Sunday 30 January 2022

अखिलेश नहीं मायावती...

योगी के लिये अखिलेश नहीं माया बन सकती थीं बड़ी चुनौती?

0सभी ओपिनियन पोल में यूपी में भाजपा की जहां सत्ता में वापसी होना तय बताया जा रहा है। वहीं योगी सरकार को मुख्य टक्कर अखिलेश के सपा गठबंधन से मिलती मानी जा रही है। लेकिन कम लोगों को पता है कि सपा की बजाये अगर बसपा से भाजपा को मुख्य चुनौती मिलती तो योगी सरकार के लिये बड़ी समस्या खड़ी हो जाती। इसकी वजह यह है कि बसपा के साथ उसका दलित वोटबैंक दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव हार जाने के बावजूद पूरी मज़बूती से खड़ा है। इतना ही नहीं अकेले दलित वोट इतना अधिक है कि उसके सामने यादव वोटबैंक गिनती में कहीं नहीं टिक पाता है। यहां तक कि यादव दलित से आधे और मुसलमान भी बंट जाने से कम हो जाते हैं।     

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       यूपी में तीन बार भाजपा के सहयोग से और एक बार अपनी पार्टी बसपा के बहुमत के बल पर मुख्यमंत्री बन चुकी मायावती हालांकि लंबे समय से चुप हैं। लेकिन राजनीति के जानकारों का कहना है कि उनके साथ उनका दलित वोटबैंक आज भी चट्टान की तरह मज़बूती से खड़ा है। हालांकि यह भी सही है कि उनके वोटबैंक में अधिकांश जाटव हैं। लेकिन यह कहना भी सही नहीं होगा कि गैर जाटव में से उनके साथ कोई नहीं है। बल्कि इस बात को ठीक तरह से समझना हो तो यह कहा जा सकता है कि गैर जाटव वोट में अन्य दलों का बंटवारा है। जिस तरह से यह आम राय है कि सारा सवर्ण समाज भाजपा के साथ है। लेकिन जिन सीटों पर भाजपा का प्रत्याशी सवर्ण नहीं होता और सपा बसपा से कोई असरदार या पूर्व मंत्री विधायक सांसद सवर्ण जाति का टिकट ले आता है। उस विधानसभा क्षेत्र मंे सवर्ण वोट भी भाजपा से काफी अधिक छिटक जाता हैै। ऐसे ही मुसलमानों के बारे में यह धारणा आम है कि वे तो पूरी तरह सपा का वोटबैंक हैं। लेकिन सच यह है कि जिन क्षेत्रों में सपा मुख्य मुकाबले में नहीं होती या उसका प्रत्याशी कमज़ोर लगता है। वहां मुसलमान बिना किसी संगठन या मुस्लिम नेता के कहे चुपचाप बसपा के साथ हो लेता है। जबकि दलितों के बारे में यह माना जाता है कि वे हर हाल में अधिकांश बसपा के साथ बने रहते हैं। लेकिन अब यह भी देखा जा रहा है कि जिन जनरल सीटोें पर गैर बसपा दल किसी दलित को उतार देते हैं और वहां बसपा पहले ही किसी गैर दलित को टिकट दे चुकी होती है। वहां दलितों का बड़ा हिस्सा या उस दलित प्रत्याशी की जाति का लगभग सारा वोट शेष दलित जातियों का अधिकांश वोट उस दलित प्रत्याशी को चला जाता हैै। अगर किसी सीट से अकेला मुस्लिम उम्मीदवार किसी भी पार्टी यानी कांग्रेस एमआईएम या प्रभावशाली निर्दलीय भी खड़ा हो जाता हैै तो कई बार मुसलमानों का बड़ा हिस्सा उसके साथ हो जाता  है। ऐसा और दलों के साथ भी उनका परंपरागत वोटबैंक साथ छोड़कर कभी कभी ऐसे प्रयोग करता रहा है। इसमें हमारे समाज का जातिवाद क्षेत्रवाद और साम्प्रदायिकता छिपी होती है। बहरहाल हम अपने मूल विषय पर