Thursday 25 April 2024

मुसलमान और मोदी

*मुसलमान न होते तो भाजपा आज सत्ता में होती ?* 
0 भाजपा दस साल से केंद्र की सत्ता में है लेकिन उसके पास ऐसी कोई ठोस उपलब्धि विकास या उन्नति का ठोस प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर वह चुनाव में वोट मांग सके। यही वजह है कि वह उन अल्पसंख्यक मुसलमानों को खुलेआम निशाना बना रही है जिनके बारे में मीडिया व्हाट्सएप और उसके लोग घर घर जाकर लोगों के कान भरते हैं। जो भाजपा कल तक सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का दावा करती थी वह आज किसी कीमत पर भी चुनाव जीतने के लिये बिना किसी सबूत आंकड़ों और सच्चाई के मुसलमानों को ना केवल ब दनाम अपमानित और पराया कर रही है बल्कि बहुसंख्यक हिंदुओं को भी गुमराह कर भड़काकर व डराकर वोटबैंक की सियासत कर रही है।
   *-इकबाल हिन्दुस्तानी*  
अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। सबसे बड़े पद पर बैठा एक नेता बिना कांग्रेस का घोषणा पत्र पढ़े ही आरोप लगा देता है कि वह मुसलमानों को आपकी सम्पत्ति छीनकर बांट देगी? जबकि कांग्रेस का मेनिफैस्टो कहता है कि जातीय सर्वे के साथ ही बढ़ती आर्थिक असमानता रोकने के लिये नई नीतियां बनायेगी ना कि पहले से अर्जित किसी की सम्पत्ति छीनकर किसी को बांटेगी। जो दल मुसलमानों का विश्वास सपोर्ट और वोट लेना चाहते हैं वे उनको अधिक बच्चे पैदा करने वाला घुसपैठिया और ना जाने क्या क्या बता रहे हैं?
मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। वजह साफ है कि भाजपा खुद हिंदू तुष्टिकरण की सियासत करती है। तुष्टिकरण वास्तव में किसे कहा जाये? अभी यह भी साफ नहीं है। संघ परिवार यह भी जानता है कि सेकुलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण करने का झूठा आरोप लगाने से ही भाजपा के पक्ष में जवाबी हिंदू धुरुवीकरण होता है। सबसे बड़ा मामला शाहबानो केस था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के हिसाब से उसको उसके पति से गुजारा भत्ता दिलाने का था। लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उसको मुसलमानों के कट्टरपंथी वर्ग को खुश करने के लिये पलट दिया।
इसके जवाब में हिंदू साम्प्रदायिकता को हवा देकर मंडल आयोग के पिछड़ा वर्ग आरक्षण से निबटने को बाबरी मस्जिद रामजन्म भूमि का आंदोलन संघ परिवार ने शुरू कर सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिया है। ऐसा ही परिवार नियोजन का मामला है। छोटे परिवार का सम्बंध शिक्षा और सम्पन्नता से है लेकिन एक दल तो मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करता रहा है। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। आंकड़े बताते हैं कि तीन दशक में मुस्लिम आबादी की बढ़त मेें हिंदू आबादी की बढ़त के मुकाबले ज्यादा गिरावट आई है। आप इस अंतर को इस तरह से देख सकते हैं कि जहां हिंदू आबादी में 30 साल में 5-95 प्रतिशत कमी आई है वहीं मुस्लिम आबादी की बढ़त में इसी दौरान 8-28 प्रतिशत की कमी आई है। मतलब कहने का यह है कि जहां 2001 से 2010 तक हिंदू आबादी में पिछले दशक के मुकाबले 3-16 प्रतिशत की कमी आई वहीं मुस्लिम आबादी में गिरावट की दर बढ़त के बावजूद 4-92 रही जो एक अच्छा संकेत है। 
                 हालांकि यह दुष्प्रचार काफी समय से चल रहा है कि अगर मुस्लिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो देश में एक दिन ऐसा आयेगा कि जब मुस्लिम हिंदुओं से अधिक हो जायेंगे। इसके साथ ही यह भय भी खूब फैलाया जाता है कि उस दिन भारत को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा और गैर मुस्लिमों पर शरीयत कानून थोपकर उनसे मुगलकाल की तरह जजिया वसूली की जायेगी। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 4-9 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है और देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30-9 से बढ़कर 34-2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है। सच यह है कि भाजपा के दस साल के राज में जो नोटबंदी देशबंदी चंद पूंजीपति दोस्तों को 16 लाख माफ कर और जीएसटी की जनविरोधी आर्थिक नीतियां अपनाई गयीं हैं उससे महंगाई बेरोज़गारी व करप्शन बढ़ने से हिंदुओं का एक वर्ग अधिक ख़फा है। जिससे डरकर भाजपा असली मुद्दों से ध्यान भटकाने को हिंदू मुसलमान का राग अलाप रही है।
     *0उसके होंटो की तरफ न देख वो क्या कहता है,*
     *उसके कदमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Tuesday 16 April 2024

भाजपा हराओ छोड़ें मुसलमान

मुसलमान भाजपा हराओ अभियान से करते हैं अपना ही नुकसान ?
