Sunday 20 January 2019

सवर्ण आरक्षण?

10 फीसदी रिज़र्वेशनः 90 फीसदी कन्फ़यूज़न!

सवर्णों को दिये जाने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण में मुसलमानों सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों को भी शामिल किया गया है। सवर्ण तो जब केवल जाति व्यवस्था के कारण हिंदुओं में होते हैं तो अन्य समुदायों को इसमें शामिल क्यों किया गया है? दूसरा सवाल यह है कि जब देश में ढाई लाख रू0 से अधिक आय वाले को अमीर मानकर इनकम टैक्स वसूला जाता है तो फिर इस नये आरक्षण में 8 लाख आय वाला तक गरीब कैसे हो गया? सबसे बड़ा मज़ाक यह कि देश में राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 95 प्रतिशत आबादी की आय 8 लाख से अधिक हैै।

देश में 1000 वर्ग फुट से कम ज़मीन पर मकान वालों की तादाद 90 प्रतिशत है। साथ ही नये आरक्षण के तीसरे आधार यानी कृषि योग्य भूमि 5 एकड़ से कम देश के 87 प्रतिशत किसानों के पास खुद कृषि जनगणना के आंकड़े बताते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने यह नियम भी बनाया हुआ है कि जो कोई आरक्षण की किसी भी श्रेणी में आवेदन करेगा वो जनरल कोटे का लाभ नहीं ले सकता। इसका मतलब यह हुआ कि अगर ईमानदारी से भी आय प्रमाण पत्र बनवाये गये तो देश के 95 प्रतिशत परिवार इस 10 प्रतिशत नये आरक्षण में यह सोचकर आवेदन करेंगे कि उनका नंबर इसमें आसानी से आ जायेगा।

उधर पहले के 50 प्रतिशत आरक्षण में नया 10 प्रतिशत आरक्षण जोड़ने के बाद जो बाकी का 40 प्रतिशत जनरल कोटा बचेगा। वह केवल मोदी जी के सर्वाधिक अमीर मित्रों अंबानी अडानी और माल्या जैसे गिने चुने पूंजीपतियों के लिये सुरक्षित हो जायेगा। ज़ाहिर सी बात है कि जहां 10 प्रतिशत कोटे में अधिक संख्या में आवेदन आने से इसकी मैरिट बहुत ऊंची चली जायेगी। वहीं बाकी बचे जनरल कोटे में आवेदन करने वाले 5 प्रतिशत सर्वाधिक अमीरों के लिये यही मैरिट बहुत नीचे रहेगी। सवाल यह उठता है कि ऐसे में यह नया 10 प्रतिशत आरक्षण गरीब सवर्णों का नुकसान करेगा या फायदा?

सवाल यह भी उठता है कि जिस तरह राम मंदिर के मुद्दे पर बार बार चुनाव जीतकर भाजपा चुनाव करीब आने पर ही राम मंदिर बनाने को उतावली दिखाती है। उसी तरह से सवर्ण आरक्षण चुनाव करीब आता देखकर ही क्यों दिया गया है? मोदी जी कांग्रेस और अन्य सेकुलर दलों को चुनाव नज़दीक आने पर तरह तरह के वादे करने पर बहुत कोसते रहे हैं। फिर खुद सवर्णों का वोट खिसकता देखकर चुनाव जीतने के लिये आरक्षण की चाल क्यों चल रहे हैं? इसका मतलब विपक्ष भी ऐसा करके सही ही करता रहा है?

सच यह भी है कि अभी तक अपराजेय लगने वाले मोदी राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार से घबरा गये हैं। साथ ही दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाने वाले सबसे बड़े राज्य यूपी में लोकसभा के 3 उपचुनाव में करारी हार और इसी प्रयोग के सफल होने की वजह से महागठबंधन बना चुके सपा बसपा और लोकदल से भी भाजपा बौखला रही है। हाल ही में हारे तीन राज्यों में जहां भाजपा के पास लोकसभा की कुल 65 में से 62 सीटें थीं। वहीं यूपी में उसके पास 80 में से 73 सीटें थीं। कर्नाटक में कांग्रेस जेडीएस के गठबंधन से भाजपा के पांव तले की ज़मीन खिसक रही है।

