Saturday 30 July 2022

पसमांदा मुसलमान

*अब भाजपा पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने में कामयाब होगी ?*

0पीएम मोदी ने हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कहा है कि भाजपा कार्यकर्ता स्नेहयात्रा शुरू करके अब पार्टी से पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने का काम शुरू करें। इससे पहले भाजपा सबका साथ सबका विकास का नारा देकर पार्टी से बृहम्ण बनियों की पार्टी का टैग हटाने को पहले गैर यादव पिछड़ों फिर गैर जाटव दलितों और अब आदिवासियों को जोड़ने के लिये सफलता काफी हद तक पा चुकी है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है। उनका प्रतिनिधित्व भाजपा शासित राज्यों व लोकसभा में पार्टी में लगभग आज शून्य है। इसका दोष भाजपा और मुसलमान एक दूसरे को देते रहे हैं। लेकिन पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने का भाजपा का इरादा एक रण्नीति के तहत आगे सफल हो सकता हैै।        

      -इक़बाल हिंदुस्तानी

      पसमांदा दरअसल फारसी का शब्द है। जिसका मतलब पीछे रह जाने वाले से होता है। हालांकि इस्लाम मंे जातिवाद का कोई अस्तित्व नहीं है लेकिन यह भी सच है कि भारतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद है। पसमांदा शब्द मुस्लिम समाज में उन मुसलमानों के लिये इस्तेमाल होता है। जिनको जानबूझकर पिछड़ों दलितों और आदिवासियों से भी अधिक जातीय पक्षपात का शिकार बनाकर अलग थलग रखा गया है। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान के प्रोफेसर खालिद अंसारी का कहना है कि पसमांदा शब्द पहली बार 1998 में पूर्व राज्यसभा सदस्य अली अनवर अंसारी द्वारा उस समय सार्वजनिक रूप से पहली बार प्रकाश में आया जब अली अनवर ने आॅल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ नामक संस्था का गठन किया था। अली अनवर का कहना रहा है कि मुसलमानों में पिछड़ों में पिछड़े और दलित दोनों एक साथ शामिल हैं। जबकि वे दलित मुसलमानों को पसमांदा की अलग श्रेणी में रखना चाहते हैं। दरअसल हिंदुओं की तरह ही मुसलमानों मंे कुछ लोग अशरफ यानी उच्च जाति अजलाफ यानी पिछड़े और अरज़ाल यानी दलित मुस्लिम जाति के हिसाब से विभाजन मानते रहे हैं। अशरफ उन मुसलमानों को कहा जाता है जो अरब तुर्की परसिया या अफगानिस्तान से सैयद शेख़ पठान और मुग़ल की शक्ल में आये या फिर राजपूत गौड़ त्यागी जैसी उच्च हिंदू जाति से मतान्तरण करके ईमान लाये। अजलाफ वो मुसलमान कहलाते हैं जो कि मोमिन अंसार दरर्ज़ी रायीन मीडियम जातियों से आते हैं। अरज़ाल 1901 की जनगणना के अनुसार सबसे निचली श्रेणी मंे वो जातियां आती हैं जिनमें अछूत यानी हलालखोर, हेलास, लालबेगीस धोबी नाई चिक्स और फ़क़ीर शामिल हैं। सच्चर कमैटी की 2005 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि जिनके साथ सामाजिक स्तर पर कोई पक्षपात नहीं हुआ वे अशरफ, हिंदू पिछड़ों की तरह अजलाफ और हिंदू दलितों की तरह अरज़ाल हैं। जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की मई 2007 की रिपोर्ट में भी यह दोहराया गया है कि भारतीय मुसलमानों में भी अन्य धर्मों की तरह जाति व्यवस्था मौजूद है। देश में 1931के बाद से जाति के आधार पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन सच्चर कमीशन जहां मुसलमानों में