Tuesday 15 October 2019

धर्म बनाम मानवता

सारे यहूदियों से नफ़रत क्यों ?

0सईद मौलाई ईरान के जुडोका हैं। उनको जान बचाने के लिये ईरान से भागकर जर्मनी में शरण लेनी पड़ी है। उनका कसूर यह है कि उन्होंने इस्राईल के यहूदी जुडोका के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैच खेलने का फ़ैसला करने का दुस्साहस किया था। ईरान सरकार चाहती थी कि मौलाई अपने प्रतिद्वन्द्वी के यहूदी होने की वजह से पहले की तरह ईरानी परंपरा पर चलते हुए मैच खेलने से दो टूक मना करें। मौलाई का सवाल है कि खेल से धर्म का क्या मतलब?दूसरे उनका मानना है कि सारे यहूदियों से नफ़रत करना मानवता के खिलाफ़ है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  दरअसल सईद मौलाई ईरान के मात्र एक खिलाड़ी नहीं बल्कि एक महान विचार के पैरोकार हैं। उनको पता था कि आज तक उनके देश की परंपरा रही है कि अगर उनका किसी विश्व स्तरीय मैच में मुक़ाबला इस्राईली यानी किसी यहूदी से तय हो जाये तो उनको उस मैच का बहिष्कार करना है। लेकिन मौलाई ने अपने देश की घृणित और अमानवीय परंपरा से उल्टा कदम उठाकर ईरान सरकार उसके कट्टरपंथियों और समाज के संकीर्ण तबके को सकते में डाल दिया। हालांकि मौलाई अपने देश के उस इतिहास से भी परिचित रहे होेंगे जिसमें अब तक ऐसा दुस्साहस किसी अन्य खिलाड़ी ने कभी नहीं दिखाया है।

   जानकार बताते हैं कि 2004 में ईरानी अर्श मीर ने इस्राईल के जुडोका एहुद बक्स से खेलने से साफ मना कर दिया था। एहुद के बिना खेले मैच हार जाने के इस कट्टर फैसले को जहां ईरान सरकार और शियाओं के एक वर्ग ने हाथो हाथ लिया वहीं पूरी दुनिया में खेल के बीच मज़हब के आधार पर इस तरह के घिनौने कदम की तीखी निंदा भी हुयी । इससे पहले 2016 में ईरान की इस घृणित परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मिस्र के इस्लाम अल शाहबी ने इस्राईली खिलाड़ी के साथ मैच तो खेला लेकिन मैच हारकर खेल की परंपरा के के अनुसार इस्राईल के खिलाड़ी से हाथ मिलाने से मना कर दिया।

    इस घटना की वहां मौजूद दर्शकों के साथ पूरी दुनिया में मैच देख रहे करोड़ों लोगों ने कड़ी निंदा की थी। लेकिन शाहबी अपनी इस घटिया हरकत से मिस्र के एक कट्टरपंथी वर्ग में हीरो बन गया। सवाल यह है कि आज के वैश्वीकरण उदारीकरण और प्रगतिशील दौर में क्या किसी देश या कौम को यह शोभा देता है कि वह पूरे यहूदी समुदाय या किसी देश का बहिष्कार करे?क्या किसी से उसके धर्म के कारण नफरत और दुश्मनी की जानी चाहियेक्या यह सभ्य और सुसंस्कृत समाज की पहचान मानी जा सकती है?

