Wednesday 14 December 2022

3 चुनाव 3 सन्देश

*गुजरात, हिमाचल व दिल्ली ने तीनों दलों को संदेश दिया है!*

0 भाजपा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को दो राज्यों के विधानसभा और दिल्ली के स्थानीय निकाय चुनाव में भले ही जीत मिली हो लेकिन इन तीन चुनाव ने तीनों दलों को अलग अलग गहन संदेश भी दिये हैं। अगर विभिन्न राज्यों में हुए कुछ उपचुनाव की चर्चा हम यह मानकर ना भी करें कि इनमें अकसर सत्ताधारी दल जीत जाते हैं या जिसका जातीय व धार्मिक समीकरण फिट बैठ जाता है। वो दल वहां जीत जाता है। लेकिन गुजरात में भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी जीत हिमाचल में कांग्रेस की मामूली अंतर से रण्नीतिक जीत और एमसीडी में आप की बंपर की जगह सामान्य जीत कुछ संदेश देती है।

    -इक़बाल हिंदुस्तानी

      हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने भाजपा से 37,974 वोट अधिक लेकर सत्ता हासिल की है। यानी कांग्रेस को 43.9 तो भाजपा को 43 प्रतिशत मत मिले हैं। हालांकि दोनों की सीटों में 40 और 25 यानी 15 का भारी अंतर दिखाई देता है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि यहां आप ने लगभग एक प्रतिशत वोट ही लिये हैं। उसका अधिक ज़ोर गुजरात पर ही था। वहां उसने सीट भले ही 5 लीं लेकिन वोट 13 प्रतिशत लिये हैं। इसके साथ ही आप 35 सीट पर दूसरे स्थान पर रही है। उधर गुजरात में भाजपा की ना केवल सीट डेढ़ गुनी हो गयीं बल्कि उसने अपने वोट भी लगभग 3 प्रतिशत से अधिक बढ़ाये हैं। इससे सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा है। हिमाचल में अगर कांग्रेस पुरानी पेंशन वापस लाने का वादा ना करती तो उसको वर्तमान और पूर्व ढाई लाख से अधिक सरकारी कर्मचारियों से शायद ही बड़ी तादाद में वोट और सपोर्ट मिलता। इसके साथ ही सेब के उत्पादकों वहां के सीएम जयराम ठाकुर को तमाम शिकायतों के बावजूद गुजरात की तरह ना बदलने और भाजपा की अंदरूनी गुटबंदी व 21 विद्रोही प्रत्याशियों में से 12 का भाजपा के वोट काटकर कांगेे्रस को जिता देना खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना कहा जा सकता है। हालत यह थी कि भक्त दावा कर रहे थे कि मोदी यूक्रेन रूस जंग रूकवाने के प्रयास कर विश्वगुरू बनने वाले हैं और इधर देश में उनकी ही पार्टी के बाग़ी उम्मीदवारों ने उनके फोन कर चुनाव ना लड़ने की अपील करने के बावजूद हिमाचल चुनाव में बैठने से साफ मना कर दिया। हालांकि गुटबंदी कांग्रेस में भी थी लेकिन वहां प्रियंका गांधी राजीव शुक्ला और भूपेश बघेल ने उसे काबू कर लिया। सबसे बड़ी बात हिमाचल में हर बार सत्ता बदलने का रिवाज भाजपा उत्तराखंड की तरह तोड़ नहीं पाई। इसके साथ भाजपा का चुनाव जीतने का सबसे बड़ा मुस्लिम विरोधी फार्मूला यहां उनकी तादाद ना के बराबर यानी मात्र दो प्रतिशत होने से ध्रुवीकरण में काम नहीं आया।