Wednesday 23 November 2016

स्मार्ट फ़ोन

स्मार्ट फ़ोन ले लिया,  लेकिन करोगे क्या?

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

आजकल दिखावे का दौर है। कुछ लोग कुछ चीजे़ं सिर्फ़ इसलिये ख़रीद लेते हैं क्योंकि उनके पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसा आ जाता है। कुछ लोग अपने ज़रूरी ख़़र्च रोककर भी ऐसी ख़रीदारी कर ले रहे हैं। जिससे लोग उनको बड़ा आदमी मानें। अब स्मार्ट फ़ोन को ही ले लीजिये। जब शुरू शुरू में स्मार्ट फोन बाज़ार में आया तो लोगों को लगा कि यह मोबाइल का कोई नया मॉडल होगा। धीरे धीरे इसका फैशन बढ़ता गया। कई ऐसे लोगों ने स्मार्टफोन खरीद डाला। जिनको इसकी ज़रूरत ही नहीं थी। कुछ ऐसे लोग भी स्मार्ट फोन मार्केट से खरीद लाये जिनको आज तक इसको चलाना नहीं आया। कुछ ऐसे लोगों केे हाथ में भी स्मार्ट फोन देखा जा रहा है। जो इसकी स्मार्टनैस का कभी किसी तरह का इस्तेमाल ही नहीं करते।

    

कुछ ऐसे लोग भी स्मार्ट फोन से लैस हो चुके हैं। जिनको इसे चलाने का अपने कारोबार नौकरी या नोट कमाने की हवस में ज़रा भी टाइम ही नहीं मिलता। सवाल यह है कि जब आपको स्मार्ट फोन इस्तेमाल नहीं करना या इस्तेमाल करना आता नहीं तो उसको सीखते क्यों नहीं? ऐसा लगता है कि जिस तरह से कई लोग अपने पास बेतहाशा पैसा आने से मकान और शादी में बेहिसाब खर्च कर डालते हैं। महंगी कार ख़रीदते हैं। विदेष यात्रा पर जाते हैं। ब्रांडेड कपड़े पहनने लगते हैं। चांदी के बर्तनों में खाना खाने लगते हैं। उसी तरह से कुछ लोग अपनी वाहवाही कराने की नीयत से स्मार्ट फोन भी ले आये हैं। कुछ लोग बड़े साइज़ का मोबाइल लेते हैं तो कुछ सबसे महंगा ब्रांड लाते हैं।

   

स्मार्ट फोन पर खासतौर पर नेट चलाया जाता है। नेट से आप ई मेल फेसबुक ट्विटर ब्लॉग वाट्सएप इंस्टाग्राम हाईक टीवी एफएम ऑडियो वीडियो सामायिक समाचार पोर्टल गूगल सर्च यानी वर्ल्ड वाइड वैब से जुड़ जाते हैं। स्मार्ट फोन जेब में ठूंसे कई लोग आपको ऐसे मिलेंगे जिनको इनमें से कुछ भी नहीं चलाना। उनसे पूछो तो बतायेंगे कि बच्चो ने लाकर दिया है। कुछ कहंेगे कि उनको किसी ने गिफ्ट किया है। वे कभी कभी वाट्सएप पर आने वाली पोस्ट ज़रूर देखना सीख जाते हैं। उसमें भी उनको पता नहीं होता कि वो पोस्ट कौन भेज रहा है। उनको उस पर क्या रेस्पोंस करना चाहिये। उनको कोई अपने ग्रुप में जोड़ लेता है। तो वे फौरन उसको अनजाने लोगों का गैंग समझकर उससे अलग हो जाते हैं।

   

कुछ लोग लंबे समय तक ग्रुप में तो रहते हैं। लेकिन न तो कोई पोस्ट करते हैं और न ही किसी की पोस्ट पर कोई कमैंट करते हैं। कई लोग ग्रुप में आने वाली पोस्ट पढ़ते ही नहीं। कुछ ग्रुप खोलना भी गवाराह नहीं करते। कई लोग अपना नेट लंबे समय तक रिचार्ज ही नहीं कराते। कुछ को रोज़ नये ग्रुप बनाने का इतना भारी शौक होता है कि बिना मकसद बताये आयेदिन नये नये ग्रुप बनाते रहते हैं। अब चूंकि गु्रप का एडमिन ही जब उसका कोई उद्देश्य नहीं बताता तो उसमें उल्टी सीधी पोस्ट आने लगती है। नतीजा कई बार यह होता है कि किसी की ऐसी पोस्ट भी ग्रुप में आ जाती है जिससे पोस्ट करने वाला ही नहीं बल्कि उसको ग्रुप मंे जोड़ने वाला सीधा सादा ग्रुप एडमिन भी कानून के हाथों नप जाता है।