    अगर हां तो भारत में उन कट्टर हिंदुओं को भी सारे मुसलमानों से नफ़रत करने का आधार मिल जायेगा जो यह अमानवीय और पूर्वाग्रहग्रस्त सोच रखते हैं कि सारे मुसलमान खराब होते हैंऐसे ही उन यूरूपीय गोरों को भी अपनी श्रेष्ठता साबित करने का अवसर मिल जायेगा जिनका आज भी यह मानना है कि सारे काले घृणित और शासित होने के लिये पैदा हुए हैं। इसके बाद हमारे देश में ब्रहम्णों के एक वर्ग को यह कहने का भी मौका मिलेगा कि हिंदू समाज में उनकी जााति ही सर्वश्रेष्ठ होती है।

    उनको ही बड़े पदों कोर्ट और शासन में रहने का जन्मजात अधिकार है। अमीरों के भी एक बड़े वर्ग को यह गुमान है कि गरीब के अधिकार उनके बराबर नहीं होने चाहिये। ऐसे ही शिक्षित और अशिक्षित और पुरूष और महिला के बीच असमानता मानने वाले लोग अपने पक्षपात अन्याय और शोषण को सही ठहराने लगेंगें। हमारा कहना है कि ईरान के शिया मुसलमान हों या पाकिस्तान के कट्टरपंथी सुन्नी अफगानिस्तान के तालिबान चीन के हिंसक कम्युनिस्ट आयरिश ईसाई मियांमार के बौध और भारत के तेज़ी से बढ़ते हिंदू कट्टरपंथी व कट्टर सोच के अधिकांश मुसलमान उन सबको अपनी पिछड़ी दकियानूसी संकीर्ण सोच बदलकर सबको साथ लेकर चलना चाहिये।                                                   

0 मज़हब को लौटा ले और उसकी जगह दे दे,

  तहज़ीब सलीके़ की और इंसान क़रीने के ।।                    

3 तलाक़ और योगी

मौलाना अपनी ज़िम्मेदारी योगी पर क्यों ?

0पहले तीन तलाक़ पीड़ित महिलाओं पर मौलाना लंबे समय तक खामोश रहे। इसके बाद जब सरकार ने कोर्ट के आदेश पर इसके खिलाफ कानून बनाया तो मोदी सरकार को कोसा गया। अब यूपी की योगी सरकार ने तीन तलाक पीड़ितों के लिये 6000 आर्थिक मदद,मकान और सरकारी नौकरी का ऐलान किया तो मौलाना फिर नुक्ताचीनी कर रहे हैं। जबकि यह मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदारी थी।          

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  यूपी की योगी सरकार ने तीन तलाक़ पीड़ित महिलाओं के लिये जो भी घोषणायें की हैं। वे कुछ ना होने से बेहतर और स्वागत योग्य हैं। योगी सरकार के इन क़दमों पर सवाल उठाते हुए कुछ मुस्लिम उलेमा ने इस मदद को पीड़ित महिलाओं के साथ मज़ाक बताया है। सच यह है कि अगर कोई मुस्लिम पति अपनी पत्नी को गलत तरीके से तलाक दे रहा है तो यह मुस्लिम समाज का अंदरूनी मसला हैैै। लेकिन उलेमा इस मसले का आज तक कोई हल तलाश नहीं कर पाये। बल्कि उल्टे पति की गल्ती के लिये पत्नी को हलाला की ज़लालत से गुज़रने का शॉर्ट कट भी इनमें से ही कुछ मौलाना की खोज रहा है।

    हालांकि उलेमा इस तरह के किसी हल के इस्लामी ना होने का दावा भी करते रहे हैं। हालांकि व्यवहारिक सच यही है। इसके बाद सवाल यह उठता रहा है कि जिस महिला को उसके पति ने चाहे एक साथ तीन तलाक़ यानी तलाक ए बिद्अत या कुरान पाक में बताये गये तरीके से तीन माह में तलाक दे दिया हो। उसके गुज़ारे का इंतज़ाम कैसे और कौन करेगा?संविधान के हिसाब से किसी भी महिला का पति बिना कोर्ट की अनुमति के उसको तलाक दे ही नहीं सकता। अगर वह ऐसा करता है तो उसको उस महिला का शादी या मृत्यु होने तक खर्चा देना होगा।