लौटते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस ने कुछ साल पहले मायावती पर एक किताब लिखी थी। जिसका शीर्षक था-मायावती की राजनीतिक जीवनी। लेकिन बाद मंे बोस ने उस पुस्तक का हैडिंग बदलकर मायावती का उत्थान और पतन कर दिया। उस समय बसपा समर्थक बोस से काफी नाराज़ हो गये थे। लेकिन 2012, 2014, 2017 और 2019 के चार चुनाव यह बात सही साबित करते नज़र आये कि बसपा का हश्र महाराष्ट्र की रिपब्लिकन पार्टी जैसा होता जा रहा है। बसपा के साथ जब तक पिछड़े मुसलमान या ब्रहम्ण नहीं जुड़े तब तक ना तो वह सत्ता में आई और ना ही उसको किसी ने गंभीरता से लिया। लेकिन बहनजी ने इस तथ्य को भी भुला दिया कि ब्रहम्णों के बसपा के साथ आने से उनका कोर वोट दलित उनसे नाराज़ हो सकता है। साथ ही जिन पिछड़ी जातियों को बड़े जतन से बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने बसपा के वोटबैंक दलितों के साथ जोड़कर बहुजन समाज की कल्पना की थी। बहनजी ने  पिछड़ी जाति के नेताओं को भी एक के बाद एक अपने अहंकार और मनमाने तरीके से काम करने के चलते बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब ये पिछड़े नेता बसपा से निकले तो साथ साथ उनका पिछड़ा समाज भी उनके साथ साथ बहनजी का साथ छोड़कर चलता बना। उधर जो मुसलमान बसपा के साथ 2007 में पहली बार बड़े पैमाने पर जुड़े थे। विपक्ष ने आरोप लगाया कि मायावती ने उनको कभी ग़द्दार तो कभी आतंकी बताया और उनके काम सरकारी स्तर पर करने में पक्षपात किया। यहां तक कि उनके किसी महापुरूष का नाम तक दलित महापुरूषों के साथ पोस्टर बैनर पर जोड़ना गवाराह नहीं किया। बहनजी को यह गलतफहमी हो गयी कि अगर वे अधिक से अधिक मुसलमानों को बसपा का टिकट देंगी और उनको अपना दलित वोटबैंक भी पूरी तरह से चुनाव मंे ट्रांस्फर करा देंगी तो मुसलमान मजबूरी में खुद ब खुद बसपा के साथ जुड़ जायेंगे। जबकि वह यह कठोर सच भूल गयीं कि अगर किसी नेता पर मुसलमानों ही नहीं किसी भी वर्ग या जाति का भरोसा ही नहीं रहेगा तो वह चाहे जितने भी टिकट उस समाज के लोगों को दे दे उस समाज का वोट उसको नहीं मिलेगा। इसकी एक और जिं़दा मिसाल भाजपा भी है। जिसने शुरू शुरू में दिखावे के लिये एक दो मुसलमानों को एमएलए और एमपी के चुनाव में टिकट दिये लेकिन उनको उस क्षेत्र में अकेला मुस्लिम प्रत्याशी होने पर भी मुसलमानों ने वोट नहीं दिये। वजह साफ थी कि भाजपा हिंदू समर्थक नहीं मुस्लिम विरोधी पार्टी मानी जाती है। बहनजी की चुप्पी का राज़ राजनीतिक जानकार उनके खिलाफ चल रही घोटालों की जांच को मानते हैं। जिस तरह से लालू जेल गये उसी तरह बहनजी को भी जेल जाने के डर से चुप्पी साधनी पड़ी है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि अगर बसपा का दलित वोट इस चुनाव में और बिखरता है तो क्या वह दलित विरोधी समझी जाने वाली भाजपा के साथ हिंदू बनकर जायेगा या उसके प्रति उदासीन सपा के साथ जायेगा?                                         

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Sunday 23 January 2022

विकास मुद्दा क्यों नहीं?