बिहार जैसे बड़े राज्य में भी भाजपा गठबंधन की हालत विपक्षी महागठबंधन से कमज़ोर लग रही है। असम में उसका एक मात्र बड़ा घटक अगप उसको छोड़ गया है। आंध्रा में तेलगू देशम ने उसका साथ बहुत पहले छोड़ दिया था। जबकि महाराष्ट्र में शिवसेना उसको एनडीए में रहकर भी नाको चने चबवा रही है। भाजपा को इसके बावजूद नये घटक और नई लोकसभा सीटें मिलती नज़र नहीं आ रही है। लेकिन उसका कम से कम 50 से 100 सीटों का नुकसान का अंदेशा बढ़ता जा रहा है। यह ठीक है कि कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की हैसियत अभी भी भाजपा से काफी कमज़ोर है।

यह भी वास्तविकता है कि भाजपा बहुमत के लिये कम पड़ने पर 50 सीटें आराम से कारपोरेट मीडिया और आरएसएस के बल पर जुटा लेगी जबकि विपक्ष 25 सीटें भी ऐसे में जुटा पायेगा यह कहना बहुत ही मुश्किल होगा। भाजपा अपनी हालत पतली देखकर यूनिवर्सल बेसिक इनकम का ऐलान करने की भी सोच रही है। यह एक तरह से गेमचेंजर फैसला हो सकता है। मोदी सरकार किसानोें को भी हर फसल के हिसाब से एकमुश्त सहायता देने की योजना बना रही है।

लेकिन इन सब योजनाओें घोषणाओं और अन्य चुनावी चालों के बावजूद 2014 के मुकाबले इस बार मुसलमानों के साथ ही दलितों किसानों व्यापारियों नौजवानों और निष्पक्ष व उदार हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग मोदी सरकार को चुनावों में एक मौका और देने को तैयार नज़र नहीं आ रहा है। 10 फीसदी गरीब सवर्ण  आरक्षण अभी तो संविधान संशोधन करके लोकसभा राज्यसभा और राष्ट्रपति के अनुमोदन तक की बाधायें पार कर गया है। लेकिन संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने के बाद भी यह सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने से नहीं रोका जा सकेगा।

साथ ही संविधान के मूल ढांचे में आरक्षण का आधार गरीबी न होने से यह कोर्ट में टिकना कठिन है। उधर अब तक आरक्षण का विरोध करने वाले सवर्णों को भी इस सवाल का जवाब देना होगा कि अब उनको यह मिलने से कैसे गैर बराबरी ख़त्म करेगा? साथ ही वे आरक्षण को अयोग्यता बढ़ाने वाला क़दम मानते थे तो इस नये आरक्षण को क्यों स्वीकार कर रहे हैं?

इसके साथ ही 50 प्रतिशत की सीमा हटने से भविष्य में जहां पिछड़ी जातियां अपना आरक्षण 27 प्रतिशत से बढ़ाकर अपनी जनसंख्या के हिसाब से लगभग 54 प्रतिश करने की मांग करेंगी तो उधर जाट पटेल मराठा मुसलमान और गूजर भी अपने अपने लिये आरक्षण के लिये पहले से अधिक उग्र व हिंसक होकर सड़कों पर उतर सकते हैं। हमें तो लगता है कि इस चुनावी आरक्षण से सवर्णों को 10 प्रतिशत लाभ मिलने की बजाये 90 प्रतिशत कन्फ़यूज़न ही अधिक पैदा होगा।

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।।

Friday 18 January 2019

सूर्येमणि रघुवंशी जी की क़लम को सलाम

सूर्यमणि भाई आपका सम्मान और बढ़ा!