   1985 में शाहबानों के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही फैसला दिया था। लेकिन कांग्रेस की राजीव सरकार ने मुस्लिम वोट बैंक के लालच में इस फैसले को संसद में पलट दिया। हालांकि इसके बाद भी कोर्ट में आईपीसी की धारा 125 के तहत जो भी मुस्लिम महिला अपने पति द्वारा तलाक देने पर गुज़ारा भत्ता मांगने गयी कोर्ट उसको गुज़ारा भत्ता देने का आदेश लगातार देता रहा है। लेकिन राजीव सरकार ने ऐसी तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिये सबसे बड़ी अदालत का फैसला पलटकर जो झूठमूठ का दिखावटी कानून बनाया था।

   उस पर आजतक कोई अमल होता नज़र नहीं आया है। उस कानून के अनुसार तलाक दी गयी मुस्लिम महिला को उसका पति और उसका मूल परिवार अगर खर्चा नहीं देता है तो उसको वक्फ बोर्ड गुजारे के लिये पेंशन देगा। कई बार इस बारे में बोर्ड से सूचना के अधिकार में जानकारी मांगी गयी लेकिन उसने कोई आंकड़ा जारी नहीं किया। इसका मतलब यह माना जा सकता है कि उसने किसी तलाकशुदा महिला को या तो कांग्रेस सरकार से कानून अपने हिसाब से जबरन बनवाकर आज तक कोई पेंशन दी ही नहीं है।

   या फिर जिनको नामचारे की सहायता दी भी गयी हो वह संख्या इतनी कम है कि उसको सूचना देते हुए शर्म और डर लग रहा है कि कहीं यह जानकारी सार्वजनिक होने से एक बार फिर से यह मसला उनके लिये मुसीबत न बन जाये। बहरहाल सच जो भी हो लेकिन यह आसानी से पता लग रहा है कि मौलानाओं ने कांग्रेस सरकार पर बेजा दबाव डालकर एक ऐसा कानून बनवा लिया था। जिस पर उनकी मुहिम पहले से ही तलाकशुदा महिला के पक्ष में ना होकर उसके उत्पीड़क अन्यायी और ज़ालिम पति के पक्ष में अधिक नज़र आती है।

   सवाल यह है कि जिस महिला का पिता भाई या मां ज़िंदा ना रही हो और उसका कोई करीब का रिश्तेदार भी ना हो या फिर अपने खर्च के लिये भी सक्षम ना हो और उसका पति मनमाने तरीके से उसको इंस्टैंट तीन तलाक देकर अपना पल्ला उससे और बच्चो से झाड़ लेता हैउसको गुज़ारा भत्ता कौन देगाऐसे में योगी सरकार अगर एक अच्छी पहल करते हुए ऐसी पीड़ित महिलाओं को 500 रू. माह ही सहायता दे रही है तो उसका स्वागत ना करके विरोध के लिये विरोध करने का किसी मौलाना को क्या हक़ बनता हैमौलाना को पता होना चाहिये कि जिसका कोई सहारा ना हो उसके लिये 500रू. भी कम नहीं होते।

   मिसाल के तौर पर आज भी सरकार की वृध्दा अवस्था पेंशन और किसान सम्मान योजना में 500 रू. या उससे कम धन राशि मासिक सहायता के तौर पर दी जा रही है। इसके साथ ही सरकार ने बेघर तीन तलाक पीड़ितों को कानूनी सहायता मकान और सरकारी नौकरी का भी आश्वासन दिया है। दरअसल यह फर्ज तो सही मायने में मुस्लिम समाज वक्फ बोर्ड और उलेमाओं का था। जो आयेदिन नई मस्जिदों या उनको भव्य बनाने मदरसे बनाने और तरह तरह के मज़हबी आयोजनों पर करोड़ों अरबों रू. मुसलमानों से चंदा कर अंजाम तो दे रहे हैं।

