Sunday 25 October 2020

बेशर्म चैनल

बेशर्म चैनल: कोर्ट की फटकारफिर भी नहीं शर्मसार?

0फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले को टीवी चैनलों ने जिस बेशर्मी और गैर कानूनी तरीके से सनसनीखेज ख़बरों और खोजी पत्रकारिता के नाम पर मीडिया ट्रॉयल किया। वह अब हाईकोर्ट की नज़र मंे आ गया है। अब टीआरपी विवाद के बाद चंद चैनल अपनी ओछी और नापाक हरकतों की वजह से कोर्ट के शिकंजे में फंसते नज़र आ रहे हैं। उधर बॉलीवुड के 30 बड़े प्रोडक्शन हाउस बॉलीवुड की जानी मानी फिल्मी हस्तियों को बदनाम करने के लिये चैनलों के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत के सुसाइड केस के मीडिया ट्रॉयल पर ज़बरदस्त नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा है कि मीडिया आज ध््रुावीकृत हो चुका है। कोर्ट ने यह भी कहा कि पहले मीडिया निष्पक्ष और पत्रकार ज़िम्मेदार हुआ करते थे। कोर्ट ने कहा कि यह रेग्युलेशन का नहीं चैक एंड बैलेंस का मामला है। मीडिया को पता होना चाहिये कि उसकी सीमा कहां तक है। अदालत का कहना था कि हमारे देश में कानून का राज है। ऐसे में आप मीडिया ट्रॉयल कैसे कर सकते हैंन्यायालय ने यहां तक कह दिया कि अगर आप यानी मीडिया खुद ही जांचकर्ता अभियोजक और न्यायधीश बन जायेगा तो हम यानी जज यहां क्या करेंगेहाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के नेतृत्व में इस केस की सुनवाई कर रही बैंच ने पूछा कि जिस केस की सरकारी एजंसी जांच कर रही है। उसमें मीडिया जांच पूरी हुए बिना कोई निष्कर्ष सामने आये बिना खोजी पत्रकारिता के नाम पर किसी की गिरफतारी की मांग कैसे कर सकता हैआपको याद दिला दें कि रिपब्लिक टीवी ने ट्वििटर पर अरैस्ट रिया हैशटैग चलाया था। सवाल यह है कि किसी चैनल को यह अधिकार किसने दिया कि वह बिना किसी पुख्ता सबूत ठोस बुनियाद और अंतिम जांच पूरी हुए जनता से इस मुद्दे पर राय जाने कि किस मामले में किसको जेल भेजा जाना चाहियेकोर्ट ने इस बात पर सख़्त नाराज़गी दर्ज की कि कैसे एक चैनल सुशांत केस में यह तय हुए बिना कि उसने आत्महत्या की या उसकी वास्तव में हत्या ही हुयी हैउसको हत्या बताकर किसी को जेल भेजने की मांग कर सकता हैजांच की शक्ति भारतीय दंड आचार संहिता के तहत चैनल को नहीं पुलिस को मिली हुयी है। बैंच का यह भी कहना था कि वह मीडिया की सुशांत केस की रिपोर्टिंग को बिल्कुल भी सही नहीं मानता। पत्रकारों को ऐसे मामलों में ख़बर या चर्चा करते हुए खासतौर पर आत्महत्या के संवेदनात्मक मामलों में कानूनन तय की गयीं बारीकियों और नियमों का पालन हर हाल में करना चाहिये। मीडिया भी संविधान नियम कानून से बाहर जा कर कुछ भी बोलने दिखाने और करने के लिये स्वतंत्र नहीं है। किसी की मौत पर मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने को सनसनीखेज़ या किसी को बिना ठोस सबूत व जांच के सज़ा दिलाने की मांग भी नहीं कर सकता। मीडिया को मरने वाले का सम्मान मर्यादा और संयम रखना ही होगा। कोर्ट ने नेशनल ब्रॉडकास्टर फेडरेशन को भी कटघरे में खड़ा करते हुए उससे सवाल किया कि उसने ऐसे मीडिया ट्रॉयल पर बिना किसी के शिकायत किये खुद ही नोटिस क्यों नहीं लियाइसके बाद न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड ऑथोरिटी ने आजतक ज़ी न्यूज़ इंडिया टीवी और न्यूज़-24 को इस मुद्दे पर गैर ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग का दोषी मानते हुए अपने दर्शकों से बिना शर्त माफी मांगने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन ये टीवी चैनल इतने ढीट और निर्लज हो चुके हैं कि इसके खिलाफ भी स्टे को कोर्ट ज़रूर जायेंगे। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले में जमकर ज़ी टीवी की क्लास लगाई है। कोर्ट ने चैनल से पूछा कि वह जामिया के एक छात्र पर लगाये गये अपने गंभीर आरोपों का श्रोत बताये। उधर पुलिस ने कोर्ट में अपनी जान बचाने को साफ कह दिया कि उसने चैनल को छात्र से पूछताछ में मिली सनसनीखेज गोपनीय जानकारी लीक नहीं की है। इसका मतलब चैनल ने मनगढ़ंत आरोप लगाये हैं। इस मामले में या तो पुलिस फंसेगी या फिर चैनल पर झूठी ख़बर चलाने का केस चलेगा। बॉलीवुड के 30 बड़े प्रोडक्शन हाउस ऐसे ही चैनलों पर लगाम लगाने उनकी जवाबदेही तय करने और दोषी पाये जाने पर उनको सज़ा और फिल्मी हस्तियों को करोड़ों का मानहानि का मुआवज़ा दिलाये जाने की मांग को लेकर हाईकोर्ट पहंुच गये हैं। उनका कहना है कि सुशांत सिंह राजपूत के मामले में सीबीआई और एम्स की जांच में यह साबित हो चुका है कि उसकी हत्या नहीं बल्कि उसने निजी कारणों से आत्महत्या की थी। लेकिन सुशांत केस के बहाने ना केवल अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती का चैनलों ने खुला चरित्र हनन किया बल्कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और शराबी बताकर बदनाम किया। इस मामले में भी चैनल फंसते नज़र आ रहे हैं। ऐसी ही कई अन्य जनहित याचिकायें चैनलों के खिलाफ देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में पहुंच चुकी हैं। एक कहावत है कि शेर को इंसान का खून मुंह लग जाये तो वह फिर आदमखोर हो जाता है। ऐसा ही कुछ मामला आजलक टीवी चैनलों का लग रहा है कि पहले उन्होंने सत्ता के इशारे पर एक वर्ग विशेष को निशाने पर लिया। वह अल्पसंख्यक वर्ग चैनलों का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो इन चैनलों ने फिर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को विलेन बनाना शुरू किया। इसके बाद इन्होंने सारे विपक्ष को देश का दुश्मन साबित करना चालू कर दिया। इसके बाद एक के बाद दूसरी जाति विशेष को तमाम अपराधों के लिये कसूरवार ठहराने का अभियान छेड़ दिया। इतना ही नहीं अपने पूंजीपति मालिकों के इशारे पर सत्ता के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाते हुए ये चैनल हर दिन नया शिकार तलाश कर सभी निष्पक्ष हिंदुओं व जनवादी समाजवादी सेकुलर मानवतावादी और योग्य विद्वानों को देशद्रोही राष्ट्रविरोधी और अर्बन नक्सली बताने में ज़रा भी शर्म और संकोच नहीं करते हैं। लेकिन अब हाईकोर्ट के सख़्त और गंभीर रूख़ को देखकर लगता है कि सरकार के ना चाहने या इनके पंूजीपति मालिकों के खुले सपोर्ट के बावजूद इन चैनलों की मनमानी आगे चलनी मुश्किल है।

