Saturday 29 April 2017

सुकमा हमला

*सुकमा हमले पर उतना गुस्सा क्यों नहीं ?*

 बात बात पर आसमान सिर पर उठा लेने वाले संगठन सुकमा हमले पर उतना उग्र और सक्रिय नज़र नहीं आये!

24 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलवादियों ने हमला कर सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद कर दिये। इससे पहले 11 मार्च को 12 जवानों की सुकमा में ही नक्सलवादियों ने पहले ही जान ले ली थी। थोड़ा और पीछे चलें तो 7 साल पहले नक्सलियों ने हमारे 76 जवानों को इसी तरह घात लगाकर मौत की नींद सुला दिया था। जब जब ऐसे हमले होते हैं। राजनेता इनकी कड़ी निंदा करते हैं। मीडिया जवानों के खून का बदला लेने की मांग करता है। सरकार बड़े बड़े दावे करती है। लेकिन हम कुछ ही दिन बाद अपने अपने काम में लग जाते हैं।

आखि़र यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिये कि जब भाजपा विपक्ष में थी तो वो नक्सलियों को सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद जड़ से ख़त्म करने का जो दावा करती थी, वो आज 14 साल बाद भी पूरा क्यों नहीं हो पा रहा है? छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार की बात अगर फिलहाल छोड़ भी दें तो केंद्र में भी अब तीन साल से भाजपा की सरकार है। ऐसे में यह कहकर बचा नहीं जा सकता कि राज्य की रमन सिंह सरकार को केंद्र की मोदी सरकार नक्सलियों से निबटने के लिये पर्याप्त संसाधन और आवश्यक धन उपलब्ध नहीं करा रही होगी?

*ऐसे ही गाय जैसे धार्मिक और जेएनयू जैसे देशभक्ति के नारों के मुद्दोें पर आये दिन उग्र होकर प्रदर्शन करने वाले और अपने विरोधियों पर असहमति होने पर गैर कानूनी रूप से बात बात पर हिंसक होकर हमले करने वाले ढेर सारे संगठन पता नहीं कहां छिपे बैठे हैं?* इतनी बड़ी संख्या में एक गैर कानूनी और देश विरोधी हथियारबंद संगठन के हाथों हमारे इतने अधिक अर्धसैनिक बार बार मारे जाने पर देशभर में वैसा गुस्सा और विरोध अब क्यों नहीं हो रहा है? जैसा कांग्रेस या गैर भाजपा दलों की सरकार के रहते हुआ करता था? उस दौर में अगर सेना के जवान तेजबहादुर ने खराब खाना मिलने का आरोप लगाया होता तो राष्ट्रवादी संगठन उस सेक्युलर सरकार को ही सीधे सीधे देशद्रोही ठहराकर पूरे देश में बड़ा आंदोलन शुरू कर चुके होते?

लेकिन आज क्या हो रहा है। आज हालत यह है कि शिकायत करने वाले जवान की वाजिब शिकायत दूर न कर अनुशासन के नाम पर उसका कोर्ट मार्शल कर उसको नौकरी से निकाला जा चुका है। हैरत की बात यह है कि जो मीडिया 2014 से पहले विपक्ष यानी खासतौर पर भाजपा के सुर में सुर मिलाकर सरकार के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाया करता था। आज वो भी चुप्पी साधे हुए है। शर्म की बात तो यह है कि अगर आज का विपक्ष इन मुद्दों को उठाता है तो मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भाजपा और उसकी सरकार से पहले उल्टे विपक्ष को ही आड़े हाथ लेने लगता है। जो मीडिया किसी आतंकी घटना के बाद उसके तार जांच से पहले ही अल्पसंख्यकों से जोड़कर देश तोड़ने की साज़िश तलाश लेता है। वह आज नक्सलियों द्वारा बार बार इतनी बड़ी देश विरोधी संविधन विरोधी और राष्ट्र की संप्रभुता को चुनौती देने वाली हमारे अब तक सौ से अधिक जवानों की जान ले लेने वाली घटनाओं पर उतना ऐक्टिव और उग्र नहीं है।