   

कई बार ऐसा भी होता है कि जब तक ग्रुप एडमिन को पता लगता है कि ग्रुप में किसी ने ऐसी कोई विवादित पोस्ट की है जिससे समाज में उसकी भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है। तब तक उसके खिलाफ साइबर एक्ट में रपट दर्ज कर पुलिस उसको जेल भेजने के लिये रवानगी कर चुकी होती है। कई बार तो ऐसे एडमिन को पुलिस के पहुंचने से पहले भावनाओं और धर्म के ठेकेदार ठोक पीटकर मौके पर ही सबक सिखा चुके होते हैं। स्मार्ट फोन के चक्कर में कई लोग स्मार्ट बनने से पहले ही फिसड्डी बनकर रह जाते हैं। हमारा तो मश्वरा यही है कि बिना ज़रूरत फोन लेकर स्मार्ट बनने की न सोचें तो ही बेहतर है। अगर आप वास्तव में स्मार्ट योग्य और समझदार हैं तो स्मार्ट फोन का सोच समझकर इस्तेमाल करें।

Monday 21 November 2016

दंगे कौन कराता है?

*जनता तो दंगे नहीं करती...*

सोशल मीडिया पर आजकल वैसे तो नोटबंदी को लेकर ही अधिकांश पोस्ट चल रही है। लेकिन इस नोटबंदी को ही लेकर एक ऐसी पोस्ट भी वायरल हो रही है जो गहराई से सोचने को मजबूर करती है। इसमें कहा गया है कि आज नोटबंदी को लेकर आम जनता में हाहाकार है। इसके बावजूद एक अच्छी बात यह है कि जनता तमाम परेशानी नुकसान और यहां तक कि जान जाने के बावजूद सब्र से काम ले रही है। कहीं भी अभी तक बैंक में तोड़फोड़ सार्वजनिक सम्पत्ति में आगज़नी या दंगे  की कोई घटना नहीं हुयी है। यह एक सराहनीय और प्रेरणास्पद बात है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे हालात में दंगों का यह संदेह जताया है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि देश में इससे पहले जो इस तरह की हिंसा होती रही है।

    

वह कौन कराता है? क्या यह एक सुनियोजित और पेड साज़िश होती है? और आज करंसी उपलब्ध न होने से भाड़े के लोग खरीदे नहीं जा पा रहे? क्या इसको सियासी लोग उकसाते हैं? कांग्रेस माकपा भाजपा और शिवसेना जैसे दलों के कुछ नेताओं के नाम तो कई बार ऐसी हिंसक घटनाओं की जांच के बाद आरोपी के तौर पर सामने भी आये हैं। हम यह तो नहीं कह सकते कि ऐसा इन पार्टियों के एजेंडे में होता होगा क्योेंकि इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ा है कि जिन दलों और नेताओं से समाज प्यार भाईचारा और अमनचैन की आशा करता है। उनका अपना दामन इस मामले में पूरी तरह साफ नहीं है।

    

इस आरोप और शक को एक और तरह से समझने की कोशिश करते हैं। यूपी में अगले साल के शुरू में  चुनाव होना है। यह चुनाव मोदी सरकार के लिये 2019 का आम चुनाव जीतने के लिये भी शक्ति परीक्षण जैसा बनने जा रहा है। इससे पहले भाजपा बिहार का चुनाव हारकर पहले ही काफी दबाव और भारी सदमें में है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में यूपी में साम्प्रदायिक दंगों की घटनायें मात्र 394 थीं। जो 20012-13 में बढ़कर 1000 को पार कर गयीं। 2013-14 में यह आंकड़ा 2186 पहुंच गया। 2014-15 में 2884 और आज 15-16 में 3708 तक हो चुका है। ज़ाहिर बात है कि चुनाव जैसे जैसे करीब आते जा रहे हैं ।

     

यह आंकड़ा तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। सवाल यह है कि क्या एक छोटा बच्चा भी यह अंदाज़ नहीं लगा सकता कि चुनावी सियासत और दंगों में कहीं न कहीं कुछ तार जुड़े हैं? आप एक बात और नोट कर लो अगर पुराने आंकड़ों के हिसाब से अनुमान लगाया जाये तो चुनाव के बाद चाहे बीजेपी जीते और चाहे सपा बसपा यह आंकड़ा तेजी़ से नीचे आ सकता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद कांग्रेस की राजीव सरकार छप्पर फाड़ बहुमत से जीतकर आई थी। ऐसे ही गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद जो मोदी सरकार तीन उपचुनाव हार कर विधानसभा चुनाव हारने के कगार पर थी। अचानक भारी बहुमत से जीतकर वापस आ गयी थी।