चिंगारी पश्चिमी यूपी का जाना पहचाना दैनिक अख़बार बन चुका है। इसके संपादक भाई सूर्यमणि रघुवंशी एक बेहतरीन पत्रकार के साथ ही एक उम्दाह इंसान भी हैं। आपकी क़लम आम आदमी के दुखदर्द उजागर करती है तो कभी कभी ज़ालिमों के खिलाफ़ शोले भी उगलती है। पिछले दिनों एक सप्ताह तक जब पिंटू भाई ने ‘सम्मान की चाह’ जैसे एक अलग विषय पर लगातार लिखा तो उनके पिता और हमारे गुरू मूर्धन्य राष्ट्रीय ख्याति के चिंतक विचारक और पत्रकार स्व. बाबूसिंह चौहान साहब के ललित निबंधों की याद ताज़ा हो गयी। आपका सम्मान हम सबकी नज़रों में पहले से और ज़्यादा बढ़ गया है।

भाई सूर्यमणि रघुवंशी जी ने जिस दिन पहली बार सम्मान की चाह पर लिखा, हमने सोचा उनके जे़हन में रूटीन में एक विचार आया होगा। जिस पर उन्होंने लीक से अलग हटकर अपने दिल की बात अग्रलेख में कह दी है। लेकिन जब पूरा संपादकीय पढ़ा तो पता लगा कि बात अभी बाकी है। जब दूसरे दिन फिर से इसी विषय पर पढ़ा तो लगा कि बात तो अभी बाकी रह गयी थी। लेकिन एडिटोरियल के अंत में उस दिन फिर लिखा था-जारी। तीसरे दिन जब सम्मान की चाह पर पढ़ा तो लगा कि पिंटू भाई ने तो कमाल ही कर दिया।
हमारे आसपास घूम रही उन घटनाओं सच्चाइयों और हकीकतों को शब्दों में एक के बाद एक फूल की तरह विचार की माला में पिरो दिया। इतना ही नहीं उनका एक वाक्य तो दिल को छू गया। ‘‘कितने ही सफेदपोश मिल जायेंगे जिन्हें हर सप्ताह कोई न कोई अवार्ड मिल ही जाता है। दूर दूर से अवार्ड कमा लाते हैं। जिन शहरों का नाम उन्होंने खुद नहीं सुना, वहां भी जाकर सम्मानित हो जाते हैं। अलबत्ता उनमें से कितने सम्मान ‘ससम्मान’ मिलते हैं, यह शोध का विषय है।
’’ साथ ही जिस तरह से भाईसाहब ने वास्तविक सम्मान के लिये नजीबाबाद के विधायक रहे कामरेड मास्टर रामस्वरूप को याद किया वहीं उलेढ़ा के निवासी संघ परिवार से जुड़े मानननीय अमर सिंह को पूर्व मंत्री के तौर पर सादगी के लिये नहीं भूले। संपादक जी ने बिजनौर की नई बस्ती से लेकर कई और क्षेत्रों की कई ऐसी महान हस्तियों की भी चर्चा सम्मान की चाह सिरीज़ में की जिन्होंने अपना सारा जीवन समाजसेवा के लिये समर्पित कर दिया। लेकिन कभी सम्मानित पुरस्कृत और लाभान्वित होने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। ऐसी ही कुछ शख़्सियत हमारे नजीबाबाद में और भी हुयीं हैं।
मिसाल के तौर पर उद्योगपति पूर्व चेयरमैन और समाजसेवी स्व. नरेशचंद अग्रवाल का नाम सादगी संवेदनशीलता और सम्मान की चाह के बिना खामोशी से जनसेवा के काम करते रहने के लिये हमेशा याद रखा जायेगा। वे हर तरह से लोगांे की मदद करते थे। लेकिन कभी प्रचार समाचार फोटो कार्ड में नाम मुख्य आतिथि और प्रोग्राम की सदारत यहां तक या मंच पर बैठने का प्रस्ताव तक स्वीकार नहीं किया। वे कहते थे कि उनका काम ही उनका सम्मान है। सबसे बड़ी बात समाजसेवा के सारे काम अपने निजी धन से करते थे। ऐसे ही अनाथ और विकलांग आश्रम प्रेमधाम के फादर शिब्बू और फादर बेनी हैं।