हालांकि गुजरात में एंटी इंकम्बैंसी 27 साल की थी लेकिन वहां पीएम मोदी और होम मिनिस्टर अमित शाह ने अपनी पूरी ताक़त झोंककर और अपनी नाक का सवाल बनाकर जितना जोरदार प्रचार किया उससे भाजपा वहां एक बार फिर जीतने में सफल रही। भाजपा की सीटें बढ़ने की एक वजह जहां भाजपा का पहले से वोट तीन प्रतिशत बढ़ना एक कारण रहा वहीं विपक्षी वोट कांग्रेस और आप में बंट जाना इसकी बड़ी वजह मानी जा सकती है। गुजरात संघ की प्रयोगशाला रहा है। वहां उसने जो हिंदू राष्ट्र का एक राज्य स्तरीय माॅडल स्थापित कर दिया है। वह अभी भी विकास रोज़गार महंगाई स्वास्थ्य और करप्शन पर भारी पड़ता नज़र आ रहा है। इससे पहले भाजपा ने अपनी सरकार के खिलाफ बनते माहौल को भांपकर काफी पहले वहां का पूरा मंत्रिमंडल सीएम सहित बदलकर मतदाताओं को ऐसा आभास कराया मानो वहां जो कुछ बुरा हो रहा है। उसके लिये भाजपा संघ या मोदी की सरकार नहीं बल्कि ये लोग कसूरवार थे। इसका उसको लाभ भी मिला। इतना ही नहीं भाजपा ने अपने 40 से अधिक वर्तमान विधायकों का टिकट काटकर भी यही संदेश दिया कि लोगों की तमाम परेशानी शिकायतों और समस्याओं के लिये यही एमएलए ज़िम्मेदार थे। अब नये विधायक चुनकर आयेंगे तो वे सबकुछ ठीक करेंगे। यानी भाजपा सरकार और पार्टी की कोई कमी गल्ती या ख़राबी थी ही नहीं। भाजपा का यह चतुर निर्णय भी काफी हद तक कारगर होता नज़र आया है। जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है। वह गुजरात में जीत के बड़े बड़े दावे कर रही थी लेकिन उसको भाजपा की बी टीम और केजरीवाल को छोटा मोदी मानने वालों की भी कमी नहीं है। यह ठीक है कि जिस तरह से वहां 27 साल से कांग्रेस लगातार भाजपा से हार रही है। उससे कुछ भाजपा विरोधी वोटर आप की तरफ गये हैं। पहले ही चुनाव में 5 सीट और 13 प्रतिशत वोट हासिल कर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लेना ही फिलहाल आप के लिये उपलब्धि है। लेकिन जिस तरह से आप ने मुसलमानों और दलितों को नाराज़ कर नरम हिंदुत्व का रास्ता पकड़ा है। उससे उसे दिल्ली नगर निगम के चुनाव में वैसी बंपर जीत नहीं मिली जैसी वह खुद ही नहीं एग्ज़िट पोल भी मानकर चल रहे थे। आंकड़े बताते हैं कि विधानसभा के मुकाबले आप को मुसलमानों के 14 और दलितों के 16 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। मुसलमानों के आधे वोट कांगे्रस के साथ चले गये। उधर हारने के बावजूद भाजपा दिल्ली में अपने वोट बढ़ाकर अब 39 प्रतिशत ले आई है। कहने का मतलब यह है कि आप कांग्रेस का वोट छीनकर अधिक मज़बूत हो रही है। लेकिन भाजपा पहले से कमज़ोर अभी भी नहीं हो रही है। भाजपा का वोट केवल हिमाचल में घटा है। हालांकि भाजपा ने गुजरात चुनाव के साथ दिल्ली निगम चुनाव कराकर और तीन हिस्सों में बंटी एमसीडी को एक कर चुनावी चाल चली थी। लेकिन यह खुद उस पर ही उल्टी पड़ गयी क्योंकि बीच बीच में भाजपा को गुजरात हारने का डर सता रहा था। जिससे उसके बड़े नेताओं ने अपना सारा फोकस गुजरात में किया। उधर आप के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया को करप्शन के आरोप लगाकर घेरने की रण्नीति भाजपा के काम नहीं आई। भाजपा खुद को तो पाक साफ साबित कर नहीं पाती उसकी सारी कवायद आप को भी करप्ट साबित करने की थी। लेकिन लोगों ने इस पर कान नहीं दिये। कुल मिलाकर आम आदमी पार्टी कांग्रेस और भाजपा के लिये इन चुनावों के संदेश साफ हैं कि आप लोगों को अगर ठीक से नहीं सुनेंगे और चालाकी मक्कारी या शाॅर्टकट से वोट लेकर बार बार जीतना चाहेंगे तो ये एक दो बार तो मुमकिन है लेकिन हर बार यह हथकंडा काम नहीं करेगा। इसलिये सभी दलों को संविधान के हिसाब से सबका साथ व विकास करना ही होगा।