   

हालांकि इन दंगों की जांच करने वाले आयोगों ने इन दंगों का इन चुनावी जीत से कोई रिश्ता नहीं माना था। लेकिन यह बात शक और चर्चा का एक मुद्दा तो उठाती ही है कि हमारे देश में दंगों और चुनावी सियासत का क्या लिंक है? हैरत और दुख की बात यह है कि इन दंगों से कभी भी किसी बड़े आदमी का कोई नुकसान नहीं होता। इन साम्प्रदायिक हिंसक टकराव में केवल आम आदमी ही तबाह और बरबाद होता है। वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान या किसी भी धर्म का। पता नहीं ऐसे नेताओं को इसके बाद भी अपना मसीहा और आक़ा मानने वाले आम धर्मभीरू लोग कब इस सियासी खेल को समझेंगे?

 

मसलहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,

तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

Friday 11 November 2016

Zakaat ka nisaab


🔸QUESTION-

Sister I want to know about the ruling on zakat? What are the rules of zakat on agricultural land and properties? I want to know whole procedure of zakat.

🔹ANSWER-

Zakah is one of the pillars of Islam and it's obligatory for the person to pay upon whom it's due.

🔷 Nisaab for gold as our Prophet (peace be upon him) has informed us (and for currencies made from gold) is 20 mithqaalan , a measure which is equivalent to 85 grams of pure gold (1 mithqaal = 4.25 grams). *It becomes incumbent upon anyone who owns such an amount in any form to pay zakat on it in the amount of 2.5%.*

🔷Nisaab for silver and currencies made from silver is 200 dirhams, which is equivalent to 595 grams of pure silver (1 dirham = 2.975 grams). Likewise, it becomes incumbent upon anyone who owns such an amount in any form to pay
zakat on it in the amount of 2.5%.

🔷 In order for zakaah to be due on money, two conditions must be met:

1 – That it reaches the nisaab (minimum threshold)

2 – That one year has passed since it reaches the nisaab.

If the money is less than the nisaab, then no zakaah is due on it.
If it reaches the nisaab, and one year has passed, i.e. a lunar (hijri) year has passed since the time when it reached the nisaab, then zakaah becomes due at that point.
The nisaab is the equivalent of 85 grams of gold or 595 grams of silver.

🔶Zakah is obligatory on any wealth that reaches the nisab if it is stored for one year

💠Shaykh Ibn Baz said -

Wealth that is being saved to get married, to build a home or for other purposes is subject to zakaah if it reaches the nisaab and one full year has passed, whether it is gold, silver or cash, because of the general meaning of the evidence which indicates that zakaah is obligatory on that which reaches the nisaab and one full year has passed, with no exceptions.
➖ Majmoo’ al-Fataawa (14/126)

💠 Shaykh Ibn Baaz (may Allaah have mercy on him) said:
There is no zakaah on houses if they are for living in… but with regard to land, houses, stores and the like that are prepared for sale, zakaah is due on these according to their value each year when a full year has passed, regardless of whether their value has risen or fallen, if the owner has firmly resolved to sell them.
➖Majmoo’ Fataawa al-Shaykh Ibn Baaz, 14/173

💠 The scholars of the Standing Committee said:

Trade goods are those which have been prepared for sale and purchase of all kinds or property. Zakaah must be paid on them if their value reaches the nisaab of gold and silver, and the owner took possession of them with the intention of trading them. Their value in gold and silver should be estimated at the end of the year, in favour of the poor and needy. The basic principle concerning that is the verse in which Allaah says (interpretation of the meaning):
*“O you who believe! Spend of the good things which you have (legally) earned”*
➖[al-Baqarah 2:267]
i.e., what you have earned by trade; this was the view of Mujaahid and others. Al-Baydaawi and others said: Spend of the good things which you have earned, i.e., the obligatory zakaah.
And Allaah says (interpretation of the meaning):
*“And those in whose wealth there is a recognised right”*
➖[al-Ma’aarij 70:24]

💠 Shaykh Ibn Baaz (may Allaah have mercy on him) said:
Gold is the thing on which zakaah is due; as for precious stones and diamonds, no zakaah is due on them unless they are for trade purposes.
➖Majmoo’ Fataawa wa Maqaalaat Mutanawwi’ah li’l-Shaykh Ibn Baaz, 14/121

