Sunday 20 December 2020

कॉंग्रेस नेता नहीं नीति बदले...

कांग्रेस की असली प्रॉब्लम नेता नहीं नीतियां हैं!

0सोनिया गांधी की जगह राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने की कवायद एक बार फिर शुरू हो गयी है। कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं ने कुछ दिन पहले कांग्रेस हाईकमान को पत्र लिखकर कुछ मांग और सुझाव दिये थे। दो बार संसदीय और बार बार विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा कि उसकी मुख्य समस्या पार्टी मुखिया नहीं बल्कि गलतभ्रष्ट और बारी बारी से सभी वर्गों की साम्प्रदायिकताओें को बढ़ावा देना रहा हैै।  

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   कांग्रेस को ताज़ा झटका केरल के स्थानीय निकाय चुनाव मंे लगा है।  इसकी एक बड़ी वजह कांग्रेस का वहां कट्टर मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन जमात ए इस्लामी के सियासी विंग वैलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया से गठबंधन और हाल ही में क्षेत्रीय दल केरल कांग्रेस के एक गुट का उससे अलग हो जाना माना जा रहा है। वहां कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में कुल 20 में से 19 एमपी जिताये थे। इससे पहले कांग्रेस द्वारा शासित राजस्थान में पंचायत चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के हाथों शिकस्त खानी पड़ी थी। एमपी में वह अपनी बनी बनाई सरकार भाजपा के हाथों गंवा चुकी है। इससे पहले राजस्थान में भी उसकी सरकार गिरते गिरते बची है। सियासी जानकारांे का कहना है कि कांग्रेस वहां भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगी। सच तो यह है कि इन राज्यों में सिंधिया और पायलट जैसे युवाओं को सीएम बनाया जाना चाहिये था। जोकि कांग्रेस ने हिम्मत नहीं दिखाई। बिहार चुनाव में आरजेडी का बेड़ा गर्क करने में भी कांग्रेस को दी गयी 70 सीट मानी जा रही हैं। जिनमें से कांग्रेस मात्र 19 जीती है। इनमें से अधिकांश भाजपा जीती है। इससे पहले यूपी चुनाव में भी कांग्रेस ने सपा से गठबंधन कर लगभग 100सीटें झटक ली थीं। लेकिन उनमें से वह मात्र 6ही जीत सकी थी। इनमें से भी अधिकांश उसकी मुख्य विरोधी भाजपा जीत गयी थी। अखिलेश को कांग्रेस से गठबंधन से पहले मुलायम सिंह ने यही डर जताकर आगाह भी किया था। लेकिन उन्होंने उनकी बात को वेट नहीं दिया था। आंध्रा से अलग होकर बना तेलंगाना हो या उसकी राजधानी हैदराबाद वहां भी कांग्रेस की हालत दिन ब दिन पतली होती जा रही है। इसके विपरीत जुमा जुमा आठ दिन की पार्टी भाजपा वहां निगम चुनाव में इस बार4 से सीध्ेा 48 सीट पर पहुंच गयी है। आप अगर पीछे मुड़कर देखंे तो कांग्रेस एक बार जिस राज्य में चुनाव हार गयी और वहां कोई क्षेत्रीय या अन्य राष्ट्रीय दल सत्ता में आ गया। वहां से कांग्रेस की सदा के लिये विदाई हो गयी। मिसाल के तौर पर यूपी बिहार बंगाल गुजरात त्रिपुरा आंध्रा उड़ीसा दिल्ली तमिलनाडू कर्नाटक महाराष्ट्र सहित यह सूची लंबी है। अब कांग्रेस केवल उन ही राज्यों में विधानसभा चुनाव कभी कभी जीत जाती है। जहां भाजपा का कोई तीसरा और स्थानीय विकल्प नहीं है। दरअसल ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि कांग्रेस को दीवार पर लिखा यह सच नज़र नहीं आ रहा है कि जनता अब उससे उकता चुकी है। उसके पास जनता के लिये कोई नया सपना नई योजना और विकास का नया मॉडल नहीं है। इसके साथ ही कांग्रेस को यह बात भी समझ में नहीं आ रही कि इस बार उसका पाला जनता पार्टी