जो दिन रात बिना किसी सम्मान की चाह के सैंकड़ों बेसहारा बच्चों की सेवा मंे लगे रहते हैं। आजकल हम भी उन बच्चो की सेवा को कभी कभी वहां जाते हैं। बड़ा आत्मसंतोष मिलता है। आज लोग जनप्रतिनिधि बनकर जनता का धन कमीशन और घोटाले करके खुलेआम खा रहे हैं। साथ ही समय समय पर यह पब्लिसिटी और दावे करने से नहीं चूकते कि उन्होंने अमुक अमुक काम करके जनता पर बहुत बड़ा एहसान किया है। वे किसी प्रोग्राम मेें जाने के बदले आयोजकों से सम्मान पाने के लिये बड़ी बड़ी शर्तें रखते हैं। कुछ फर्जी समाजसेवी खुद अपने चेलों से आयेदिन अपना सम्मान कराते घूमते हैं।
कुछ अपने मुंह मियां मिट्ठू बनकर जनाज़ों और अंतिम शवयात्रा तक में शामिल होने के दौरान अपनी झूठी उपलब्ध्यिां ये सोचकर बयान करने से नहीं चूकते जिससे लोग उनका सम्मान करें। उनको यह नहीं पता कि यह पब्लिक है। यह सब जानती है। उनके अपने मंुह से की गयी तारीफ़ तो दूर उनके चमचों और चेलों द्वारा की गयी फ़र्जी और नक़ली प्रशंसा और सम्मान समारोह प्रतीक चिन्हों और बड़ी बड़ी शील्डों तक का आम जनता संज्ञान नहीं लेती। हंसी तो इस बात पर आती है कि उनका नाम और फोटो दिखावे के प्रायोजित और डुप्लीकेट सम्मान की ख़बर अख़बार में देखकर जानकार लोग उनको मन ही मन दो चार गालियों से और नवाज़ते रहते हैं।
लेकिन इन धोखेबाज़ ग़लतफहमी का शिकार और अज्ञानता की अंध्ेारी दुनिया में जी रहे झूठमूठ के नक़ली सम्मान का लबादा ओढ़े नादान व मूर्ख कलाकारों को यह अहसास तक नहीं है कि सम्मान इन टोटकों और जुगाड़ों से नहीं बल्कि दिल की गहराई से मिलता है। सम्मान तब ही मिल सकता है। जब कोई आपका नहीं आपके कामों आपके इरादों और नीयत का सम्मान करता हो। अगर आप में मानवता है। संवेदनशीलता है। रिश्तों का अहसास है। समाजसेवा की निःस्वार्थ भावना है। निष्पक्षता है। बड़ो का सम्मान और बच्चों के लिये प्यार है।
देशप्रेम है। दयाभाव है। संयम है। सहनशीलता है। क्षमा करने की उदारता है। बिना गल्ती और नुकसान किये भी दूसरे का दिल दुखने पर माफी मांगने की फरागदिली है। इनमें से बहुत सारी खूबियां बहुत कम लोगों में होती हैं। लेकिन उन कम लोगों में भाई सूर्यमणि रघुवंशी भी शामिल हैं। हर किसी के दुख सुख में शरीक होते हैं। हर छोटे बड़े आदमी से सहज मुलाकात को उपलब्ध रहते हैं। अहंकार उनको छूकर भी नहीं गया है। ज़रूरत आने पर हर किसी की मदद करते हैं।
शालीनता और संस्कार के धनी हैं। उन्होंने हमसे भी पारिवारिक रिश्तों को हमेशा निभाया है। हमारी बेटी की शादी में न केवल नजीबाबाद आये बल्कि घंटों हमारे साथ खड़े रहकर हमारे सभी मेहमानों से ऐसे खुश अख़लाकी दिल की गहराई और प्यार मुहब्बत से मिले कि हमारे पत्रकार दोस्त कहने लगे कि सूर्यमणि जी ने आपको आज आपके बड़े भाई की कमी महसूस नहीं होने दी। सही मायने में हम पिंटू भाई आपको सच्चे सम्मान का पात्र समझते हैं।
ग़मों की आंच पर आंसू उबालकर देखो,
बने रंग जो किसी पर भी डालकर देखो ।
तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी,
किसी के पांव से कांटा निकालकर देखा।।

Tuesday 1 January 2019

सेकुलरिज्म नहीं सत्ता

धर्मनिर्पेक्षता नहीं सत्ता की चिंता!