सामाजिक धार्मिक नहीं विकास के मुद्दे पर लड़ें सब दल चुनाव!

0विश्व विख्यात सूचना एवं तकनीकी कंपनी इनफ़ोसेज़ के संस्थापक एन आर नारायण मूर्ति ने कहा है कि वह निजी जीवन में बहुत अधिक धार्मिक हैं। लेकिन घर से बाहर निकलने के बाद वे न तो धार्मिक कर्मकांड करते हैं ना ही किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार। यहां तक कि वह कभी एक नारियल तक व्यक्तिगत आस्था के नाम पर सार्वजनिक रूप से नहीं तोड़ते। उधर जो राजनीति केवल और केवल विकास रोज़गार शिक्षा स्वास्थ्य और आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित होनी चाहिये थी। वह आज कल कई दल और नेता पूरी तरह धार्मिक जातीय क्षेत्रीय झूठ दुष्प्रचार भय भावनात्मक ब्लैकमेल और भारी कालेधन व सत्ता के दुरूपयोग के बल पर की जा रही है।    

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       यूपी सहित पांच राज्यों में चुनाव का ऐलान हो चुका है। लेकिन इस बार भी ये चुनाव विकास पर ना होकर तरह तरह के भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित होते नज़र आ रहे हैं। अगर ऐसा ना होता तो कुछ दिन पहले हरिद्वार में धर्म संसद के नाम पर एक वर्ग विशेष के खिलाफ़ जमकर ज़हर ना उगला जाता। हालांकि आरोपियों के खिलाफ औपचारिक रपट दर्ज हो गयी है। लेकिन सत्ता मेें बैठे दल के नेताओं के तेवर देखकर लगता नहीं कि वे इस मामले मंे कोई ठोस या सख़्त कार्यवाही करने के मूड में हैं। इतना ही नहीं छोटी छोटी बात पर ट्वीट और राष्ट्र के नाम संदेश जारी करने वाले हमारे पीएम तो इस घिनौैैनी घटना पर आज तक चुप्पी साधे हुए हैं। इसकी प्रतिक्रिया में बरेली में हज़ारों मुसलमानों ने पिछले जुमे की नमाज़ के बाद जवाबी चेतावनी जारी की कि अगर देश में हरिद्वार जैसी धर्मसंसदें होती रहीं तो वह उस दिन से डरते हैं जिस दिन मुसलमान नौजवान कहीं से न्याय ना मिलने पर खुद कानून हाथ में लेने की सोचने लगेगा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अगर उनके खून से किसी की प्यास बुझती हो तो वे अपनी जान देने को तैयार हैं। उनका कहना था कि उनका हिंदू समाज से कोई विवाद नहीं है। वे उनके साथ मिलजुलकर रहना चाहते हैं। अगर लड़ना ही है तो हम सबको मिलकर चीन की सीमा पर उन विदेशी ताक़तों से लड़ना चाहिये जो हमारी मातृभूमि पर अवैध कब्ज़ा कर रही है। इससे पहले गिटहब सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर बुल्ली बाई एप पर सैंकड़ो मुस्लिम औरतों की नीलामी की घटिया हरकत उनके अश्लील फोटो डालकर की गयी। इस मामले में भी पुलिस ने रपट दर्ज कर कुछ आरोपियों को पकड़ा है। लेकिन जिस तरह से इससे पहले इसी एप प्लेटपफाॅर्म पर सुल्ली डील एप बनाकर मुस्लिम महिलाओं को ज़लील किया गया था।