0 आम चुनाव शुरू हो चुका है। सब वोटर अपनी पसंद की पाटीर्, प्रत्याशी या जाति व धर्म के आधार पर वोट देते हैं। संविधान ने उनको यह अधिकार दिया है। लेकिन मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी चिंता भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये किसी भी सेकुलर दल को वोट देने की होती है। वह इस एक सूत्रीय अभियान को छिपाता भी नहीं है। यही वजह है कि उसके वोट से जीतने वाला चुनाव के बाद उसकी खास चिंता भी नहीं करता है। लेकिन मुसलमान को यह नहीं पता कि उसके भाजपा हराओ नारे से हिंदू समाज में रिएक्शन से ध्रुवीकरण होने से देश की मुस्लिम बहुल 100 से अधिक सीटों पर भाजपा मजबूत होती रही है! यही वजह है कि आज भाजपा केंद्र व देश के आधे राज्यों में राज कर रही है।
     -इकबाल हिंदुस्तानी   
ऐसा माना जाता है कि भाजपा और मुसलमान दोनों एक दूसरे का विरोध लंबे समय से करते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि मुसलमान ऐसा करके भाजपा को आज सरकार बनाने से नहीं रोक पा रहे हैं। दूसरी तरफ मुसलमानों का वोट ना मिलने से भाजपा को लोकसभा और राज्यों के चुनाव में मुसलमानों को अपना प्रत्याशी ना बनाने का मौका मिल गया है। इस बार भी भाजपा ने पूरे देश में केरल की एक सीट से एक मात्र मुसलमान अब्दुल सलाम को अपना प्रत्याशी बनाया है। भाजपा सरकारों पर मुसलमानों के साथ पक्षपात उनका उत्पीड़न और अन्याय करने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहता है। लेकिन खुद सेकुलर दल भी मुसलमानों के मुद्दों पर उनके पक्ष में बोलने से हिंदू वोट ना मिलने की आशंका से डरे रहते हैं। हमारा मानना है कि मुसलमानों को अगर भाजपा पसंद नहीं है तो उनको देश के आधे से अधिक हिंदुओं की तरह अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने का हक है लेकिन यह सच उनको समझना होगा जब वे केवल भाजपा हराओ अभियान के तहत कांग्रेस सपा बसपा क्षेत्रीय दल या निर्दलीय उम्मीदवार तक को वोट देने को तैयार हो जाते हैं तो इससे ना केवल उनके अपने अकेले जिताने लायक वोट बैंक का बंटवारा हो जाता है बल्कि प्रतिक्रिया में हिंदू समाज के बहुमत को गोलबंद कर भाजपा की जीत का रास्ता भी खुल जाता है। 
इसके बाद सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार का मुसलमानों के साथ सौतेला व्यवहार चुनाव के दौरान उनके विरोध से कुछ गैर मुस्लिमों को न्यायसंगत लगने लगता है। जबकि भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति के लिये यह काम हर हाल में करना ही था। यहां मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिये कि अगर वे किसी दल को सकारात्मक वोट देने की नई परंपरा अपनाते हैं तो उनका वोट इधर उधर खराब ना होकर एक ही पार्टी को जाने से वह दल मज़बूत होगा और वह यह भी मानेगा कि मुसलमानों ने उसको वोट देकर उस पर ज़िम्मेदारी डाल दी है कि सत्ता में आने पर उनका भी बराबर काम करे या विपक्ष में रहने पर उनके जायज़ मुद्दों के लिये भी आंदोलन संघर्ष या विरोघ प्रदर्शन करने को तैयार रहे। लेकिन जब मुसलमान किसी सीट पर किसी को और किसी सीट पर किसी को केवल इस वजह से वोट देते हैं कि ऐसा करने से भाजपा हार जायेगी तो इससे ऐसा कोई सही सही पैमाना नहीं बन पाता कि जिससे यह पता लग सके कि वास्तव में मुसलमानों ने उस भाजपा विरोधी केंडीडेट को ही वोट दिया है जो जीता है। इससे भाजपा तो ज़रूर उनसे ख़फा होगी लेकिन जीतने वाला उनका एहसान ज़रा भी नहीं मानेगा। 
