Saturday 22 August 2015

समाज कब आज़ाद होगा?

देश तो 68 साल से आज़ाद है समाज कब आज़ाद होगा ?
      -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 हम सब पूंजी और शक्ति के गु़लाम बने हुए हैं!
        आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस को लगभग आधी सदी तक जनता ने केंद्र और अधिकांश राज्यों में लगातार सत्ता देकर यह आशा की थी कि वह भारत को एक ऐसा देश बनायेगी जिसमें संविधान में लिखी समानता शिक्षा चिकित्सा रोज़गार सम्मान गरिमा निष्पक्षता और विकास के साथ सबको न्याय मिलेगा लेकिन धीरे धीरे कांग्रेस ने उस कहावत को चरितार्थ किया कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट। इसके बाद जब 1975 में पूर्व पीएम श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने और तानाशाही थोपने को देश में आपातकाल लगाया तो एक तरह से कांग्रेस के ताबूत में खुद ही आखि़री कील ठोंक दी। इसके बाद कांग्रेस का जिन राज्यों से सफाया होता गया वहां वह दोबारा सत्ता मेें नहीं लौटी।
       हालांकि केंद्र में जनता पार्टी या जनता दल की खिचड़ी सरकार बार बार बनने से वहां कोई उचित विकल्प न उपलब्ध न होने से कांग्रेस तमाम भ्र्र्र्र्रष्टाचार और मनमानी के आरोपों के बाद भी बार बार सत्ता में वापसी करती रही लेकिन आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है इस कहावत को लागू करते हुए लोगों ने गुजरात के सीएम मोदी को विकास का पर्याय मानते हुए बड़ी बड़ी उम्मीदों के साथ 20 साल बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत की सत्ता सौंप दी। अभी एक साल ही पूरा हुआ है कि मोदी से भी जनता का मोह भंग होने लगा है। हालांकि इसका एक लिटमस टेस्ट दिल्ली राज्य के छोटे से चुनाव में हो चुका है जहां 2014 में भाजपा ने सातों लोकसभा सीट जीतीं थीं लेकिन एक साल बाद ही बीजेपी की मोदी सरकार से लोगों का ऐसा मोहभंग हुआ कि वहां विधानसभा की 70 मंे से 67 सीट नई बनी आम आदमी पार्टी लेने में कामयाब रही जबकि लोगों को बड़े बड़े सपने दिखाने वाली और मंत्रियों व सांसदों के साथ संघ परिवार की पूरी फौज चुनाव प्रचार में पानी की तरह पैसा खर्च करने वाली भाजपा मात्र 3 सीट ही जीत सकी।
    इतना ही नहीं उसकी सीएम पद की उम्मीदवार किरण बेदी भी चुनाव हार गयीं। इस हार से मोदी और उनकी भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा और वे आज भी आप की केजरीवाल सरकार को तरह तरह से अपनी सत्ता और पुलिस के बल पर परेशान करने में लगी है। मोदी भूल रहे हैं कि इसका भी उल्टा असर होने जा रहा है। ऐसे ही इस साल के अंत में बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को लेकर मोदी ने अपनी पहली ही बिहार रैली में वहां के लोकप्रिय और विकास का प्रतीक बन चुके सीएम नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमला करके उनके डीएनए में ही गड़बड़ बताकर राजनीति के दिग्गज नीतीश और लालू यादव को बिहार की अस्मिता से इस मुद्दे को जोड़ने का वैसा ही अवसर दे दिया है जैसा खुद मोदी गुजरात में अपने उूपर लगने वाले आरोपों को पूरे गुजरात का अपमान बताया करते थे।
    भाजपा बिहार में सीएम पद का अपना प्रत्याशी घोषित न करके मोदी को आगे कर वही गल्ती दोहरा रही है जो वह दिल्ली में अपने परंपरागत और पुराने राज्य नेतृत्व को किनारे रखकर एक बार कर चुकी है। अब तक भाजपा दिल्ली में आप की बंपर जीत और अपनी शर्मनाक हार को अपवाद बताकर जनता को गुमराह करने में किसी हद तक कामयाब रही है लेकिन सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज चौहान पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने के बावजूद मोदी ने चुप्पी साध रखी है उससे ताज़ा हुए अमेरिकी एजंसी के एक चैनल सर्वे में उनकी साख तेजी से गिर रही है यह अलग बात है कि केंद्र में कोई मज़बूत विकल्प और उनकी टक्कर का नेता विपक्ष मौजूद न होने से चुनाव होने पर अभी भाजपा की हार का ख़तरा सामने नहीं दिख रहा है लेकिन पांच साल तक यह सिलसिला अगर यूं ही बढ़ता रहा तो फिर केजरीवाल की तरह कोई नौसीखिया अगर मोदी के नेतृत्व को चुनौती देने लगा तो उनके लिये मुसीबत खड़ी हो सकती है।
