Tuesday 13 December 2016

दिमाग़ की सफ़ाई

*दिमाग की गंदगी कब साफ होगी?*

कुछ लोग वैसे तो साफ सफाई की बहुत बातें करते हैं लेकिन जब दिमागी सफाई की बात आती है तो बगलें झांकने लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी ने काफी पहले गांधी जयंती पर सफाई अभियान की शुरूआत की थी। लेकिन देखने में यह आया है कि कुछ दिन अभियान चलने के बाद सफाई का वास्तविक काम आज भी पेंडिंग है। हमें लगता है कि सबसे पहले उन लोगों के दिमाग की सफाई किये जाने की ज़रूरत है। जिनके दिमाग में तमाम ख़राब और नकारात्मक बातें घुसी हुयी हैं। मिसाल के तौर पर किसी आदमी के दिमाग में अगर यह बात बैठी हुयी है कि हर काम सरकार करेगी। तो यह अपने आप में एक बड़ी समस्या है। कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि सत्ता यानी ताकत से सबकुछ किया जा सकता है।

 

उनको अमेरिकी प्रजिडेंट ओबामा का वह बयान पढ़ना चाहिये जिसमें उन्होंने यह माना है कि अफगानिस्तान से तालिबान का खात्मा अमेरिका नहीं कर सकता। हम भी तालिबान और मज़हब के नाम पर हिंसा के खिलाफ हैं। लेकिन यहां ओबामा के इस स्वीकार को याद दिलाने का मकसद केवल इतना है कि कुछ काम ऐसे भी हैं जिनको अमेरिका जैसी दुनिया की महाशक्ति केवल बलपूर्वक यानी हथियारों से अंजाम नहीं दे सकती। कुछ लोगों के दिमाग में नफरत हिंसा साम्प्रदायिकता कट्टरवाद जातिवाद और क्षेत्रवाद की गंदगी भी बड़ी मात्रा में भरी हुयी है।

आज समय आ गया है कि वे लोग हिटलर का हश्र देखकर इतिहास से सबक लें कि वह पूरी दुनिया से यहूदियों को ख़त्म करने का सपना तब भी पूरा नहीं कर सका जबकि उसने 60 लाख यहूदियों के गैस चैंबरों में जबरदस्ती ठूस कर मार डाला। हमारे कहने का मतलब यह भी है कि कुछ लोग आज के दौर में भी अपने घर दुकान का कूड़ा साफ कर उस सड़क पर फैंक देते हैं। जिसपर हज़ारों आदमी चलते हैं। जिन लोगों के दिमाग में यह गंदगी भरी हुयी है कि वे अपने लालच और अपनी पसंद को सब पर किसी भी कीमत पर थोपकर अपनी मनमानी सदा कर सकते हैं। उनको भी संभल जाने की ज़रूरत है।

अगर कोई कालाधन करप्शन और जाली नोटों का कारोबार यह मानकर करता है कि उसको किसी भी तरह से कभी भी पकड़ा नहीं जा सकेगा तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रहता है। धीरे धीरे तकनीक हम सबको सुधरने और अपना दिमाग साफ रखने को मजबूर करेगी। आज नहीं तो कल ऐसे तरीके तलाश कर ही लिये जायेंगे। जिनसे इंसान के दिमाग की गंदगी को साफ किया जा सके। यह दिमागी गंदगी नहीं तो और क्या है कि एक आदमी अपने नाजायज़ लाभ के लिये दूसरों की जिंदगी दांव पर लगाता है। यह दिमागी गंदगी ही कही जायेगी कि आप अपना धर्म अपनी सोच अपनी पसंद को सर्वश्रेष्ठ मानकर दूसरों पर थोपने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं।

गर दूसरे भी ऐसा ही करने लगें तो क्या होगा? आज के दौर में जो लोग अंधविश्वासी अंध आस्थावादी विज्ञानविरोधी और प्रगतिशीलता का विरोध करते हैं। वे अपने दिमाग को साफ करने से कब तक बचते रहेंगे। अगर हमारा दिमाग साफ नहीं होगा तो हमारा दिल भी साफ नहीं हो सकता। अगर हमारा दिल और दिमाग़ दोनों हीं गंदे हैं तो हमारा जिस्म तो किसी कीमत पर साफ माना ही नहीं जा सकता। अगर हमारा दिमाग साफ होगा तो उसके बाद जिस्म कपड़े मकान दुकान सड़क और हर चीज़ खुद ब खुद साफ होती जायेगी। इसके लिये ज़रूरत केवल यह स्वीकार करने की है कि हां हमारे दिमागों में सड़कों और नालियों से ज़्यादा गंदगी जमा है। जब तक हम इस दिमागी गंदगी को साफ नहीं करेंगे, कुछ नहीं बदलेगा। ग़ालिब का शेर याद आ रहा है :

*बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना,*
*आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।*

Monday 12 December 2016

नोटबन्दी से मुस्लिम घाटे में?

नोटबंदी और मुसलमान!