*यह सवाल भी नहीं उठाये जा रहे कि नक्सलियों के पास इतने आधुनिक और घातक हथियार ट्रेनिंग और नोटबंदी के बावजूद नये नोट कहां से और कैसे आ रहे हैं? नोटबंदी से उनकी कमर टूटने के दावे नाकाम क्यों हुए? हमारी खुफिया सेवा असफल क्यों है? और सबसे बढ़कर भाजपा सरकारें जवाबदेही से बाहर क्यों हैं?*

Wednesday 26 April 2017

शराबबंदी

*क्या शराब पर कश्मकश में है सरकार?*

 

 

 

*शासकों को मानना चाहिये कि राजस्व से अधिक इंसानी ज़िंदगी को महत्व देने की नीति को अपनाने का समय आ गया है!*

बिहार सरकार ने जब राज्य में पूरी तरह से शराबबंदी की थी। तब नीतीश सरकार की इस नीति पर कई तरह के सवाल उठे थे। एक तरफ तो समाज विज्ञानी इस जनहित की नीति का खुलकर स्वागत कर रहे थे। दूसरी तरफ सरकार के राजस्व को ही सब कुछ मानकर चलने वाले शराबबंदी की इस नीति को बिहार सरकार का आत्मघाती कदम मानकर चल रहे थे। इसमें कोई दो राय भी नहीं कि सरकार को समाज की भलाई के जो भी काम करने होते हैं। उनके लिए काफी पैसे की ज़रूरत होती है। शराब से टैक्स की शक्ल में जो धन सरकार को मिलता है वह काफी भारी—भरकम रकम होती है। यही वजह है कि या तो अधिकांश सरकारें शराब बंद करने का जोखि़म लेना ही नहीं चाहती या फिर जो सरकारें केवल लोकलुभावन आधार पर यह कदम जल्दबाज़ी में उठा भी लेती हैं।

वे कुछ समय बाद राजस्व का घाटा न सह पाने के कारण मजबूर होकर अपना फैसला वापस ले लेती हैं। इसकी एक वजह यह भी होती है कि धीरे धीरे नकली शराब का धंधा भी भूमिगत फलने फूलने लगता है। इसका नतीजा यह होता है कि एक तरफ पीने के आदी लोग नकली शराब पीकर अपनी जान से खेलते हैं तो दूसरी तरफ राजस्व की हानि से सराकर दीवालिया होने के कगार पर जा पहुंचती हैं। लेकिन बिहार में शराबबंदी एक तरह से कामयाब होती नज़र आ रही है। इससे न केवल पारिवारिक विवाद कम हुए हैं बल्कि शराब के नतीजे में होने वाले अन्य अपराध भी कम हुए है। अब केंद्र सरकार और अन्य राज्य सरकारों पर भी बिहार की वजह से नैतिक दबाव बढ़ रहा है।

दूसरी तरफ बीजेपी सरकारें जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात बात में दुहाई दिया करती हैं। शराबबंदी को लेकर भारी कश्मकश में आ गई हैं। अक्सर इस मामले में राज्यों के सामने एक और बड़ी समस्या यह आती है कि केंद्र सरकार ऐसा करने पर राज्य सरकार के राजस्व में आने वाली भारी कमी को पूरा करने में कोई सहयोग करने को तैयार नहीं होती। केंद्र का सोचना है कि अगर वह आज किसी एक राज्य सरकार को शराब बंदी से होने वाले घाटे को पूरा करेगी तो उसको अन्य राज्यों को भी यह क्षतिपूर्ति ना चाहते हुए करने होगी। वरना ऐसा न करने पर उस पर सियासी पक्षपात का आरोप लगेगा। संबंधित राज्य के लोग या तो उसके खिलाफ आंदोलन खड़ा कर देंगे या फिर उसको वहां राजनीतिक नुकसान उठाना होगा।