*नोट- लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Saturday 10 December 2022

ईरानी महिलाओं की जीत

*ईरानी हिजाब विरोधी महिलाओं की जीत उदारवाद की जीत है!*

0 क़तर में हो रहे विश्व कप फुटबाॅल में अपने पहले मैच में ईरान की टीम ने जब अपने देश के हिजाब विरोधी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में राष्ट्रगान नहीं गाया था तो दुनिया कह रही थी कि ईरान सरकार पर इसका शायद ही कोई असर पड़े? यह भी आशंका जताई जा रही थी कि इन खिलाड़ियों को इसकी वतनवापसी पर भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है? उधर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख वोल्कर टार्क ने ईरान में प्रदर्शनकारियों पर जुल्म की जांच को मानवाध्किार परिषद के बैनर तले स्वतंत्र जांच मिशन का गठन कर दिया था। इतना ही नहीं ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खोमेनी की भतीजी फरीदा मुरदखानी ने तो माॅरल पुलिस ख़त्म ना करने पर दुनिया से ईरान से सभी राजनीतिक रिश्ते तोड़ने तक की मांग की थी।* 

   -इक़बाल हिंदुस्तानी

      ईरान के अटाॅर्नी जनरल मुहम्मद जाफर मोन्टेजेरी ने ऐलान किया है कि माॅरेलिटी पुलिस का न्यायपालिका से कोई सरोकार नहीं है इसलिये उसको भंग करने का ईरान सरकार ने फैसला किया है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के कई देशों में सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ आंदोलन चलते हैं। लेकिन तानाशाह धार्मिक राजशाही की तो बात छोड़ दीजिये आजकल लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारें भी जन आंदोलनों को पसंद नहीं करतीं। जहां तक ईरान का सवाल है तो वहां की सरकार इस्लामिक कट्टर और पिछड़ी सोच की अतीतजीवी तानाशाह सरकार है। उसका मानवाधिकार रिकाॅर्ड भी बेहद खराब है। इतिहास यह भी बताता है कि जुल्म का सिलसिला जब हद पार कर जाता है तो जनता उसके खिलाफ बिना यह सोचे खड़ी होने लगती है कि उसके विरोध का अंजाम कितना डरावना हो सकता है? ईरान मेें जिस तरह से 16 सितंबर को 22 साल की कुरदिश युवती महशा अमीनी को ठीक से हिजाब ना पहनने के आरोप में इस्लामी पुलिस ने बेदर्दी से मार डाला था। उसके खिलाफ पहले से ही ईरान सरकार की पाबंदियों बंदिशों और जोर ज़बरदस्ती से नाराज़ महिला आज़ादी और बराबरी की मांग करने वाली ईरानी महिलायें विरोध में सड़कों पर उतर्र आइं। इसके बाद इन महिलाओं के पक्ष में ईरान में ही पुरूष वर्ग भी खुलकर साथ आ गया। धीरे धीरे पूरी दुनिया के उदारवादी लोकतांत्रिक और समानतावादी लोगों का नैतिक समर्थन ईरान की प्रदर्शनकारी महिलाओं को मिलने लगा। हालांकि पहले भी ईरान सहित दुनिया के अनेक मुल्कों में जनता के विभिन्न वर्गों ने ऐसे विरोध प्रदर्शन किये हैं। लेकिन अकसर समय के साथ ऐसे विरोध प्रदर्शन दम तोड़ देते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। बल्कि यह कहा जा सकता है कि अगर ईरान सरकार माॅरल पुलिस खत्म नहीं करती तो आगे चलकर वह खुद खत्म होने के कगार पर पहुंच जाती। नार्वे में स्थित ईरान ह्यूमन राइट नामक संगठन का कहना था कि आंदोलन के 10 वें सप्ताह में दाखिल होने के साथ ही कुल 326 लोगों को ईरानी सुरक्षा बलों ने मौत के घाट उतार दिया था जिनमें 40 मासूम बच्चे भी शामिल थे। हैरत और दुख की बात यह रही कि ईरानी संसद के 290 में से 227 सदस्यों ने इस जुल्म और