0 2019 के आम चुनाव को लेकर पाले खिंच गये हैं। केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है। यूपी में सपा बसपा का गठबंधन लगभग तय है। लोकदल को भी इसमें जगह दी जा रही है। लेकिन कांग्रेस को इसमें शामिल किये जाने के आसार कम नज़र आ रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि सेकुलर दल एक क्यों नहीं हो रहेतो जवाब यह है कि उनको भी भाजपा की तरह हिंदू हितोें अधिक सत्ता की चिंता है। धर्मनिर्पेक्षता तो उनका मुखौटा और नारा ही अधिक है।     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   आम जनता को देश आज दो हिस्सों में बंटा नज़र आ रहा है। एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष एकजुट होने की नाकाम कोशिश कर रहा है। लेकिन कुछ ऐसे दल भी हैं। जो तीसरा मोर्चा बनाने के लिये भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी बराबर दूरी बनाकर चल रहे हैं। हालांकि आज तो उनको अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा का मददगार ही समझा जा रहा है। लेकिन चुनाव के बाद ही यह साफ होगा कि वे भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये ज़रूरत पड़ने पर समर्थन मांगने पर तीसरे मोर्चे का राग अलाप रहे ये क्षेत्रीय दल राहुल गांधी को पीएम बनाने पर भी राज़ी हो सकते हैं या नहींे?

यह भी हो सकता है कि तीसरे मोर्चे की खिचड़ी पका रहे ये दल खुद कोई पीएम पद का प्रत्याशी पेश कर कांग्रेस और उसके सहयोगियों को केंद्र में फिर से भाजपा को सरकार बनाने से रोकने को समर्थन देने को मजबूर करने में सफल हो जायें। बहरहाल अभी ये रहस्य ही है कि सपा बसपा टीएमसी बीजेडी टीआरएस शिवसेना आम आदमी पार्टी वामपंथी और एआईडीएमके  चुनाव परिणाम आने के बाद किसके साथ खड़े होंगे।

यह रहस्य इसलिये और गहरा गया है क्योंकि तीन राज्यों में जिस तरह से कांग्र्रेस ने सपा बसपा और अन्य क्षेत्रीय दलों से गठबंध्न न करके अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया उससे इन कथित सेकुलर दलों की आपसी दरार और चौड़ी हो गयी है। चुनाव के बाद जब राजस्थान और एमपी में कांग्रेस को अपने बल पर पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो सपा बसपा ने खुद सेकुलर सरकार बनाने के पक्ष में पहल करते हुए कांग्रेस को बिना मांगे बिना शर्त समर्थन का एलान किया। इसके बाद भी कांग्रेस ने इनके किसी विधायक को मंत्री बनाने की ज़हमत नहीं की। इससे खासतौर पर सपा को अलग रास्ता अपनाने का मौका मिला।

इससे पहले हमने यूपी के अहम लोकसभा उपचुनाव में देखा कि कांग्रेस ने फूलपुर गोरखपुर और कैराना में महागठबंन के साझा प्रत्याशी के खिलाफ अपने उम्मीदवार यह जानकर भी मैदान में उतारे कि अगर सेकुलर दलों का वोट बंटा तो भाजपा ये प्रतिष्ठा के उपचुनाव मामूली अंतर से जीत भी सकती है। आपको याद होगा कि असम में बदरूद्दीन अजमल की क्षेत्रीय अल्पसंख्यक पार्टी ने कांग्रेस से अंतिम समय तक तालमेल करके चुनाव लड़ने की अपील की लेकिन कांग्रेस ने अपने अहंकार में हारना मंजूर किया लेकिन उस क्षेत्रीय दल से सीटों का तालमेल नहीं किया।

ऐसे ही  कर्नाटक में जनता दल सेकुलर ने कांग्रेस से लाख कहा कि वे दोनों मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो भाजपा को सत्ता में आने से आराम से रोक सकते हैं। लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर तैयार नहीं हुयी। बाद में मजबूरी मंे उसने भारी मन से जेडीएस की कुमार स्वामी की सरकार भाजपा को सरकार बनाने से रोकने को न चाहते हुए बनवाई। दिल्ली में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी कांग्रेस के बड़े नेताओं से कई बार मिलकर चुनाव लड़ने की पेशकश कर चुकी है।