जनता दल या भाजपा नहीं मोदी और आरएसएस जैसे घाघ नेता और तिगड़मी संगठन से पड़ा है। संघ परिवार ने मेनस्ट्रीम मीडिया सोशल मीडिया खासतौर पर वाट्सएप की फर्जी और फेक पोस्ट्ससंघ की लाखों शाख़ाओं और घर घर संघ वर्कर्स ने जाकर कांग्रेस नेहरू सोनिया राजीव और राहुल की छवि देशविरोधी राष्ट्रविरोधी हिंदू विरोधी मुस्लिम परस्त पाकिस्तान परस्त और इटली और ईसाई समर्थक बना दी है। कांग्रेस पर करप्शन वंशवाद जातिवाद कमीशनखोरी भाईभतीजावाद क्षेत्रवाद भाषावाद और मनमानी के इतने सारे आरोप चिपका दिये गये हैं कि इनका कांग्रेस को खुद अहसास नहीं है कि उसकी छवि कितने बड़े विलेन राक्षस और भस्मासुर की बन चुकी है। कांग्रेस आज भी अपनी कमियों को स्वीकार कर उनमंे सुधार की गंभीर कोशिश करती नज़र नहीं आ रही हैै। विचारकों दार्शनिकोे और समाजविज्ञानियों का कहना है कि जब इंसान अपनी गल्ती मान लेता है तो उसमें उसी दिन से सुधार शुरू हो जाता है। लेकिन कांग्रेस यह मानने को तैयार ही नहीं है कि उसने शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेककर सुप्रीम कोर्ट का वाजिब मानवीय फैसला पलटकर हिंदू साम्प्रदायिकता का जिन्न खुद बोतल से बाहर उस समय निकाला था। जब उसने उनको भी खुश करने के लिये दशकोें पुराना राममंदिर का विवादित ताला खोला था। उसके बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर शिलन्यास करके संघ परिवार की मंुह मांगी मुराद पूरी कर दी। कांग्रेस ने 52 प्रतिशत से अधिक आबादी वाली पिछड़ी जातियों को आज़ादी के 30 साल बाद तक उपेक्षित रखकर केवल      मुस्लिम और दलित वोट बैंक के बल पर चुनाव जीत जीतकर ब्रहम्ण ठाकुर और चंद गिनी चुनी जातियों व वर्गों का एकक्षत्र राज चलाकर उनको विपक्षी दलों के साथ हर कीमत पर जाने को मजबूर किया। जनता पार्टी की सरकार ने पिछड़ी जातियों की भलाई के लिये पहली बार मंडल आयोग बनाया। उसकी सिफारिशों पर अमल करके जनता दल की सरकार ने पिछड़ों को आरक्षण दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि आज उच्च जातियों से कहीं अधिक पिछड़ी जातियां भाजपा के साथ गोलबंद हो चुकी हैं। नोटबंदी तालाबंदी और रोज़गारबंदी से बुरी तरह नुकसान उठाने और पहले से भी अधिक भ्रष्टाचार जंगलराज और तानाशाही के बावजूद आज गैर दलित गैर मुस्लिम गैर अल्पसंख्यक गैर यादव और कुछ और गिनी चुनी आबादी को अपवाद मानकर छोड़ दें तो वे कांग्रेस की बजाये भाजपा के साथ केवल इसलिये चिपकी हुयी हैं कि वे कांग्रेस को भाजपा से बेहतर विकल्प नहीं मानती। क्षेत्रीय दलों में उनका कुछ विश्वास बचा हुआ है। लेकिन वह भी भाजपा जैसी संघ कॉरपोरेट केंद्रीय सत्ता सीबीआई एनआईए ईडी मीडिया सोशल मीडिया ट्रॉल आर्मी सुप्रीम कोर्ट और अन्य कानूनी गैर कानूनी साम दाम दंड भेद के सामने कब तक और कैसे टिकी रहेंगीयह देखना दिलचस्प होगा। कांग्रेस की केवल एक बात मंे दम है कि वह मोदी मीडिया और संघ की तरह हर सही गलत हथकंडा और बांटोे व राज करो की घटिया नीतियां अपनाकर सत्ता में वापसी नहीं करना चाहती तो इसके लिये भी कांग्रेस को अपनी काहिली और खामियां दूर कर जनता का ब्रेनवाश करना होगा और लंबे समय तक वेट एंड वाच की नीति अपनानी होगी। यह बात भी सही है कि आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते हैं। सब लोगों को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं। लेकिन सबको हमेशा हमेशा मूर्ख नहीं बना सकतेजैसा कि भाजपा संघ और मोदी  अब तक बनाने में कामयाब लग रहे हैं।                                    