केंद्र सरकार यह भी मानकर चलती है कि अगर राज्य सरकार ने चुनाव के दौरान अपने घोषणापत्र में शराबबंदी जैसा लोकलुभावन कोई वादा किया है तो यह उसकी अपनी ज़िम्मेदारी है कि वह यह देखे कि ऐसा वादा पूरा करने पर जो राजस्व हानि होगी। उसकी पूर्ति कहां से हो पाएगी? किसानों के कर्ज माफ करने को लेकर भी राज्यों और केंद्र के बीच यही रस्साकशी चलती रही है। अब अगर बिहार सरकार के शराबबंदी के फैसले के नतीजों की बात करें तो वहां एक साल में इसके अच्छे परिणाम सामने आने का दावा किया गया है। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 2015 में रोड ऐक्सीडेंट में कुल 867 लोग मारे गए थे। 2016 में यह आंकड़ा घटकर 326 रह गया है।

नीतीश सरकार का कहना है कि शराबबंदी से राज्य में लोगों ने शराब पीकर नशे में वाहन चलाना बंद कर दिया है। इसी का यह सुखद परिणाम सामने आया है। आपको याद होगा यह बात सुप्रीम कोर्ट भी मानता है। यही वजह है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने नैशनल और स्टेट हाईवे से हटाकर 500 मीटर दूर शराब की दुकानें खोलने के आदेश पिछले दिनों दिए थे। हालांकि, कुछ राज्य सरकारों ने चालाकी दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को फिलहाल शॉर्टकट से निष्प्रभावी करने के लिये इन हाईवे को ज़िला और पालिका स्तर का रोड घोषित कर इनका दर्जा कम कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी यही मानना है कि रोड ऐक्सीडेंट का एक बड़ा कारण शराब है।

विकासशील देशों में यह आंकड़ा जहां 69 प्रतिशत है तो विकसित देशों में यह मात्र 20 फीसदी है। बात केवल इतनी ही नहीं है। विकसित देशों ने अपने आधुनिक यातायात सिस्टम और सुरक्षा मानकों को भी मज़बूत किया है। यही वजह है कि भारत में जहां यह आंकड़ा 70 प्रतिशत जा रहा है। वहीं चीन ने तेज़ी से सुधार किया है।

Sunday 23 April 2017

सोनू निगम की ग़लती?

*सोनू निगमः किससे मांग कर रहे हो?

 जिस देश में तर्क व विज्ञान पर धर्म और आस्था हावी हो वहां*
*सरकार आपकी सुनना तो दूर अमल की सोच भी नहीं सकती।*