  लेकिन तलाकशुदा महिलाआंे बेवाओं और अनाथ व गरीब लाचार मुसलमानों के लिये मासिक सहायता की कोई योजना या स्कूल कॉलेज धर्मशाला प्याउू मेडिकल शिविर खाने का निशुल्क लंगर या यूनिवर्सिटी बनाने का कोई बड़ा दुनियावी समाजसेवा का मिशन बड़े पैमाने पर बनाते नज़र नहीं आ रहे हैं। इस्लाम मंे दीन और दुनिया को बराबर नहीं बल्कि दीन से दुनिया को भारी बताया गया है। ऐसे में पहले तीन तलाक कानून बनाकर और अब ऐसी तीन तलाक पीड़ित महिलाओं के लिये जो भी सहायता भाजपा की योगी सरकार ने देने का ऐलान किया है। वह खुद मुस्लिम समाज चंद कट्टर मौलाना और वक्फ बोर्ड की ना अहली और इन जैसे मुद्दों पर अपराधिक चुप्पी साधने का नतीजा अधिक कहा जा सकता है।                                                

0 कुछ ना कहने से भी छिन जाता है ऐजाज़ ए सुख़न,

   जुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है।।

मोब लिंचिंग नहीं भीड़ हत्या

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की गिनती आजकल देश के प्रमुख शक्तिशाली लोगों में होती है। उनका स्थान सत्ताधारी भाजपा के मुखिया से भी बड़ा समझा जाता है। यहां तक कि पीएम मोदी भी उनका इतना सम्मान करते हैं कि शायद ही उनकी कोई बात टालते हों। दशहरा पर भागवत ने कहा कि मॉब लिंचिंग और आर्थिक मंदी भारत में नहीं हैं। उनका कहना था कि इन दो शब्दों के प्रयोग से भारत में भ्रम फैलाया जा रहा है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है।

संघ प्रमुख भागवत की छवि अब तक स्पश्टवादी वक्ता की रही है। यहां तक कि वे अपनी ही भाजपा सरकार को आईना दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। लेकिन इस बार संघ के स्थापना दिवस और दशहरा पर वे मोदी सरकार का उन मुद्दों पर बचाव करते नज़र आये जिनपर मोदी सरकार लाचार और नाकाम नज़र आ रही है। भागवत ने यह तो माना कि देश में कभी कभी कहीं कहीं कुछ लोगोें की भीड़ कानून हाथ में लेकर किसी निर्दोष व्यक्ति को किसी अपराध के संदेह में ही पीट पीटकर मार डालती है। लेकिन उनका कहना था कि ऐसी हत्याओं को मॉब लिंचिंग नहीं कहा जा सकता।

भागवत का कहना है कि मॉब लिंचिंग विदेशी शब्द हैै। सवाल यह है कि जब भीड़ कानून हाथ मंे ले रही है, हत्या भी कर रही है तो उसको भीड़ हत्या कहंे या मॉब लिंचिंग इससे क्या अंतर पड़ता है? ऐसे ही भागवत ने यह भी सफाई दी कि भीड़ द्वारा किसी एक सम्प्रदाय या जाति के लोगोें की ही हत्या नहीं हो रही जिससे इसके लिये किसी वर्ग विशेष को पीड़ित और किसी खास तबके को हत्यारा नहीं कहा जा सकता। जो असली बात थी वह भागवत छिपा गये। उन्होंने यह नहीं बताया कि 2014 के बाद मोदी सरकार और अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकारें बनने के बाद भीड़ द्वारा हत्या की घटनायें बहुत अधिक होने लगी हैं।
भागवत ने यह भी स्वीकार नहीं किया कि हां कुछ विशेष वर्ग और जातियों के लोग इस तरह की भीड़ हत्याओं का अधिक शिकार हो रहे हैं। उनको यह भी नहीं पता कि ऐसी भीड़ हत्याओं में एक विशेष विचारधारा के लोग ही अधिकांश आरोपी पाये जाते हैं। वे बेचारे यह भी नहीं जानते होंगे कि ऐसी घृणा और उग्रता से भरी भीड़ जब किसी की पीट पीटकर हत्या करती है तो पीड़ित से जयश्रीराम का नारा लगवाती है। साथ ही भीड़ हत्या के आरोपियों के खिलाफ कानून अपना काम अकसर या तो करता ही नहीं या फिर देर से और आधा अधूरा करता है।