0 लेखक ब्लॉगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 14 December 2020

किसान और पक्ष विपक्ष

किसान के लिये क्या सत्तापक्ष क्या विपक्ष!

0किसान आंदोलन चलते हुए दो सप्ताह से अधिक बीत चुके हैं। लेकिन सरकार उनकी भलाई के नाम पर बनाये गये तीनों नये कानून बिना शर्त वापस लेने को किसी कीमत पर तैयार नहीं है। विडंबना यह है कि जो विपक्ष यानी कांग्रेस और क्षेत्रीय दल आज किसानों की हमदर्दी में मगरमच्छ वाले आंसू बहा रहे हैं। वे कल तक सत्ता में रहते वही सब कुछ कर रहे थे। जो कि आज भाजपा कर रही है। जबकि भाजपा विपक्ष में रहते किसानों के लिये बड़े बड़े दावे और वादे करती थी।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   आज देश में कॉरपोरेट सैक्टर इतना मज़बूत हो चुका है कि सरकार चाहे कांग्रेस की हो भाजपा की हो या सेकुलर क्षेत्रीय दलों की लेकिन वे सब सत्ता में तो गरीब कमज़ोर और पिछड़े व किसानों का वोट लेकर आती हैं। मगर सरकार बनते ही वे काम अधिकांश पूंजीपति उद्योगपति और व्यापारियों के पक्ष में करने लगती हैं। मिसाल के तौर पर कर्नाटक में हाल ही में एक कानून पास हुआ है। जिसमेें कृषि भूमि खरीदने के लिये किसी का कृषक होने की शर्त हटा दी गयी है। कर्नाटक में भाजपा सरकार है। उसने यह भी नहीं परवाह की कि आजकल किसान पहले ही अपनी मांगों को लेकर बड़ा विरोध आंदोलन चला रहा है। भाजपा का रूख़ किसानों को लेकर किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन हैरत और दुख की बात यह है कि वहां की क्षेत्रीय पार्टी जनता दल सेकुलर ने कानून में इस संशोधन का खुलकर समर्थन किया है। हालांकि इसके लिये उसकी पूर्व सहयोगी कांग्रेस और दूसरी विरोधी पार्टियोें के साथ ही किसान संगठन भी जमकर आलोचना कर रहे हैं। लेकिन जद सेकुलर के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी को इसमें कुछ गलत नहीं लगता। उनको एक बार फिर पहले की तरह कांग्रेस की बजाये भाजपा के साथ दिखना अच्छा लग रहा है। हालत यह है कि सत्ता का सुख पाने को कुमार स्वामी किसानों के खिलाफ जाने में भी शर्म महसूस नहीं कर रहे। इतना ही नहीं पंजाब के अकाली दल ने किसानों के पक्ष में हालांकि मोदी सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन तीन कानूनों को लाने के बाद ही केंद्र सरकार अचानक किसान विरोधी हो गयीनहीं सबको पता है कि 2014से ही मोदी सरकार हिंदुत्व के नाम पर खुलकर कॉरपोरेट के साथ खड़ी है। ऐसे में जब सरकार आवारा पंूजी यानी कॉरपोरेट के साथ है तो वह किसानों के हित में लाख दावे करे लेकिन उनका भला कर ही नहीं सकती। लेकिन अकाली दल केंद्र की सत्ता में तब तक भाजपा के साथ बना रहा जब तक कि खुद किसान खुलकर अकाली भाजपा गठबंधन के खिलाफ मैदान में नहीं उतर आये। अकाली दल को किसानों के कांग्रेस के साथ जाने का डर था। ऐसे ही आप बिहार में भाजपा के गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड का नाटक देख सकते हैं। एक तरफ नीतीश कुमार किसानों के साथ होने का दावा करते हैं। दूसरी तरफ किसान विरोधी बिलों को पास कराने में संसद में उनको कोई दिक्कत नहीं होती है। इतना ही नहीं आंकड़े बताते हैं कि पांच प्रतिशत से भी कम किसानों को बिहार में अपनी फसल एमएसपी पर बेचने का अवसर मिलता है। साथ ही एक दशक पहले ही नीतीश सरकार एपीएमसी और मंडी समिति में न्यूनतम समर्थन मूल्य के खिलाफ किसानों की फसल मंडी से बाहर खरीदने को निजी क्षेत्र को अनुमति दे चुकी है। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की क्षेत्रीय पार्टी भाजपा के साथ सरकार में बने रहने के लिये लगातार दोहरा खेल खेल रही है। वह भाजपा को किसानों से बात करने उनका आंदोलन ख़त्म करने को उनकी मांगे मानने और किसानों पर बल प्रयोग ना करने की बार बार नेक सलाह तो दे रही है। लेकिन मोदी सरकार द्वारा कानून किसी हाल में वापस ना लेेने के दो टूक ऐलान और किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने को अवरोध लगाने पानी की बौछार करने और किसानों पर तरह तरह आरोप लगाने पर वह चुप्पी साधे बैठी है। इतना ही नहीं वामपंथियों व लोकदल को छोड़कर सपा बसपा शिवसेना टीएमसी टीआरएस एनसीपी द्रमुक अन्नाद्रमुक एजीपी एआईएमआईएम वाईएसआर कांग्रेस आम आदमी पार्टी जैसी क्षेत्रीय और धर्मनिर्पेक्ष पार्टियां मात्र किसानों के पक्ष में बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करती दिखाई दे रही हैं। वजह यह है कि इनका झुकाव भी बड़े पूंजीपतियों की तरफ हो रहा है। यह बड़े अफसोस और चिंता की बात है कि जिस किसान को देश का अन्नदाता माना जाता है। उसको आज सरकार ही नहीं लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिये अकेला छोड़ दिया है। कहने को देश में लोकतंत्र है। विपक्ष है। न्यायालय हैं। मीडिया है। लेकिन किसानों की पीड़ा सरकार ही नहीं बाकी सब भी समझने को तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं हर सरकार और सियासी पार्टी किसानों से वोट लेकर सत्ता का सुख तो भोगना चाहती है। लेकिन जिस पंूजीपति से नोट लेती है। जब कानून बनाने की बात आती है तो उस कॉरपोरेट के पक्ष में पूरी बशर्मी और अनैतिकता के साथ खड़ी नज़र आती है। इसकी वजह हालांकि हमारे किसानों में भी अन्य वर्गों व समुदायों की तरह ही धर्म और जाति के नाम पर भावुक होकर वोट देने की पुरानी बीमारी भी है। लेकिन इसका नुकसान आज यह हो रहा है कि भाजपा और मीडिया मिलकर एक सुर में किसानों के जायज़ आंदोलन को तरह तरह के गंभीर आरोप लगाकर ना केवल बदनाम कर रहे हैं। बल्कि यह अहंकारी दावा भी कर रहे हैं कि ये मुट्ठीभर किसान विपक्ष खालिस्तानियों माओवादियों पाकिस्तानियों चीनियों और देशविरोधी शक्तियों के हाथों में खेलकर गुमराह हो गये हैं। जबकि अधिकंाश किसान उनके साथ है। इसका प्रमाण वे यह कहकर देते हैं कि देश में लोकसभा से लेकर तमाम विधानसभाओं पंचायतों स्थानीय निकाय और अन्य उपचुनाव भाजपा लगातार किसानों के वोट और सपोर्ट के बिना नहीं जीत सकती थी। भाजपा की इस बात में काफी दम भी नज़र आता है। लेकिन सवाल तो यह है कि किसानों की समझ में यह बात जाने कैसे और कब तक आयेगी???                            