खासतौर पर यूपी में मुस्लिम मतों का बंटवारा सपा कांग्रेस गठबंधन व बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार या कहीं मज़बूत व बहुमत वाली हिंदू जाति के निर्दलीय उम्मीदवार तक में साफ दिखाई दे रहा है। इसकी वजह यह है कि मैरिट पर मुस्लिम की पहली पसंद आज भी सपा बनी हुयी है लेकिन उसके पास ऐसा कोई नपा तुला सही सही पैमाना नहीं है कि कौन सी सीट पर भाजपा को हराने के लिये वह किस उम्मीदवार के साथ गारंटी से जीत की उम्मीद कर सकता है? इसके लिये उसे हारने का जोखिम उठाकर भी अपना दल या प्रत्याशी पहले से तय करने की ज़रूरत है। इसमें वह यह ज़रूर तय कर सकता है कि उम्मीदवार इतना कमज़ोर ना हो कि वह मुख्य मुकाबले से पहले ही बाहर दिखाई दे रहा हो। ऐसे में वह किसी दूसरे विकल्प पर विचार कर सकता है। पूरे देश में ऐसी 102 लोकसभा सीट हैं जिनपर मुस्लिमों की तादाद हार जीत के नतीजे तय करने की हालत में है। इनमें से कश्मीर की अनंतनाग बारामूला और श्रीनगर 3 असम की ढुबरी करीमगंज बरपेटा और नावगांग 4 बिहार की किशनगंज 1 छत्तीसगढ़ की रायपुर 1 केरल की मलापपुरम व पोन्नानी 2 लक्षदीप की 1 और पश्चिम बंगाल की जंगीपुर बहरामपुर मुर्शिदाबाद 3 संसदीय सीट सहित कुल 15 सीटें ऐसी भी हैं जिनमें मुसलमानों की मतसंख्या आधे से ज्यादा है। 
इसके साथ ही सबसे अधिक मुस्लिम मतों वाले संसदीय क्षेत्र का राज्य यूपी है जिसमें रामपुर मंे 49 प्रतिशत, मुरादाबाद में 46 बिजनौर में 42 अमरोहा सहारनपुर में 39 मुजफ्फरनगर में 38 बलरामपुर में 37 बहराइच में 35 बरेली में 34 मेरठ में 33 श्रीवस्ती में 26 बागपत में 25 गाजियाबाद पीलीभीत व संतकबीरनगर में 24 बाराबंकी में 22 बदायूं बुलंदशहर और लखनउू में 21 फीसदी मुस्लिम वोट हैं। लंबे समय तक यह होता रहा है कि मुसलमान भाजपा को हराने के लिये तमाम शिकायतों और कमियों के बावजूद कांग्रेस के साथ अन्य कोई विकल्प ना होने से एकतरफा जाता रहा लेकिन जैसे जैसे उसे क्षेत्रीय दल विकल्प के तौर पर उपलब्ध हुए वह उनके साथ हो लिया। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि लोकसभा की जिन 38 सीटों पर मुसलमान वोट 30 से 50 फीसदी हैं उन पर ही हिंदू वोटों का जवाबी ध्रुवीकरण होने से भाजपा और उसके सहयोगी दल ज्यादा मजबूत माने जाते हैं और जिन 49 सीटों पर मुस्लिम मतों की संख्या 20 से 30 फीसदी है वहां वे किसी एक हिंदू जाति के केंडीडेट के साथ जाकर सीट निकालने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत जिन 15 सीटों पर वे बहुमत में हैं उनमें भी बहुसंख्यक हिंदुओं की तरह बंटवारा होने से कई बार वे वहां के अल्पसंख्यक उम्मीदवार से मात खा जाते हैं। इसका बेहतर समाधान यह है कि मुसलमान चाहे भाजपा को वोट करें या ना करें या कम करें कुछ मुसलमान भाजपा को वोट करते भी हैं ऐसा विगत चुनाव के आंकड़े बताते हैं लकिन इसमें उनका विरोध या बाॅयकाट करने की ज़रूरत इसलिये भी नहीं है क्योंकि आज भी देश के आधेे से अधिक हिंदू भाजपा को वोट नहीं देते लेकिन उनके साथ कोई सौतेला व्यवहार नहीं हो रहा है।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
 चिराग़ सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं ।।
 *नोट- लेखक नवभार टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।*

Friday 5 April 2024

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट

जब मंुबई पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का राज चलता था!