पिछड़ों और दलितों आदिवासियों की संख्या 40 प्रतिशत के आसपास मानकर चलता है वहीं पसमांदा मुस्लिम एक्टिविस्ट इनकी तादाद दोगुनी यानी 80 से 85 प्रतिशत होने का दावा करते हैं। यह आंकड़ा 1871 की जनगणना से मेल खाता है जिसमें कहा गया था कि अविभाजित भारत में केवल 19 प्रतिशत उच्च जाति के मुसलमान रहते हैं। इसी वजह से यह भी कहा जाता है कि देश के बंटवारे मंे जो लोग पाकिस्तान गये उनमें भी अधिक तादाद अशरफ मुसलमानों की ही थी। जिससे पसमांदा मुसलमानों का यह आंकड़ा 80 से बढ़कर 85 फीसदी तक पहंुच चुका है। पसमांदा जातियों का आरोप है कि मुसलमानों के नाम पर आज सब जगह अशरफ जातियों का कब्ज़ा है। उनका यह भी कहना है कि उनको धर्म यानी मुसलमानों के नाम पर आरक्षण नहीं चाहिये बल्कि पसमांदा जाति के नाम पर अलग से आरक्षण दिया जाना चाहिये जिससे मुट्ठीभर अशरफ मुसलमान उनके हिस्से के जनप्रतिनिधि सरकारी नौकरी व संस्थाओं पर कब्ज़ा जमाकर पहले की तरह उनके हक़ ना मार सकें। अब सौ टके का सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा वास्तव में पसमांदा मुसलमानों को पार्टी में जोड़ना चाहती है? इसका जवाब है हां। यूपी की सियासत में देखें तो आज़म खां जो अशरफ जाति से आते हैं। पिछले काफी समय से जेल में रहे और आज भी कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। दूसरी तरफ पसमांदा जाति से दानिश आज़ाद अंसारी को बिना चुनाव लड़े योगी सरकार ने मंत्री बनाकर पसमांदा मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने का बड़ा संकेत दिया है। इससे पहले शिया सुन्नी के बीच की खाई को देखते हुए शिया समाज को भाजपा से मुख्तार अब्बास नक़वी को मंत्री बनाये रखकर जोड़ा ही जा चुका है। लेकिन उनकी तादाद बहुत कम होने से कोई खास लाभ नहीं हुआ। सवाल यह है कि जिस भाजपा की सारी सियासत मुसलमान विरोधी मानी जाती है। उसको पसमांदा के नाम पर पार्टी से अगर जोड़ा भी जाता है तो क्या भाजपा समर्थक कट्टर हिंदू फिर भी कमल पर वोट देता रहेगा? सवाल यह भी है कि विपक्ष के आरोपानुसार जिस मुसलमान का मात्र धर्म देखकर अशरफ अजलाफ या अरज़ाल पता किये बिना कदम कदम पर शोषण अन्याय पक्षपात उत्पीड़न माॅब लिंचिंग सार्वजनिक जगह पर नमाज़ पर पाबंदी तीन तलाक़ पर रोक लवजेहाद नकाब मांस एंटी रोमियो अभियान एनआसी काॅमन सिविल कोड का डर अन्याय का विरोध प्रदर्शन करने पर सबक सिखाने को उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चलाया जा रहा है वो भाजपा को वोट कैसे दे सकते हैं? तो जवाब यह है कि जिस तरह से पिछले यूपी सहित चार राज्यों के चुनाव में मुसलमानों ने भाजपा को 8 प्रतिशत वोट दिये हैं। वे भविष्य में सेकुलर दलों से निराश हताश और नाराज़ होकर भविष्य में भाजपा का दोस्ती का हाथ थाम भी सकते हैं। यह इसलिये भी मुमकिन है कि आज सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर आरक्षण खत्म करने के बावजूद भाजपा सबसे अधिक पिछड़ों, दलित राष्ट्रपति बनाकर दलितों और अब आदिवासी प्रेसीडेंट बनाकर आदिवासियों का जिस तरह से वोट लेने मंे सफल है। उसी तरह मुसलमानों को विभिन्न योजनाओं का लाभ और बुल्डोज़र का डर दिखाकर उनका वोट भी पसमांदा के नाम पर पहले से अधिक ले ही सकती है। भाजपा को 2024 में एंटी इन्कम्बैंसी से घटने वाले हिंदू वोटों की क्षतिपूर्ति भी तो करनी है।     