🔷Zakah is to be paid on jewellery prepared for use-

💠It was narrated that ‘Aa’ishah (may Allaah be pleased with her), the wife of the Prophet (peace and blessings of Allaah be upon him), said: The Messenger of Allaah (peace and blessings of Allaah be upon him) entered upon me and I was wearing rings of silver on my hand. He said: “What is this, O ‘Aa’ishah?” I said: “I made them to adorn myself for you, O Messenger of Allaah.” He said: “Have you given zakaah on them?” I said: “No.” He said: “The punishment for them in Hell is enough for you.”
➖Narrated by Abu Dawood, 155; classed as saheeh by al-Albaani in
Saheeh Abi Dawood.

🔶 Ruling on Zakah on agricultural land
From `Abdul-`Aziz ibn `Abdullah ibn Baz--

If the land that you mentioned is prepared for sale, Zakah (obligatory charity) is due on its value every Hawl (one lunar year calculated from the time a property reaches the minimum amount upon which Zakah is due). If it is prepared for cultivation, Zakah is due on the produce grown on it that is liable to Zakah, such as wheat, barley, millet, corn, etc. There is also Zakah on the produce of the date-palm trees or grape vines, if the grain or fruit reaches the Nisab (the minimum amount on which Zakah is due). However, there is no Zakah on produce that does not reach the Nisab.

If you bought it with the intention of keeping it, not re-selling it, there is no Zakah due on it until the buyer intends to use it for trade. As such, the year with regard to trade goods starts from the time of the intention, for it is reported on the authority of Samurah ibn Jundub (may Allah be pleased with him) that he said: We used to pay the sadaqah (Zakah) on what we prepared for trade.

ब्लैक मनी बनना रोको.....

भली लगे या बुरी

*ब्लैकमनी: ऑपरेशन बनाम जनरेशन!*

 

सरकार ने 500 और 1000 के नोट अचानक बंद कर दिये। इसमें कोई दो राय नहीं यह ब्लैकमनी के खिलाफ एक बड़ा और सराहनीय ही नहीं साहसी कदम है। साहसी हम इसलिये कह रहे हैं क्योंकि जिस मोदी सरकार पर विपक्ष बार बार व्यापारियों और उद्योगपतियों की सरकार कहकर हमले करता हो। उस भाजपा सरकार द्वारा ऐसा बड़ा क्रांतिकारी फैसला करना वास्तव में बहुत बड़ी बात है। इसमें कुछ सच्चाई भी है कि भाजपा के वोटर और सपोर्टर में एक बड़ा हिस्सा उस वर्ग का रहा है जिसपर कालाधन अधिक होने का अनुमान लगाया जाता है। सवाल यह है कि सरकार ने एक तरह से डायबिटीज़ वाले को इंसुलिन का इंजेक्शन तो लगा दिया है।

  

लेकिन शुगर का मरीज़ इसके बाद भी अगर शक्कर बराबर खाता रहेगा। तो कालेधन के रोग का इलाज स्थायी रूप से नहीं हो सकेगा? इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी सरकार की यह सब कवायद बेकार जायेगी। इसका नतीजा आने में कुछ समय लग सकता है। लेकिन यह कार्यवाही बहुत सोच समझकर की गयी है। इसका देश को आगे चलकर भारी लाभ हो सकता है। इसमें कोई दो राय या अगर मगर हो ही नहीं सकती। जहां तक सरकार का इस बड़ी योजना को लागू करने का मामला है तो उसमें कुछ कोताही या कमियां हो सकती हैं। जैसे सरकार ने एक दिन बैंक और दो दिन एटीएम बंद कर बाज़ार में एक तरह से कर्फ्यू लगा दिया है।

   

साथ ही जिन अस्पताल रेलवे हवाई अड्डे और पेट्रोल पंपों पर उसने बड़े नोट दो दिन तक चलने का दावा किया था। व्यावहारिकता में वह सब औपचारिकता बन कर रह गया। किसी भी प्राईवेट हॉस्पिटल और मेडिकल स्टोर ने यह कहकर 500 और 1000 का नोट नहीं लिया कि यह आदेश सरकार ने सरकारी अस्पतालों और उनमें बने अपने मेडिकल स्टोर के लिये जारी किये हैं। रेलवे के कई स्टेशनों पर यात्रियों को ये नोट लेने से सीध्ेा मना किया गया। यहां तक कि पेट्रोल पंपों ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि तेल कई दिन से आया ही नहीं है। अगर आप चाहें तो सौ या पचास रू. का तेल मिल सकता है। वह भी इस शर्त पर कि आप सौ या पचास का नोट ही तेल के पेमेंट में देने को तैयार हों।