     मोदी अपने बड़े वादों में से एक भी पूरा नहीं कर पाये हैं उल्टे भूमि अधिग्रहण कानून से किसान विरोधी और लेबर एक्ट रिफॉर्म बिल से मज़दूर विरोधी उनकी छवि बन चुकी है। गैस सब्सिडी खातों में और हर कन्या स्कूल में शौचालय बनवा देने का उनका काम कोई बड़ बदलाव नहीं माना जा रहा है। बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार अपनी जगह मौजूद है जबकि महंगाई इंटरनेशनल मार्केट में तेल की कीमते गिरने से किसी सीमा तक काबू में है जिससे इसका श्रेय भी उनको नहीं दिया जा सकता। साम्प्रदायिकता और पक्षपात की एक के बाद एक घटनायें सामने आने से उनका न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं नारा भी मज़ाक बनकर रह गया है। हम बात कर रहे थे आज़ादी की।
    ऐसा क्या हुआ कि 15 अगस्त 1947 को जो सपना इस देश के लोगों ने मिलकर देखा था कि जब गोरे अंग्रेज़ इस देश से चले जायेंगे तो हम सब मिलकर एक आदर्श भारत बनायेंगे। उसको बिखरने में कुछ ही साल लगे। सच यह है कि वही कहावत चल निकली कि भाग रे गुलाम फौज आई और गुलाम कहता है कि मैं भाग कर क्या करूंगा मैं तो अब भी गुलाम और तब भी गुलाम। शायद ऐसा ही कुछ हमारे देश के अधिकांश लोगों के साथ हुआ है। खुद सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि देश के 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा कर रहे हैं। आम आदमी की मौत कुत्ते बिल्ली की तरह हो जाती है। पूंजीवाद और निजिकरण के दौर में इलाज से लेकर पढ़ाई तक आम आदमी और खास आदमी के दो वर्ग बन गये हैं। चंद अमीर और ताकतवर लोगों का इंडिया आगे बढ़ रहा है लेकिन अधिकांश गरीब और कमज़ोर लोग दूसरे दर्जे के नागरिक सा जीवन जी रहे हैं।
    सांसद विधायक मंत्री गवर्नर जज और बड़े अधिकारी जुर्म करके भी अपनी वीवीआईपी हैसियत के बल पर अकसर बच जाते हैं जबकि आम आदमी पैसा और पहंुच न होने से कई बार मात्र झूठे आरोप लगने से जेल चला जाता है और उसकी ज़मानत तक सालों तक नहीं होती और ज़मानत हो भी जाये तो ज़मानती तक वो देने में नाकाम रहता है। हम सरकार और सत्ताधरियों को तो बेईमान और धोखेबाज़ बताते हैं लेकिन यह कड़वा सच नहीं कबूल करते कि हमारा देश तो 1947 में आज़ाद हो गया था लेकिन हमारा समाज आज भी जाति धर्म पैसा शक्ति साम्प्रदायिकता अंधविश्वास बेईमानी माफिया धोखाधड़ी मिलावट लूट चोरी डकैती भ्र्र्र्र्र्रष्टाचार बलात्कार कालाधन महंगाई कट्टरवाद आतंकवाद माओवाद प्रदूषण अशिक्षा भूख लालच नाकारापन और तमाम सामाजिक बुराइयों का गुलाम बना हुआ है।
     जब तक समाज नहीं सुधरेगा तब तक सरकार चलाने वाले भी नहीं सुधर सकते क्योंकि हमारे जनप्रतिनिधि भी इसी समाज से चुनकर जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि आम आदमी कल गोरे अंग्रेज़ो का गुलाम था और आज काले अंग्रेज़ो का गुलाम बन गया है।  ऐसा लगता है कि एक और स्वतंत्रता संग्राम की ज़रूरत है। जब तक राजनीतिक के साथ सामाजिक, आर्थिक और मानवीय बराबरी की आज़ादी नहीं मिलेगी तब तक देश के आज़ाद या गुलाम होने के कोई मायने आम आदमी के लिये नहीं माने जा सकते। दुष्यंत ने ठीक ही कहा है-
0 कहां तो तय था चराग़ा हर एक घर के लिये,
  कहां चराग़ मयस्सर नहीं यहां शहर के लिये।।