Saturday 17 October 2020

टीआरपी घोटाला

टी आर पी का खेलपूंजी-सत्ता का घालमेल!

0बीएआरसी यानी ब्रॉडकास्ट ऑडियेंस रिसर्च कौंसिल ने कुछ टीवी चैनलोें की टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट पर उठे विवाद के बाद आगामी 12 सप्ताह तक अपने आंकडे़ जारी करने पर रोक लगा दी है। 80 करोड़ टीवी दर्शकों के देश में मात्र 41000 व्यूवर मीटर लगाकर बिना पारदर्शिता के चैनलों की लोकप्रियता परखना वैसे भी अपने आप मेें मज़ाक ही था। अब देखना यह है कि बीएआरसी टीआरपी को लेकर आगे क्या लीपापोती करता है?     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल टीआपी घोटाला सर्वे कंपनी हंसा रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड के एक कर्मचारी ने ही खोला है। कंपनी के कर्मचारी महेश कुशवाह ने पूर्व कर्मचारी विनोद कुलश्रेष्ठ को यह जानकारी लीक कर दी कि एमपी के ग्वालियर के माधोगंज स्थित गुढ़ा क्षेत्र के किन घरों में बीएआरसी के बैरोमीटर लगे हैं। इसके बाद कंपनी के डिप्टी जनरल मैनेजर नितिन देवकर की शिकायत पर पुलिस ने धोखाधड़ी का मामला दर्ज कर सात लोगों को हिरासत में लिया है। बैरोमीटर जिन घरों मंे लगाया जाता है। गोपनीयता की वजह से उनको भी यह जानकारी नहीं दी जाती कि उनके घर में जो संयंत्र लगाया गया है। वह क्या हैउसका क्या मकसद हैऔर वह कैसे काम करता हैऐसा इसलिये किया जाता है। जिससे उनको कोई चैनल वाला लालच देकर अपना चैनल अधिक देखने को बहला फुसला ना सके। लेकिन इस बार जब पोल खुली तो पता लगा कि जिन घरों में बैरोमीटर लगाया जा रहा था। उनको 500रू. माह इस बात के लिये दिये जा रहे थे कि वह इंडिया न्यूज़ चैनल ही देखें। इसके लिये उनको यह भी समझाया गया कि वह अपने घर में इस चैनल को चाहे देखें या ना देखें लेकिन अपना टीवी दिन रात यह चैनल ऑन करके चालू रखें। ज़ाहिर बात है कि यही फार्मूला अन्य अनेक ऐसे घरों मंे भी अपनाया जा रहा होगा। जहां ये बैरोमीटर लगे होंगे। सभी टीवी चैनल विज्ञापन अधिक से अधिक लेने के लिये टीआरपी पर निर्भर करते हैं। जिसकी जितनी अधिक टीआरपी होगी। उसको ना केवल उतने ही अधिक एड मिलते हैं बल्कि उसकी विज्ञापन दर भी उतनी अधिक हो जाती हैै। सराकर चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की वह हर हाल में मीडिया और खासतौर पर इलैक्ट्रॉनिक टीवी चैनलों को अपने काबू में रखना चाहती है। इसके लिये बीएआरसी से सैटिंग करके टीआरपी का नकली और फर्जी खेल किया जाता है। आज जो गड़बड़ी अनैतिकता और तिगड़म भाजपा सरकार कर रही है। कल तक वही काम पूरी बेशर्मी और नंगेपन से कांग्रेस भी करती थी। हद तो यह थी कि जनवरी 2014 में यूपीए की मनमोहन सरकार को ऐसा लगा कि वह तीसरी बार चुनाव जीतने की हालत में नहीं है तो उसने टीआरपी आंकने वाली एजंसी बीएआरसी को 70 हज़ार करोड़ का वार्षिक कारोबार नियम कायदे ताक पर रखकर अपने पक्ष में करने को दे दिया था। लेकिन वह अपने मकसद में नाकाम रही। ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल देश के ब्रॉडकास्टर्सविज्ञापन एजंसियों और विज्ञापनदाताओं का सामूहिक संगठन है। मुंबई स्थित ग्लोबल मार्केट कंपनी हंसा बीएआरसी के लिये लोगों के घरों में बैरो मीटर लगाने का काम करती है। हमारे यहां गोपनीयता के नाम पर बहुत से घोटाले सरकार भी करती रही है। सो बीएआरसी ने भी पूंजीपतियों के पक्ष में मोटी रकम के बल पर कुछ टीवी चैनलों से मिलीभगत करके यह घोटाला लंबे समय से चला रखा था। मुंबई पुलिस ने बीएआरसी हंसा और कुछ टीवी चैनलों का जो टीआरपी का खेल पकड़ा है। वह नया या पहली बार नहीं हैै। अगर आप गहराई से देखेंगे तो टीवी चैनल समाचार तथ्यों व सत्य आंकड़ों व प्रमाणों पर जोर ना देकर अपने एंकरों को मदारी की तरह रोज़ शाम को टीवी रूक्रीन पर बैठाकर ऐसे चंद मुद्दों पर फालतू घटिया और ओछी बहस कराते नज़र आते हैं। जिनमें टीआरपी बढ़ाने को गाली गलौच झूठ फर्जी जानकारी सनसनीखेल मसाला और मारपीट तक की नौबत आ जाती है। यह ठीक है कि अर्णव गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी ने टीआरपी ही नहीं मर्यादा संयम और नियम कानूनों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। लेकिन कम लोगों को पता है कि आज जो चैनल रिपब्लिक और इंडिया न्यूज़ जैसे दो चार चैनलों को टीआरपी घोटाले के लिये खूब जोरशोर से कोस रहे हैं। वे कमोबेश खुद भी इस तरह की सैटिंग में गाहे बा गाहे शामिल रहे हैं। लेकिन हमारा समाज ऐसा मानता है कि जो पकड़ा जाये वही चोर है। हम यह भी नहीं कह रहे कि केवल और केवल देश में टीआरपी घोटाला हो रहा था। अख़बारों के प्रसार को आंकने वाली संस्था एबीसी यानी ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन भी कई आरोपों के घेरे में रही है। लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि अगर और जगह ऐसी गड़बड़ी हो रही है तो टीआरपी में भी जायज़ है। सही बात तो यह है कि इस तरह की धोखाधड़ी जनता के विश्वास के साथ किसी भी क्षेत्र में होनी ही नहीं चाहिये। टीआरपी घोटाला इतना सीधा सरल नहीं है। जो साधारण आदमी को आराम से समझ आ जाये। देखने वाली बात यह भी है कि आप बैरोमीटर किन इलाकों में लगा रह हैंकिन घरों में लगा रहे हैंकहीं ऐसा तो नहीं कुछ धर्म जाति और क्षेत्र विशेष में ही ये पैनल होम जानबूझकर सत्ता के इशारे पर लगाये जाते हों। मिसाल के तौर पर आप किसी दल विशेष के गढ़ में या चुनचुनकर किसी लोकप्रिय नेता के अंधभक्तों के घरों में अगर बैरोमीटर लगायेंगे तो वह तो बिना रिश्वत लिये भी वही चैनल देखेगा जो उसको साम्प्रदायिक अंधविश्वासी और एक सोचे समझे सियासी एजंडे के तहत किसी वर्ग विशेष से दुश्मनी करना और निष्पक्ष सेकुलर हिंदुओं से घृणा करना दिन रात सिखा रहा है। इतना ही नहीं जिनकी रेटिंग घटानी होती है। उन निष्पक्ष चैनलों को रिमोट सैटिंग में अचानक ही दूसरे नंबर पर डाल दिया जाता है। तकनीकी कमी के नाम पर उनकी आवाज़ गायब कर दी जाती है। कभी पिक्चर साफ नहीं आती। जिससे दर्शक झुंझलाकर उस चैनल को देखना ही छोड़ देते हैं। पुलिस प्रशासन के ज़रिये कैबिल नेटवर्क चलाने वालों पर सरकार के खिलाफ खुलकर बोलने वाले चैनलों को ना दिखाने का दबाव लगातार चलता है। बड़े होटल अस्पताल रेलवे स्टेशन बस स्टैंड और अन्य सरकारी सार्वजनिक स्थानों पर बाकायदा मौखिक आदेश आते हैं कि कौन सा चैनल जनता को लगातार दिखाने को फिक्स करना है। ऐसे और भी कई खेल टीआरपी घटाने बढ़ाने को गोपनीयता के नाम पर सरकार पूंजीपति यानी चैनल स्वामी और उनकी गुलाम बीएआरसी पर्दे के पीछे करती रही है। सवाल यह है कि जब सारा समाज सरकार प्रशासन पुलिस न्यायपालिका और मीडिया सवालोें के घेरे में है तो अकेले टीआरपी ईमानदार और निष्पक्ष कैसे बची रह सकती है?                                  