इतना ही नहीं जब भीड़ हत्या के आरोपी ज़मानत पर छूूटकर जेल से बाहर आते हैं तो उनका स्वागत करने संघ परिवार के लोग फूल मालायें लेकर अकसर पहंुच जाते हैं। वहां वे उन आरोपियों का स्वागत नायकों की तरह कर भारत माता की जय के नारे लगाते हैं। कई मामलों में तो वे आरोपियों को कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराते हैं। भागवत जी ये सब नहीं जानते हों यह हो नहीं सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि भीड़ हत्या को अगर मॉब लिंचिंग ना भी कहा जाये तो क्या वे जायज़ हो जायेंगी? क्या वे एक सभ्य समाज की पहचान बन सकती हैं?

क्या उनपर लीपापोती कर सरकार को बचाने का सोचा समझा काम भागवत जी नहीं कर रहे हैं? भागवत जी को मानना होगा कि मॉब लिंचिंग शब्द के इस्तेमाल से नहीं बल्कि भीड़ हत्यायें लगातार होने और उनके आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही ना होने और उनको बचाते नज़र आने वाले कट्टरपंथी हिंदुओं व कई राज्यों की सरकारों के कारण देश दुनिया मेें बदनाम हो रहा है। भागवत अगर मोदी और राज्यों की भाजपा सरकारों से भीड़ हत्या के खिलाफ सख़्ती करने का ज़रा सा इशारा कर दें तो कल से ही भीड़ हत्यायंे कम या ख़त्म होती नज़र आने लगेंगी।
ऐसे ही भागवत सरकार और रिज़र्व बैंक द्वारा मंदी की आहट महसूस कर उससे निबटने के आधे अध्ूारे उपायों के बावजूद उल्टी बात कह रहे हैं कि मंदी की चर्चा करने से कारोबारी रोज़गार की तलाश करने वाले नौजवान और आम जनता में बिना वजह की चिंता फैल रही है। भागवत जी बिल्ली को देखकर कबूतर अगर आंख बंद भी करले तो उसके लिये ख़तरा टलता नहीं है। इसी तरह से यह कहना है कि देश में कोई आर्थिक मंदी नहीं है। या पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी आ रही है। जिसका थोड़ा बहुत असर भारत पर भी पड़ रहा है। या फिर यह सफाई देना कि यह आर्थिक मंदी नहीं आर्थिक सुस्ती है।
इस तरह की शब्दों की जादूगरी से जनता को अधिक समय तक भ्रम में नहीं रखा जा सकता। भागवत ने यह भी कहा कि अर्थव्यवस्था में एक सिस्टम होता है कि कभी वह बहुत तेज़ चलती है और कभी सुस्त हो जाती है। दरअसल सुस्ती को ही मंदी कहा जाता है। लेकिन भारत की मंदी मोदी सरकार की कुछ गलत आर्थिक नीतियों के चलते भी आई है। साथ ही भागतव यह स्वीकार नहीं कर रहे कि मोदी सरकार के पास कोई बड़ा अर्थ विशेषज्ञ नहीं है।

अर्थव्यवस्था के जानकार जो सुझाव मोदी सरकार को मंदी से निबटने को दे भी रहे हैं। मोदी सरकार अपने अहंकार और नासमझी में उनको दरकिनार कर देती है। भागवत मोदी और संघ परिवार को आज नहीं तो कल यह स्वीकार करना ही होगा कि धर्म भावनाओं और एक वर्ग विशेष के खिलाफ घृणा और भय फैलाकर चुनाव तो जीता जा सकता है। लेकिन सफल सरकार और अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं की जा सकती है। उसके लिये दिखावटी नहीं असली भाईचारा सदभाव और विशेषज्ञों की सहायता लेनी ही पड़ती है।

इलाज ए दर्द ए दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता,
तुम अच्छा कर नहीं सकते, मैं अच्छा हो नहीं सकता ।।