नोटबंदी को लेकर मोदीभक्तों के खुश होने का एक नया कारण सामने आया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जो अंध भक्त फिलिस्तीन में इस्राईल की बमबारी और आये दिन होने वाली गोलीबारी में मासूम मुस्लिम बच्चो के मारे जाने पर एक दूसरे को बधाई देते हुए यह पूछते हैं कि अब तक कितने विकेट  गिरे? उनके इस बात पर खुश होने पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिये कि वे कट्टर हिंदुओं को यह समझाकर खुश करने की नाकाम कोशिश  कर रहे हैं कि इससे सूद के कारण बैंकों से दूर रहने वाले मुसलमानोें का ज़्यादा नुकसान हुआ है। हालांकि मोदीभक्तों को अभी तक अपनी अंधश्रध्दा के कारण देश की अर्थव्यवस्था को होने वाला अब तक का लाखों करोड़ का नुकसान दिखाई नहीं दे रहा है।

    

उनको भाजपा का अब तक कट्टर समर्थक रहा वो व्यापारी वर्ग भी नाराज़ होता नहीं दिख पा रहा है जो अपने खूद पसीने से कमाया करोड़ो अरबों का धन मात्र 30 फीसदी कर न देने से बाकी का 70 फीसदी भी कालाधन बनते असहाय होकर देख रहा है। यह ठीक है कि मुसलमानों का एक हिस्सा ब्याज से बचने के लिये बैंक में खाते खोलने को बुरा मानता है। लेकिन अगर आप इस मामले में सर्वे करेंगे तो पायेंगे कि मोदी जी के प्रधानमंत्री जनधन खातों में अनुपात के हिसाब से मुसलमानों का बड़ा हिस्सा था। ऐसे ही जब से सरकारी योजनाओं का लाभ बैंक खातों के ज़रिये मिलना शुरू हुआ है। मुसलमानों ने राशन कार्ड आधार कार्ड और वोटर कार्ड की तरह ही बहुत बड़े पैमाने पर बैंकों में खाते खुलवाये हैं।

    

इसके साथ ही उनके बच्चे तेजी से स्कूलों में जा रहे हैं। जहां अब लगभग सभी कक्षाओं के बच्चो को स्कॉलरशिप बैंक खातों के द्वारा ही मिलने लगी है। मुसलमान जो गरीब मज़दूर और बेरोज़गार अधिक रहा है। आजकल मनरेगा में काम मिलने की वजह से बैंक में खाते खालने को न चाहते हुए भी मजबूर हुआ है। ऐसे ही निजी और सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वाले और कारोबारी मुसलमानों के पहले से ही न केवल बैंकों में खाते मौजूद हैं बल्कि उनको अपने जमा प्रोविडेंट फंड पर ब्याज लेने में भी कोई परेशानी नहीं  होती। मुस्लिम शिक्षित समाज जैसे शिक्षक वकील पत्रकार और डाक्टर आदि पहले से ही बैंको में लेनदेन करता रहा है।

   

पता नहीं मोदीभक्त कौन सी दुनिया में जी रहे हैं। उनको शायद यह भी नहीं पता कि देश की आबादी 132 करोड़ से अधिक हो चुकी है। इसमें से केवल 42 करोड़ के बैंक खाते हैं। भक्तों से पूछा जा सकता है कि क्या शेष 90 करोड़ लोग मुसलमान हैं? आप सर्वे करा लीजिये यह बैंक खाता होने न होने का मामला धर्म से जुड़ा है ही नहीं। दरअसल भक्त इस बात से परेशान हैं कि मोदी जी ने जो नोटबंदी के समय 8 नवंबर को बड़े बड़े दावे किये थे। उनमें से अधिकांश झूठे साबित होते जा रहे हैं। आम आदमी का सवाल है कि जब नोटबंदी से कालाधन जाली नोट और करप्शन ख़त्म नहीं हुआ तो उसको क्यों इतना तबाह और बरबाद कर दिया गया?

   

इन सवालों का जवाब भक्त तो क्या देंगे खुद उनके आका मोदी जी के पास भी शायद नहीं है। अब मोदी जी और उनके अंधसमर्थक एक ही राग अलाप रहे हैं कि नोटबंदी का फायदा दीर्घकाल में होगा। अब यह कोई नहीं बता रहा है कि यह दीर्घकाल 50 दिन का है? तीन या छह माह का है? या 5 से 10 साल का है? संघ परिवार का यह पुराना फंडा रहा है कि जब भी अपने दावों मेें नाकाम रहो चर्चा का रूख़ साम्प्रदायिक मुद्दे की तरफ मोड़ दो। विपक्ष में रहकर इस तरह से भाजपा मोदी और उनके भक्त कांग्रेस सपा और कम्युनिस्टों की यानी क्षेत्रीय दलों की सेकुलर सरकारों को अब तक घेरने में सफल भी रहे हैं। लेकिन आज मोदी खुद सवालों के घेरे में हैं। अगर उनको भरोसा है कि नोटबंदी से उनको जनता का अपार समर्थन मिल रहा है। तो वे यूपी चुनाव का वेट करें।  

Saturday 3 December 2016

मोदीभक्त

मोदीभक्त, विरोधी और तटस्थ!