मेमन आतंकी तो था ही....

बेशक मुस्लिमों का ^^हीरो** कोई आतंकवादी नहीं हो सकता!
      -इक़बाल हिंदुस्तानी
0लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ऐसे हालात बनाये किसने \
        याकूब मेमन 1993 के मुंबई विस्फोटों का आरोपी था। उस पर बाकायदा मुकदमा चला। उसको अपने बचाव का कोर्ट ने पूरा मौका दिया। उसको आतंकवादी साबित होने पर टाडा कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई। मामला हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के बाद फांसी माफी के लिये गवर्नर से लेकर प्रेसीडेंट तक गया लेकिन उसकी फांसी बरकरार रही। इस दौरान देश में एक वर्ग में पहली बार एक आतंकवादी के पक्ष में सहानुभूति की लहर भी चली। यह लहर तब मज़बूत हो गयी जबकि इसके पक्ष में कई  हिंदू पत्रकार पूर्व जज वकील और अभिनेताओं से लेकर बड़े बुध्दिजीवी भी शामिल हो गये।
       हैरत की बात यह है कि याकूब की फांसी को उम्रकैद में बदलने की मांग को लेकर जिन 40 लोगों ने प्रेसीडेंट को दया याचिका भेजी उनमें भाजपा सांसद और अभिनेता शत्रुघन सिंहा, राज्यसभा सदस्य और जाने माने वकील राम जेठमलानी, मणिशंकर अय्यर, सीताराम येचुरी, डी राजा, प्रकाश करांत, केटीएस तुलसी, एच के दुआ, टी शिवा, दीपांकर भट्टाचार्य, महेश भट्ट, एम के रैना, तुषार गांधी, नसीररूद्दीन शाह, माजिद मेमन साहित आठ रिटायर्ड जज भी शामिल थे। हालांकि इनमें से कई ने बाद में यह सफाई भी दी कि वे केवल याकूब की फांसी नहीं बल्कि देश की सभी फांसी की सज़ा को उम्रकैद में बदलने की मांग मानवता के आधार पर कर रहे थे लेकिन देश और मुस्लिमों में जो संदेश जाना था वो जा चुका था।
     इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के डिप्टी रजिस्ट्रार अनूप सुरेन्द्रनाथ के याकूब के मामले को लेकर विरोध में दिये गये इस्तीफे की चर्चा और सॉलिसिटर जनरल टी अंध्यार्जुन व सर्वोच्च न्यायालय की वकील इंदिरा जय सिंह सहित कई ब्लॉगर और पत्रकरों ने तो कोर्ट के फैसले पर ही उंगली उठाते हुए इसे सरकार द्वारा एक ऐसे आरोपी की ‘कानूनी हत्या’ तक करार दिया जिसने भारत सरकार उसकी जांच एजंसियों और न्याय व्यवस्था पर न केवल भरोसा करते हुए आत्म समर्पण किया बल्कि पाकिस्तान, उसकी खुफिया एजंसी आईएसआई और विस्फोट के मुख्य आरोपी दाउूद इब्राहीम और अपने सगे भाई टाइगर मेमन के खिलाफ पुख़्ता सबूत उपलब्ध कराये। इस तथ्य की पुष्टि पूर्व रॉ अधिकारी रमन के दस्तावेजों से भी होने का दावा किया गया लेकिन यह भी बात सामने आई कि इस बारे में कभी भी याकूब के वकील ने कोर्ट के सामने कोई ऐसा दावा नहीं किया।
     यह आंकड़ा भी बार बार चर्चा में आया कि पिछले एक दशक में विभिन्न अदालतों द्वारा दी गयीं कुल 1304 मौत की सज़ा में से केवल 4 लोगों को ही फांसी की सज़ा बहाल रखी गयीं जिनमें पश्चिमी बंगाल के एक अपराधी धनंजय के अलावा बाकी तीन लोग अजमल कसाब, अफ़ज़ल गुरू और याकूब मेमन मुस्लिम थे जबकि सच यह भी है कि मुंबई बम विस्फोटों के मामले में जिन 11 लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गयी थीं उनमें से भी 10 की सज़ा कोर्ट ने कम कर दी थी। याकूब की फांसी को लेकर यह कहा जा सकता है कि कोर्ट ने आतंकवाद के मामलों को लेकर सख़्त रूख़ अपनाया है लेकिन यहां मुस्लिमों का नादान दोस्त बनकर साम्प्रदायिकता की खाई को और चौड़ा बना रहे एमआईएम के देश में उभरते नये फायरब्रांड नेता औवेसी ने सियासी दांव चलकर यह सवाल भी उठा दिया है कि क्या माओवादियों के सामूहिक हत्या और देश के खिलाफ जंग छेड़ने के मामले आतंकवाद से कम ख़तरनाक हैं?