Saturday 5 December 2020

किसान आंदोलन

सरकारकिसान और कॉरपोरेट!

0मोदी सरकार का वादा था कि वह 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देगी। लेकिन जब से सरकार ने खेती को लेकर तीन नये कानून बनाये हैं। तब से पूरे देश का किसान इनके खिलाफ आंदोलन कर रहा है। कृषि विशेषज्ञों का दावा है कि सरकार के इन कानूनों से केवल उद्योग जगत को ही लाभ होगा। सवाल यह है कि सरकार किसान और कॉरपोरेट के परस्पर विरोधी हितों को एक साथ कैसे साध सकती है?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   अगर आप किसानों से जुड़े विवादित तीनों नये कानूनों को विस्तार से पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि ये यूपीए की मनमोहन सरकार के ड्रॉफ्ट का ही एक हिस्सा हैं। दरअसल 1991में जब कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने देश को मिश्रित अर्थव्यवस्था यानी समाजवादी प्लस पूंजीवादी से निकालकर एल पी जी मतलब लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल की तरफ ले जाने का एकतरफा निर्णय किया था। तब से ही ऐसे कानूनों की नींव पड़ गयी थी। यहां तक कि जीएसटी आधार सब्सिडी रिटेल एफडीआई और मज़दूर विरोधी श्रम कानून तक का मसौदा कांग्रेस नीतिगत रूप से पहले ही तैयार कर गयी थी। लेकिन जनविरोध बढ़ता देख उसकी हिम्मत इनको इस तरह से लागू करने की नहीं हो सकी जिस तरह से आज मोदी सरकार कर रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार का नोटबंदी का ही एकमात्र नया विचार था। जो बुरी तरह ना केवल नाकाम हो गया बल्कि इसने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। किसान नये कानूनों को ठीक से जानते भी नहीं। ना ही इनको बनाते समय किसान नेताओं उनकी यूनियनों या कृषि विशेषज्ञों से ठीक से व्यापक विचार विमर्श ही किया गया। किसानों का सबसे बड़ा विरोध इन कानूनों केे ज़रिये एमएसपी यानी फसलों का मिनिमम सपोर्ट प्राइस ख़त्म करना है। अब तक किसानों को अन्याय और शोषण से बचाने का सबसे बड़ा सुरक्षा कवच एमएसपी ही था। इतना ही नहीं इन नये कानूनों के अनुसार किसान के साथ अब अगर प्राइवेट पार्टी पक्षपात और बेईमानी करेगी तो वह कोर्ट भी नहीं जा सकेगा। स्वामीनाथन कमैटी की सिफारिश के मुताबिक एमएसपी तय करना और अनुबंध की शर्तों को तोड़ने के खिलाफ किसान को अदालत जाने का सबसे बड़ा अधिकार दिया जाना था। सबको पता है कि सरकार खुलकर कॉरपोरेट के हाथों में खेल रही है। इसकी वजह2014 से मोटे चुनावी चंदे से चुनाव लड़वाने और हर सरकारी मामले में दख़ल देने की कॉरपोरेट की बढ़ती दिलचस्पी को साफ देखा जा सकता है। यह भी किसी से छिपा नहीं रह गया है कि कॉरपोरेट सबसे अधिक किस पार्टी और किस नेता का चहेता बना हुआ है। यह भी आईने की तरह साफ है कि आज़ादी के बाद से कौन सी सरकार खुलेआम पूरी बेशर्मी और ढीटता के साथ जनविरोधी निर्णय कॉरपोरेट के पक्ष में एक के बाद एक करती रही है। लेकिन यहां यह भी सोचना चाहिये कि जब यही जनता और किसान चुनाव के समय मतदान करते हुए हिंदू मुसलमान बनकर भावनात्मक मुद्दों पर अपने हितों के खिलाफ ही वोट देते हुए ज़रा भी नहीं हिचकता तो क्यों नहीं सरकार उन पूंजीपतियों के हित में झुके जो अपनी पाई पाई का चंदा देते हुए सरकार बनने के बनने के बाद उसको करोड़ों अरबों के लाभ में वसूलने की समझ और ताकत कहीं अधिक रखता है। सवाल यह भी उठ रहा है कि कांग्रेस शासित पंजाब के किसान ही आंदोलन में आगे क्यों हैं?