Sunday 11 October 2020

शाहीन बाग़ और सुप्रीम कोर्ट

शाहीन बाग़ पर सुप्रीम कोर्ट और क्या करता?

0सीएए के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग़ में चले धरने के खिलाफ दायर एक याचिका पर फैसला देते हुए सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर लंबे टाइम तक कब्ज़ा करके आंदोलन नहीं किया जाना चाहिये। कानून के हिसाब से ये बात ठीक ही लगती है। लेकिन अगर कोई ऐसा करता है तो हमारी सरकार और पुलिस उससे निबटते समय अलग अलग पैमाने क्यों अपनाती हैइस अहम और असली मुद्दे पर सर्वाेच्च न्यायालय पता नहीं क्यों चुप रहा है।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   संविधान विशेषज्ञ और नलसार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैज़ान मुस्तफा का कहना है कि जब शाहीन बाग़ का धरना कोरोना महामारी की रोकथाम के लिये देशभर में लगाये जाने वाले लॉकडाउन की वजह से 24 मार्च को खुद ही खत्म हो गया था तो सुप्रीम कोर्ट को वैसे तो इस याचिका पर पूर्व के ऐसे मामलों की तरह कोई फैसला देने की ज़रूरत ही नहीं थी। लेकिन उसने अगर कोई निर्णय देना ही था तो यह भी स्पश्ट करना चाहिये था कि लंबे टाइम से उसका आश्य कितने दिन या घंटे हैंयह भी साफ किया जाना चाहिये था कि यह अवधि अदालत सरकार या पुलिस में से कौन तय करेगासवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय लागू कैसे और कौन करायेगाक्या ऐसा कोई कानून पहले से मौजूद है जिसमें यह तय हो कि अब आगे कोई धरना प्रदर्शन अमुक जनउपयोगी स्थान पर और अधिक दिनों तक नहीं चलाया जा सकताक्या कोर्ट के आदेश के बाद भविष्य में सरकार ऐसा कानून बनायेगीक्या कानून होने या बन जाने के बाद भी सरकारों और पुलिस का रूख़ ऐसे मामलों में निष्पक्ष और समानता वाला होगाक्या पुलिस कोर्ट के इस फैसले का भविष्य में उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख़्त रूख़ अपनाकर उनसे धरना स्थल खाली कराने को वहां पहले चेतावनी फिर वाटर कैनन फिर हवाई फायरिंग फिर लाठी चार्ज और बड़े पैमाने पर गिरफ़तारी के बाद भी लोगों के वहां डटे रहने पर गोली चलाने की हिम्मत करेगीक्या पुलिस और सरकार ऐसा करते समय सत्ताधारी दल और विपक्ष के अलावा अलग अलग वर्गों जातियों और धर्मों के लोगों के आंदोलन के लिये एक से नियम कानून और एक्शन लेने का संवैधानिक कर्तव्य ईमानदारी और समानता के आधार पर निष्पक्ष तरीके से अपनायेगीऐसा ना करने और पहले की तरह खुला पक्षपात करने से आंदोलनकारी कई बार सरकार और पुलिस के खिलाफ और उग्र होकर हिंसक हो जाते हैं। इससे विरोध करने वालों को सरकार और पुलिस के खिलाफ आंदोलन कुचलने को दमनकारी और अन्यायपूर्ण तौर तरीके अपनाने का आरोप लगाकर आंदोलन पहले से भी अधिक जोरशोर से चलाने का नया आधार मिल जाता है। सुप्रीम कोर्ट को शाहीन बाग़ जैसे अत्यधिक संवेदनशील विवादित और चर्चित मामले पर फैसला देते समय यह भी विचार करना चाहिये था कि क्या सरकार ने आंदोलनकारियों से उनकी मांग पर इस दौरान संवाद करने का कोई प्रयास कियासाथ ही यह भी देखा जाना चाहिये था कि क्या सरकार शाहीन बाग़ की जगह ऐसे धरने प्रदर्शन के लिये शहरी आबादी से बहुत दूर तयशुदा जगहों पर आंदोलन करने वालों से कभी अपने प्रतिनिधि भेजकर बातचीत से ऐसे मामले सुलझाने का कोई गंभीर प्रयास करती हैसरकार और प्रशासन तो अकसर आमरण अनशन करने वालों से भी उनके मरने तक बात करना पसंद नहीं करता है। इस मामले में गांगा बचाओ अभियान के जाने माने एक प्रोफेसर की आमरण अनशन के दौरान जान तक जा चुकी है। दरअसल कहने को हमारे देश में संविधान लागू है। लोकतंत्र का राज है। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह कहलाती है। पीएम खुद को प्रधानसेवक बताते रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार प्रशासन पुलिस विरोध करने वालों या अपनी असहमति दर्ज करने वालों को देशद्रोही और अपना दुश्मन मानकर चलती नज़र आती है। क्या भविष्य में सार्वजनिक स्थानों पर आंदोलन करने वालों को पुलिस तत्काल वहां से बलपूर्वक हटा देगाीया नहीं हटायेगी तो उनको कोर्ट की अवमानना का दोषी मानकर उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करेगीआपको याद होगा कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग वाले मामले में यााचिका दायर होने के बाद सरकार या पुलिस को सीध्ेा शाहीन बाग बलपूर्वक खाली कराने के आदेश ना देकर आंदोलनकारियों से बातचीत करने को तीन लोगोें की एक कमैटी बनाई थी। हालांकि जाने माने वकील संजय हेगडे़ के नेतृत्व में बनी साधना रामचंद्रन और वज़ाहत हबीबुल्लाह की इस समिति से वार्ता के बाद अगर शाहीन बाग के आंदोलनकारी अपना धरना वापस ले लेते तो उनकी कोर्ट की नज़र में अहमियत बढ़ जाती और साथ ही उनको अपना आंदोलन सम्मानपूर्वक वापस लेने का एक अच्छा रास्ता भी मिल जाता। कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस और सरकार कोर्ट के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना बंद करंे और सार्वजनिक स्थानों को पहले से मौजूद कानून के अनुसार खाली कराकर जनता का आवागमन सुगम बनायें। दरअसल सरकारें आंदोलनकारियों को थकाकर आंदोलन अपनी मौत अपने आप मरने का इंतज़ार करती हैं। कभी कभी वे आंदोलनकारियोें की गल्तियों और कमियों को तलाश कर उनको वहां से भगाने का बहाना तलाश करती हैं। अगर कुछ बड़े आंदोलनों का इतिहास देखें तो 1987 में भारतीय किसान यूनियन ने महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में मेरठ की कमिश्नरी का एक माह से अधिक समय तक घेराव किया था। तब के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह झुके और किसानों की मांगे मानकर आंदोलन खत्म कराया था। ऐसे ही 1988 में कानपुर में कपड़ा मिल मज़दूरों ने लंबे समय तक रेल पटरी पर कब्ज़ा कर लिया था। तब के सीएम एन डी तिवारी ने जब स्थानीय पुलिस प्रशासन से तत्काल कड़ी कार्यवाही कर रेल ट्रेक खाली कराने को कहा तो वहां के डीएम एसपी ने हाथ खड़े कर दिये। उनका कहना था कि रेल पटरी पर लोग इतने अधिक और इतने जोश में हैं कि अगर बल प्रयोग किया गया तो हालात काबू से बाहर हो जायेंगे। इसके बाद भारत सरकार ने कपड़ा मज़दूरों से बात की और उनकी अधिकांश मांगों को मानकर आंदोलन बातचीत से खत्म कराया। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बावजूद यूपी की भाजपा सरकार ने अदालत में हलफनामा देकर भी बाबरी मस्जिद ना बचाकर कारसेवकों को बल प्रयोग से बचाया था। पाटीदारों का गुजरात में गूर्जरों का राजस्थान में और जाटों का हरियाणा में लंबा हिंसक और उग्र आंदोलन चला था जिसमें हज़ारों करोड़ की सम्पत्ति का भारी नुकसान हुआ थाअभी कुछ साल पहले की ही बात है। ना तो उनसे आज तक यूपी की तरह सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षतिपूर्ति कराई गयी और ना ही सख़्त कानूनी कार्यवाही करके सार्वजनिक स्थानों को कभी खाली कराया गया। अब देखना यह है कि शाहीन बाग़ के आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट के इस सख़्त फैसले के बाद क्या बदलता है?                                       

0 लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के प्रधान संपादक व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 5 October 2020

भिखारी

भीख रोकना चाहे सरकारतो भिखारियों को दे रोज़गार!