नाइंसाफी के बावजूद जनता के साथ ना खड़े होकर अपने कथित कट्टर इस्लाम के साथ खड़े होते हुए देश की न्यायपालिका से बेशर्मी के साथ कहा कि उसको इस विरोध प्रदर्शन के आरोप में पकड़े गये 13000 से अधिक आरोपियों के साथ काई नरमी नहीं दिखानी चाहिये। इतना ही नहीं ईरान के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की अपील पर यूरूप कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों के द्वारा ईरान सरकार पर प्रदर्शनकारियों पर सख़्ती अनावश्यक बल प्रयोग और यौन हिंसा ना करने और उदारतावादी कदम उठाने की मांग का ईरान पर कोई असर नहीं पड़ा। आंदोलन को दबाने के लिये ईरान सरकार ने उल्टा आंदोलन को सपोर्ट कर रहे पत्रकारों छात्रों बुध्दिजीवियों डाॅक्टर्स और वकीलों को बड़े पैमाने पर सबक सिखाने को सताना शुरू कर दिया। ईरान सरकार यह नहीं समझ पाई कि 2009 और 2017 के आंदोलनों की तरह वह इस बार हिजाब विरोधी आंदोलन को किसी भी तरह के जुल्म ज़्यादती और डर से खत्म नहीं कर पायेगी और एक दिन उसको उदारवादियों के सामने घुटने टेकने होंगे। इसकी दो बड़ी वजह यह रहीं कि ईरान के छात्र और युवा अपने माता पिता से अधिक साहसी हैं क्योंकि एक कट्टर राज मेें वे अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं। दूसरी बात यह रही कि ईरान की माॅरल पुलिस की विश्वसनीयता उपयोगिता और ज़रूरत बदलते समय के साथ पूरी तरह खत्म हो चली है। ईरानी युवा साफ साफ देख पा रहा है कि उनकी कट्टर सरकार की वजह से ईरान पूरी दुनिया में अलग थलग पड़ चुका है। एक तरफ ईरान पर बाहर से उदार होने का भारी दबाव है तो दूसरी तरफ अंदर से एक बड़ा वर्ग अपनी ही सरकार की दकियानूसी और पुरातन नीतियों को इस्लाम के नाम पर आगे और झेलने को तैयार नहीं है। पाकिस्तानी उदार स्काॅलर जावेद ग़ामड़ी तो बहुत पहले से ईरान जैसी कट्टर सरकारोें को सावधान कर रहे हैं कि इस्लाम मेें कलमा नमाज़ रोज़ा ज़कात हज जैसी पांच बुनियादी चीज़ों को लेकर भी किसी तरह से ज़ोर ज़बरदस्ती से मना किया गया है। ऐसे में किसी
महिला को हिजाब पहनने के लिये कोई सरकार कोई माॅरल पुलिस या कोई तंज़ीम कैसे बल प्रयोग कर सकती है? लेकिन यही कट्टरवाद आतंकवाद और तानाशाही आज दुनिया के कई देशोें में धर्म के नाम पर ज़बरदस्ती थोपकर जनता पर राज किया जा रहा है। ईरान की जनता खासतौर पर महिलाओं ने पूरी दुनिया के लोगों को एक संदेश यह भी दिया है कि जिस तरह से आजकल की सरकारें चाहे चुनी हुयी हों या तानाशाह एक दूसरे से जनता को दबाने डराने और अपने गलत फैसले मनवाने को मजबूर करने को रोज़ नये नये हथकंडे सीख रही हैं। उसी तरह दुनिया के विभिन्न हिस्सों की जनता भी एक दूसरे से यह सीख सकती है कि कैसे जनविरोधी उदारता विरोधी और दिखावे के लोकतंत्र वाली सरकारों को निडर होकर लगातार आंदोलन करके झुकाया जा सकता है? दुनिया के तमाम देशों और जनता को आज यह समझ आने लगा है कि धर्म जाति कट्टरता रंग और पंूजी के बल पर आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते हैं। सब लोगों को कुछ समय के लिये बेवकूफ बना सकते हैं। लेेकिन सब लोगों को सदा के लिये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता या धर्म विशेष की कट्टरता बहुसंख्यकवाद नफ़रत और झूठ के बल पर सरकारेें ना तो बनाई जा सकती हैं और ना ही लंबे समय तक चलाई जा सकती हैं। यह बात भारत के राजनेताओं को भी समझ लेनी चाहिये।