सोनू निगम एक गायक हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने सुबह सवेरे अज़ान से अपनी नींद खुल जाने पर ट्विटर पर अपनी मन की बात लिख दी। यह उनकी नासमझी मानी जा सकती है कि उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिये जिन शब्दों का चयन किया। वे शब्द उनको शोभा नहीं देते थे। इस बात के लिये उनकी आलोचना और निंदा भी की जा सकती है। सोनू ने एक नादानी और की। वे खुद को किसी पश्चिमी देश का नागरिक मान बैठे। जहां सरकारें इतनी संवेदनशील होती हैं कि लोगों की छोटी छोटी बातों पर कान देती हैं। उनके नागरिक अधिकारों की रक्षा करने के लिये तत्काल आगे आती हैं। भारत जैसे भावना प्रधान और वोटबैंक के सहारे चलने वाले देश में जो होना था। वही हुआ।
सबसे पहली बात तो यह हुयी कि शासन प्रशासन ने सोनू की बात पर ज़रा भी तवज्जो न देनी थी और ना ही दी। वजह साफ है कि इस समय सोनू के गृहराज्य महाराष्ट्र और केंद्र में जो भगवा सरकार है। वह खुद हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के सहारे सत्ता में आई है। ऐसे में वह सोनू नाम के एक फिल्मी गायक को खुश करने के लिये अपने वोटबैंक को नाराज़ करने का सियासी तौर पर दीवालिया होने जैसा जोखिम कैसे ले सकती थीं? आप सवाल कर सकते हैं कि अज़ान से हिंदू वोटबैंक का क्या रिश्ता है? अरे जनाब अंजान मत बनो। सोनू ने अपने ट्वीट मंे साफ कहा है कि वह केवल मस्जिदों की सुबह की अज़ान के नहीं हिंदुओं और अन्य धर्म वालों के सभी धार्मिक स्थलों से होने वाले लाउडस्पीकर के रातभर के इस्तेमाल पर कानूनी रोक पर अमल चाहते हैं।
आपको पता ही होगा कि सुप्रीम कोर्ट बहुत पहले रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक किसी भी तरह के लाउड स्पीकर के इस्तेमाल के खिलाफ रोक लगा चुका है। लेकिन भाजपा ही नहीं किसी भी दल की सरकार की हिम्मत नहीं कि वह इस रोक पर पुलिस प्रशासन से सख़्ती से अमल करा सके। एक तो इससे सरकार पर यह दबाव आयेगा कि वह मुस्लिम ही नहीं सभी धर्म वालों के लाउड स्पीकर बंद कराने पर मजबूर हो जायेगी। ऐसा नहीं करेगी तो सुप्रीम कोर्ट उसके खिलाफ अवमानना का मामला चलाने के लिये तैयार बैठा है। दूसरी वजह यह है कि हमारी सरकारी मशीनरी इतनी स्वार्थी और अंधविश्वासी है कि उसको ऐसे आदेश देने पर भी वह उन पर अमल करने को यह सोचकर तैयार नहीं होती कि इससे जो बवंडर उठेगा उसको संभालना उसके बूते से बाहर होगा।
तीसरी बात उसको यह डर भी सताता है कि ऐसा करने से उससे भगवान और ईश्वर नाराज़ हो जायेगा। जिसका खामयाज़ा उसको किसी न किसी रूप में आज नहीं तो कल भुगतना होगा। जिस देश में सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर पर बाबरी मस्जिद सरकार और पुलिस प्रशासन हलफनामा देकर भी नहीं बचा सकते। वहां किसी एक मज़हब के मानने वालों के खिलाफ कोई कदम उठाना मुश्किल नहीं लगभग नामुमकिन सा ही है। जिस देश में आज तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि तीन तलाक़ का मामला पर्सनल मज़हबी मामला है या संविधान की सर्वोच्चता का सवाल है?
उस देश मंे किसी एक कलाकार की नींद में ख़लल पड़ने से सभी धर्मिक स्थलों के लाउडस्पीकर उतारने या उनको कानून के दायरे में लाने की कोई सरकार हिम्मत तो दूर अमल करने की बात सोच भी नहीं सकती। इसका एक नतीजा यह और हुआ कि एक कट््टरपंथी मौलाना ने सोनू केे खिलाफ फरमान जारी कर दिया। मौलाना का दावा था कि जो आदमी सोनू के अज़ान के खिलाफ बोलने की सज़ा के तौर पर उसको गंजा करेगा और जूतों की माला पहनायेगा उसको दस लाख रू. का इनाम दिया जायेगा। सोनू ने अपने पारिवारिक मुस्लिम नाई को बुलाकर खुद अपनी करनी की सज़ा भुगतने को अपने सर के सारे बाल उखाड़ डाले। मगर मौलाना ने इनाम यह कहकर देने से मना कर दिया कि जूतों की माला तो पहनी ही नहीं।
सोनू को शायद ऐसा करने में शर्म आ रही होगी। लेकिन गंजा होने का पांच लाख मेें समझौता तो किया ही जा सकता था। लेकिन ऐसा लगता है कि सोनू अगर जूतों की माला खुद पहन भी लेंगे तो मौलाना ऐसा करने के लिये चौराहे की सार्वजनिक शर्त जोड़कर एक बार फिर अपने ऐलान से मुकर जायेंगे। वैसे भी मौलाना का मकसद मज़हब की हिफाज़त करना तो रहा नहीं होगा वे तो इस बहाने अपनी पब्लिसिटी चाहते थे। जो मीडिया ने रातो रात उनको सेलिब्रिटी बनाकर फ्री में दे दी है। हो सकता है कोई सिरफिरा मौलाना के फरमान से भी आगे जाकर सोनू को ऐसा अपूर्णीय नुकसान पहंुचा दे जिससे सोनू को लगे न खुदा ही मिला न विसाले सनम।
*लेकिन अफसोस और हैरत की बात यह है कि सरकार ने खाप पंचायत की तरह कानून हाथ में लेने वाले मौलाना के खिलाफ कोई कानूनी कदम नहीं उठाया है। इसकी वजह यह हो सकती है कि करोड़ों लोगों की आस्था लाखों लोगों की सत्ता और हज़ारों लोगों की सरकारी नौकरी सोनू निगम की नींद से अरबों गुना ज़्यादा कीमती है।*

Wednesday 19 April 2017

और कितने मशाल?