अजीब बात यह है कि जिस भाजपा गठबंधन को देश के मतदाताओं के मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं। वह उस विपक्ष को देश विरोधी और गद्दार बता रहा है। जिसको जनता के 69 प्रतिशत मतों का समर्थन मिला है।    

 

जब से मोदी देश के पीएम बने हैं। ऐसा लगता है पूरा देश तीन वर्गों में बंट गया है। एक वर्ग मोदी का समर्थक ही नहीं अंधभक्त बन गया है। दूसरा वर्ग मोदी का विरोधी ही नहीं कट्टर विरोधी हो गया है। तीसरा वर्ग काफी हद तक निष्पक्ष ईमानदार यानी तटस्थ रहकर गुण दोष के आधार पर समर्थन और विरोध करता है। हालांकि एक बार पहले भी देश में भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बन चुकी है। तब कभी भी ऐसा माहौल नहीं था कि आपको अटल जी या उनकी सरकार के हर फैसले का समर्थन करना ही होगा नहीं तो आप देश विरोधी और देशद्रोही ठहराये जाओगे। आज हालात ऐसा बना दिये गये हैं कि अगर कोई मोदी सरकार के किसी फैसले का विरोध करता है तो झट उसको ग़द्दार का तमगा दे दिया जाता है।

 

अगर वो मुसलमान हो तो उसको पाकिस्तान जाने की सलाह दी जाती है। अगर वो कम्युनिस्ट हो तो उसको चीन में बसने का प्रस्ताव दिया जाता है। सबको पता है कि लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष दोनों साथ मिलकर काम करते हैं। लेकिन जब से मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला आया है। तब से भाजपा नेता इस फैसले को लागू करने का विरोध करने वाले विपक्ष तक को कालेधन वाला और देश विरोधी साबित करने पर तुले हैं। इससे पहले कभी विपक्ष के विरोध के लिये उसको इस तरह से किसी सरकार ने देश विरोधी नहीं ठहराया था। अजीब बात यह है कि जिस भाजपा गठबंधन को देश के मतदाताओं के मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं।

 

वह उस विपक्ष को देश विरोधी और गद्दार बता रहा है। जिसको जनता के 69 प्रतिशत मतों का समर्थन मिला है। यह अलग बात है कि विपक्ष अलग अलग मुद्दों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने से बंटा हुआ है। ऐसे ही जो मीडिया या निष्पक्ष ईमानदार विचारक मोदी सरकार के नोटबंदी या अन्य किसी फैसले का तर्कसंगत तथ्यात्मक और प्रमाण सहित भी विरोध करते हैं। उनको संघ परिवार या तो गरियाने लगता है। या फिर उनको सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो गालियों से लेकर धमकियों से नवाज़ा जाता है। यहां तक कि मोदी सरकार और संघ से कुछ असहमत लोगों को तो कभी कभी हिंसक हमलों का भी सामना करना पड़ता है। नोटबंदी के मामले में ममता बनर्जी और केजरीवाल जिस तरह से बढ़ चढ़कर विरोध कर रहे हैं।

 

उनपर अब व्यक्तिगत कीचड़ भी उछाला जाने लगा है। ऐसे ही मायावती और अखिलेश यादव के नोटबंदी के लागू करने के तरीके के विरोध करने पर सीधे सीधे उनको कालेधन वालों का न केवल समर्थक बताया जा रहा है बल्कि यहां तक दावा किया जा रहा है कि इनके पास आने वाले यूपी चुनाव में चुनाव लड़ने का जो अकूत दौलत पुराने नोटों में अवैध रूप से जमा की गयी थी। ये दोनों इस नुकसान की वजह से शोर मचा रहे हैं।

   

सोचने वाली बात है कि खुद भाजपा ने 2014 का लोकसभा चुनाव 10 हज़ार करोड़ से अधिक धन खर्च जीता था। क्या यह बात किसी से छिपी हुयी है कि वह धन चैक या नंबर एक के तरीके से नहीं आया था। अभी भी भाजपा सहित सारे दल अपने चंदे का 80 प्रतिशत 20,000 रू. से कम  वाला बताते हैं। जिसका कोई नाम पता रिकॉर्ड पर नहीं होता है। इसी लिये सारे दल आरटीआई के दायरे में भी नहीं आना चाहते। भाजपा को यह कहावत याद रखनी चाहिये कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं। वो दूसरों पर पत्थर नहीं उछाला करते।        

 

दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये

आईना सामने रख लिया कीजिये।।

Thursday 1 December 2016

नोटबन्दी पर लाजवाब मोदी

तर्कहीन मोदी रो ही सकते हैं! 
पीएम मोदी नोटबंदी पर चारों तरफ से घिरे नज़र आ रहे हैं। संसद का सत्र चालू होने के बावजूद वे संसद का सामना नहीं कर पा रहे। जबकि बाहर वे बोलने और फालतू बोलने का कोई मौका छोड़ते नहीं। विपक्ष अब उन पर पूरी तरह से हावी हो चुका है। खासतौर पर ममता केजरीवाल और मायावती ने उनको लाजवाब कर दिया है। देश में अपने इस कदम का 90 प्रतिशत समर्थन होने के दावे के बावजूद मोदी संसद में मतदान के नियम के तहत इस मुद्दे पर चर्चा कराने से डर गये हैं। उनको यह भय भी सता रहा है कि उनको काले धन वाले इस कदम से नाराज़ होकर कोई नुकसान न पहंुचा दें। उनके पास इस मामले में अपनी सफाई देने के लिये कोई ठोस तर्क बाकी नहीं रह गया है।        यही वजह है कि वे अपने कई भाषणों में भावुक होकर रो देते हैं। अब तक घरों में रोने को महिलाओं का आखि़री हथियार माना जाता रहा है। आजकल मोदी इस हथियार का आंसू बहाकर बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। सच तो यह है कि तानाशाही वनमैन शो या अहंकार की वजह से उन्होंने अपने इस फैसले में गोपनीयता के बहाने किसी को शरीक ही नहीं किया था। बाहर से भले ही आरबीआई उनकी कैबिनेट और सहयोगी दल मोदी के इस मनमाने निर्णय के साथ खुद को दिखा रहे हों। लेकिन आज की वास्तविकता यही है कि मोदी को सबने इस मुद्दे पर जवाब देने को अकेला छोड़ दिया है। आडवाणी जोशी और सिन्हा जैसे बीजेपी के सीनियर लीडर अंदर अंदर काफी खुश होंगे कि चलो हमें किनारे करने का सबक मोदी को मिल गया।        वे सोच रहे होंगे कि अब उूंट पहाड़ के नीचे आया है। पूर्व आरएसएस नेता गोविंदाचार्य मुंहफट और विवादित बीजेपी सांसद सुब्रहमण्यम स्वामी पूर्व मंत्री और वरिष्ठ पत्रकार अरूण शौरी फिल्म अभिनेता शत्रुघन सिन्हा  और एनडीए की मुख्य सहयोगी शिवसेना तक ने इस मुद्दे पर मोदी को जमकर खरी खोटी सुनाई है। अब तक तटस्थ या पर्दे के पीछे से एनडीए के साथ रहने वाली अन्नाद्रमुक भी इस मामले में मोदी के खिलाफ मुखर हो गयी है। हालत इतनी खराब है कि भाजपा सरकार के लिये अकसर नरम रहने वाले नवीन पटनायक नीतीश कुमार और मुलायम सिंह को भी आम जनता के बढ़ते गुस्से बेरोज़गारी और अराजकता के कारण कालेधन के खिलाफ होने की सफाई देते हुए नोटबंदी बिना पूरी तैयारी के करने की खुलकर आलोचना करनी पड़ी है।        ईमानदार और बोल्ड नेता की छवि वाले केजरीवाल और ममता बनर्जी ने तो इस मुद्दे को मोदी सरकार के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन बना दिया है कि कांग्रेस को यह देखकर डर लगने लगा कि कहीं मुख्य विपक्षी नेता की उसकी पदवी ये दोनों न छीन लें। सबसे खराब बात यह हो रही है कि मोदी अपनी गल्ती न मानकर सारे विपक्ष को कालेधन का संरक्षक साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। ऐसा दुस्साहस और कुतर्क मोदी इस सच्चाई और हकीकत के बावजूद कर रहे हैं कि कालेधन से चुनाव लड़ने के मामले में बीजेपी किसी दल से पीछे नहीं है। वे पहली बार जीवन में एमपी बनते ही पीएम बन गये हैं। इसलिये उनको यह बात भी समझ में नहीं आ रही कि लोकतंत्र में विपक्ष को सरकार का विरोध करने का संवैधानिक हक हासिल होता है।       मोदी यह भी भूल रहे हैं कि विपक्ष के पास इस मुद्दे पर खोने को कुछ नहीें है। जबकि मोदी बीजेपी और उनकी सरकार का बहुत कुछ दांव पर लगा है। आजकल तात्कालिक सियासत अधिक काम करती है। फिलहाल तो आम आदमी बेहद परेशान और बेरोज़गारी का शिकार हो चला है। लंबे समय के बाद इस से देश को या जनता को क्या लाभ होगा। यह आम आदमी सुनने को तैयार ही नहीं है। मोदी से भारी चूक हुयी है। वे माने या ना मानें। इसका अंजाम उनको यूपी के चुनाव में साफ दिखाई दे सकता है। अगर मोदी नोटबंदी से मरने वालों के परिवार को मुआवज़ा और गरीबी की रेखा से नीचे वालों को कालेधन से लाभ के तौर पर कुछ नकद दे दें तो बात बन कुछ बन सकती है।     

Wednesday 23 November 2016

स्मार्ट फ़ोन

स्मार्ट फ़ोन ले लिया,  लेकिन करोगे क्या?