 *(लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Wednesday 30 November 2022

आफ़ताब की दरिंदगी

*बेशक आफ़ताब ने दरिंदगी की है मगर मसला धार्मिक नहीं सामाजिक है!* 

0दिल्ली के महरौली में लिव इन रिलेशन में साथ रह रहे आफ़ताब पूनावाला ने अपनी प्रेमिका श्रध्दा वाकर की हत्या कर जिस बेरहमी से उसके शरीर के दर्जनों टुकड़े कर लाश ठिकाने लगाई है। उसे बेशक जुल्म की इंतेहा और दरिंदगी कहा जायेगा। लेकिन इस घटना को लेकर जिस तरह से मीडिया खासतौर पर सोशल मीडिया पर लिव इन रिलेशन से लेकर आधुनिक सोच वाली लड़कियों और एक धर्म विशेष के लोगों को टारगेट किया जा रहा है। वह अपने आप मेें असली मुद्दे से लोगों का दिमाग भटकाने वाला है। इसका मक़सद राजनीति तो है ही साथ ही हमारे समाज का दोगलापन और संकीर्णता भी है। आइये देखते हैं कि ऐसी घटनायें कानून होेने के बावजूद क्यों बढ़ती जा रही हैं?       

  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      श्रध्दा आफ़ताब की घटना रौंगटे खड़े कर देने वाली है। इसकी जितनी निंदा की जाये कम है। इसमें अपराध साबित होने पर जितनी सख़्त सज़ा दी जाये कम होगी। सज़ा जितनी जल्दी दी जाये उतना ही बेहतर होगा। लेकिन इस घटना को साम्प्रदायिक राजनीतिक और कट्टरवादी रंग देने वालों से बचना होगा। हमारा मानना है कि प्रेम करना गलत नहीं है। प्रेम जाति धर्म योग्यता शक्ल वर्ण रंग नस्ल हैसियत पैसा या क्षेत्र देखकर भी नहीं होता। प्यार करना अपनी पसंद की लड़की लड़के से शादी करना और शादी के बिना आपसी सहमति से लिव इन रिलेशन में रहना सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी करार दिया है। यहां तक कि लिव इन रिलेशन में रहने के दौरान पैदा होने वाले बच्चो के वही सब अधिकार हैं। जो कि शादी करने के बाद जन्म लेने वाले बच्चो के होते हैं। इसी तरह लिव इन रिलेशन में रहने वाली लड़की के भी पत्नी की तरह वही सब अधिकार हैं। जोकि शादी के बाद किसी दुल्हन के होते हैं। ज़ाहिर बात है कि इस तरह से लिव इन रिलेशन को इस तरह की वीभत्स घटनाओं के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। जहां तक सवाल माता पिता की मर्जी के बिना इस तरह का कदम उठाने वाली लड़कियांे का है तो कम लोगों को पता होगा कि प्रेम सोच समझकर नहीं किया जाता यह तो खुद ब खुद हो जाता है। हमारा समाज तो लड़के लड़की की अपनी मर्जी से की जाने वाली शादी का भी विरोध करता रहा है। यहां तक कि लड़की और लड़के के लिये अलग अलग नियम है। ज़रूरत समाज को अपनी सोच बदलने की भी है। अगर लड़की ने अपनी मर्जी से किसी लड़के के साथ रहने शादी करने या लिव इन रिलेशन का फैसला किया है तो अधिकांश माता पिता उससे रिश्ता ख़त्म कर देते हैं। ऐेसे में अगर उसके साथ उसका प्रेमी या  पति कोई गैर कानूनी हरकत करता है तो वह अपने माता पिता से शिकायत नहीं कर पाती। जबकि ठीक ऐसा ही करने पर लड़कों के साथ परिवार ऐसा रूख़ नहीं अपनाता। होना यह चाहिये कि हम अपने बच्चो को ऐसे संस्कार सोच और समझ दें जिससे वे अपने जीवन साथी का सही चुनाव कर सकें। अगर उनका फैसला समय की कसौटी पर गलत साबित हो तो उनके लिये घर वापसी भूल सुधार और पश्चाताप का दरवाज़ा खुला रहे। बच्चो को सिखायें कि बेशक प्यार करो लेकिन अगर जान पर बन आये तो अलग होने का विकल्प खुला रखो। अगर