*कट्टरपंथी कितनी ‘मशाल’ और बुझायेंगे ?*

मौलानाओं ने बेक़सूर होने के बावजूद उसकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने से मना कर दुनिया को ग़लत संदेश दिया!

पाकिस्तान में ईशनिंदा के आरोप में जिस मशाल खान की जान ली गयी थी। जांच के बाद साबित हुआ है कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था। हालांकि यह अलग बहस का मुद्दा है कि अगर वास्तव में मशाल ने ऐसा किया भी होता तो क्या उसकी हत्या भीड़ के हाथों जायज़ करार दी जा सकती थी? इसके साथ ही एक और बड़ा सवाल सामने आया है। वह सवाल यह है कि क्या कट्टरपंथी मौलाना ऐसी गैर कानूनी और गैर शरई हत्याओें को शह और सपोर्ट कर रहे हैं? तो इसका जवाब है कि हां। मशाल के गृहनगर स्वाबी में उसकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने से स्थानीय सभी मौलानाओं ने दो टूक मना कर दिया था।
इसके बाद जब उसके परिवार की अपील पर मशाल के एक परिचित कर्मचारी ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने की हामी भरी तो स्थानीय निवासियों ने मौलानाओं के इशारे पर उस कर्मचारी का भारी विरोध कर दिया। नोबल शांति पुरस्कार विजेता मलाला ने इन हालात को पाकिस्तान के लिये आतंक और डर फैलाने वाला बताया है। मलाला का कहना है कि मशाल खान वली खान यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। वह अहमदिया समुदाय का था। मशाल पत्रकारिता संकाय का छात्र था। मलाला का कहना है कि ईशनिंदा तो एक बहाना है। पाकिस्तान में तालिबानी सोच के कट्टरपंथियों को जिसको मारना है। उसको हर हाल में मारना है। तालिबान अहमदी और शिया मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानता।
वह पाकिस्तान का खुदाई फौजदार बना हुआ है। जिसके सामने सरकार पुलिस और सेना तक की भी नहीं चलती। खै़बर पख़्तूनवा के चीफ़ मिनिस्टर परवेज़ खटक का कहना है कि अव्वल तो मशाल खान की फेसबुक वॉल और स्मार्ट फोन से जांच में कोई भी ऐसा कंटैन्ट नहीं मिला है। जिससे यह साबित हो कि उसने ईशनिंदा कानून को तोड़ा है। दूसरे अगर उसने कानून के खिलाफ कोई काम किया भी है तो इसके लिये सरकार कोर्ट में केस चलाकर जुर्म साबित होने पर उसको सज़ा देने के लिये मौजूद है। अगर भीड़ कानून हाथ में लेकर बिना किसी वकील और बिना किसी दलील के खुद शक या अफवाह पर लोगों को सज़ा देने लगेगी तो हम एक बार फिर से जंगल युग में खुद को पायेंगे।
सीएम खटक ने कहा है कि पाकिस्तान में इस तरह का जंगल राज आगे और नहीं चलने दिया जा सकता। मशाल खान के मामले की न्यायिक जांच कराई जायेगी। इस केस को हाईकोर्ट को सौंपा जायेगा। मशाल खान की हत्या करने वाली भीड़ में चाहे कोई कितना ही ताकतवर और रसूख वाला आदमी शामिल रहा हो उसको उसके जुर्म की सज़ा हर हाल में दी जायेगी। आपको याद होगा पाकिस्तान में इस तरह के फर्जी आरोप लगाकर लोग अपनी निजी दुश्मनी निकालते रहते हैं। यह काला कानून जनरल ज़िया उल हक़ ने अपनी काली करतूत छिपाने के लिये कट्टरपंथियों को अपने पक्ष में कर जनता का दिमाग वास्तविक मसलों से हटाने के लिये बनाया था।
ईश निंदा कानून के बनने के बाद अब तक 65 लोग भीड़ ने खुद मौत के घाट उतार दिये हैं। इन लोगों में पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर भी शामिल हैं। उनको उनके ही सुरक्षाकर्मी मुमताज़ क़ादरी ने गोली मारी थी। सलमान तासीर पर आरोप था कि वे इस काले कानून को खत्म करने के लिये सरकार पर दबाव बना रहे थे। इसके बाद जब कादरी को कोर्ट में पेश किया गया तो वहां पढ़े लिखे समझे जाने वाले कट्टरपंथी वकीलों ने उस पर फूल बरसाये थे। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान में कट्टरपंथ की जड़ें कितनी मज़बूत हैं।