लेकिन कांग्रेस के कुछ स्वार्थी और साम्प्रदायिक सोच के नेता लगातार इसमें यह कहकर अड़ंगा लगा रहे है कि ऐसा करने से कांग्रेस सदा के लिये दिल्ली विधानसभा में अपना बहुमत लाने का संकल्प खो देगी। उधर यह भी आशंका जताई जा रही है कि चुनाव बाद बसपा कांग्रेस की बजाये अपनी या भाजपा की सरकार बनाने के लिये भी सोच सकती है। ममता बनर्जी भी पीएम बनने का सपना देख सकती हैं। लोकतंत्र में ऐसा होना स्वाभाविक भी है। लेकिन सवाल यह है कि जो कांग्रेस तेलंगाना में टीआरएस के कट्टर विरोधी चंदरबाबू नायडू की पार्टी के साथ गठबंधन करके उसे हराने के लिये चुनाव में उतरी थी।

उसको टीआरएस केंद्र में चुनाव के बाद सपोर्ट कैसे कर सकती हैममता बनर्जी की टीएमसी और नवीन पटनायक की पार्टी बीजद का भी कांग्रेस के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। अगर कांग्रेस दिल्ली में आप और यूपी में सपा बसपा के साथ भी चूंहे बिल्ली का खेल जारी रखती है तो ज़ाहिर है कि उसको कल केंद्र में चुनाव बाद सरकार बनाने के लिये समर्थन की ज़रूरत पड़ने पर ये दल सपोर्ट करने से पहले दस बार सोचेंगे। जो राइट थिंकिंग लोग मिनट से पहले केंद्र से मोदी की जनविरोधी सरकार को हर हाल में हटाने का संकल्प किये बैठे हैं।

उनको सेकुलर दलों की इस आपसी सिर फुटोव्वल से काफी पीड़ा हो रही होगी। लेकिन उनको यह भी समझना  चाहिये कि जिस तरह से भाजपा और संघ परिवार हिंदुओं के नाम पर सरकार बनाकर उनको न केवल पूरी दुनिया में अपने कामों से बदनाम कर रहा है बल्कि उनका ही अधिक नुकसान कर रहा है। उसी तरह से सेकुलर कहे जाने वाले दल भी खुद किसी कीमत पर भी सत्ता में आने के लिये धर्मनिर्पेक्षता का तो केवल नारा और साइन बोर्ड लगाते हैं। लेकिन वास्तव में उनकी हरकतें चीख़ चीख़ कर बता रही हैं कि उनको सेकुलरिज़्म से अधिक अपनी सत्ता की चिंता है।

हालत इतनी ख़राब है कि कांग्रेस और दूसरे सेकुलर कहे जाने वाले छोटे दल एक दूसरे को सबक सिखाने हराने और सत्ता में आने से रोकने के लिये भाजपा तक की फिर से सरकार बनने में कोई बुराई नहीं समझते। उनको असली चिंता और डर अपने ही नज़दीकी क्षेत्रीय और सेकुलर कहे जाने वाले गैर भाजपा दल से अधिक इसलिये है कि एक बार सत्ता पर उसका कब्ज़ा या भागीदारी हो गयी तो फिर उसे राजनीति और सरकार से बाहर का रास्ता दिखाना लगभग असंभव हो जायेगा। इस भय में कुछ हद तक दम भी नज़र आता है।

मिसाल के तौर पर यूपी बिहार बंगाल और तमिलनाडू में जहां एक बार कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के हाथों मात खा गयी वहां फिर से सत्ता में नहीं लौट सकी है। जबकि भाजपा को वह कई बार पटख़नी देकर वापस सत्ता पा चुकी है। जैसा कि हाल ही में तीन राज्यों में हुआ है। इसका मतलब साफ है कि लड़ाई साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिर्पेक्षता की ही नहीं है। आप जाति धर्म और क्षेत्र के नाम पर लड़ते रहिये कांग्रेस और भाजपा हो या अन्य क्षेत्रीय दल सबको तरह तरह के दावे और नारे देकर आप पर बारी बारी से राज करना है। जब तक आप रोज़गार खेती शिक्षा स्वास्थ्य बिजली पानी सड़क कालाधन करप्शन और कानून व्यवस्था पर वोट करना नहीं सीखते तब तक तो उन सब दलों की मौज बनी रहेगी। बधाई हो।                        

0 राज़ शीशे से जो पूछा तन्हाई मेें,

  कितना नुक़ान है पत्थर से शनासाई में।                   

नसीरुद्दीन शाह का ग़ुस्सा...