 *(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Sunday 24 July 2022

रेवड़ी बांटना

*रेवड़ी बांटना या बैंको का कर्ज़ माफ़ करना जनहित की राजनीति ?* 

0पीएम मोदी ने बिना केजरीवाल व अन्य विपक्षी नेताओं का नाम लिये कुछ राज्यों द्वारा जनहित में चलाई जा रही निशुल्क योजनाओं को रेवड़ी बांटने की संज्ञा दी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर ऐसी योजनायें चलाने से राज्यों का बजट घाटे में जा रहा है तो यह चिंता की बात है। लेकिन विपक्ष का सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार द्वारा विगत 8 साल में अपने चहेते पूंजीपतियों के 11 लाख करोड़ से अधिक के एनपीए यानी बुरे कर्ज़ माफ कर देना जनहित में है? केजरीवाल का आरोप यह भी है कि मोदी सरकार जनहित की बजाये ‘धनहित’  में अधिक काम कर रही है। यह भी सच है कि जनहित में राज्यों की चल रही योजनाओं का कुल बजट डेढ़ लाख करोड़ के आसपास हैै।       

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      2014 में केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार के आने के बाद से देश में कुछ चीजे़ पूरी तरह बदल गयी हैं। मिसाल के तौर पर 1991 से पहले हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था चलती थी। सरकार का झुकाव समाजवाद की तरफ रहता था। एल पी जी यानी लिबरल प्राईवेट और ग्लोबल यानी आर्थिक उदारीकरण के बाद भी सरकारें गरीब कमज़ोर दलितों पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का काफी ख़याल रखती थीं। देश संविधान के हिसाब से काफी हद तक चलता था। राज्यों को कुछ अपवाद छोड़कर स्वायत्ता मिली हुयी थी। जांच एजेंसियों का खुला दुरूपयोग और वह भी पूरी निर्लजता से केवल विपक्ष के खिलाफ नहीं होता था। मीडिया आज की तरह पूरी तरह सरकार के तलुवे नहीं चाटता था। कोर्ट सरकार के गलत फैसलों के खिलाफ पूर सख़्ती से खड़े होेते थे। सेकुलर होना सिकुलर या शेखुलर यानी बीमार या मुसलमान समर्थक होना नहीं माना जाता था। सोशल मीडिया पर इतनी बेशर्मी से खुलेआम ज़हर साम्प्रदायिकता कट्टरता झूठ और नफरत नहीं परोसी जाती थी। सरकार की नीतियों उसके संचालन और योजनाओं पर एक बाहरी कथित सांस्कृतिक संगठन इतना हावी पहले कभी नहीं था। लेकिन आज बहुत कुछ बदल चुका है। आज की सरकार का पूंजीपतियों के पक्ष में खुलेआम नीतियां बनाना बुरा नहीं समझा नहीं जाता है। यही वजह है कि कुछ उद्योगपति जानबूझकर यानी विलफुल डिफाल्टर बन रहे हैं। आरबीआई और नेशनल बैंक इस सच को जानते हैं। लेकिन वे सत्ता के दबाव में ना केवल ऐसे धोखेबाज़ चालाक और मक्कार धनवानों को ना केवल लगातार लोन देने को मजबूर किये जा रहे हैं बल्कि उनका पुराना लाखों करोड़ का कर्ज़ पहले राइट आॅफ और बाद में औने पौने में बैंकरप्सी एक्ट में समझौता करके चंद रूपये वसूल करके माफ किया जा रहा है। विपक्ष का आरोप है कि ऐसे अधिकांश पंूजीपतियों से सत्ताधारी दल मोटी रकम चुनावी चंदे में लेकर ऐसा कर रहा है। इस मामले में इसलिये भी कुछ दावे से नहीं कहा जा सकता है क्योंकि मोदी सरकार ने इलैक्टोरल बांड जिस गोपनीय तरीके से सियासी दलों को देने का रहस्यमयी और विवादित तरीका ईजाद किया है। वह अपने आप में शक को और अधिक बढ़ाता ही है। आंकड़े बताते हैं कि इन बांड की 90 प्रतिशत रकम भाजपा के खाते