Thursday 13 April 2017

सेक्युलर होना बुराई?

सेक्लयुर दल कब गिरेबान में झांकेगे ?

0धर्मनिर्पेक्षता को मुस्लिम तुष्टिकरण बनाने के आरोपी हिंदू साम्प्रदायिकता से करप्ट जातिवादी तरीके से नहीं लड़ सकते हैं!

जाने माने एंकर और संपादक शेखर गुप्ता ने 1995 में ही भारतीय राजनेताओं को एक चेतावनी दी थी। लेकिन ऐसा लगता है कि 22 साल बाद भी खासतौर पर सेकुलर कहे जाने वाले दलों ने उनकी बात पर कान नहीं दिये हैं। उन्होंने लंदन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्टैटेजिक स्टडीज़ के लिये दो दशक पहले लिखा था कि भारत के बहुसंख्यकों में अल्पसंख्यकों वाला भाव आ गया है। आरएसएस और भाजपा हिंदुओं के दिमाग में बड़े जतन से यह बात बैठाने में कामयाब हो चुकी है कि कांग्रेस और सेकुलर कहे जाने वाले लगभग सभी दल धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानोें को खुश करने वाली सियासत करते हैं।
इसके लिये सबूत के तौर पर हज सब्सिडी पीएम और प्रेसीडेंट सहित सीएम व मंत्रियों की ओर से होने वाली इफ़तार पार्टियां मुस्लिम संस्थानों को कानून और नियमों से छूट बढ़ता पाकिस्तानी आतंकवाद और पूरी दुनिया में मुसलमानों के गैर मुसलमानों पर कट्टर बर्बर हमले लंबे समय से गिनाये जाते रहे हैं। लेकिन पहले हिंदू इन बातों पर अधिक ज़ोर नहीं देते थे। इसके बाद गुजरात का सीएम रहते मोदी ने अपना एक नया मॉडल इन सब समस्याओं से निबटने के साथ ही विकास का तड़का लगाते हुए बहुसंख्यकों के सामने पेश किया। 2007 के बाद उन्होंने गुजरात में विकास के नाम पर बहुसंख्यकों के वर्चस्वाद का भावनात्मक और राष्ट्रवादी मुद्दा बहुत जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया।
उन्होंने हिंदुओं को यह विश्वास दिलाया कि मुसलमानों की इफतार से परहेज़ कर और उनकी जाली वाली टोपी पहनने से साफ साफ मना कर चुनाव जीता जा सकता है। और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और चलाई जा सकती है। साथ ही मोदी ने यह साबित कर दिखाया कि वोट ही नहीं मुसलमानों को सरकार में हाशिये पर रखकर केवल दिखावटी एक दो मुसलमानों को मंत्री बनाकर उनकी औकात बताई जा सकती है। फिर यह सिलसिला यूपी में उस समय और खुलकर सामने आया जब 20 फीसदी आबादी वाले मुसलमानों को भाजपा ने एक भी टिकट नहीं दिया। वैसे इसकी एक वजह यह भी थी कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देते हैं। जीत के बाद कट्टर हिंदूवादी छवि के एक महंत को सीएम जानबूझकर एक संदेश देने के लिये ही बनाया गया है।