उस पर दिल्ली पुलिस ने आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की थी। जिस तरह पीएम मोदी ने भारत के एक सेकुलर देश होते हुए बनारस में विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर का उद्घाटन  किया और मुसलमानों को छोड़कर जितने भी धार्मिक स्थलों का इतिहास बताया उनमें हिंदू जैन और सिख समाज को ही शामिल किया गया। इससे पहले यूपी में जिस तरह से चुनाव की घोषणा होने से कई माह पहले से ही सत्ताधारी दल चुनाव प्रचार के लिये मीडिया में बड़े बड़े विज्ञापन दे रहा है। उससे भी यह मिथक स्थापित करने की काफी हद तक सफल कोशिश की जा रही है कि एक धर्म विशेष के लोग अपराधी गुंडे माफिया और आतंकी होते हैं। साथ ही यह प्रचार भी जोरशोर से किया जा रहा है कि पहले की कांग्रेस सपा बसपा या सेकुलर दलों की सरकारें हिंदू विरोधी और घोर मुस्लिम समर्थक थीं। हालत यह है कि जिस सरकार को सभी धर्म के लोगों से टैक्स मिलता है। वही सरकार उस कर के पैसे से एक धर्म विशेष के लोगों के खिलाफ मीडिया में ज़रदस्त प्रचार अभियान चला रही है। संविधान और कानून एक होते हुए भी सभी के साथ एक सा व्यवहार नहीं हो रहा है। लगातार यह झूठा दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि वे जल्दी ही देश में बहुसंख्यक हो जायेंगे। जबकि खुद सरकारी आंकड़े इसको झुठलाते हैं। बार बार ऐसे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर यह आरोप लगाया जाता है कि सपा बसपा के राज में सारा विकास और रोज़गार मुसलमानों का मिल रहा था। जबकि इसके पक्ष में वर्तमान सत्ताधारी नेता कोई सबूत आज तक पेश नहीं कर पाये हैं। यह धारणा बनाने की भी कोशिश की जा रही है कि राम मंदिर भाजपा बनवा रही है। जबकि सबको पता है कि ऐसा कोर्ट के आदेश पर हो रहा है। यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि पहले सपा बसपा और कांग्रेस मंदिर बनने से रोक रही थी। यह दावा भी किया जा रहा है कि अगर सपा की सरकार यूपी में बनी तो मंदिर का निर्माण रूक जायेगा? साथ ही यह प्रोपेगंडा भी चल रहा है कि अगर भाजपा सत्ता में वापस नहीं लौटी तो सपा की सरकार मुसलमानों को खुली लूट और मनमानी की छूट दे देगी। हमारी समझ से यह बात बाहर है कि अगर भाजपा ने वास्तव में विकास किया है। नौजवानों को रोज़गार दिया है। कानून व्यवस्था को सुधारा है। सरकारी विभागों में रिश्वतखोरी बंद कर दी है। सड़कें बन रही हैं। बिजली पर्याप्त आ रही है। सरकारी अस्पताल और स्कूल पहले से बेहतर काम कर रहे हैं। जनहित की योजनायें पहले से अगर बेहतर चल रही हैं तो इसके लिये करोड़ों रूपये के विज्ञापन देने और एक धर्म विशेष के लोगों को विलेन बनाकर हिंदू समाज के लिये झूठा ख़तरा बताने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? क्या भाजपा हिंदू समाज को इतना नासमझ नादान और भोला समझती है कि उसको पांच साल में यह पता ही नहीं चला कि सरकार कितना अच्छा काम कर रही है? अगर अच्छा काम हो रहा होगा तो जनता को खुद ही दिखाई देगा महसूस होगा। आज का माहौल देखकर ऐसा लगता है जिस तरह से मुसलमानों को भाजपा का ख़तरा दिखाकर सेकुलर दलों ने लंबे समय तक उनको वोटबैंक बनाकर सत्ता का सुख भोगा उसी तरह से आज भाजपा मुसलमानों से डराकर और हिंदुओं का धार्मिक तुष्टिकरण कर उनको वोटबैंक बना रही है।                                         

 *0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*

Tuesday 18 January 2022

पिछड़े किसके साथ ?