में जा रही है। सवाल यह है कि जब सरकार ही पंूजीपतियों के साथ खुलकर खड़ी है। वह उनका काॅरपोरेट टैक्स लगातार कम कर रही है। उनको कोरोना के दौरान 20 लाख करोड़ का विशाल आर्थिक पैकेज भी दिया गया है। जिसका कोई विशेष लाभ आम जनता को नहीं मिला है। सरकार उनका कैपिटल गैन का टैक्स भी कम कर रही है। उनको उद्योग धंधे लगाने के लिये निशुल्क या ना के बराबर कीमत या एक रूपये एकड़ के पट्टे पर करोड़ों की सरकारी यानी आम जनता की ज़मीन भी दे रही है। उनको कर्मचारियों को निविदा पर अस्थायी तौर पर रखने और चाहे जब निकालने की सुविधा भी दे रही है। उनको मज़दूरों से 8 की बजाये 12 घंटे काम की छूट भी दे रही है। यह सूची बहुत ही लंबी है। दूसरी तरफ सरकार जीएसटी के नाम पर आम जनता पर करों का बोझ बढ़ाती जा रही है। महंगाई रोक नहीं पा रही है। बेेरोज़गारी दर आज़ादी के बाद सबसे अधिक हो चुकी है। रूपया डाॅलर के मुकाबले ऐतिहासिक गिरावट दिखा रहा है। निर्यात बढ़ नहीं रहा है। बढ़ते आयात से विदेशी मुद्रा कम होती जा रही है। रेलवे में वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली किराये की छूट सरकार ने खत्म कर दी है। सिलेंडर की सब्सिडी खत्म करने से उसकी कीमत पर 8 साल में ढाई गुना से अधिक हो चुकी है। नये रोज़गार निकल नहीं रहे हैं। मंदी आने से पुरानी नौकरी भी जा रही हैं। मनरेगा में 100 दिन की बजाये 27 दिन ही गांवों में काम मिल रहा है। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि पूंजीपतियों उद्योगपतियों और काॅरपोरेट को दी गयी तमाम सरकारी छूट सहायता पैकेज का कोई विशेष लाभ आम जनता को नहीं मिल रहा है। आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। देश के 10 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश के 60 प्रतिशत आम लोगों से अधिक सम्पत्ति है। ऐसे में अगर कुछ राज्य सरकारें आम आदमी को कुछ यूनिट बिजली और चंद लीटर पानी निशुल्क दे रही हैं तो केंद्र सरकार को परेशानी क्यों हो रही है? अगर कुछ राज्य सरकारें जनहित में सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सस्ता और अच्छा उपलब्ध करा रही हैं तो यह निशुल्क रेवड़ी बांटना हो गया? यह ठीक है कि केंद्र सरकार भी गरीबों को सस्ता अनाज पीएम आवास योजना जलनल योजना जनधन योजना पीएम किसान सम्मान निधि कारोबार के लिये मुद्रा योजना पीएम रसोई गैस योजना आयुष्मान स्वास्थय बीमा आदि अनेक जनहित की योजनायें चला रही है। लेकिन राज्यों को ऐसी योजनायें चलाने पर निशुल्क रेवड़ी बांटना बताना उचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही राज्य पहले ही परेशान जनता पर कोई नया बोझ नहीं डालना चाहते या पुरानी सुविधा नहीं छीनना चाहते तो यह अच्छी बात मानी जानी चाहिये। हालांकि जीएसटी में जो कर बढ़ रहे हैं। उनका लाभ भी राज्यों को मिलना है। लेकिन मोदी सरकार को यह बात समझनी चाहिये कि वह अगर पूंजीपतियों के साथ खुलकर खड़ा होने में कोई लज्जा या बुराई नहीं समझती तो यह आम जनता के हित के खिलाफ ही जाता है। दुनिया के तमाम अर्थ विशेषज्ञ बार बार बता चुके हैं कि पंूजीवाद पहले अपने लाभ देखता है। उसके लिये जनहित का कोई मतलब नहीं है। यह काम सरकार का होता है। लेकिन मोदी सरकार खुद जनहित ना देखकर पूंजीपति समर्थक है। जो खुद मेें राज्यों के मुकाबले दुखद है।