पे्रमी प्रेमिका का व्यवहार अचानक बदल जाता है धोखा हो जाता है पक्षपात या अत्याचार कोई करता है तो उसी समय हिंसक होेकर बदला लेने का आत्मघाती भावुक फैसला ना करें बल्कि अपने मित्रों सहेलियों परिवार वालों और कानून के जानकारों से ठंडे दिमाग से सलाह लेकर खुद को सुरक्षित रखते हुए ही एक्शन किया जा सकता है। लेकिन इस मामले में सोशल मीडिया में सीख यह दी जा रही है कि यह लव जेहाद का एक सोचा समझा अभियान है। जो धर्म विशेष के लोग एक एजेंडे के तहत दूसरे धर्म विशेष के लोगों के खिलाफ बाकायदा सोच समझकर एक साज़िश के तहत चला रहे हैं? जबकि ऐसा कुछ भी सच नहीं है। पहले मीडिया ऐसे मामलों में अलग अलग धर्म के प्रेमी प्रेमिका होने या किसी मंदिर मस्जिद में विवाद होने पर उनके नाम नहीं लिखता था जिससे साम्प्रदायिक नफरत ना पैदा हो लेकिन अब जानबूझकर ना केवल मीडिया बल्कि राजनेता ऐसे मामलों को बिना समय गंवाये आग में घी डालने का काम खुलेआम करते नज़र आते हैं। ऐसी घटनाओं के ज़रिये एक वर्ग विशेष के लोगों को राक्षस और दूसरे धर्म के लोगों को पीड़ित व संत बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर याद करें तो 1995 में सुशील शर्मा ने अपनी पत्नी नैना साहनी की दर्दनाक हत्या कर उसका शव टुकड़े टुकड़े कर तंदूर में जला दिया था। राजनैतिक रसूख के चलते आरोपी लंबे समय तक बचा रहा। 1996 में एक पुलिस अफसर के बेटे संतोष ने प्रिदर्शिनी मट्टू की हत्या बड़े कू्रर अंदाज़ में कर दी थी। अपने पिता की हैसियत की वजह से आरोपी सबूत नष्ट कर बचता रहा। 1999 में बार में शराब परोसने से मना करने पर जेसिका लाल की हत्या मनु शर्मा ने कर दी थी। कोर्ट ने ठोस सबूत ना होने पर आरोपी को बरी कर दिया था। 2002 में एक बड़े नेता के बेटों विकास और विशाल ने बहन के प्रेमी नीतीश को ज़िंदा जलाकर मार डाला था। 2008 में नोयडा में आरूषि की हत्या हुयी लेकिन मामला आजतक नहीं सुलझा। 2010 में देहरादून में इंजीनियर राजेश गुलाटी ने पत्नी अनुपमा की हत्या कर 72 टुकड़े कर दिये थे। 2011 में सुमित हांडा पर दक्षिण अफ्रीकी मूल की पत्नी निरंजनी पिल्लई की हत्या कर लाश के टुकड़े आफ़ताब की तरह ही ठिकाने लगाने का आरोप लगा था। 2018 में एक तरफा प्यार में पागल मेजर निखिल हांडा ने शैलजा की हत्या कर दी थी। 2020 में इंदौर में हर्ष शर्मा ने पत्नी अंशु का गला कुत्ते की जं़जीर से घोटकर चाकू से गोद दिया था। 2022 में अपने पति को छोड़कर साथ रहने वाली प्रीति शर्मा ने बेवफाई का शक होने पर अपने प्रेमी फिरोज का गला काटकर हत्या कर दी थी। मेरठ के एक गांव में एक प्रस्ताव ना मानने पर शिवानी को गोली मार दी गयी। कठुवा में एक मासूम बच्ची के बलात्कारियों को बचाने वाले कौन थे? वहां तो बाकायदा आरोपियों के पक्ष में बेशर्मी से रैली तक निकाली गयी थी। बिल्कीस बानो के बलात्कारियों को सज़ा पूरी करने से पहले छोड़ने वाले कौन लोग हैं? ऐसे और भी अनेक मामले गिनाये जा सकते हैं। लेकिन इससे आफ़ताब पूनावाला का जुर्म कम नहीं होगा। लिव इन रिलेशन या अपने परिवार की इच्छा के खिलाफ जाकर ऐसा करने वाली लड़कियों को भी दोष देकर समस्या हल नहीं होगी। हमारे समाज को लड़का लड़की में अंतर करना छोड़ना होगा। कानून को निष्पक्ष और जल्दी काम कर आरोपियों को सख़्त सज़ा दिलाने से ही मसले का हल हो सकता है।