सच यह है  कि पंजाब का किसान बहुत मज़बूत और जागरूक है। वह अकेला ही हरित क्रांति के तहत देश की ज़रूरत का 80 प्रतिशत गेंहू उगाता है। इतना ही नहीं भाजपा शासित हरियाणा का किसान भी कंध्ेा से कंधा मिलाकर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरा है। कुल 40 किसान मज़दूर यूनियनों की अपील पर यूपी उड़ीसा कर्नाटक बंगाल और केरल राज्य का किसान भी सरकार के इन तीनों कानूनों का तीखा विरोध कर रहा है। यह बात आंशिक रूप से सही हो सकती है कि अधिकांश भाजपा शासित राज्यों के कुछ किसान अभी भी मोदी सरकार पर यह विश्वास करके चुप्पी साधे हों कि मोदी उनका नुकसान कर ही नहीं सकते। हालांकि कृषि संविधान के हिसाब से राज्यों का विषय है। लेकिन मोदी सरकार ने इस पर खुद तीन कानून बनाकर इसके खिलाफ बनाये गये पंजाब सरकार के कानून को भी ओवरटेक कर दिया है। फिर सवाल यह भी है कि क्या भाजपा के राज्यपाल और राष्ट्रपति पंजाब सरकार के इस केंद्र विरोधी कानून को हस्ताक्षर कर मान्यता देंगेअगर यह मामला कोर्ट जायेगा तो वहां के हालात देखते हुए लगता नहीं कि कोर्ट इस मामले में केंद्र के खिलाफ कोई स्टे करेगाएक सवाल यह उठ रहा है कि किसानों ने आंदोलन करने से पहले सरकार से बात क्यों नहीं कीविरोध प्रदर्शन करने से पहले किसान प्रतिनिधि तीन बार सरकार से बात करने दिल्ली आये लेकिन कृषि मंत्री ने उनको मिलने का टाइम तक नहीं दिया। सरकार की नीयत में खोट इससे भी पता चलता है कि वह एमएसपी नहीं हटाने का दावा तो कर रही है। लेकिन इसको कानूनी रूप देने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे उसका चहेता कॉरपोरेट मनमाने दामों पर फ़सलें खरीदकर किसानों का शोषण नहीं कर सकेगाकिसानों का डर और नाराज़गी बिल्कुल वाजिब और जायज़ है कि सरकार जब किसानों को कॉरपोरेट के हवाले करके खुद बीच में से निकल जायेगी तो बड़े बड़े व्यापारी पंूजीपति उद्योगपति और विदेशी कंपनियां उनसे एग्रीमंेट के नाम पर ना केवल औने पौने दामों में बेशकीमती उपज एक तरह से लूट लेंगी बल्कि उनको बंधक बनाकर धीरे धीरे उनकी ज़मीनें भी एक दिन कब्ज़ा लेंगी जिससे वे या तो अपने ही खेतों में दिहाड़ी मज़दूर बन जायेंगे या फिर शहरों में आकर पेट भरने को रोज़गार तलाश करने को मजबूर हो जायेंगे। किसानों की यह मांग बिल्कुल सही और संवैधानिक है कि सरकार देश की आबादी के आधे से अधिक यानी किसानों को कॉरपोरेट के रहमो करम पर छोड़कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। अगर वह कॉरपोरेट सैक्टर को खेती किसानी में लाना चाहती है तो पहले किसान और खेतीहर मज़दूरों के लिये वैकल्पिक रोज़गार की व्यवस्था करना उसका कर्तव्य बनता है।                                       