 *(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Friday 15 July 2022

भाजपा और विपक्ष

*भाजपा अब कांग्रेस ही नहीं क्षेत्रीय दलों को भी ख़त्म कर देगी ?*

0जब अमित शाह यह दावा करते हैं कि भाजपा देश पर 40 से 50 साल राज करेगी तो कुछ लोगों को यह अतिश्योक्ति लगता है। लेकिन जिस तरह से भाजपा ने एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को धीरे धीरे ऐसे हालात में पहुंचा दिया है। जहां वह पहले से कमज़ोर नज़र आती है। वहीं अब भाजपा सपा बसपा और राजद के बाद अन्य क्षेत्रीय दलों को निबटाने में लग गयी है। इसकी ताज़ा मिसाल महाराष्ट्र की शिवसेना है। जिससे न केवल राज्य की सत्ता छिन गयी है बल्कि अब पार्टी पर कब्जे़ की लड़ाई मंे भी ठाकरे को कड़ी चुनौती मिलने जा रही है। इसके बाद भाजपा के निशाने पर दक्षिण के राज्य आंध्रा तेलंगाना और तमिलनाडू के क्षेत्रीय दल हैं।

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      रामपुर और आज़मगढ़ के लोकसभा उपचुनाव जीतकर भाजपा ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसने यूपी के क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी को पूरी तरह मरणासन्न कर दिया है। यहां एक और क्षेत्रीय दल बसपा तो पहले ही आईसीयू में भर्ती होकर अंतिम सांसे गिन रही है। कांग्रेस का इस राज्य में कोई जनाधार तो दूर संगठन तक नहीं बचा है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगा लेकिन हालात अगर ऐसे ही रहे और कोई बड़ी घटना नहीं घटी तो यूपी में भाजपा 2024 के आमचुनाव में अपना मिशन 75 सीट आराम से पूरा कर लेगी। इसकी वजह यह है कि जिस सपा का मुख्य आधार वोटबैंक यादव और मुस्लिम रहा है। वह भी उसे उसके गढ़ आज़मगढ़ और रामपुर में जिताने में नाकाम रहा है। जबकि ये दोनों सीटें पहले उसके पास ही थीं। ये अखिलेश यादव और आज़म खां ने भारी अंतर से जीती थीं। हालांकि प्रतिष्ठा का प्रश्न बनीं इन दोनों सीटों पर हार के सपा कई कारण गिना रही है। लेकिन अगर इनमंे कुछ हद तक सच्चाई हो तो भी सपा अपनी नाकामी को छिपा नहीं सकती है। साम दाम दंड भेद से ही सही लेकिन यह यूपी के सीएम और भावी पीएम योगी की सफलता ही है। जहां तक बसपा सुप्रीमो बहनजी का सवाल है। वे बार बार अपनी नालायकी नासमझी और नाकामी का ठीकरा मुसलमानों के सर फोड़कर अपनी पार्टी की कब्र अपने हाथों खोदती रहती हैं। उन्होंने यूपी के विधानसभा चुनाव के बाद दो संसदीय उपचुनाव के नतीजे आने पर एक बार फिर कहा है कि मुसलमानों ने अगर हमें वोट दिया होता तो हम भाजपा को हरा सकते थे। लेकिन वे यह सच मानने से बार बार इन्कार कर रही हैं कि उनको लोग भाजपा की ही बी टीम मानते हैं। ऐसे में बसपा को जिताना भाजपा को ही जिताना है। रामपुर में बहनजी ने बसपा का प्रत्याशी ही खड़ा नहीं किया। जिससे उनका परंपरागत दलित वोट भाजपा को जाने से कमल खिलने में आसानी हो गयी। उधर आज़मगढ़ में बहनजी ने जानबूझकर मुस्लिम वोट बांटने को गुड्डू जमाली को चुनाव में उतारा। साथ ही वहां भाजपा का प्रत्याशी यादव होने से यादव वोट भी बंट गया। यहां भी बताया जाता है कि काफी बड़ी संख्या में दलित वोट भाजपा उम्मीदवार के साथ गया है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले आम चुनाव में विधानसभा चुनाव से भी अधिक दलित वोट भाजपा के साथ जायेगा। लेकिन बहनजी से मुसलमानों का बचा खुचा भरोसा भी उठ जाने से 2019 की तरह उनकी दलित