यह अलग बात है कि अभी तक उन्होंने जो फैसले लिये हैं। वे जनहित में ही अधिक नज़र आ रहे हैं। इसके बावजूद नहीं बल्कि तमाम अन्य वजहों में से एक वजह यह भी थी कि हिंदू वोटों का ऐसा ध्रुवीकरण हुआ कि बीजेपी को दो तिहाई बहुमत मिला। इससे पहले यूपी में बारी बारी से मुसलमानों के वोटों से अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार चला चुकी सपा बसपा को यह बात नतीजे आने से पहले समझ में ही नहीं आई कि जिन मुसलमानों पर वे एक बार फिर से दांव लगा रही हैं। उनको मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने किंग मेकर की बजाये विलेन बना दिया है। पहली बार बहुमत की सरकार बनने पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी यह भूल गयीं थीं कि जिन पिछड़ों और दलितों के आधार वोट के बल पर वे सत्ता में आई हैं।
उनके बड़े हिस्से को हाशिये पर रखकर केवल यादव और जाटव को मलाई खिलाकर वे अपने ही पैरों पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी मार रही हैं। सपा ने तो यादव की बजाये अपने परिवार तक ही सत्ता को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल दिया था। भ्रष्टाचार दोनों के कार्यकाल में चरम पर था। मुसलमानों को खुश रखने के लिये दिखावे के वे सारे काम किये जा रहे थे। जिनसे ऐसा लगता था कि हिंदू अल्पसंख्यक है और उसको उनके रहमो करम पर रहना होगा। मोदी और शाह ने मुसलमानों को यह साफ साफ मैसेज दे दिया है कि अब उनको बिना संविधान संशोधन और बिना भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किये चुपचाप सुरक्षित रहना है तो हिंदू वर्चस्व को स्वीकार करना ही होगा। कौन राज करेगा और कैसे राज करेगा यह मुसलमानों के वीटो पावर से तय नहीं होगा।
चुनाव जीतते ही अवैध बूचड़खानों के खिलाफ और एंटी रोमियो अभियान चलाकर उनको इसकी बानगी भी दिखा दी गयी है। विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस और सपा बसपा जैसी पार्टियों को हिंदुओं की नज़र में इतना बुरा बना दिया गया है कि वे अभी तो मुंह खोलने लायक भी नहीं हैं। मोदी के राष्ट्रवाद और सबका साथ सबका विकास व विकास सबका तुष्टिकरण किसी का नहीं नारे तक का कोई जवाब सेकुलर दलोें के पास उपलब्ध नहीं है। जहां तक मोदी की छवि की बात है। उसका मुकाबला करने वाला भी सेकुलर दलों के पास आज तक कोई नेता नहीं है।
राहुल गांधी नीतीश कुमार या ममता बनर्जी जैसे नेताओें के नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने को उतावले सेकुलर विपक्ष को पहले अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिये कि वो कौन सी गल्तियां हुयीं जिससे आज हिंदू साम्प्रदाकियकता के घोडे़ पर सवार भाजपा अब हिंदू गौरव, राष्ट्रवाद और विकास की सबसे बड़ी दावेदार बन गयी है।
‘मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,
ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।’

Sunday 9 April 2017

चौहान साहब

*चौहान साहब के उसूल आज भी सामयिक हैं!*
*जनवादी सोच के वरिष्ठ पत्रकार ही नहीं विचारक और चिंतक भी थे स्व. बाबू सिंह चौहान जी!*