शाह जी गुस्सा नहीं संघर्ष कीजिये!

0 फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह ने पिछले दिनों कहा था कि उनको देश के हालात देखकर गुस्सा आता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वास्तव में देश में हालात इतना चिंताजनक हैं कि किसी भी संवेदनशील और ज़िम्मेदार नागरिक को भविष्य ख़तरे में नज़र आ सकता है। लेकिन हमें लगता है कि शाह जी को गुस्सा नहीं इन हालात के खिलाफ मुसलमान बनकर नहीं एक भारतवासी की तरह वैचारिक संघर्ष करना चाहिये।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   शाह ने कहा था कि हम देख रहे हैं कि कई इलाकों में एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या से अधिक अहमियत गोहत्या की जांच को दी जा रही है। ऐसे माहौल में शाह को अपने बच्चो के बारे में सोचकर चिंता होती है। उनको कल कोई भीड़ घेर ले तो वे क्या करेंगेक्योंकि उनको कोई मज़हबी तालीम नहीं दी गयी है। वे सोचते हैं कि उनका हिंदू मुसलमान की बजाये इंसान होना गुनाह बन गया है। उनका कहना है कि देश के माहौल में काफी साम्प्रदायिक ज़हर फैल चुका है। इस नफरत के जिन्न को बोतल में डालना मुश्किल दिख रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं देश में साम्प्रदायिकता का माहौल अपने चरम पर है। लेकिन हमारा कहना है कि शाह को सिक्के का दूसरा पहलू भी देखना चाहिये। उनको नफ़रत और हिंसा के माहौल को बड़े और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिये। यह ठीक है कि भाजपा सरकार ने मुसलमानों को बिना संविधान बदले दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है। लेकिन इससे भी बड़ा सच यह भी है कि मोदी की केेंद्र सरकार और भाजपा की अनेक राज्य सरकारों द्वारा सारा ज़ोर मुसलमानों को हिंदुओं और देश की सबसे बड़ी प्रॉब्लम बनाने के अभियान से खुद हिंदू भाइयों का कहीं अधिक नुकसान हो रहा है।

सबसे पहले तो शाह और दूसरे उनकी सोच के मुसलमानों को यह बात दिमाग़ से निकाल देनी चाहिये कि सारे हिंदू भाजपा के साथ हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 2014 के चुनाव में भाजपा को सीट भले ही 282 मिली हों लेकिन वोट केवल 17 करोड़ 16 लाख मिले थे। जो वोट पोल हुए थे। उनका केवल 31 प्रतिशत ही भाजपा को मिला था। इससे पहले भाजपा के साथ मात्र 17 प्रतिशत वोट थे। दूसरी तरफ कांग्रेस को सीट भले ही 44 मिलीं हांे लेकिन उसको कुल वोट 10 करोड़ 70 लाख मिले थे। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 19.3 था।

अगर इनमें भाजपा विरोधी अन्य सेकुलर और क्षेत्रीय दलों का वोट शेयर भी जोड़ लिया जाये तो भाजपा देश की 132 करोड़ आबादी में मात्र15 प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व करती है। कहने का मतलब यह है कि देश की अधिकांश जनता आज भी सेकुलर और हिंदू मुस्लिम भाईचारे में भरोसा रखने वाली है। अगर संघ परिवार ने कोई भावनात्मक कार्ड नहीं खेला तो उसका 2019 के चुनाव में कमज़ोर होना तय है। हाल ही में तीन बड़े हिंदी भाषी राज्यों के चुनाव में इसका संकेत मिल भी चुका है।