मुस्लिम यानी सपा बसपा गठजोड़ से मिली 10 सीट भी वापस आनी असंभव है। अब तक यह देखने में आया है कि जो लोग राज्य विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों को अलग अलग कारणों से वोट दे भी देते हैं। वे भी लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मोदी और हिंदुत्व की वजह से चले जाते हैं। जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना के हिंदुत्व से हटने और मोदी का साथ छोड़ने से विद्रोह हुआ है। उसका असर दूरगामी होने के आसार बन रहे हैं। यह ठीक है कि शिवसेना पर ठाकरे परिवार का प्रभाव ही अधिक माना जाता रहा है। यही वजह है कि राज ठाकरे छगन भुजबल व नारायण राणे के मूल शिवसेना से अलग होने पर भी ठाकरे की शिवसेना के संगठन पर आज तक कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। लेकिन शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे के अलग होकर सीएम बन जाने से भी ऐसा ना हो पक्का कहा नहीं जा सकता है। मोदी और शाह संघ की योजना से जिस रास्ते पर चल रहे हैं। उससे ऐसा लगता है कि वे बिहार में भी जनता दल यू से जल्दी ही पीछा छुड़ाकर वहां भाजपा का सीएम देखना चाहते हैं। वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही राजनीतिक रूप से इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि किसी भी सियासी झटके को झेल नहीं पायेंगे। उधर तमिलनाडू में जयललिता की मृत्यु के बाद एआई डीएमके में पनीरसेल्वम और पलानी स्वामी गुट में आपसी टकराव इतना बढ़ चुका है कि कभी भी ख़बर आ सकती है कि उसका एक गुट महाराष्ट्र की तरह अलग होकर भाजपा में शामिल होने जा रहा है। इसके साथ ही तेलंगाना में भी भाजपा ने नज़रें गड़ा रखी हैं। पिछले दिनों वहां भाजपा के सम्मेलन में मोदी और शाह ने टीएसआर सरकार पर एमआईएम से मिलकर मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत करने का आरोप लगाया है। साथ ही भाजपा ने हैदराबाद को भाग्यनगर बनाने का शिगूफा सोच समझकर छोड़ा है। ऐसे ही भाजपा की आंखें आंध्रा प्रदेश की वाईएसआर सरकार पर लगी हुयी हैं। भाजपा का आरोप है कि तेलंगाना और आंध्रा में वंशवादी दलों की सरकारें जनता का भला ना करके अपने परिवारों के निजी हितों को आगे बढ़ा रही हैं। यही आरोप भाजपा उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार पर लगा चुकी है। लेकिन नवीन पांचवी बार मुख्यमंत्री बनकर एंटी इनकंबैसी को लगातार धता बता रहे हैं। भाजपा के निशाने पर बंगाल की टीएमसी भी है। लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी का इतने बड़े बहुमत से जीत जाना फिलहाल भाजपा की चाल को हल्का रखने के लिये मजबूर कर रहा है। हालांकि पंजाब में भी वंशवादी और करप्शन के आरोपों से घिरा अकाली दल भाजपा का सहयोगी रहा है। लेकिन वह पिछले दिनों किसानोें के मुद्दे पर भाजपा से अलग हो गया था। अब फिर से भाजपा अकाली दल को साधने का प्रयास कर रही है। भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती फिलहाल आम आदमी पार्टी बनी हुयी है। जो दिल्ली के बाद पंजाब जैसे बड़े राज्य में भी बंपर बहुमत से सत्ता में आ गयी है। उधर केरल में भी भाजपा वामपंथियों से लड़कर धीरे धीरे अपनी जगह बना रही है। लगता यही है कि आज नहीं तो कल भाजपा किसी कीमत पर भी सब राज्य जीतेगी।  

( *लेखक पब्लिक आॅब्ज़वर के संपादक एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*)