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

आजकल दिखावे का दौर है। कुछ लोग कुछ चीजे़ं सिर्फ़ इसलिये ख़रीद लेते हैं क्योंकि उनके पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसा आ जाता है। कुछ लोग अपने ज़रूरी ख़़र्च रोककर भी ऐसी ख़रीदारी कर ले रहे हैं। जिससे लोग उनको बड़ा आदमी मानें। अब स्मार्ट फ़ोन को ही ले लीजिये। जब शुरू शुरू में स्मार्ट फोन बाज़ार में आया तो लोगों को लगा कि यह मोबाइल का कोई नया मॉडल होगा। धीरे धीरे इसका फैशन बढ़ता गया। कई ऐसे लोगों ने स्मार्टफोन खरीद डाला। जिनको इसकी ज़रूरत ही नहीं थी। कुछ ऐसे लोग भी स्मार्ट फोन मार्केट से खरीद लाये जिनको आज तक इसको चलाना नहीं आया। कुछ ऐसे लोगों केे हाथ में भी स्मार्ट फोन देखा जा रहा है। जो इसकी स्मार्टनैस का कभी किसी तरह का इस्तेमाल ही नहीं करते।

    

कुछ ऐसे लोग भी स्मार्ट फोन से लैस हो चुके हैं। जिनको इसे चलाने का अपने कारोबार नौकरी या नोट कमाने की हवस में ज़रा भी टाइम ही नहीं मिलता। सवाल यह है कि जब आपको स्मार्ट फोन इस्तेमाल नहीं करना या इस्तेमाल करना आता नहीं तो उसको सीखते क्यों नहीं? ऐसा लगता है कि जिस तरह से कई लोग अपने पास बेतहाशा पैसा आने से मकान और शादी में बेहिसाब खर्च कर डालते हैं। महंगी कार ख़रीदते हैं। विदेष यात्रा पर जाते हैं। ब्रांडेड कपड़े पहनने लगते हैं। चांदी के बर्तनों में खाना खाने लगते हैं। उसी तरह से कुछ लोग अपनी वाहवाही कराने की नीयत से स्मार्ट फोन भी ले आये हैं। कुछ लोग बड़े साइज़ का मोबाइल लेते हैं तो कुछ सबसे महंगा ब्रांड लाते हैं।

   

स्मार्ट फोन पर खासतौर पर नेट चलाया जाता है। नेट से आप ई मेल फेसबुक ट्विटर ब्लॉग वाट्सएप इंस्टाग्राम हाईक टीवी एफएम ऑडियो वीडियो सामायिक समाचार पोर्टल गूगल सर्च यानी वर्ल्ड वाइड वैब से जुड़ जाते हैं। स्मार्ट फोन जेब में ठूंसे कई लोग आपको ऐसे मिलेंगे जिनको इनमें से कुछ भी नहीं चलाना। उनसे पूछो तो बतायेंगे कि बच्चो ने लाकर दिया है। कुछ कहंेगे कि उनको किसी ने गिफ्ट किया है। वे कभी कभी वाट्सएप पर आने वाली पोस्ट ज़रूर देखना सीख जाते हैं। उसमें भी उनको पता नहीं होता कि वो पोस्ट कौन भेज रहा है। उनको उस पर क्या रेस्पोंस करना चाहिये। उनको कोई अपने ग्रुप में जोड़ लेता है। तो वे फौरन उसको अनजाने लोगों का गैंग समझकर उससे अलग हो जाते हैं।

   

कुछ लोग लंबे समय तक ग्रुप में तो रहते हैं। लेकिन न तो कोई पोस्ट करते हैं और न ही किसी की पोस्ट पर कोई कमैंट करते हैं। कई लोग ग्रुप में आने वाली पोस्ट पढ़ते ही नहीं। कुछ ग्रुप खोलना भी गवाराह नहीं करते। कई लोग अपना नेट लंबे समय तक रिचार्ज ही नहीं कराते। कुछ को रोज़ नये ग्रुप बनाने का इतना भारी शौक होता है कि बिना मकसद बताये आयेदिन नये नये ग्रुप बनाते रहते हैं। अब चूंकि गु्रप का एडमिन ही जब उसका कोई उद्देश्य नहीं बताता तो उसमें उल्टी सीधी पोस्ट आने लगती है। नतीजा कई बार यह होता है कि किसी की ऐसी पोस्ट भी ग्रुप में आ जाती है जिससे पोस्ट करने वाला ही नहीं बल्कि उसको ग्रुप मंे जोड़ने वाला सीधा सादा ग्रुप एडमिन भी कानून के हाथों नप जाता है।

   

कई बार ऐसा भी होता है कि जब तक ग्रुप एडमिन को पता लगता है कि ग्रुप में किसी ने ऐसी कोई विवादित पोस्ट की है जिससे समाज में उसकी भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है। तब तक उसके खिलाफ साइबर एक्ट में रपट दर्ज कर पुलिस उसको जेल भेजने के लिये रवानगी कर चुकी होती है। कई बार तो ऐसे एडमिन को पुलिस के पहुंचने से पहले भावनाओं और धर्म के ठेकेदार ठोक पीटकर मौके पर ही सबक सिखा चुके होते हैं। स्मार्ट फोन के चक्कर में कई लोग स्मार्ट बनने से पहले ही फिसड्डी बनकर रह जाते हैं। हमारा तो मश्वरा यही है कि बिना ज़रूरत फोन लेकर स्मार्ट बनने की न सोचें तो ही बेहतर है। अगर आप वास्तव में स्मार्ट योग्य और समझदार हैं तो स्मार्ट फोन का सोच समझकर इस्तेमाल करें।

Monday 21 November 2016

दंगे कौन कराता है?