0भारतीय रेलवे ने एक प्रस्ताव तैयार किया है। जिसमें रेलवे अधिनियम में संशोधन करके भीख मांगने को दंडनीय अपराध की श्रेणी से हटाया जा सकता है। उधर केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा था कि वह भीख मांगने को अपराध के दायरे से बाहर कर भिखारियों के पुनर्वास के लिये एक कानून बनायेगी। लेकिन अब केंद्र सरकार अपने ऐसे ही अनेक जनकल्याण के वादोें की तरह इस आश्वासन से भी पीछे हट गयी है। उसने कहा है कि उसके एजेंडे में फिलहाल ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   हमारे देश में भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कोई केंद्रीय कानून तो नहीं है। लेकिन रेलवे सहित देश के लगभग दो दर्जन राज्यों ने अपने अपने स्तर पर ऐसे कानून बना रखे हैं। जिनमें भीख मांगने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। मिसाल के तौर पर रेलवे के अधिनियम के अनुसार अगर कोई व्यक्ति रेलवे परिसर या रेल में भीख मांगता पाया जाता है तो उसपर 2000जुर्माना और उसको एक साल की सज़ा हो सकती है। दिल्ली मेें भी भीख मांगने पर प्रतिबंध है। यहां और अन्य ऐसे ही कुछ और राज्यों में पुलिस भिखारियों को न केवल अकसर पकड़ती रहती है बल्कि उनको राज्य से बाहर खदेड़ने के साथ ही उनसे अकसर राज्य की सीमा में रहने के लिये अवैध वसूली भी करती रहती है। यहां तक शिकायतंे मिली हैं कि पुलिस इन भिखारियों को पकड़कर जेल या डिटेंशन सेंटर भेजने की बजाये इस कानून का दुरूपयोग करते हुए या तो इनसे सप्ताह या मासिक रिश्वत तय कर लेती है या फिर इनको जबरन निर्माण स्थलों पर ले जाकर ठेकेदार से मिलीभगत करके बिना भुगतान के इनसे श्रम कराया जाता है। इसके एवज़ में मिलने वाली मज़दूरी ठेकेदार और पुलिस ईमानदारी’ से आधा आधा बांट लेते हैं। राज्य सरकारों और रेलवे ने भिखारियों पर रोक लगाने वाले कानून तो बना दिये लेकिन कभी यह देखने की ज़हमत नहीं की गयी कि इस कानून से भिखारियों ने भीख मांगना बंद कर दिया या पुलिस को अपनी नंबर दो की कमाई का एक और रास्ता मिल गया हैमिसाल के तौर पर बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बैगिंग एक्ट 1959 में भीख मांगने वालों के खिलाफ रेलवे से भी सख़्त प्रावधान करते हुए उनको पकड़े जाने पर तीन से दस साल हिरासत में रखने का फर्मान सुना रखा है। इसका परिणाम यह है कि पुलिस को ऐसे कानूनों के बल पर अपनी निर्दयता और वसूली करने का एक और औज़ार हाथ लग गया है। भीख मांगना रोकने के नाम पर पुलिस प्रवासी कामगारों तमाशा दिखाने वालों नाच गाकर अपनी कला के बल पर पेट पालने वालों जादूगरों बेघरों बेसहारा और खानाबदोश लोगों को लगातार उत्पीड़न व अत्याचार कर अपनी जेब भरती रहती हैै। ऐसे में ये लोग एक तरफ कानून का उल्लंघन कर निरंतर भीख भी मांगते रहते हैं। दूसरी तरफ इनको अपनी कमाई से पुलिस को मोटी रकम देनी होती है। उल्लेखनीय है कि जब से भीख मांगने के खिलाफ एक के बाद एक राज्य सरकारों ने कानून बनाये तब से ही मानव अधिकारवादियों समाजसेवी संस्थाओं और कई एनजीओ ने इस कानून के खिलाफ मोर्चा भी खोलना शुरू कर दिया था। उनका कहना है कि कोई खुशी से भीख नहीं मांगता है। वे कहते हैं कि मजबूरी और पेट की आग इंसान को भीख मांगने पर मजबूर कर देते हैं। उनका यह भी कहना है कि भीख मांगने को गैर कानूनी घोषित करने के बजाये भीख मांगने वालों का पुनर्वास किया जाना चाहिये। उनको कानून बनाकर सज़ा देने के तुगलकी और तानाशाही वाले अमानवीय और गैर संवैाधनिक तौर तरीके अपनाने की बजाये रोज़गार और घर देकर जनकल्याणकारी राज्य का कर्तव्य निभाया जाना चाहिये। सबको पता है कि सभी दल विपक्ष में रहते हुए तो बड़ी बड़ी मानव सेवा और समाजसेवा की बातें करते हैं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उनके सुर बदल जाते हैं। दिल्ली सरकार ने भी ठीक ऐसा ही किया था। इसके बाद जब सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी तो मानव अधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर के नेतृत्व में भीख मांगने के खिलाफ़ बने कानून के खिलाफ जाने माने वकील व समाजसेवी कॉलिन गांेजाल्वेज़ के सहयोग से 2017 में दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी। भीख मांगने के कानून के पक्ष में राज्य सरकार द्वारा दिये गये तर्कों को सिरे से खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। अदालत ने भीख मांगने से रोकने वाले कानून को अमानवीय बताते हुए उसको अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। न्यायालय ने सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘लोग सड़कों पर भीख इसलिये नहीं मांगते हैं कि वे ऐसा करना चाहते हैंबल्कि इसलिये मांगते हैं कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता।’’ कोर्ट ने अपनी नाराज़गी दर्ज कराते हुए यहां तक कह दिया कि‘‘राज्य अपने नागरिकों को एक सभ्य जीवन देने के अपने दायित्व से पीछे नहीं हट सकते और ज़िंदा रहने के लिये ज़रूरी चीजों के लिये भीख मांग रहे लोगों को गिरफ़तार करहिरासत में लेकर और उन्हें जेल में डालकर ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा नहीं सकते।’’ आईएएस से इस्तीफा देकर गरीब कमजोर और बेसहारा वर्ग के वंचित लोगों की लड़ाई लड़ने वाले हर्ष मंदर का दो टूक कहना रहा है कि भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कानून देश के निर्धन और निराश्रित मजबूर लोगों के खिलाफ बना सबसे जालिम और दमनकारी कानून है। यह कानून ऐसे जनविरोधी कानूनों में से एक है। जिनमें गरीब और परेशान लोगों के पास पहले ही कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। हालांकि कई राज्यों मंे अभी भी यह भीख विरोधी कानून लागू है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस देश में एक विवादित और बड़बोली फिल्म अभिनेत्री के ऑफिस का अवैध छज्जा नगर निगम द्वारा गिराये जाने पर मंुबई में केंद्र सरकार उसको वाई श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराती हो राज्यपाल इस राष्ट्रीय हित के मुद्दे’ पर केंद्र को तत्काल रपट भेजते होंकई दलों के बड़े नेता और बिकाउू मीडिया आसमान सर पर उठा लेता हो वहां भिखारियों जैसे सबसे कमज़ोर और मजबूर वर्ग के हित में कौन बोल सकता है?                                         