Sunday 3 July 2022

उदयपुर हत्याकांड

*उदयपुर हत्याकांड: सख़्त सज़ा के साथ ही ब्रेनवाश भी ज़रूरी!*

0पैगं़बर साहब का अपमान करने की आरोपी नूपुर शर्मा का समर्थन करने पर राजस्थान के एक दजऱ्ी कन्हैया लाल की बर्बर हत्या करने वाले ग़ौस मुहम्मद और मुहम्मद रियाज़ को सख़्त और जल्दी सज़ा मिलनी चाहिये। इसमें किसी तरह के बचाव या अगर मगर की ज़रूरत ही नहीं है। कानून द्वारा जुर्म की सज़ा दिये जाने का मक़सद सभ्य समाज में बदला नहीं सुधार भी माना जाता है। इसलिये भविष्य में ऐसे जघन्य व डरावने अपराध रोकने के लिये कन्हैया के हत्या आरोपियों जैसे कट्टरपंथियों की सोच को बदलने के लिये उनका ब्रेनवाश करना भी ज़रूरी है। इसके साथ ही हमें ऐसा समाज बनाने की ज़रूरत है। जिसमें धर्म निजी जीवन तक ही सीमित रहे और सरकार सब धर्मों को न केवल बराबर समझे बल्कि उसका व्यवहार भी समानता का दिखे।      