 *लेखक-पब्लिक आब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Tuesday 20 September 2022

आमिर ख़ान

0आमिर ख़ान बाॅलीवुड के उन गिने चुने संजीदा कलाकारों में शामिल हैं। जो न केवल समाज को सुधारने वाला संदेश देने वाली अधिकांश फिल्मों में काम करते हैं बल्कि उन्होंने कई ऐसी यादगार फ़िल्में खुद भी बनाई हैं जिनमें सामाजिक बदलाव लाने को सार्थक पहल की गयी है। फिर भी कुछ लोग उनके खिलाफ नफ़रत और विरोध का अभियान चलाते रहते हैं। इसकी वजह 2015 में दिया उनका वह बयान माना जाता है जिसमें उन्होंने अपनी पत्नी किरण राव के हवाले से कहा था कि वह भारत में असुरक्षित महसूस करती है। बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया है कि भारत असहिष्णु नहीं है। लेकिन तब से ही कुछ लोग आमिर खान के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। अब उनकी आने वाली फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा का बिना देखे ही ऐसे पूर्वाग्रही लोगों द्वारा विरोध शुरू हो गया है।
आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा फिल्म सेंसर बोर्ड से हरी झंडी मिलने के बाद ही रिलीज़ होगी। अगर फिर भी उससे किसी को एतराज़ है तो वह उसके खिलाफ कोर्ट जा सकते हैं। लेकिन नहीं उनको तो आमिर खान का अंध विरोध करना है। आजकल सोशल मीडिया पर आमिर खान को ट्रोल करने का नफरत भरा अभियान जोरशोर से चल रहा है। ट्राॅलर्स का दावा है कि आमिर खान इससे पहले पीके जैसी फिल्म बनाकर एक वर्ग की धर्मिक भावनाओं का अपमान कर चुके हैं। जबकि पीके में धर्म नहीं धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों को आड़े हाथ लिया गया था। अजीब बात यह है कि इस फिल्म का निर्माण राजू हिरानी ने किया स्क्रिप्ट लिखी अभिजीत जोशी ने निर्देशन किया विनोद चोपड़ा ने और इसके सह कलाकार अनुष्का शर्मा संजय दत्त और सुशांत राजपूत थे। फिर भी सारा दोष आमिर खान के सर डाल दिया गया। इसकी वजह समझना मुश्किल नहीं है। इस फिल्म को लेकर यह सवाल भी उठाया गया कि एक ही धर्म के पाखंडी बाबाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी क्यों की गयी? जबकि इसका जवाब तो फिल्म के निर्माता निर्देशक ही बेहतर दे सकते हैं क्योंकि आमिर ने तो अपनी फिल्म सुपर सीक्रेट में एक बच्ची के सिंगिंग कैरियर के लिये एक मुस्लिम महिला को अपने पति से अलग होता भी दिखाया है। जबकि सब जानते हैं कि इस्लाम में कट्टरपंथी गीत संगीत को गलत बताते हैं। अगर इसी हिसाब से देखा जाये तो कनाडाई नागरिक अक्षय कुमार और परेश रावल ने ओ माई गाॅड नाम की फिल्म बनाई थी। जो एक धर्म के नाम पर कदाचार की आलोचना पर आधारित विवादित फिल्म थी। लेकिन उस पर आमिर के विरोधियों ने चुप्पी साध ली। उनको यह भी कोई खास बात नहीं लगती कि आमिर ने लगान जैसी ऐतिहासिक फिल्म बनाकर उसमें भुवन का रोल इतना शानदार किया कि उस फिल्म को आॅस्कर के लिये नाॅमिनेट किया गया। आमिर के आलोचकों ने इस तथ्य को भी अनदेखा कर दिया कि आमिर ने दंगल फिल्म बनाकर उसमें सशक्त अभिनय कर महावरी सिंह फोगट नाम के एक पहलवान के जीवन को युवाओं के लिये पे्ररणा व जश्न में बदल डाला। तारे ज़मीं पर जैसी फिल्म बनाकर उन्होंने बच्चो की अंजान और नादान दुनिया को समझाने की शानदार पहल की थी। थ्री ईडियट भी उनकी मील का पत्थर थी। आमिर के विरोधी यह भी आरोप लगाते हैं कि आमिर ने गुजरात दंगों के बाद तब के सीएम मोदी पर सवाल उठाये थे। उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या एक नागरिक के रूप में आमिर को अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है? तथ्य तो यह भी है कि उस दौरान आमिर ही नहीं पूरा विपक्ष कोर्ट मीडिया और यहां तक कि विदेशों तक में मोदी की भूमिका पर सवाल उठ रहे थे। यहां तक कि खुद के भाजपा के पीएम वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म निभाने की सीख सार्वजनिक मंच से दी थी। सच तो यह है कि कोई भी धर्म सोच या पंथ समय के साथ बदलाव सुधार या आलोचना से परहेज़ करेगा तो वह कट्टर और दकियानूसी हो जायेगा। जिससे उसके मानने वाले लोगों को ही सबसे अधिक नुकसान होता है। आमिर विरोधियों को यह भी सोचना चाहिये कि गुजरात दंगों के बाद उनकी आलोचना करने वालों में बिहार के सीएम नीतीश कुमार कश्मीर की पूर्व सीएम महबूबा मुफ़ती और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भी शमिल रही हैं। आमिर की आलोचना इस बात के लिये भी की जाती है कि उन्होंने भारत की आलोचना करने वाले तुर्की के प्रेसीडेंट की पत्नी एमीन एर्दागोन से मुलाक़ात क्यों की थी? जबकि सब जानते हैं कि एमीन अपने सामाजिक और मानवीय सेवा के कामों के लिये पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान रखती हैं। आमिर ने एमीन से मिलकर यही चर्चा की थी कि वह और उनकी पत्नी किरण राव वाटर फाउंडेशन के नाम से भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी पहुंचाने की एक बड़ी योजना पर काम कर रहे हैं। एमीन ने आमिर को सामाजिक सुधार की फिल्में बनाने पर मुबारकबाद दी। इस दौरान उनके बीच खान पान भाषा विज्ञान और कुछ और मानवीय मुद्दों पर भी व्यापक चर्चा हुयी थी। इस दौरान एक भी बात वाक्य या शब्द सियासी नहीं बोला सुना गया। सवाल यह है कि अगर आमिर का ऐसा करना भी गलत था तो खुद मोदी भारत के दुश्मन समझे जाने वाले पाकिस्तान के पीएम नवाज़ शरीफ के बिना बुलाये उनके बर्थडे पर उनके घर क्यों गये थे? अगर गये थे तो उनका विरोध आमिर विरोधी क्यों नहीं करते? आमिर तो एक कलाकार हैं लेकिन मोदी तो पीएम हैं। उनका मिलना अधिक गंभीर चूक है या आमिर की? जबकि मुलाकात अगर शिष्टाचारवश हो तो हमें लगता है दोनों में ही कोई बुराई नहीं थी। पता नहीं हमें यह सीधी सी बात कब समझ आयेगी कि किसी इंसान की राजनीतिक सोच हमसे अलग भी हो सकती है। लेकिन इससे उसकी कला साहित्य या अन्य विधा का अंध विरोध यानी विरोध के लिये विरोध किया जाना ठीक नहीं है। यह बात किसी एक धर्म या वर्ग के लिये नहीं सभी जाति क्षेत्र धर्म देश और वर्गों पर लागू होती है। लेकिन देखने में यह आ रहा है कि जिस बात के लिये किसी एक को घेरा जाता है। बिल्कुल उस जैसी या उससे भी बड़ी और विवादित बात के लिये ही किसी दूसरे को बख़्श दिया जाता है। अगर ये सब यूं ही चलता रहा तो संविधान मेें दिये गये समानता निष्पक्षता और गरिमा के निर्देश का पता नहीं 75 साल की आज़ादी में क्या मतलब रह जायेगा?
0लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।