0फ़कीर ले गया ताशे में गालियां भरकर,

 अमीर बाप का बेटा था और क्या देता।।         

Thursday 1 October 2020

यूपीएससी

बेलगाम मीडिया को काबू कर पायेगा सुप्रीम कोर्ट ?

0‘‘सुप्रीम कोर्ट का किसी चीज़ पर स्टे लगाना न्यू क्लियर मिसाइल जैसा हैलेकिन कोई भी इस पर कार्यवाही नहीं कर रहा था इसलिये हमें दख़ल देना पड़ा’’ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सबसे बड़ी अदालत की एक बैंच ने जब एक चर्चित चैनल के विवादित सीरियल यूपीएससी जेहाद पर सुनवाई करने के बाद रोक लगाते हुए 16 सितंबर को यह बात कही तो केंद्र सरकार और न्यूज चैनल ब्रॉडकास्टिंग एसोशियेसन को तो शर्म नहीं आई लेकिन समाज के निष्पक्ष और सेकुलर लोगों ने ज़रूर राहत की सांस ली होगी। सवाल यह भी है कि क्या कोर्ट बेलगाम मीडिया को ऐसे काबू कर पायेगा?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   एक साम्प्रदायिक चैनल ने 11 सितंबर को लोकसेवा आयोग में मुसलमानों की कथित घुसपैठ की कपोल कल्पित साज़िश का आरोप लगाते हुए अपने विवादित सीरियल के पहले एपिसोड का प्रसारण किया था। इससे पहले जब इस प्रोग्राम का प्रोमो जारी किया गया था। तभी यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में गया था। जहां इसके प्रसारण पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गयी थी। लेकिन जब यही मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा तो कोर्ट ने प्री ब्रॉडकास्ट स्टे से मना कर दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह यह सुनिश्चित करे कि इस चैनल के इस प्रोग्राम के प्रसारण से समाज पर कोई प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। केंद्र सरकार ने इस चैनल को क्लीनचिट दे दी। इसके बाद जब इस प्रोग्राम का पहला एपिसोड प्रसारित हुआ तो मामला एक बार फिर से सबसे बड़ी अदालत में पहुंच गया। मजे़दार बात यह है कि इस चैनल के इस विवादित एक घंटे के सीरियल में केंद्र सरकार पर ही यूपीएससी की परीक्षा में मुस्लिम उम्मीदवारों को ही बेजा लाभ पहंुचाने का आरोप लगाया गया था। लेकिन केंद्र की हिंदूवादी सरकार को इस आरोप पर भी कोई आपत्ति नहीं थी। चैनल ने यूपीएससी जेहाद के नाम पर मुसलमानों पर पूर्वाग्रह के आधार पर जितने भी आरोप लगाये। सब मनगढ़ंत फर्जी और बेबुनियाद नज़र आते हैं। जैसाकि चैनल का दावा है कि मुसलमान एक षड्यंत्र के तहत यूपीएससी की परीक्षा में अधिक से अधिक आवेदन करने लगे हैं। इस आरोप पर हंसा ही जा सकता है कि एक ओर तो मुसलमानों पर आरोप है कि वे अपने बच्चो को पढ़ने के लिये मदरसों में भेजते हैं। उनको आधुनिक और अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़कर देश की मुख्य धारा में आना चाहिये। जब मुसलमान सचमुच ऐसा करने लगा तो साम्प्रदायिक दलों और इस चैनल की हालत खराब होने लगी है। फेक पोस्ट उजागर करने वाली जानी मानी विश्वसनीय एजंसी ऑल्ट न्यूज़ के अनुसार यूपीएससी के 4अगस्त को जारी नतीजों के अनुसार कुल पास829 उम्मीदवारों में से 42 मुस्लिम थे। ये मात्र 5प्रतिशत है। जबकि मुसलमानों की आबादी देश मंे लगभग 15 प्रतिशत है। अगर लोकसेवा आयोग के पिछले 5 साल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि मुसलमानों का प्रतिशत लगभग हर साल 3 से 5 प्रतिशत के बीच रहा है। मिसाल के तौर पर 2015 में पास कुल 1078 के 42, 2016 के 1099 में 50, 2017 के 990 में 52, 2018 के 