         *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      संविधान विशेषज्ञ और नलसार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फ़ैजान मुस्तफ़ा का कहना है कि एक उदार व मज़बूत लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी पहली शर्त है। हालांकि इस अभिव्यक्ति की भी कुछ सीमायें हैं। लेकिन जहां तक किसी की अभिव्यक्ति से किसी दूसरे की भावनायें आहत होने का सवाल है। उसके लिये हमारे यहां कानून मौजूद है। धारा 153 और 295 में ऐसे मामलों से निबटने के लिये पर्याप्त व्यवस्था की गयी है। मुस्तफ़ा का कहना है कि अगर हमारा समाज परिपक्व और तार्किक हो जाये तो इन धाराओं की भी ज़रूरत नहीं रह जायेगी। कहने का मतलब यह है कि एक कंपोजि़ट सोसायटी में इतनी सदियां बीतने के बाद इतनी समझ तो विकसित हो ही जानी चाहिये कि हम एक दूसरे के धर्म जाति भावना सोच परंपरा रीति रिवाज त्यौहार और खानपान व रहनसहन का सम्मान कर सकें। देश सह अस्तित्व और सहनशीलता की भावना से ही चलते हैं। लेकिन यह भी सच है कि समाज में सदा से ऐसे चंद कट्टर साम्प्रदायिक अंधविश्वासी संकीर्ण स्वार्थी लोग भी सभी वर्गों में रहे हैं। जो दूसरे लोगों को समान नहीं मानते। यही वजह है कि वे दूसरे मज़हब के मानने वालों का सम्मान भी नहीं करते। यहां तक कि वे अपने से अलग लोगों को हिंसक कट्टरपंथी दंगाई झूठा समाज विरोधी लड़ाकू और सारी बुराइयों की जड़ बताते हैं। इन हालात में ऐसे सरफिरे मूर्ख भावुक उग्र अंधभक्त और पाखंडी लोगांे का दुरूपयोग राजनीति अपनी सत्ता पाने और उसे बनाये रखने को बखूबी करने लगती है। अगर सरकार पुलिस और कोर्ट निष्पक्ष रहे तो ऐसे कट्टरपंथियों की हिम्मत नहीं होगी कि वे एकता भाईचारे व अमनचैन में आग लगा सकें। यहां यह विचार करना समय की मांग है कि आखि़र कन्हैया के हत्यारों के दिमाग में यह क्रूर और हैवानी विचार कहां से और कैसे आया कि अगर किसी ने पैगं़बर की शान में गुस्ताख़ी की है या उस गुस्ताख़ी करने वाली का मात्र समर्थन कर दिया है तो उसकी जान खुद ले लेनी चाहिये? वह भी इतने ज़ालिम और रूह फ़ना करने वाले बर्बर तरीके से? उसकी शर्मनाक और दर्दनाक वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल कर दूसरे लोगोें को डराकर आप आईएसआईएस के आतंकियों जैसा जंगली काम आखि़र किसके इशारे पर कर रहे हैं? अगर किसी ने आपकी मज़हबी भावनायें आहत की भी हैं तो उसको कानून सज़ा देगा। अगर सज़ा देने का यह काम मुश्किल और देर से होने वाला या ना भी होने वाला हो तो क्या आप अपने धर्म के हिसाब से सज़ा देने को कानून हाथ में ले लेंगे? वो आपके सब्र करने माफ करने और नज़रअंदाज़ करने के बड़े बड़े मज़हबी दावे कहां गये? या हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और हैं? अगर हां तो कल दूसरे लोग भी ऐसा करने लगे तो समाज में अराजकता फैल जायेगी। उस जंगलराज का जि़म्मेदार कौन होगा? जब खुद पैग़ंबर साहब के साथ उनके जीवन में उनके विरोधी उनका अपमान और हमला किया करते थे। तब पैगं़बर साहब तो उनको माफ कर दिया करते थे। वे तो अपने दुश्मनों से बदला नहीं लिया करते थे। उनके मानने वाले उनके रास्ते पर चलने का दावा करते हैं तो फिर उदयपुर जैसा हत्याकांड कैसे हो जाता है? अगर आपका अल्लाह रोज़ ए महशर और जन्नत दोज़ख़ में पूरा भरोसा है तो यह मसला अपने अल्लाह पर ही छोड़ दो न? वह खुद सज़ा देगा। सौ टके का सवाल यह भी है कि जब इस्लाम को मानने वाले ही पैग़ंबर के दिखाये रास्ते पर नहीं चलेंगे तो गैर मुस्लिमों से क्यों आशा करते हैं कि वे इस्लाम के हिसाब से चलें नहीं तो उनको इस्लाम के हिसाब से कानून हाथ में लेकर वे खुद बर्बर सज़ा देकर पूरी दुनिया में इस्लाम और पैगं़बर के संदेश पर उंगली उठाने का अनचाहा मौका देंगे? हमारा मानना है कि सज़ा इंसान को केवल डराती है। इतना तो कन्हैया के हत्यारे भी जानते होंगे कि वे पकड़े जायेंगे और जेल जायेंगे। उनको उम्रकै़द या फांसी होगी। लेकिन सवाल यह है कि जो लोग आत्मघाती बम लगाकर मुस्लिम मुल्कों अपने ही मुस्लिमों को इस्लाम विरोधी बताकर अकसर मौत के घाट उतारते रहते हैं। उनको आप सज़ा के तौर पर जेल या जान जाने से कैसे डरा सकते हैं? हमारा कहना है कि इसका बेहतर इलाज यही है कि ऐसे लोगों का ब्रेनवाश किया जाये कि आज के दौर में मज़हबी राज नहीं चलेगा। देश संविधान कानून और एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करके ही चलेगा। धर्म को सार्वजनिक जीवन में ना लाकर घरों या धार्मिक स्थलों तक सीमित रखा जाये। किसी के पूजा पाठ या नमाज़ जैसी धार्मिक गतिविधियों से किसी दूसरे वर्ग को तकलीफ़ समस्या या नुकसान ना हो। सरकार उसके द्वारा बनाये जाने वाले कानून उनके अनुसार कार्यवाही करने वाली पुलिस उनके हिसाब से सज़ा देने वाली अदालतें और दूसरी प्रशासनिक एजंसियां सब सेकुलर निष्पक्ष और ईमानदार ना केवल होनी चाहिये बल्कि अपने कामों जांच और फैसलों से समानता का व्यवहार करती नज़र भी आनी चाहिये। यह कड़वा सच हम सबको जितनी जल्दी समझ आ जायेगा देश और समाज का उतना ही भला होगा कि आज के दौर में लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता नैतिकता निष्पक्षता समानता सबको न्याय व सुरक्षा और उदारता का कोई विकल्प नहीं है। अगर हम संविधान के इन बुनियादी मूल्यों पर व्यवहारिक से खरे नहीं उतरते हैं तो समाज में शांति नहीं होगी। दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां शांति नहीं होती वहां आर्थिक उन्नति भी नहीं होती। इसीलिये सभी धर्म के कट्टरपंथियों को यह आज नहीं तो कल समझना और मानना ही होगा कि आप समाज को अपने धर्म के हिसाब से हिंसक तौर तरीकों से नहीं हांक सकते।   

 *नोट-लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*