स्व. बाबू सिंह चौहान साहब बिजनौर ज़िले में पैदा ज़रूर हुए थे। लेकिन अपनी क़लम का जादू उन्होंने पूरे देश ही नहीं बल्कि विदेश तक पहुंचाया था। आज उनकी पुण्य तिथि है। जनहित की जो पत्रकारिता चौहान साहब अपने विषम समय में भी कर गये वो आज के पत्रकारों के लिये मशाल का काम कर रही है। बिजनौर टाइम्स और चिंगारी के ज़रिये उन्होंने जनपद बिजनौर को आवाज़ प्रदान की। उनके ललित निबंध ‘दर्पण झूठ बोलता है’, हों या उनकी चर्चित ख़बर ‘भूखा मानव क्या करेगा?’ उनके व्यक्तित्व का आईना रहे हैं। उनकी क़लम की निडरता और जनवादी सोच कभी किसी शासन प्रशासन की तानाशाी या माफिया के सामने झुकने को तैयार नहीं हुयी।
इसकी कीमत उनको कभी जेल जाकर तो कभी परिवार को अभावों में रखकर चुकानी पड़ी। मगर चौहान साहब अपने उसूलों से टस से मस नहीं हुए। उनका दो टूक कहना था कि समाचार और अग्रलेख के केंद्र में सदा आम आदमी रहेगा। उनका धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक समानता में भी बड़ा गहरा विश्वास था। हालांकि उनके जीते जी भी और आज भी बिजनौर टाइम्स ग्रुप पर लेखनी से समझौता करने के बार बार दबाव आये लेकिन इस ग्रुप ने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। चौहान साहब की कलम ने हमेशा बेबाक लिखा और सच लिखा। उनकी इसी साफगोई और निडरता से ही उनको कई राष्ट्रीय और इंटरनेशनल पुरस्कार व सम्मान भी मिले।
उनको एक बार नहीं अनेक बार विदेश भ्रमण पर सरकारी प्रतिनिधि मंडल में जाने का सम्मान भी हासिल हुआ। विदेश दौरों से लौटकर उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण भी कई माह तक किश्तों में लिखे। जब जनपद वासियों की प्यास इन संस्मरणों से भी नहीं भरी तो उन्होंने जनता की अपील पर सीधे संवाद कर नगर नगर और गांव गांव अपनी यात्रा का आंखो देखा हाल सीधे बयान किया। इस एतिहासिक प्रोग्राम के लिये उनको जनपद के विभिन्न सामाजिक और साहित्यिक संगठनों ने सम्मानित भी किया। चौहान साहब की यह खूबी थी कि वे एक एक बात याद रखते थे। उनका सदा मकसद यह होता था कि उनकी हर बात हर भाषण और हर लेख से लोगों को न केवल जानकारी मिले।
बल्कि निष्पक्ष सूचना मिले। साथ ही वे ज्ञानवर्धक और मनोरंजक घटनाओें का उल्लेख करना भी नहीं भूलते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि जहां उनके प्रतिनिधिमंडल में शामिल अन्य बड़े बड़े नामचीन पत्रकारों में अधिकांश विदेश जाकर घूमते फिरते और मौज मस्ती करते थे। वहीं चौहान साहब विदेशों की लाइब्रेरी म्यूज़ियम एतिहासिक स्थलों और वहां के लोगों से संवाद करने में अपना अधिकांश समय बिताते थे। इसके साथ ही न केवल इन सब बातों पर समय लगाते थे बल्कि जब सब साथी रात में चैन की नींद सो जाते थे। बाबूजी रात रात भर जागकर दिन भर की बातों को कलमबंद करते थे। उन दिनों कम्पयूटर स्मार्टफोन और इंटरनेट का दौर तो था नहीं।
इसलिये सारे दिन का हाल अपने हाथ से कलम से ही डायरी मेें नोट करना होता था। कमाल और हैरत की बात यह थी कि चौहान साहब हर समय रिपोर्टिंग और कलम कॉपी का इस्तेमाल नहीं करते थे। लेकिन फिर भी 24 घंटे की एक एक बात अपनी तेज़ याददाश्त के बल पर हू ब हू शब्दों में बयान कर देते थे। हालांकि आज के प्रिंट मीडिया के पेड न्यूज़ और अधिकांश बिकाऊ टीवी चैनलों के सत्ता के भौंपू बन चुके इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पूंजीवादी नैतिक पतन के दौर में भी बिजनौर टाइम्स और चिंगारी ने अपनी निष्पक्षता भाई चंद्रमणि रघुवंशी और भाई सूर्यमणि रघुवंशी के नेतृत्व में बाबूजी को प्रेरणा श्रोत मानकर जनवादी और निष्पक्ष बनाये रखी है।
*नज़र बचाकर गुज़र सकते हो तो गुज़र जाओ,*
*मैं एक आईना हूं मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।।*