*जनता तो दंगे नहीं करती...*

सोशल मीडिया पर आजकल वैसे तो नोटबंदी को लेकर ही अधिकांश पोस्ट चल रही है। लेकिन इस नोटबंदी को ही लेकर एक ऐसी पोस्ट भी वायरल हो रही है जो गहराई से सोचने को मजबूर करती है। इसमें कहा गया है कि आज नोटबंदी को लेकर आम जनता में हाहाकार है। इसके बावजूद एक अच्छी बात यह है कि जनता तमाम परेशानी नुकसान और यहां तक कि जान जाने के बावजूद सब्र से काम ले रही है। कहीं भी अभी तक बैंक में तोड़फोड़ सार्वजनिक सम्पत्ति में आगज़नी या दंगे  की कोई घटना नहीं हुयी है। यह एक सराहनीय और प्रेरणास्पद बात है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे हालात में दंगों का यह संदेह जताया है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि देश में इससे पहले जो इस तरह की हिंसा होती रही है।

    

वह कौन कराता है? क्या यह एक सुनियोजित और पेड साज़िश होती है? और आज करंसी उपलब्ध न होने से भाड़े के लोग खरीदे नहीं जा पा रहे? क्या इसको सियासी लोग उकसाते हैं? कांग्रेस माकपा भाजपा और शिवसेना जैसे दलों के कुछ नेताओं के नाम तो कई बार ऐसी हिंसक घटनाओं की जांच के बाद आरोपी के तौर पर सामने भी आये हैं। हम यह तो नहीं कह सकते कि ऐसा इन पार्टियों के एजेंडे में होता होगा क्योेंकि इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ा है कि जिन दलों और नेताओं से समाज प्यार भाईचारा और अमनचैन की आशा करता है। उनका अपना दामन इस मामले में पूरी तरह साफ नहीं है।

    

इस आरोप और शक को एक और तरह से समझने की कोशिश करते हैं। यूपी में अगले साल के शुरू में  चुनाव होना है। यह चुनाव मोदी सरकार के लिये 2019 का आम चुनाव जीतने के लिये भी शक्ति परीक्षण जैसा बनने जा रहा है। इससे पहले भाजपा बिहार का चुनाव हारकर पहले ही काफी दबाव और भारी सदमें में है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में यूपी में साम्प्रदायिक दंगों की घटनायें मात्र 394 थीं। जो 20012-13 में बढ़कर 1000 को पार कर गयीं। 2013-14 में यह आंकड़ा 2186 पहुंच गया। 2014-15 में 2884 और आज 15-16 में 3708 तक हो चुका है। ज़ाहिर बात है कि चुनाव जैसे जैसे करीब आते जा रहे हैं ।

     

यह आंकड़ा तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। सवाल यह है कि क्या एक छोटा बच्चा भी यह अंदाज़ नहीं लगा सकता कि चुनावी सियासत और दंगों में कहीं न कहीं कुछ तार जुड़े हैं? आप एक बात और नोट कर लो अगर पुराने आंकड़ों के हिसाब से अनुमान लगाया जाये तो चुनाव के बाद चाहे बीजेपी जीते और चाहे सपा बसपा यह आंकड़ा तेजी़ से नीचे आ सकता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद कांग्रेस की राजीव सरकार छप्पर फाड़ बहुमत से जीतकर आई थी। ऐसे ही गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद जो मोदी सरकार तीन उपचुनाव हार कर विधानसभा चुनाव हारने के कगार पर थी। अचानक भारी बहुमत से जीतकर वापस आ गयी थी।

   

हालांकि इन दंगों की जांच करने वाले आयोगों ने इन दंगों का इन चुनावी जीत से कोई रिश्ता नहीं माना था। लेकिन यह बात शक और चर्चा का एक मुद्दा तो उठाती ही है कि हमारे देश में दंगों और चुनावी सियासत का क्या लिंक है? हैरत और दुख की बात यह है कि इन दंगों से कभी भी किसी बड़े आदमी का कोई नुकसान नहीं होता। इन साम्प्रदायिक हिंसक टकराव में केवल आम आदमी ही तबाह और बरबाद होता है। वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान या किसी भी धर्म का। पता नहीं ऐसे नेताओं को इसके बाद भी अपना मसीहा और आक़ा मानने वाले आम धर्मभीरू लोग कब इस सियासी खेल को समझेंगे?

 

मसलहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,

तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

Friday 11 November 2016

Zakaat ka nisaab


🔸QUESTION-

Sister I want to know about the ruling on zakat? What are the rules of zakat on agricultural land and properties? I want to know whole procedure of zakat.

🔹ANSWER-

Zakah is one of the pillars of Islam and it's obligatory for the person to pay upon whom it's due.

🔷 Nisaab for gold as our Prophet (peace be upon him) has informed us (and for currencies made from gold) is 20 mithqaalan , a measure which is equivalent to 85 grams of pure gold (1 mithqaal = 4.25 grams). *It becomes incumbent upon anyone who owns such an amount in any form to pay zakat on it in the amount of 2.5%.*

🔷Nisaab for silver and currencies made from silver is 200 dirhams, which is equivalent to 595 grams of pure silver (1 dirham = 2.975 grams). Likewise, it becomes incumbent upon anyone who owns such an amount in any form to pay
zakat on it in the amount of 2.5%.