   

यह सब जानते ही हैं कि हमारे देश में नियम कानून न मानने वाले की शिकायत करने की जनता में परंपरा नहीं है। उसको शिकायत करने से दो बातें रोकती हैं। एक उसका पैसा और समय लगेगा। दूसरा जिसकी शिकायत की जा रही है। उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं। वजह जिससे शिकायत की जा रही है। वह आरोपी का ही पक्ष लेगा। सब जानते हैं कि अधिकारी और सरकार के मंत्री ऐसे बड़े लोगों से चुनाव में मोटा चंदा और गाहे बगाहे या मासिक तौर पर बंधी बंधाई मोटी रकम फीलगुड करने को लेते हैं। हम बात कर रहे थे कालेधन के ऑप्रेशन बनाम जनरेशन की। हमारा कहना है कि जब तक कालेधन के बनने के रास्ते एक एक कर बंद नहीं किये जायेंगे तब तक यह समस्या कुछ समय के लिये पेनकिलर का काम तो करेगी।

   

लेकिन जिस तरह से हमारे देश में 80 फीसदी से अधिक लेनदेन नकद और फर्जी बिलों से होता है। उसको रोकने के लिये जीएसटी या नेट बैंकिंग अनिवार्य करने जैसे विकल्प भविष्य में अपनाने होंगे। इसके लिये दो मिसाल आप समझ सकते हैं। जब टेलिफोन एक्सचेंज मैनुअल बुकिंग करके कॉल लगाते थे तो ऑप्रेटर रिश्वत लेते थे। अब सबके पास आईएसडी करने को भी मोबाइल है। ऐसे ही रेलवे में जब मैनुअली बर्थ रिज़र्वेशन होती थी तो जमकर सीटों की ब्लैक होती थी। लेकिन जब से यह सिस्टम नेट द्वारा ऑप्रट होने लगा है। तब से कोई चाहकर रिज़र्वेशन की उपलब्ध्ता को छिपा नहीं पाता। लोग घर बैठे अपने आप नेट से पेमैंट कर अपना रेल टिकट छाप लेते हैं। आईडी साथ रखने की शर्त से इसमें जो थोड़ी बहुत गड़बड़ी हो रही थी।

   

उस पर भी लगाम लग गयी है।  ऐसे ही सरकारी मशीनरी को रिश्वत लेने से रोकने के लिये अधिकांश जनता से जुड़े काम टाइमबौंड और नेट पर पारदर्शिता से किये जाने चाहिये। जिससे ब्लैकमनी को श्रोत पर ही रोका जा सके। इसी तरह से व्यापारी उद्योगपति और नेताओें आदि के लिये चुनावी चंदा चैक से लेने का कानून बनाकर कालेधन को काफी हद तक जन्म लेने से पहले ही गर्भ में उसकी भू्रण हत्या की जा सकती है।

 

इब्तिदा ए इश्क़ है रोता है क्या

आगे आगे देखिये होता है क्या।

भोपाल एनकाउंटर

*भोपाल मुठभेड़ का मैसेज क्या है ?*

इक़बाल हिन्दुस्तानी 

     *0 पुलिस का रूख़ तो अकसर जनविरोधी रहता ही है।*

    

     *0 भाजपा सरकारों की मुस्लिम विरोधी मुहिम भी इसकी जड़ में है।*

 

     *0 मुस्लिम समाज ही नहीं सेकुलर हिंदू भी एनकाउंटर को फर्जी मान रहे हैं।*

 

     *0 सुप्रीम कोर्ट की जांच से ही सच न केवल पता लग सकता है बल्कि उसको सभी स्वीकार भी कर सकते हैं।*

 

     *0 सरकार पुलिस और मीडिया को आरोप साबित होने से पहले किसी को भी आतंकवादी बताने का अधिकार नहीं है।* 

   

भोपाल में सिमी के 8 आरोपियों की पुलिस से मुठभेड़ में हुयी मौत को काफी दिन बीत चुके हैं। लेकिन कोई पुलिस की कहानी पर पूरा यकीन नहीं कर रहा। सरकार और विपक्ष तो इस मामले को लेकर आमने सामने हैं ही। साथ ही देश की जनता भी इस मुद्दे पर कई हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग का कहना है कि एमपी की शिवराज सरकार और पुलिस जो कुछ दावा कर रही है। वह सौ फीसदी ठीक है। दूसरे वर्ग का कहना है कि एनकाउंटर की कहानी खुद बता रही है कि यह फर्जी है। इस वर्ग का यह भी दावा है कि अगर ऐसे फर्जी एनकाउंटर का सिलसिला आगे भी जारी रहता है तो इससे आतंकवाद ख़त्म होने की जगह उल्टा बढ़ भी सकता है?