पिछड़ों को साधने में भाजपा आज भी सबसे आगे है?
02017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल पड़े वोट में से 39.67 प्रतिशत यानी 3,44,03,299 बसपा को 22.23 प्रतिशत यानी 1,92,81,340 और सपा को 21.82 प्रतिशत यानी 1,89,23,769 वोट मिले थे। विकीपीडिया के अनुसार यूपी में सवर्ण जाति 14.2 दलित 20.8 पिछड़ी जाति 44 फीसदी और मुसलमान 20 प्रतिशत हैं। आज सवर्ण की भाजपा दलित की बसपा और मुसलमान की सपा पहली पसंद बन चुकी हंै। जबकि अपवाद स्वरूप यादवों का बड़ा हिस्सा भी विधानसभा चुनाव में सपा के साथ माना जाता है। कुछ सीटों पर भाजपा को हराने के लिये मजबूरी में मुसलमान भी बसपा के साथ चला जाता है। लेकिन पिछड़ी जातियों का निर्णायक व अधिकांश वोट क्या आज भी भाजपा के साथ माना जा रहा है?      
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
       पांच राज्यों के चुनाव घाषित होते ही जिस तरह से अचानक यूपी में पिछड़ी जाति के कुछ मंत्री और विधायक भाजपा छोड़कर थोक में सपा का दामन थाम रहे हैं। उससे ऐसा लगता है मानो भाजपा इस बार 2017 की तरह पिछड़ी जाति के गैर यादव और दलितों के गैर जाटव मतदाता को खोने जा रही है। जबकि सच यह है कि आज भी बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के छोटे दल नेता मंत्री और विधायक पूर्व की तरह भाजपा के साथ ही बने हुए हैं। अलबत्ता इतना ज़रूर है कि जिस तरह से अखिलेश ने सुनियोजित तरीके से एक के बाद एक पिछड़ी जााति के मंत्री का पहले भाजपा सरकार से इस्तीफा दिलाया। उसके बाद कुछ भाजपा विधायकों को तोड़कर बारी बारी से सपा में शामिल किया। उसके बाद त्यागपत्र देने वाले एक एक मंत्री को प्रतिदिन सपा में शामिल करते हुए उनको मीडिया के सामने पेश कर उससे भाजपा के पिछड़ा विरोधी होने का आरोप जोरशोर से लगा। उससे ऐसा संदेश गया कि इस बार पिछड़ी जातियां भाजपा को छोड़कर सपा के साथ जाने वाली हैं। हो सकता है कि यह लेख प्रकाशित होने तक कुछ और मंत्री और विधायक भाजपा को अलविदा कहकर सपा या बसपा का दामन थाम लें। लेकिन दाल में काला मानकर खुद सपा मुखिया आगे दलबदल करने वाले भाजपा के नेताओं को ना लेने का दावा भी कर रहे हैं। यह भी हो सकता है कि भाजपा भी बड़े पैमाने पर सपा या अन्य विरोधी दलों के कुछ बड़े नेताओं या इन दलों के मुखियाओं के परिवार के कुछ बड़े चेहरों को अपने साथ लाकर डैमेज कंट्रोल करे। बहरहाल इस चुनाव में यह नया नहीं हो रहा है। जब जब चुनाव आते हैं। दलबदल होता ही है। लेकिन नया यह है कि इस बार सत्ताधारी दल से अधिक दलबदल हो रहा है। हालांकि छिटपुट दलबदल सपा बसपा कांग्रेस से भी एक दूसरे दलों में जारी है। दलों ने इस पर यह सफाई भी दी है कि दलबदलू नेता अपना टिकट कटने या अपने परिवार के अन्य सदस्यों को मनचाहे या अपनी पसंद की सीट से टिकट ना मिलने के कारण भी पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। यह बात भी सही है कि यूपी में जिस तरह से पांच साल योगी सरकार चली है। उसमंे भाजपा विधायकों की तो बात ही क्या खुद मंत्री तक यह कहते सुने गये कि उनकी सुनी नहीं