🔷 In order for zakaah to be due on money, two conditions must be met:

1 – That it reaches the nisaab (minimum threshold)

2 – That one year has passed since it reaches the nisaab.

If the money is less than the nisaab, then no zakaah is due on it.
If it reaches the nisaab, and one year has passed, i.e. a lunar (hijri) year has passed since the time when it reached the nisaab, then zakaah becomes due at that point.
The nisaab is the equivalent of 85 grams of gold or 595 grams of silver.

🔶Zakah is obligatory on any wealth that reaches the nisab if it is stored for one year

💠Shaykh Ibn Baz said -

Wealth that is being saved to get married, to build a home or for other purposes is subject to zakaah if it reaches the nisaab and one full year has passed, whether it is gold, silver or cash, because of the general meaning of the evidence which indicates that zakaah is obligatory on that which reaches the nisaab and one full year has passed, with no exceptions.
➖ Majmoo’ al-Fataawa (14/126)

💠 Shaykh Ibn Baaz (may Allaah have mercy on him) said:
There is no zakaah on houses if they are for living in… but with regard to land, houses, stores and the like that are prepared for sale, zakaah is due on these according to their value each year when a full year has passed, regardless of whether their value has risen or fallen, if the owner has firmly resolved to sell them.
➖Majmoo’ Fataawa al-Shaykh Ibn Baaz, 14/173

💠 The scholars of the Standing Committee said:

Trade goods are those which have been prepared for sale and purchase of all kinds or property. Zakaah must be paid on them if their value reaches the nisaab of gold and silver, and the owner took possession of them with the intention of trading them. Their value in gold and silver should be estimated at the end of the year, in favour of the poor and needy. The basic principle concerning that is the verse in which Allaah says (interpretation of the meaning):
*“O you who believe! Spend of the good things which you have (legally) earned”*
➖[al-Baqarah 2:267]
i.e., what you have earned by trade; this was the view of Mujaahid and others. Al-Baydaawi and others said: Spend of the good things which you have earned, i.e., the obligatory zakaah.
And Allaah says (interpretation of the meaning):
*“And those in whose wealth there is a recognised right”*
➖[al-Ma’aarij 70:24]

💠 Shaykh Ibn Baaz (may Allaah have mercy on him) said:
Gold is the thing on which zakaah is due; as for precious stones and diamonds, no zakaah is due on them unless they are for trade purposes.
➖Majmoo’ Fataawa wa Maqaalaat Mutanawwi’ah li’l-Shaykh Ibn Baaz, 14/121

🔷Zakah is to be paid on jewellery prepared for use-

💠It was narrated that ‘Aa’ishah (may Allaah be pleased with her), the wife of the Prophet (peace and blessings of Allaah be upon him), said: The Messenger of Allaah (peace and blessings of Allaah be upon him) entered upon me and I was wearing rings of silver on my hand. He said: “What is this, O ‘Aa’ishah?” I said: “I made them to adorn myself for you, O Messenger of Allaah.” He said: “Have you given zakaah on them?” I said: “No.” He said: “The punishment for them in Hell is enough for you.”
➖Narrated by Abu Dawood, 155; classed as saheeh by al-Albaani in
Saheeh Abi Dawood.

🔶 Ruling on Zakah on agricultural land
From `Abdul-`Aziz ibn `Abdullah ibn Baz--

If the land that you mentioned is prepared for sale, Zakah (obligatory charity) is due on its value every Hawl (one lunar year calculated from the time a property reaches the minimum amount upon which Zakah is due). If it is prepared for cultivation, Zakah is due on the produce grown on it that is liable to Zakah, such as wheat, barley, millet, corn, etc. There is also Zakah on the produce of the date-palm trees or grape vines, if the grain or fruit reaches the Nisab (the minimum amount on which Zakah is due). However, there is no Zakah on produce that does not reach the Nisab.

If you bought it with the intention of keeping it, not re-selling it, there is no Zakah due on it until the buyer intends to use it for trade. As such, the year with regard to trade goods starts from the time of the intention, for it is reported on the authority of Samurah ibn Jundub (may Allah be pleased with him) that he said: We used to pay the sadaqah (Zakah) on what we prepared for trade.

ब्लैक मनी बनना रोको.....