0 यूपी सहित देश के कई राज्यों में बदमाशों को फर्जी मुठभेड़ों में मारने का चलन देखने में कुछ अधिक ही आ रहा है। लेकिन कानूनन यह सही नहीं माना जा सकता है। देश की आर्थिक राजधानी में 1990 का दशक अचानक गैंगवार बढ़ने का दौर था। एक समय था जब महाराष्ट्र की राजधनी मंुबई में पुलिस दारोगा प्रदीप शर्मा विजय सालस्कर प्रफुल भोंसले दया नायक सचिन वाजे़ अरूण बरूडे रविंद्र आंगरे असलम मोमिन मुहम्मद तनवीर और सदफ़ मोडक अंडर वल्र्ड की चुनौती से निबटने को शासन प्रशासन की तरफ से हीरो की तरह सामने आये। इन पुलिस अफसरों को गेंगस्टर्स से भिड़ने के लिये फ्रंी हैंड दिया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि इन्होंने जिस अपराधी को माफिया बताकर मार डाला इनसे उस पर कभी कोई सवाल नहीं पूछा गया। बाद में आरोप लगने पर जांच हुयी तो पता चला कि इसमें पैसे का खेल चल रहा था।      
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
मार्च 2019 में जब बाॅम्बे हाईकोर्ट ने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा और अन्य एक दर्जन पुलिस वालों को रामनारायण गुप्ता उर्फ लखन भैया को फर्जी मुठभेड़ में मारने के आरोप में पहली बार सज़ा सुनाई तो पता चला कि मुंबई में जिन बदमाशों माफियाओं और अंडर वल्र्ड के नाम पर बड़े पैमाने पर एनकाउंटर कर अपने नंबर बढ़ाने का कुछ पुलिस अफसर खेल कर रहे थे। उसकी वास्तविकता कुछ और ही थी। आश्चर्य की बात यह है कि प्रदीप शर्मा पर हत्या का आरोप साबित होने से पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि नायक खलनायक भी हो सकते हैं? अजीब बात यह है कि प्रदीप शर्मा के अलावा बाकी मामालों में ना तो आरोपों की गंभीरता से किसी और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की जांच हुयी और ना ही सज़ा मिलने का सवाल उठा। आंकड़े बताते हैं कि मंुबई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दारोगा प्रदीप शर्मा ने सौ से अधिक विजय सालस्कर ने लगभग 75 प्रफुल भोंसले ने 70 और दया नायक ने लगभग 80 लोगों को मुठभेड़ में ठिकाने लगा दिया। यह वह दौर था जब अंडर वल्र्ड खुद एक दूसरे गैंग के बदमाशों को भी पुलिस से सेटिंग या मुखबरी करके मारने का मौका तलाश करता था। 1998 में जब दाउूद इब्राहीम और छोटा राजन गैंग के दो बदमाश पुलिस मुठभेड़ में मारे गये तो तत्कालीन शिवसेना भाजपा युति की सरकार ने पुलिस को आगे भी ऐसे एनकाउंटर करने के लिये फ्री हैंड देने की घोषणा कर दी। 
जिससे एनकाउंटर विशेषज्ञ पुलिस अधिकारियों को अपना काम करने का खुला मौका मिल गया। 1996 से लेकर 2000 तक मुंबई पुलिस के इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स ने 400 से अधिक गुंडो मवाली बदमाशों को मार डाला। बताया जाता है इनमें से अधिकांश पुलिस एनकाउंटर विशेषज्ञ 1983 बैच के थे। इनको आईपीएस अरविंद ईनामदार ने प्रशिक्षित किया था। इनमें से कुछ रिटायर होने तक एनकाउंटर को लेकर विवाद आरोप और निलंबन का सामना करने को भी मजबूर हुए। इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का बदमाशों पर इतना डर छाने लगा था कि उस समय का एक कुख्यात गैंगेस्टर अरूण गवली तो जान बचाने के लिये राजनीति