अगर आप निष्पक्ष और तटस्थ होकर देखें तो भाजपा या मोदी सत्ता में अपनी खूबियों या गुणों की वजह से नहीं 2014 में कांग्रेस और उसके घटकों की मनमानी करप्शन और मुसलमानों के धार्मिक तुष्टिकरण का लेवल लगने की वजह से भी आई थी। मोदी सरकार जो झूठे और असंभव वादे करके आई थी। वे न तो पूरे होने थे और न ही पूरे हुए उल्टे नोटबंदी और बिना तैयारी के जीएसटी लागू करने से देश की जनता का बड़ा नुकसान भी हो गया है। ज़ाहिर बात है कि देश की जनता में हिंदू आबादी अधिक है तो नुकसान भी उसी का अधिक हुआ है।

आज नौजवान बेरोज़गार घूम रहा है। किसान आत्महत्या कर रहा है। दलित और आदिवासी भाजपा को अपना विरोधी मानने लगे हैं। तीन राज्यों में जहां भाजपा हारी है। वहां उसकी बड़ी वजह दलित और आदिवासी भी हैं। पिछड़ों के बड़े हिस्से को लगने लगा है कि भाजपा वोट लेते समय तो उनको हिंदू मानती है। जबकि आरक्षण या सत्ता की भागीदारी में उनके साथ पक्षपात करती है। गाय को लेकर भाजपा ने ऐसा माहौल बना दिया है कि खुद हिंदू गाय को लेकर परेशान है। वो दूध न देने वाली गाय को बेच नहीं पा रहा है। उसने भारी मन से ऐसी गायों को जंगल में खुला छोड़ दिया है।

ये गायें बड़ी तादाद में फ़सलें उजाड़ रही हैं। गाय का कारोबार करने वाले हिंदू भी भयभीत हैं। यहां तक कि सारे कागज़ात और रसीदें लेकर रेलवे से गाय ले जा रहे तमिलनाडू के हिंदू अधिकारियों की भी स्टेशन पर हिंदू संगठनों के लम्पटों ने बुरी तरह पिटाई कर दी थी। भीड़ केवल मुसलमानों और गाय को देखकर नहीं आज देश में किसी को भी बिना किसी वजह के शक और अफवाह पर ही पीट पीटकर मार डालती है। इसलिये शाह जी से हमारा कहना है कि यह माहौल केवल मुसलमानों के लिये नहीं हर सही सोच के हिंदू के लिये भी उतना ही ख़तरनाक और नुकसानदेह है।

इसलिये शाह को चाहिये कि वे इस ज़हरीली और जनविरोधी साम्प्रदायिक फासिस्ट और हिंसक सोच का अपने अभिनय से तार्किक वैचारिक और दीर्घकालीन योजना के तहत विरोध करें। अफसोस और चिंता की बात यह है कि जहां संघ परिवार आज धन बल सत्ता मीडिया और अपने तीन दर्जन से अधिक सहयोगी संगठनों के बल पर जनता के दिमाग में अपनी साम्प्रदायिक संकीर्ण और घृणित विचारधारा पहुंचाने में रात दिन लगा है। वहीं कांग्रेस कम्युनिस्ट और क्षेत्रीय सेकुलर दलों के साथ ही सेकुलर शाह जैसे जाने माने लोग केवल और केवल आज के हालात पर चिंता जताकर और ट्रॉल होकर चुप बैठ जाते हैं।

अगर हालात बदलने हैं तो सेकुलर दलों और लोगों को भी मैदान में उतरकर जनता को घर घर जाकर यह समझाना होगा कि देश के लिये मुसलमानों का ही नहीं हिंदुओं का भी तुष्टिकरण उतना ही ख़तरनाक है। यह सच हम सबको मानना होगा कि अगर आज भारत सेकुलर देश है तो ये हिंदुओं के बहुमत की वजह से ही है। शाह जी हम सब मिलकर अगर वास्तव में इंसान और सही सोच का ज़िम्मेदार नागरिक बनकर सभी भारतवासियों को निष्पक्ष और उदार बनाने को वैचारिक संघर्ष करेंगे तो आज नहीं तो कल हालात ज़रूर बदल सकते हैं।                     

0 सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,

  मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिये।

  मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही,

  हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।।