759 में 28मुस्लिम उम्मीदवार सफल रहे थे। यह ठीक है कि 2017 में यह आंकड़ा कुछ बढ़ा था। लेकिन उस साल कुल पास प्रत्याशी भी अधिक थे। जबकि 2018 में उनका आंकड़ा काफी नीचे चला गया था। जिसको एक सुनियोजित योजना के तहत चैनल ने दिखाया ही नहीं। चैनल ने झूठा आरोप लगाया कि मुसलमानों को आयु सीमा में हिंदुओं के मुक़ाबले 3 साल की छूट दी जा रही है। जबकि यूपीएससी के 12फरवरी के नोटिफिकेशन के अनुसार सभी उम्मीदवारों की न्यूनतम आयु 21 साल जबकि अनुसूचित जाति व जनजाति को 5 साल तो पिछड़ी जाति के लिये 3 साल की छूट यानी 32की जगह 35 तक की छूट हिंदू मुसलमान सभी प्रत्याशियों के लिये दी गयी है। इतना ही नहीं रक्षा सेवाओं कमीशंड ऑफिसर और विकलांगों के लिये भी आयु में छूट दी गयी है। आयोग ने यह भी स्पश्ट किया है कि किसी भी रिज़र्व कैटेगिरी के किसी भी भाग मेें आने वाले वर्गों को दोनों कैटेगिरी में आयु सीमा में छूट मिलेगी। चैनल ने भी यह भी दुष्प्रचार किया कि मुसलमानों को परीक्षा में शामिल होने के लिये आयोग 9 अवसर दे रहा है। जबकि हिंदुओं को ये मात्र 6 मौके ही उपलब्ध कराता है। जबकि यह सुविधा भी केवल रिज़र्व कैटेगिरी के लिये उपलब्ध होती है। ना कि केवल मुसलमानों के लिये। ज़ाहिर बात है कि रिज़र्व वर्ग मंे धर्म के आधार पर नहीं जाति के आधार पर अवसर दिये जाते हैं। जिनमें हिंदू जाति के प्रत्याशी भी शामिल रहते हैं। मुस्लिमों को कम कट ऑफ माकर््स पर पास करने को लेकर भी इस चैनल ने कोरा झूठ बोला है। यहां भी जाति की जगह धर्म का झूठा आधार बताया गया है। जबकि 2009 के माकर््स को इसके लिये क्यों चुना गया है। इसका कोई ठोस आधार चैनल ने नहीं बताया है। आयोग अपनी पारदर्शिता की नीति के तहत प्रिलिम्स और मुख्य परीक्षा दोनों के कट ऑफ माकर््स जारी करता रहा है। चैनल ने अंत में यूपीएससी जेहाद का सबसे बड़ा कारण मुसलमानों के लिये र्फ्री कोचिंग की सुविधा को बताया है। जबकि यह भी सही नहीं है। मनमोहन सरकार ने मुसलमानों के लिये नहीं बल्कि वंचित वर्ग के प्रत्याशियों के लिये 5कोचिंग सेंटर शुरू किये थे। यह सच है कि इनमंे से 4 अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटियों में खोले गये थे। लेकिन इनमें मुसलमानों के साथ ही अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति पिछड़ी जाति और महिलाओं को भी शामिल किया गया था। इनमें से एक सेंटर जामिया मिलिया में भी खुला था। जामिया के जो 30 कैंडीडेट यूपीएससी में चुने गये हैं। उनमें से 14 हिंदू भी हैं। ऐसे ही कई कोचिंग सेंटर खुद सरकारी सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय भी चला रहा है। इतना ही नहीं दिल्ली एमपी आंध्र प्रदेश और केरल सहित कई राज्य सरकारें भी अल्पसंख्यकों गरीबों पिछड़ों दलितों व महिलाओं की यूपीएससी में भागीदारी बढ़ाने के लिये इसी तरह के निशुल्क कोचिंग सेंटर बड़ी संख्या मंे चला रहे हैं। जहां तक इस तरह के संेटर ज़कात फाउंडेशन द्वारा चलाने पर हंगामा और उसके तथाकथित गैर कानूनी चंदा लेने का आरोप है। उसकी जांच करना सरकार का काम है। लेकिन साथ ही यह भी देखा जाना चाहिये कि खुद संघ परिवार का एनजीओ संकल्प भी इस तरह के कोचिंग सेंटर चला रहा है। जिसके इस बार 61 प्रतिशत प्रत्याशियों को यूपीएससी परीक्षा में सफलता मिली है। ऐसे मंे क्या यह नहीं कहा जा सकता कि संकल्प यूपीएससी का हिंदूकरण कर रहा है सुप्रीम कोर्ट ही यह तय करेगा।