन, ज़ायरा और प्रगाश बैंड को मज़हब के नाम पर ज़बरदस्ती तालिबानी तरीके से रोकने का सवाल आता है तो पूरी दुनिया में यह संदेश जाता है कि मुसलमान आज भी दूसरे लोगों से कितना अलग है। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि हम वो हर बुरी चीज़ अपनायें जो दूसरे लोग अपनाते हैं।
लेकिन आज जब सारी दुनिया ग्लोबल विलेज बन चुकी है। देशों में सभी मज़हब रंग और संस्कृति के लोग साझा तौर पर रहते हैं तो मुसलमान सबसे बिल्कुल अलग भी नहीं चल सकता। मिसाल के तौर पर मुसलमानों ने परिवार नियोजन, बैंकिंग सिस्टम और फोटो वगैरा उनके मज़हब में मना होने के बावजूद ज़रूरत के हिसाब से धीरे धीरे अपना ही लिये हैं। इसलिये आज के दौर मंे अगर मुसलमानों को तरक्की करनी है। अपने साथ दूसरे लोगों का भेदभाव ख़त्म करना है और देश के विकास में कंध्ेा से कंधा मिलाकर चलना है तो जिस मुसलमान को जो अच्छा न लगे वह बेशक न करने के लिये आज़ाद है। लेकिन आफ़रीन जैसी होनहार गायिका को किसी तरह से भी रोकना तालिबानी सोच ही लगती है। जिसे आफ़रीन ने ना मानकर हिम्मत दिखाई है।

Tuesday 21 March 2017

U P CM period

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं उनके कार्यकाल 
क्रम संख्या मुख्यमंत्री / प्रीमियर कार्यकाल
1.सर नवाब मुहम्मद अहमद सईद खाँ ( नवाब छतारी )- 03-04-1937 से 16-07-1937 तक (प्रीमियर )
2.पंडित गोविंद वल्लभ पंत- 17-07-1937 से 02-11-1939 तक (प्रीमियर )
01-04-1946 से 25-01-1950 तक (प्रीमियर )
26-01-1950 से 20-05-1952 तक
20-05-1952 से 27-12-1954 तक
3.डा० सम्पूर्णानंद- 28-12-1954 से 09-04-1957 तक
10-04-1957 से 06-12-1960 तक
4.चंद्रभानु गुप्त- 07-12-1960 से 14-03-1962 तक
14-03-1962 से 01-10-1963 तक
5.सुचेता कृपलानी- 02-10-1963 से 13-03-1967 तक
6.चंद्रभानु गुप्त- 14-03-1967 से 02-04-1967 तक
7.चौधरी चरण सिंह 03-04-1967 से 25-02-1968 तक
8.चंद्रभानु गुप्त 26-02-1969 से 17-02-1970 तक
9.चौधरी चरण सिंह 18-02-1970 से 01-10-1970 तक
10.त्रिभुवन नारायण सिंह 18-10-1970 से 03-04-1971 तक
11.कमलापति त्रिपाठी- 04-04-1971 से 12-06-1973 तक
12.हेमवती नन्दन बहुगुणा- 08-11-1973 से 04-03-1974 तक
05-03-1974 से 29-11-1975 तक
13. नारायण दत्त तिवारी-21-01-1976 से 30-04-1977 तक
14.राम नरेश यादव 23-06-1977 से 27-02-1979 तक
15.बनारसी दास 28-02-1979 से 17-02-1980 तक
16.विश्वनाथ प्रताप सिंह 09-06-1980 से 18-07-1982 तक
17.श्रीपति मिश्र- 19-07-1982 से 02-08-1984 तक
18.नारायण दत्त तिवारी -03-08-1984 से 10-03-1985 तक
11-03-1985 से 24-09-1985 तक
19.वीर बहादुर सिंह 24-09-1985 से 24-06-1988 तक
20.नारायण दत्त तिवारी 25-06-1988 से 05-12-1989 तक
21.मुलायम सिंह यादव 05-12-1989 से 24-06-1991 तक
22.कल्याण सिंह 24-06-1991 से 06-12-1992 तक
23.मुलायम सिंह यादव 04-12-1993 से 03-06-1995 तक
24. मायावती 03-06-1995 से 18-10-1995 तक
21-03-1997 से 20-09-1997 तक
25.कल्याण सिंह 21-09-1997 से 12-11-1999 तक
26.राम प्रकाश 12-11-1999 से 28-10-2000 तक
27. राजनाथ सिंह 28-10-2000 से 08-03-2002 तक
28.मायावती 03-05-2002 से 29-08-2003 तक
29.मुलायम सिंह यादव 29-08-2003 से 13-05-2007 तक
30.मायावती 13-05-2007 से 15-03-2012 तक
31.अखिलेश यादव 15-03-2012 से  मार्च 2017 समाप्ति तक
(32)  *योगी श्री आदित्य नाथ* 19.03.17 से...