लव जेहाद क्या है?

लव जेहाद है बहानाथोड़ी हक़ीक़तबाक़ी फ़साना!

0गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने केरल के चर्चित हादिया मामले में इसी साल 4 फ़रवरी को संसद में स्पश्ट किया था कि किसी भी केंद्रीय एजेंसी द्वारा लव जेहाद का कोई भी मामला आज तक रिकॉर्ड नहीं किया गया है। हालांकि हाल ही में यूपी सरकार ने इस आश्य का एक कानून बनाया है। लेकिन उसने भी इसमें लव जेहाद का कहीं उल्लेख नहीं किया है। भाजपा शासित एमपी सहित कई अन्य राज्य ऐसा ही कानून बनाने जा रहे हैं। लेकिन वे भी लव जेहाद शब्द से परहेज़ कर रहे हैं। कई प्रदेशों में धर्म परिवर्तन को लेकर पहले ही ऐसे कानून मौजूद हैं।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   आज़ादी के बाद ही जबरन धर्म परिवर्तन रोकने के लिये संसद मंे पहली बार 1954 में भारतीय विनियमन एवं पंजीकरण विधेयक लाया गया था। इसके बाद 1960 और 1979 में एक बार फिर से ऐसे ही विधेयक लाये गये लेकिन ये तीनों बार पास नहीं हो सके। अलबत्ता अलग अलग धर्मों और जातियों के लोगांे की शादी के लिये 1954 में स्पेशल मैरिज एक्ट ज़रूर बन गया था। इतना ही नहीं ऐसे अंतरधार्मिक और अंतरजातीय  विवाह करने वालों को सरकार की तरफ से कुछ प्रोत्साहन रााशि भी दी जाती रही है। लेकिन सवाल यह है कि अचानक लव जेहाद शब्द कहां से चर्चा में आ गयादरअसल देश की राजनीति धर्म जाति भाषा दंगों नफ़रत हिंसा क्षेत्र तरह तरह की भावनाओं और कोरे झूठ के नाम पर बहुत लंबे समय से सफलतापूर्वक चल रही है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि लव जेहाद जैसा फ़र्ज़ी और बनावटी शब्द घड़कर भी बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यकों के वोटों का ध्रुवीकरण आसानी से किया जा सकता है। आज संघ परिवार ने ऐसा माहौल बना दिया है। जिसमें मुसलमान होना दलित होना अल्पसंख्यक होना सेकुलर हिंदू होना निष्पक्ष नागरिक होना वामपंथी होना बुध््िदजीवी होना और मानवाधिकार समर्थक होना समानतावादी होना न्यायवादी और संविधानवादी होना आपको शक के दायरे में या हिंदू व राष्ट्र विरोधी मानकर अर्बन नक्सल आतंकवादी माओवादी पाकिस्तानी जेहादी ना जाने क्या क्या तमग़ों से नवाज़ा जा सकता है। सबको पता है कि एक देश में जब विभिन्न धर्मों के लोग साथ साथ रहते हैं तो उनमें हर तरह के रिश्ते बनना स्वाभाविक ही है। इसी तरह से हिंदू मुस्लिम लड़के लड़कियों के बीच प्रेम सम्बंध और शादी होना भी आम बात रही है। सवाल तब खड़ा होता है जब शादी के लिये लड़की का धर्म परिवर्तन कराया जाता है। सच यह भी है कि हिंदू समाज की लड़कियों की मुस्लिम लड़कों से ऐसी इंटरफेथ मैरिज ही अधिक होती रही हैं। साथ ही हिंदू लड़कियों का धर्म परिवर्तन ऐसे मामलों में हर हाल में किया जाता है। नहीं तो कोई मुस्लिम लड़का मज़हबी तौर पर ऐसी शादी कर नहीं सकता है। इसके उलट मुस्लिम लड़कियां अव्वल तो हिंदू लड़कों से इस तरह की शादियां कम ही करती हैं। लेकिन अब उनके केस भी काफी बड़ी तादाद में देखने में आ रहे हैं। साथ ही उन पर हिंदू बनने का आमतौर पर कोई दबाव भी नहीं होता है। इसकी वजह कोई सोचा समझा इस्लामी मिशन लव जेहाद या साज़िश नहीं बल्कि हिंदू आबादी80 प्रतिशत होना महिलाओं का बिना पर्दा रहना अधिक शिक्षित आध्ुानिकता प्रगतिशीलता उदारता व वैचारिक खुलापन है। जबकि मुस्लिम