जाती। इतिहास मंे पहली बार 18 दिसंबर 2019 को गाजियाबाद के लोनी क्षेत्र से भाजपा विधायक नंद किशोर गूजर ने जब विधनसभा में उत्पीड़न का सरकार पर आरोप लगाया और उनके समर्थन में सत्ताधारी भाजपा के ही 200 विधायकों ने मोर्चा खोल दिया तो विपक्ष को सरकार को घेरने का बड़ा अवसर हाथ लग गया था। योगी सरकार पर मुख्यमंत्री की जाति के अफसरों को प्राथमिकता देने और महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करने का आरोप भी लगा। लेकिन ऐसे आरोप पूर्व की सपा बसपा सरकारों पर भी लगते रहे हैं। यह भी चर्चा हुयी कि इस सरकार में ब्रहम्ण खुश नहीं हैं। उनको ना केवल पूरा प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है बल्कि उनके साथ सौतेला व्यवहार व पक्षपात किया जा रहा है। लेकिन यह भी तथ्य है कि ब्रहम्ण जाति का जो स्वभाव रहा है। उस हिसाब से चाहे जो हो उसके लिये भाजपा से अलग कोई और विकल्प ही नहीं है। ऐसे ही सपा सरकार के रहते जिस तरह से यादवों  को अनड्यू लाभ दिये गये और एक ही परिवार के दो दर्जन से अधिक लोगों को जनप्रतिनिधि बनाकर सर माथे पर रखा गया। उससे गैर यादव पिछड़े और अति पिछड़े सपा से नाराज़ हो कर कोई अन्य विकल्प तलाश ही रहे थे। उनको भाजपा ने अपने साथ इस वादे के साथ जोड़ लिया कि वह सभी हिंदुओं को उनके समान जनसंख्या अनुपात में जातिवार हिस्सेदारी देगी। उसने यह आरोप भी लगाया कि सपा बसपा हिंदू समाज का हिस्सा अपने वोटबैंक मुसलमानों को उनकी आबादी से अधिक देकर खासतौर पर पिछड़ी जातियों के साथ खुला पक्षपात कर रही हैं। यह हुआ कि जिस तरह से मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर किये गये चंद दिखावटी काम भावनात्मक रूप से अच्छे लगते हैं। उसी तरह से योगी सरकार ने कांवड़ यात्रा कुंभ मेला दिवाली समारोह बनारस विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर और राम मंदिर का सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर निर्माण शुरू कराकर हिंदुओं का धार्मिक तुष्टिकरण करना शुरू कर दिया।  यूपी में जिस तरह से संघ ने योगी को बिना किसी अनुभव के उनके मुस्लिम विरोधी रूख के कारण गुजरात की तरह एक और नई प्रयोगशाला बनाना चाहा। उसका कोई खास लाभ पिछड़ी जातियों को जब मिलता नज़र नहीं आया तो उनमें बगावत के आसार बन गये। लेकिन आज भी हिंदुत्व के नाम पर पिछड़ों का बड़ा वर्ग भाजपा के साथ माना जा रहा है। यह अनुमान कितना सही है यह तो 10 मार्च को मतगणना के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जिस तरह से योगी ने लवजेहाद एंटी रोमियो सीएए के खिलाफ आंदोलन करने वालों से सरकारी संपत्ति के नुकसान की वसूली जनसंख्या कानून मांस की दुकानों पर लगाम और एक वर्ग विशेष के खिलाफ पूर्वाग्रह ना छिपाते हुए खुलेआम चुनाव को 80 बनाम 20 प्रतिशत यानी प्रदेश की आबादी के हिसाब से सांप्रदायिक बनाया उससे यह भी लगता है कि उनको पिछले चुनाव के मुकाबले वोट और सीटें घटती साफ नज़र आ रही हैं।                                        
 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।