में आ गया। उसने एक चुनाव भी लड़ा। इस चुनाव के दौरान एक दिन अचानक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर किसी कानूनी काम से उसकी गली के बाहर अपनी कार पार्क कर रहे थे तो गवली इतना डर गया कि उसने उसी समय कुछ पत्रकारों को अपने निवास पर बुलाकर आरोप लगाया कि सालस्कर उसका एनकाउंटर करने आये हैं। इस खौफ में अरूण गवली अपना वोट डालने भी घर से नहीं निकला। जबकि ऐसा कुछ नहीं था कि सालस्कर उसको ठिकाने लगाने आये हों। 
मानवाधिकारवादी, कानून में विश्वास रखने वाले और विपक्ष के कुछ नेता जहां इस तरह के थोक मंे हुए एनकाउंटर को गलत बताकर लगातार विरोध करते थे तो वहीं कुछ नागरिक कोर्ट कचहरी में सालोें तक चक्कर लगाने के बाद भी इन बदमाशों को सज़ा ना मिलने से इस शाॅर्टकट और तत्काल मौत की सज़ा को सही बताते थे। पुलिस के अधिकांश वरिष्ठ अधिकारी जहां इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का सरकार के दबाव मंे बचाव करते थे वहीं  कुछ अपवाद और ईमानदार कानून के रखवाले यह कहकर विरोध भी करने लगे थे कि एनकाउंटर के नाम पर कुछ स्पेशलिस्ट अपने रिपोर्ट कार्ड को चमकाने के लिये मामूली अपराध करने वालों को भी मार गिराते हैं। जांच करने पर ये तथ्य भी सामने आये कि कुछ स्पेशलिस्ट सिविल विवाद हाथ में लेकर ऐसे लोगों को भी मुठभेड़ में मार डालते थे जो बिल्डर या कमीशन के चक्कर में एक दूसरे को सबक सिखाना चाहते थे। हालांकि विवाद आरोप प्रत्यारोप और बदनामी बढ़ने व सरकार के खिलाफ ऐसे मामले बड़ी संख्या में कोर्ट जाने पर पुलिस के मुखिया को अपने अधीन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को यह चेतावनी देने पर मजबूर होना पड़ा कि ऐसे मामले किसी कीमत पर भी सहन नहीं किये जायेंगे। लेकिन दबे छिपे कम ज्यादा यह अभियान जारी रहा। 
इसी दौर की एक रोचक जानकारी यह भी खुली कि कई बार कुछ जूनियर व सीध्ेा सादे पुलिस वाले एनकाउंटर स्पेशलिस्ट से अपील करते कि उनका नाम भी मुठभेड़ करने वाली टीम में फर्जी तौर पर शामिल कर लिया जाये जिससे उनका भी कुछ नाम हो जाये। ऐसा हुआ भी लेकिन जब फर्जी एनकाउंटर की जांच हुयी और हत्या का अपराध साबित हुआ तो यह बिना मुठभेड़ किये नाम कमाने वाले पुलिस वाले भी जेल चले गये। जिस लखन भैया के फर्जी एनकाउंटर में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा को हाईकोर्ट से सज़ा मिली है। उसमंे यह भी सामने आया कि शर्मा ने डी एन नगर अंधेरी पुलिस स्टेशन मंे एक गोपनीय आॅफिस बना रखा था। वह पुलिस की बजाये प्रावेट वाहन प्रयोग कर लोगों को उठा लाता था। पुलिस स्टेशन में रवानगी वापसी केस डायरी जीडी का कोई रिकाॅर्ड नहीं रखा जाता था। 11 नवंबर 2016 को शर्मा के मुठभेड़ दल ने ऐसा ही फर्जी दावा कर लखन भैया को मार डाला था। घटना से चार घंटे पहले ही लखन के भाई रामप्रसाद ने बड़े अफसरों को ऐसी फर्जी मुठभेड़ की आशंका की शिकायत भेजी थी जो बाद में पुलिस के लिये गले की फांस बन गयी।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
  चराग़ सब के बुझेंगे हवा किसी की नहीं।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटेकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*