     

एक तीसरा कट्टर और घोर साम्प्रदायिक उग्र वर्ग भी है जो खुलेआम सोशल मीडिया पर यह अभियान चला रहा है कि अगर यह एनकाउंटर फर्जी भी है तो भी अच्छा है। उसका कहना है कि अगर ऐसे लोगों को सिस्टम से सज़ा नहीं दी जा सकती तो अब ऐसा ही शॉर्टकट अपनाना होगा। इस फासिस्ट और अंध मुस्लिम विरोधी वर्ग की अक्ल पर इस कदर पत्थर पड़े हुए हैं कि वह खुलेआम यह दावा भी करता है कि मुस्लिम होने का मतलब ही अलगाववादी और उग्रवादी होना है। अच्छी बात यह है कि इस मामले में अगर उग्र हिंदूवादी सोच का कोई जमकर विरोध कर रहा है तो वह भी खुद सेकुलर मानवतावादी और ईमानदार हिंदू ही हैं।

   

एक चौथा वर्ग भी है जो इस विवादित मुठभेड़ की आड़ में मुसलमानों को भड़काने और उकसाने की कोशिश कर रहा है। इस चौथे कट्टरपंथी और तालिबानी सोच के वर्ग का दावा है कि ये आठों कथित सिमी से जुड़े आरोपी जल्दी ही कोर्ट से बाइज़्जत बरी होने वाले थे। इसलिये इनको इस तरह से फर्जी मुठभेड़ में मारा गया है। इस चौथे वर्ग का यह भी कहना है कि यह बात खुद इन आठों आरोपियों के वकील ने केस की बरी होने लायक स्थिति के आधार पर अनुमान से बताई है। हम नहीं कह सकते कि यह दावा कितना सही है क्योेंकि जब तक कोर्ट किसी मामले मंे कोई अंतिम फैसला ना दे दे मेरे विचार में किसी एक पक्ष के वकील के दावे के आधार पर यह मान लेना ठीक नहीं होगा।

    

वैसे भी किसी भी पक्ष का वकील हो वह एक तरह से पार्टी ही होता है। उसको इसी मामले में नहीं हर कमज़ोर और बोगस मामले में भी या तो खुद अपनी जीत का भरोसा वास्तव में होता ही है या फिर वह अपनी पार्टी को गुमराह करने या उसका हौंसला बनाये रखने के लिये ऐसे दावे करता ही है। सवाल यह है कि इस सारे मामले को लेकर देश के मुसलमान क्या सोच रहे हैं? मेरी कई ज़िम्मेदार उच्च शिक्षित और आम मुसलमानों से भी पत्रकार होने के कारण इस मुद्दे पर बात होती रहती है। मुझे भी सेकुलर देशप्र्रेमी और निष्पक्ष होने के बावजूद यह जानकर बड़ी हैरत और दुख हुआ। लगभग सभी मुस्लिम लोग इस एनकाउंटर को फर्जी मान रहे हैं।

    

उनका तो यह भी कहना है कि पुलिस अकसर मुसलमानों को बदनाम करने और आतंकित करने के लिये गाहे ब गाहे नौजवानों को आतंकी बताकर पकड़ लेती है। उनको दस बीस साल जेल में रखा जाता है। भयंकर यातनायें दी जाती हैं। उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत न होने के बाद भी पुलिस उनसे अपराध कबूल करने के लिये  थर्ड डिग्री इस्तेमाल करती है। उनका यह भी कहना है कि भाजपा की सरकारों में ऐसा ज्यादा होता है। वे यह भी सबूत देते हैं कि आतंक के ऐसे आरोपी कोर्ट में अकसर बेकसूर पाये जाते हैं। तमाम मुसलमान मीडिया और सरकार से इस बात पर भी ख़फा हैं कि वह आरोप साबित होने से पहले ही ऐसे लोगों को आतंकी बताकर पूरे मुस्लिम समाज को बदनाम करती है।

    