भली लगे या बुरी

*ब्लैकमनी: ऑपरेशन बनाम जनरेशन!*

 

सरकार ने 500 और 1000 के नोट अचानक बंद कर दिये। इसमें कोई दो राय नहीं यह ब्लैकमनी के खिलाफ एक बड़ा और सराहनीय ही नहीं साहसी कदम है। साहसी हम इसलिये कह रहे हैं क्योंकि जिस मोदी सरकार पर विपक्ष बार बार व्यापारियों और उद्योगपतियों की सरकार कहकर हमले करता हो। उस भाजपा सरकार द्वारा ऐसा बड़ा क्रांतिकारी फैसला करना वास्तव में बहुत बड़ी बात है। इसमें कुछ सच्चाई भी है कि भाजपा के वोटर और सपोर्टर में एक बड़ा हिस्सा उस वर्ग का रहा है जिसपर कालाधन अधिक होने का अनुमान लगाया जाता है। सवाल यह है कि सरकार ने एक तरह से डायबिटीज़ वाले को इंसुलिन का इंजेक्शन तो लगा दिया है।

  

लेकिन शुगर का मरीज़ इसके बाद भी अगर शक्कर बराबर खाता रहेगा। तो कालेधन के रोग का इलाज स्थायी रूप से नहीं हो सकेगा? इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी सरकार की यह सब कवायद बेकार जायेगी। इसका नतीजा आने में कुछ समय लग सकता है। लेकिन यह कार्यवाही बहुत सोच समझकर की गयी है। इसका देश को आगे चलकर भारी लाभ हो सकता है। इसमें कोई दो राय या अगर मगर हो ही नहीं सकती। जहां तक सरकार का इस बड़ी योजना को लागू करने का मामला है तो उसमें कुछ कोताही या कमियां हो सकती हैं। जैसे सरकार ने एक दिन बैंक और दो दिन एटीएम बंद कर बाज़ार में एक तरह से कर्फ्यू लगा दिया है।

   

साथ ही जिन अस्पताल रेलवे हवाई अड्डे और पेट्रोल पंपों पर उसने बड़े नोट दो दिन तक चलने का दावा किया था। व्यावहारिकता में वह सब औपचारिकता बन कर रह गया। किसी भी प्राईवेट हॉस्पिटल और मेडिकल स्टोर ने यह कहकर 500 और 1000 का नोट नहीं लिया कि यह आदेश सरकार ने सरकारी अस्पतालों और उनमें बने अपने मेडिकल स्टोर के लिये जारी किये हैं। रेलवे के कई स्टेशनों पर यात्रियों को ये नोट लेने से सीध्ेा मना किया गया। यहां तक कि पेट्रोल पंपों ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि तेल कई दिन से आया ही नहीं है। अगर आप चाहें तो सौ या पचास रू. का तेल मिल सकता है। वह भी इस शर्त पर कि आप सौ या पचास का नोट ही तेल के पेमेंट में देने को तैयार हों।

   

यह सब जानते ही हैं कि हमारे देश में नियम कानून न मानने वाले की शिकायत करने की जनता में परंपरा नहीं है। उसको शिकायत करने से दो बातें रोकती हैं। एक उसका पैसा और समय लगेगा। दूसरा जिसकी शिकायत की जा रही है। उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं। वजह जिससे शिकायत की जा रही है। वह आरोपी का ही पक्ष लेगा। सब जानते हैं कि अधिकारी और सरकार के मंत्री ऐसे बड़े लोगों से चुनाव में मोटा चंदा और गाहे बगाहे या मासिक तौर पर बंधी बंधाई मोटी रकम फीलगुड करने को लेते हैं। हम बात कर रहे थे कालेधन के ऑप्रेशन बनाम जनरेशन की। हमारा कहना है कि जब तक कालेधन के बनने के रास्ते एक एक कर बंद नहीं किये जायेंगे तब तक यह समस्या कुछ समय के लिये पेनकिलर का काम तो करेगी।

   

लेकिन जिस तरह से हमारे देश में 80 फीसदी से अधिक लेनदेन नकद और फर्जी बिलों से होता है। उसको रोकने के लिये जीएसटी या नेट बैंकिंग अनिवार्य करने जैसे विकल्प भविष्य में अपनाने होंगे। इसके लिये दो मिसाल आप समझ सकते हैं। जब टेलिफोन एक्सचेंज मैनुअल बुकिंग करके कॉल लगाते थे तो ऑप्रेटर रिश्वत लेते थे। अब सबके पास आईएसडी करने को भी मोबाइल है। ऐसे ही रेलवे में जब मैनुअली बर्थ रिज़र्वेशन होती थी तो जमकर सीटों की ब्लैक होती थी। लेकिन जब से यह सिस्टम नेट द्वारा ऑप्रट होने लगा है। तब से कोई चाहकर रिज़र्वेशन की उपलब्ध्ता को छिपा नहीं पाता। लोग घर बैठे अपने आप नेट से पेमैंट कर अपना रेल टिकट छाप लेते हैं। आईडी साथ रखने की शर्त से इसमें जो थोड़ी बहुत गड़बड़ी हो रही थी।

   

उस पर भी लगाम लग गयी है।  ऐसे ही सरकारी मशीनरी को रिश्वत लेने से रोकने के लिये अधिकांश जनता से जुड़े काम टाइमबौंड और नेट पर पारदर्शिता से किये जाने चाहिये। जिससे ब्लैकमनी को श्रोत पर ही रोका जा सके। इसी तरह से व्यापारी उद्योगपति और नेताओें आदि के लिये चुनावी चंदा चैक से लेने का कानून बनाकर कालेधन को काफी हद तक जन्म लेने से पहले ही गर्भ में उसकी भू्रण हत्या की जा सकती है।

 

इब्तिदा ए इश्क़ है रोता है क्या

आगे आगे देखिये होता है क्या।