     क्या बाबरी मस्जिद को सुप्रीम कोर्ट में बचाने का हलफनामा देकर एक साज़िश के तहत शहीद करा देना आतंकवाद से कम वीभत्स था? क्योंकि उस विवादित ध्वंस से देश में जो दंगे हुए उसमें भी हजारों लोग नहीं मरे थे क्या? मुंबई में शिवसेना और गुजरात में जिन लोगों पर दंगों के आरोप थे वे ज़मानत पर छोड़ दिये गये या उनपर कभी केस दर्ज ही नहीं किया गया? सिखों के हत्याकांड में किसी को फांसी क्यों नहीं दी गयी? एक्स पीएम और एक्स सीएम के हत्यारों को क्यों नहीं दी गयी फांसी? ईसाई धर्मगुरू सेंट स्टैंस और उनके दो मासूम बेटों के हत्यारे दारा सिंह को क्यों नहीं दी गयी फांसी? हालांकि कोर्ट ने वही फैसला दिया जो सरकार और जांच एजेंसियों ने उसके सामने सबूत और गवाह पेश किये लेकिन जहां कोर्ट की निष्पक्षता और ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता वहीं हमारी कोई भी सरकार और जांच एजेंसियां कितनी ईमानदार और निष्पक्ष हैं यह सच किसी से छिपा नहीं है।
    जो कुछ भी हुआ उसमें यह बात भुला दी गयी कि जब पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी की सज़ा दी गयी तब मुस्लिम समाज ने न केवल इसका समर्थन किया बल्कि उसकी लाश को हिंदुस्तान के कब्रिस्तान में जगह देने और उसकी नमाज ए जनाज़ा पढ़ाने से भी इनकार कर दिया था। जब संसद पर हमले के आरोपी अफ़ज़ल गुरू को चोरी छिपे मौत की सज़ा दी गयी तब भी औपचारिकता और कानून व्यवस्था की दुहाई देकर तत्कालीन कश्मीर सरकार ने एक दो बार सवाल ज़रूर उठाये लेकिन मुस्लिम समाज से उसके पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठी आखि़र ऐसा क्योें? औवेसी जैसे कट्टरपंथी भड़काउू नेता की ओछी सियासत को इस मुद्दे पर अगर तवज्जे न भी दें तो उनके इन आरोपों पर तो सोचना ही पड़ेगा कि इस बार मुस्लिम समाज से ही नहीं खुद हिंदू और अन्य गैर मुस्लिमों के भी बड़े वर्ग ने क्यों याकूब की सज़ा पर दया की अपील की?
     यह तो चिंता की बात है ही कि देश का एक अल्पसंख्यक वर्ग यह महसूस कर रहा है कि उसके मामलों में न्याय नहीं हो रहा क्योंकि समझौता एक्सप्रैस विस्फोट, अजमेर दरगाह विस्फोट और मालेगांव बम ब्लास्ट जांच में सरकार का नरम रूख उसके आरोपी हिंदू होने के कारण तथा यूपी के हाशिमपुरा और मलियाना में उनका कत्लेआम करने वाले पीएसी वाले बरी हो चुके हैं, और प्रदेशों के अधिकांश दंगाई खुले घूम रहे हैं और सिर्फ मुंबई विस्फोटों के मामले में चुनचुनकर सज़ा दी जा रही हैं। यह अपने आप में रिकार्ड है कि इस मामले में कुल 129 में से 100 आरोपियों को सज़ा हो चुकी है जबकि अन्य हत्याकांडों मेें कनविक्शन रेट काफी कम पाया गया है।
    यह ठीक है कि कोई आतंकवादी मुस्लिमों ही नहीं किसी भी वर्ग का ‘हीरो’ नहीें बनाया जाना चाहिये चाहे वो याकूब हो दाउूद हो या फिर ओसामा या लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण लेकिन यह भी हकीकत है कि उन हालात को बदला जाना चाहिये जिन में किसी वर्ग विशेष को ऐसा आभास हो कि ‘न्याय सबको, तुष्टिकरण किसी का नहीं’ का दावा करने वाले बिना संविधान में संशोधन किये व्यवहारिक रूप से देश को हिंदू राष्ट्र के रास्ते पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।   
0 हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
  वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता ।।