उनका यह भी सवाल है कि साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित जैसे हिंदू आतंक के आरोपियों को केस के दौरान आतंकवादी क्यों नहीं बताया जाता? वे आतंक के आरोप लगने के बाद अदालत से बेकसूर पाये गये मुस्लिम पीड़ितों से सरकार द्वारा आज तक माफी मांगकर उनके पुनर्वास के लिये मुआवज़ा न दिये जाने से भी आहत हैं। उनका कहना है कि आतंक को किसी भी धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये। वे यह भी चाहते हैं कि अगर कोई भी नागरिक वास्तव में आतंकवादी है तो उसको फर्जी मुठभेड़ में नहीं बल्कि न्यायालय द्वारा फांसी की सज़ा देकर मारा जाना चाहिये। वे भोपाल एनकाउंटर की जांच सरकार की किसी एजंसी से न कराकर सुप्रीम कोर्ट के किसी वर्तमान जज से कराना चाहते हैं।

    

उनको यह भी डर है कि अगर ऐसे मामलोें मेें मुस्लिम समाज को भरोसे में नहीं लिया गया तो यह देश के लोकतंत्र और एकता अखंडता के लिये आगे चलकर बड़ा ख़तरा पैदा कर सकता है? लेकिन हमारा मानना है कि चाहे जो हो हमें अपने संविधान लोकतंत्र और समाज पर भरोसा बनाये रखना चाहिये। आज नहीं तो कल सच सामने आ ही जायेगा। इस मामले को हिंदू मुस्लिम रंग भी नहीं दिया जाना चाहिये। एक संपादक होने की वजह से हमें तो लगता है कि यह पुलिस और जनता के बीच का विवाद है। सरकार चाहे जिस पार्टी की हो पुलिस का चरित्र तो अकसर जनविरोधी ही रहता है। ज़रूरत पुलिस की जवाबदेही तत्काल तय करने और सिस्टम को लगातार पारदर्शी बनाने की अधिक है।          

 

ऐसा लगता है शायद यह दौर ए तबाही है,

शीशे की अदालत है पत्थर की गवाही है।

 

दुनिया में कहीं ऐसी तमसील नहीं मिलती,

क़ातिल ही मुहाफ़िज़ है क़ातिल ही सिपाही है।

Sunday 6 November 2016

एक ज़िंदा लाश....

72 यात्री और एक ज़िंदा लाश!

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

तारीख़ एक नवंबर। रात के 10 बज चुके थे। नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 16 पर मसूरी एक्सप्रैस आकर रूकी। आम यात्री बदहवास से रेल मेें सवार होने लगे। हम भी अपनी पत्नी और बेटी के साथ दिवाली की छुट्टी मनाकर घर लौटने के लिये इसी ट्रेन से आ रहे थे। हमने अपना रिज़र्वेशन कोच नंबर एस3 तलाश किया। उसका एक गेट बंद था। दौड़कर दूसरे गेट से एंट्री ली। जब हम अपनी रिज़र्व बर्थ 59, 60 और 61 तक पहंुचे तो एक असहनीय बदबू आनी शुरू हुयी। पहले तो हमने सोचा शायद रेल के इस कोच के टॉयलट की काफी समय से सफाई नहीं हुयी होगी। चलो सीट पर पहुुंचकर रेलवे की वैबसाइट पर शिकायत दर्ज करेंगे।

    

लेकिन यह क्या जैसे जैसे हम टॉयलट से दूर अपनी बर्थ की तरफ बढ़ते गये। दुर्गन्ध तेज से और तेज़ होती जा रही थी। हर इंसान को कुदरत ने कुछ ख़ास चीज़ से नवाज़ा है। जब रोज़ ऑफिस से मैं घर आता हूं तो परिवार को दरवाज़े में घुसते ही कई बार यह सटीक बता देता हूं कि आज रसोई में क्या खाना बना है। रेल में सवार होने के बाद भी जब मैं ने सबसे पहले यह बदबू महसूस की तो मेरी पत्नी ने कहा कि आप तो इस मामले में हो ही एक्सपर्ट। सीट पर पहंुचकर सबसे पहले हमने साथ के यात्रियों से यही जानना चाहा कि यह बदबू कहां से आ रही है? उनमें से कई ने अपनी नाक को रूमाल और दूसरी कपड़ों से ढका हुआ था। कई को उबकाई आ रही थी।

     

कुछ उल्टी का शिकार हो चुके थे। कोच की जिस साइड का गेट बंद था। यह असहनीय दुर्गन्ध उसी तरफ से आ रही थी। जानकारी करने पर पता चला कि लगभग 70 से 80 साल का एक बूढ़ा बीमार कोढ़ग्रस्ट लाचार इंसान उस गेट पर पड़ा हुआ है। बदबू उसके लगभग सड़ चुके शरीर से आ रही है। यह बात सुनकर मैं सन्न रह गया। फिर हिम्मत जुटाई और नाक पर रूमाल रखकर उस बेचारा और अंतिम सांसे गिन रहे लगभग बेहोश बुजुर्ग को देखने गया। उस बूढ़े बदकिस्मत इंसान से मैंन पत्रकार होने के नाते नाम पता और परिवार के बारे में पूछना चाहा। लेकिन वह इस हालत में था ही नहीं कि मेरे सवालों का जवाब दे सके। फिर वापस अपनी सीट पर लौटकर मैंने सहयात्रियों से मालूम किया वह रेल में सवार कैसे हुआ?