Thursday 16 March 2017

ईवीएम नहीं माया की सोच में खराबी?

 

 

 

*0मुस्लिम साम्प्रदायिकता+हिंदू जातिवाद=हारे*
*0हिंदू साम्प्रदायिकता+विकास का दावा=जीते!*

यूपी में जहां बीजेपी गठबंधन की 325 सीट जीतकर बंपर जीत हुयी है। वहीं मात्र 19 सीटों तक सिमट जाने से बसपा की सबसे शर्मनाक हार हुयी है। हालांकि सपा+कांग्रेस गठबंधन की हार भी 54 सीटों के हिसाब से सम्मानजनक नहीं है। लेकिन अखिलेश यादव ने लोकतांत्रिक परंपराओं का सम्मान करते हुए इस दुखद हार को जनादेश के तौर पर स्वीकार कर लिया है।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अभी भी अहंकार और नादानी में अपने गिरेबान में झांकने और आगे से अपनी सियासत को सुधारने की बजाये इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी इवीएम में गड़बड़ी का बड़ा संगीन आरोप लगा दिया है। हालांकि चुनाव आयोग ने उनकी शिकायत को नकार दिया है। लेकिन वे अब इसके खिलाफ़ आंदोलन और कोर्ट जाने की चेतावनी दे रही हैं। कम लोगों को पता होगा कि चुनाव से पहले इवीएम को बूथवाइज़ तैयार करते हुए सभी दलों के प्रत्याशियों की मौजूदगी में रेंडम तरीके से 5 प्रतिशत मशीनें चुनी जाती हैं।

इसके बाद उनमें से प्रत्येक में 1000 वोट डालकर उनका नतीजा हाथोहाथ प्रिंट किया जाता है। इसके बाद जब सब दलों के नेता संतुष्ट हो जाते हैं। तब ही इवीएम का इस्तेमाल होता है। इतना ही नहीं बूथ पर मौजूद सियासी दलों के पोलिंग एजेंटों को भी मतदान शुरू होने से पहले ‘मोक पोल’ करके परिणाम चैक कराये जाते हैं। दावा किया जाता है कि अगर इवीएम में ब्लू टूथ वाली छोटी चिप लगा दी जाये तो उसको मोबाइल से ऑप्रेट कर वोटिंग में गड़बड़ी की जा सकती है।

लेकिन चुनाव आयोग का दावा है कि इस तरह से हर बूथ की मशीन के लिये एक मोबाइल चाहिये जो लाखों इवीएम पर गुप्त नहीं रह सकता। इवीएम को हैक करने की भी चर्चा हो रही है। लेकिन जब तक इवीएम में नेट न चलता हो यह हैक हो ही नहीं सकती। हालांकि इवीएम में हेरफेर तो फिर भी संभव है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि लाखों इवीएम में ऐसा करना लगभग असंभव है। समय समय पर बीजेपी सहित आम आदमी पार्टी भी इवीएम पर शक जता चुकी है।

सुप्रीम कोर्ट इसके लिये वीवीपीएटी यानी वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रॉयल का आदेश चुनाव आयोग को पहले ही दे चुका है। इसके ज़रिये मतदाता के वोट देने के बाद इवीएम से एक प्रिंटेड पर्ची निकलती है। जिससे वोटर को दिख जाता है कि उसने जिस प्रत्याशी को वोट दिया है। वह पर्ची पर उसी को गया है। इस पर्ची को पोलिंग पार्टी रिकॉर्ड के तौर पर रखती है। बाद में विवाद या शक होने पर प्रिंटेड पर्ची और इवीएम के वोट का ब्यौरा मिलाकर सत्यापन किया जा सकता है।
हालांकि यह तरीका भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। इसको इस बार चुनाव में अपनाया भी नहीं जा सका है। लेकिन आपको किसी न किसी तरीके पर तो भरोसा करना ही होगा। *बसपा सुप्रीमो ने अपने आरोप के पक्ष में देवबंद सीट के नतीजे को आधार बनाया है। उनका सवाल है कि देवबंद मुस्लिम बहुल सीट है तो वहां बीजेपी कैसे जीत गयी? क्या मुसलमान भाजपा को इतने वोट दे सकते हैं? बात दमदार लगती है लकिन इस सीट के आंकड़े ग़लत दिये जा रहे हैं।*