Thursday 13 August 2015

MUHAJIR-RANA

मुहाजिरनामा , मुनव्वर राना  द्वारा 1947 के भारत पाकिस्तान बंटवारे के मुहाजिरों पर लिखी गयी एक बहुत ही सशक्त ग़ज़ल हैं। यह एक बहुत लम्बी ग़ज़ल हैं जिसमे कि 504 शेर हैं। अपनी जमीन, अपना घर, अपने लोगो को छोड़ने का गम क्या होता हैं इसको इस ग़ज़ल में बड़ी शिद्द्त से व्यक्त किया गया हैं। 
आप सभी के लिए इस ग़ज़ल के 50 शेर पेश-ए-ख़िदमत :

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,

तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,

कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,

पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,

वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,

किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से, 

निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,

वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, 

हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,

हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,

अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,

दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,

अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,

इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,

किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं, 

के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं । 

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी, 

के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं । 

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,

उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं । 


अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,

के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं । 


भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,

वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं । 


ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,

के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं । 


हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,

के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं । 

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,

सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं । 

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,

हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं । 

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,

मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं । 

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,

मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं । 

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,

के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं । 

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,

जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं । 

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,

मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं । 

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,

हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं । 

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था, 

जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं । 

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब, 

इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं । 

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको, 

जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं । 

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला, 

वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं। 

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,

हमारे आंसुओ ने राज खोला छोड़ आए हैं । 

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था, 

मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,

वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,

थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,

चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं । 

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,

तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं । 

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,

बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं । 

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,

किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,

वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं । 

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है 

हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं । 

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,

वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं । 

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है , 

किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

 दुआ के फूल जहाँ पंडित जी तकसीम करते थे
वो मंदिर छोड़ आये हैं वो शिवाला छोड़ आये हैं

हमीं ग़ालिब से नादीम है हमीं तुलसी से शर्मिंदा

हमींने मीरको छोडा है मीरा छोड आए हैं

अगर लिखने पे आ जायें तो सियाही ख़त्म हो जाये

कि तेरे पास आयें है तो क्या-क्या छोड आये हैं

ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर “राना”

कि हम सरहद से पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है।