    

अब जो बात उन मुसाफिरों ने मुझे बताई वह और भी तकलीफ बढ़ाने वाली थी। उनका कहना था कि जब मसूरी एक्सप्रैस साढ़े नौ बजे सराय रोहिला दिल्ली से बनकर चली। तभी प्लेटफॉर्म से ट्रेन से रंेगना शुरू होने के बाद कुछ लोग इस बेबस कमज़ोर और असहाय बूढ़े को रेल के अंदर पटख़कर दरवाज़ा बंद कर भाग गये। वे यह नहीं जान सके कि वे लोग उस बूढ़े के परिवार के लोग थे या कोई और? लेकिन वे जो भी थे। बहुत हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में थे। ऐसा लगा जैसे वे किसी योजना के तहत उस बीमार इंसान से छुटकारा पाने के लिये रेल के चलने का इंतज़ार कर रहे थे। कोच के यात्रियों ने जब तक माजरा समझा। तब तक रेल की स्पीड बढ़ चुकी थी।

    

यात्री आपस में मानवता की इस त्रासदी पर चर्चा कम और असहनीय बदबू से निजात पाने को अधिक उतावले थे। मसूरी एक्सप्रैस जैसे ही नई दिल्ली स्टेशन पर पहंुची। कोच से कई यात्री उतरकर पुलिस को यह मामला बताने लगे। पुलिस ने एंबुलेंस को फोन किया। साथ ही यह दावा किया कि एंबुलैंस नहीं आयेगी। आती भी है तो दो चार घंटे बाद। और यही हुआ कि एंबुलैंस नहीं आई। मैंने पुलिस इंस्पेक्टर को अपने पत्रकार होने के बारे में बताया तो वे बड़ी बेरूख़ी से बोले जो देख रहे हो लिख देना। फिर मैंने अपने मोबाइल फोन पर ट्विटर खोलकर उस पर कंप्लैंट टाइप करनी शुरू की। पुलिस अफ़सर को दिखाया और एलर्ट करने के लहजे में बताया कि इस ट्वीट को मैं रेल मंत्री को टैग करने जा रहा हूं।

    

इस दौरान ट्रेन चल दी। मेरे कोच के जो यात्राी इस मामले की शिकायत करने के लिये डिब्बे से नीचे उतरे थे। उनमें से कुछ कोच का एक गेट बंद होने से नीचे प्लेटफार्म पर ही रह गये। बाकी यात्रियों ने फौरन रेल की चैन खींच दी। इस दौरान एंबुलैंस तो नहीं आई। लेकिन पुलिस ऑफिसर ने अपने कुछ पुलिस वालों को ज़रूर बुला लिया। आनन फानन में उस बूढ़े जर्जर और कब्र में पांव लटकाये इंसान को रेल के कोच से पुलिस ने नीचे खींचा और वहीं पटरियों  के बीच रख लिया। अब चूंकि ट्रेन दूसरी बार चल चुकी थी। रेल ने गति पकड़ ली। देखते ही देखते पुलिस वाले और वह बदबूदार इंसान हम सब मुसाफिरों की नज़रों से ओझल हो गया। यात्री ऐसे राहत की सांस ले रहे थे।

    

मानो कोई बहुत बड़ी मुुसीबत टल गयी। सब थोड़ी देर बाद ही अपनी अपनी बर्थों पर नींद की आग़ोश में खो चुके थे। एक मैं था जो यह सोचकर सुबह अपनी मंज़िल आने तक परेशान बेचैन और आत्मग्लानि का शिकार महसूस करता रहा कि क्या हम यात्रियों ने अपनी सुविधा बदबू से बचने और आराम से सफर करने के लिये उस बूढ़ मजबूर और ज़िंदा लाश बन चुके इंसान को कोच से पुलिस पर दबाव बनाकर नीचे उतरवाकर ठीक किया???         

 

किसी को भूख ने मारा किसी कोे प्यास ने मारा

एक हम हैं जिसको शिद्दते एहसास ने मारा।।