आबादी 15 फीसदी होना लड़कियों का पर्दे में रहना घर से अकेले बाहर ना निकलना कट्टरता दकियानूसी परंपरवादी तंगनज़र अशिक्षित या कम शिक्षित होना साथ ही प्रेम सम्बंध पकड़े जाने पर मौके पर ही जान से मार देने का ख़तरा अधिक होना आदि अनेक कारण हैं। जहां तक धर्म परिवर्तन का सवाल है। आज़ादी से पहले देश की चार रियासतों राजगढ़ में 1936 में पटना में 1942 में सरगुजा में 1945 में और उदयपुर में 1946 में हिंदुओं के ईसाई बनने से रोकने को ऐसे कानून बने थे। इसके बाद आज़ाद भारत में 10 मई 1995 को सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पुरूषों के दूसरी शादी करने को इस्लाम अपनाने के बढ़ते मामले देखते हुए सरला मुदगल बनाम यूनियन आफ इंडिया केस में धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बनाने की संभावना तलाशने को एक कमैटी बनाने का सुझाव दिया था। आज भी धर्म परिवर्तन रोकने को कोई कानून ना तो बना है और ना ही बनने की संभावना है। इसकी वजह यह है कि संविधान धर्म परिवर्तन करने और अपनी मर्जी के साथी से विवाह करने की इजाज़त देता है। इतना ज़रूर है कि किसी को डरा धमका कर या लालच देकर धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता। अब सवाल यह है कि जब संविधान में धर्म बदलने और किसी से भी शादी करने और गलत तरीके से धर्म बदलने पर कानूनी कार्यवाही करने का पहले से ही प्रावधान है तो लव जेहाद के नाम पर यूपी और अन्य भाजपा शासित राज्य इस बारे में नये कानून लाने पर क्यों ज़ोर दे रहे हैंतो इसका जवाब है हिंदू वोटों की राजनीतिइन कानूनों को आज नहीं तो कल कोर्ट में चुनौती मिलेगीजहां इनका संवैधानिक तौर पर टिकना मुश्किल होगा। सुप्रीम कोर्ट और राज्यों के हाईकोर्ट ना केवल ऐसे लगभग सभी मामलों में धर्म परिवर्तन और अंतरधार्मिक व अतंरजातीय विवाहोें को संरक्षण और मान्यता देते रहे हैं बल्कि उनके परिवार सरकार और पुलिस को ऐसे जोड़ों को परेशान करने डराने धमकाने पर जमकर फटकार भी लगाते रहे हैं। एमपी की सरकार भी यूपी की तरह लव जेहाद पर कानून लाने जा रही है। हालांकि वहां 1968 से ही ऐसा कानून मौजूद है। इसके साथ ही कर्नाटक हरियाणा असम में भी धर्म परिवर्तन के खिलापफ कानून लाने की चर्चा तेज़ हो गयी है। पहले तमिलनाडू सहित नौ राज्यों में ऐसे कानून रहे हैं। लेकिन2003 में वहां इस कानून को निरस्त कर दिया गया था। जबकि गुजरात झारखंड ओड़िशा हिमाचल प्रदेश अरूणाचल प्रदेश उत्तराखंड राजस्थान और एमपी में ऐसे कानून पहले से ही मौजूद हैं। पड़ौसी देशों को देखें तो पाकिस्तान नेपाल भूटान श्रीलंका और म्यांमार में भी धर्म परिवर्तन विरोधी कानून हैं। पाकिस्तान में तो जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर उम्रकैद की सज़ा का प्रावधान है। लेकिन वहां कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम इसके बावजूद बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों का बेखौफ धर्म परिवर्तन कराकर उनके समाज की लड़कियों से जबरन अपहरण करके शादी करते रहते हैं। भारत में भी हिंदू समाज में यह डर और नफरत बड़े पैमाने पर फैल चुकी है कि मुसलमान परिवार नियोजन तो अपनाते ही नहीं उल्टा लव जेहाद के बल पर एक दिन बहुसंख्यक बनकर भारत को इस्लामी देश बना सकते हैंइसी लिये लव जेहाद के खिलाफ कानून बनाने की होड़ लगी हुयी है।