*दावा किया गया है कि इस सीट पर 70 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता है। सच यह है कि देवबंद सीट पर मुसलमान मतदाता 45 परसेंट हैं। यहां 1952 से केवल दो बार ही मुस्लिम विधायक चुने जा सके हैं। एक बार 1977 में जनता पार्टी के मुहम्मद उस्मान और दूसरी बार हाल ही में 2016 के उपचुनाव में माविया अली एमएलए बने थे। अब देवबंद में इस बार हुए चुनाव पर एक नज़र डालते हैं। यहां बीजेपी के बृजेश सिंह 101977 वोट लेकर जीते हैं। बसपा के माजिद अली को दूसरे नंबर पर रहकर 72654 वोट मिले हैं।*

*तीसरे स्थान पर सपा के माविया अली 55278 वोट पाकर रहे हैं। यानी सपा बसपा के वोट जोड़े जायें तो 127932 हो जाते हैं। दरअसल यह इवीएम की गड़बड़ी नहीं है। मुस्लिम वोट दो जगह बंट गया है। जबकि हिंदू वोट एकजुट होकर बीजेपी को मिला है। इसमें बसपा का बेस वोट दलित भी काफी बड़ी तादाद में भाजपा के पाले में चला गया है। उधर सपा बसपा को बड़ी तादाद में हिंदू ने वोट नहीं दिया हैै।* अब सवाल उठता है कि फिर गड़बड़ी कहां है? तो वो मायावती की सोच में है। मतदान के आंकड़ों से पता चलता है।

पूरे यूपी में बसपा को 22.20 परसंेट वोट मिले हैं। लेकिन इस बार उनकी सोशल इंजीनियरिंग नाकाम हो गयी है। सबको पता है कि बहनजी अपनी पार्टी का सिंबल करोड़ों रूपयों में बेचती हैं। वे एक बार मुलायम सिंह को धोखा देकर चोर दरवाजे़ से सीएम बनीं तो तीन बार बीजेपी के सपोर्ट से सीएम बनीं। इसका नतीजा यह हुआ कि उनके आधार वोट दलित खुद भी बीजेपी से सहानुभूति रखने लगे हैं। कई सीटों पर जहां उनको लगता है कि अन्य जातियों के वोट बसपा को नहीं मिल रहे वहां वे सपा या अन्य को हराने के लिये भाजपा के साथ चले जाते हैं।

इस बार बहनजी के 97 उम्मीदवार उतारने के बावजूद मुसलमानों ने भी अपने मुसलमान प्रत्याशी को साम्प्रदायिक या बीजेपी हराओ के आधार पर सपोर्ट करने से किनारा कर लिया। इसके साथ ही गैर दलित हिंदू उम्मीदवार भी हाथी को अपनी बिरादरी के वोट नहीं दिला सके। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह भी सामने आई कि बहनजी टिकट सबको बेचती हैं। वोट भी सबके ले लेती हैं। लेकिन सरकार बनने पर केवल दलितों के लिये काम करती हैं। ऐसे ही आरोप सपा सरकार पर भी यादवों को ही हर क्षेत्र में लाभ दिलाने के लगते रहे हैं।

इसका नतीजा यह हुआ है कि गैर जाटव और गैर यादव हिंदू समाज को भाजपा अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो गयी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस चुनाव में मुस्लिम साम्प्रदायिकता + हिंदू जातिवाद को हराकर हिंदू साम्प्रदायिकता +मोदी के विकास के दावे को गैर मुसलमानों ने भरोसेमंद मानकर जिता दिया है।

अब यह तो समय ही बतायेगा कि मायावती इवीएम की बजाये अपनी इस जातिवादी स्वार्थी टिकट बेचने के सियासी कारोबार की और मुसलमानों को बीजेपी के आने का खौफ दिखाकर एक तरह से ब्लैकमेल कर आगे भी वोट लेने का रास्ता छोड़कर अपनी सोच की गड़बड़ी ठीक करती हैं या अभी भी शॉर्टकट से पहले की तरह सरकार बनाने के लिये 5 से 10 साल मोदी से जनता के मोहभंग होने का लंबा इंतज़ार करती हैं। बहनजी के लिये-

*दूसरों पर तब्सरा जब किया कीजिये,*
*आईना सामने रख लिया कीजिये।*