मुसलमान बदलें अपनी सोच

*मुसलमानों को नई तंज़ीम नहीं नई सोच की ज़रूरत है !*

0पहले बाबरी मस्जिद फिर सीएए एनआरसी तीन तलाक़ मोब लिंचिंग हिजाब काॅमन सिविल कोड मांस पर पाबंदी कोरोना को लेकर तब्लीगी जमात को घेरना आयेदिन उन पर गोहत्या आतंकवाद व यूएपीए के आरोप लगाकर जेल भेज देना दोष साबित होने से पहले ही आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चला देना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की कवायद ताजमहल और कुतुब मीनार को हिंदू मंदिर बताना बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा व कर्नाटक के हुबली मैदान की ईदगाह पर पूजा करने की मांग डा. कफ़ील आज़म खां उमर ख़ालिद सद्दीक़ कप्पन जैसे अनेक लोगों को लंबे समय तक जेल में रखने के बाद अब मदरसों के सर्वे की उनको नई चुनौती से निबटना है। इसके लिये उनको खुद को बदलना होगा।           

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      मुसलमानों की समस्याओं को हल करने के लिये हाल ही में बरेली में आॅल इंडिया मुस्लिम जमात का गठन किया गया है। इससे पहले देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद ने मदरसों के सर्वे का विरोध करते हुए बिना रजिस्ट्रेशन और बिना मान्यता चल रहे मदरसों के सर्वे में उनके संचालकों की ज़रूरी औपचारिकतायें पूरी करने में मदद करने का ऐलान किया था। उनका यह भी कहना है कि सर्वे से उनको कोई परेशानी नहीं है। लेकिन सरकार की नीयत पर उनको भरोसा नहीं है। सरकारों के अब तक के क्रियाकलापों को देखते हुए उनकी आशंका सही भी हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार को सर्वे करने के अधिकार से कैसे रोका जा सकता है? अगर मदरसे सही हैं उन्होंने किसी नियम कानून को नहीं तोड़ा है तो डर कैसा? जिस तरह से देश में विपक्षी दलों के नेताओं और भाजपा व संघ का विरोध करने वालों के यहां रोज़ ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स छापे डाले जा रहे हैं। उसी तरह मुसलमानों को भी भाजपा सरकारों का विरोध करने की कीमत चुकानी पड़ रही है। मदरसों के मामले में मुसलमानों को भी यह सोचना होगा कि अगर सरकार उनमें मज़हबी तालीम के साथ दुनियावी तालीम भी ज़रूरी करना चाहती है तो इससे मुसलमानों का ही भला होगा। अगर कोई इंसान मदरसे से केवल इस्लामी शिक्षा ही लेकर निकलता है तो वह अधिक से अधिक किसी मस्जिद में इमाम या मुअज़्ज़न यानी अज़ान देने वाला ही बन सकता है। जिसका वेतन पांच से दस हज़ार तक ही होता है। उसका नाश्ता खाना भी अकसर उस मस्जिद के आसपास के घरों से ही आता है। तब उस मौलाना का गुज़र बसर होता है। ऐसे में ज़ाहिर है कि उसकी शादी उसके बीवी बच्चो का खर्च उनकी आला तालीम और इलाज और ज़िंदगी की दूसरी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं हो सकती। ऐसे में मदरसे से फारिग़ आलिमोें के सामने एक
रास्ता यह और होता है कि वे भी कोई मदरसा खोलकर बच्चो को दीनी तालीम देना शुरू कर दें। लेकिन उन बच्चो के सामने भी फिर रोज़गार की समस्या खड़ी होगी जिसका कोई हल मदरसा चलाने वालों के पास नहीं है। एक पत्रकार के तौर पर हमने 40 साल में देखा है कि मुसलमानों का जितना पैसा मस्जिद मदरसा तब्लीगी जमात हज कुरबानी मुशायरा महंगी शादी दहेज़ बाइक मोबाइल कवाब पार्टी कव्वाली उर्स वगैरा में खर्च होता है। उतना स्कूल काॅलेज यूनिवर्सिटी धर्मार्थ अस्पताल धर्मशाला आंखों के आॅपे्रशन का कैम्प खेलकूद सांस्कृतिक प्रोग्राम विकलांगों की मदद विधवा व अनाथ बच्चो की देखभाल गरीब मगर काबिल बच्चो की कोचिंग साम्प्रदायिक एकता व भाईचारे के लिये मिलन प्रोग्राम या चैरिटी के कामों में खर्च नहीं होता। आज वक़्त की मांग है कि मुसलमान डबल सी यानी कैरेक्टर व कंडक्ट मतलब किरदार व अख़लाक़ और डबल ई यानी एजुकेशन व इकाॅनोमी मतलब तालीम व पैसा कमाने पर पूरा ज़ोर दें। उनको तालीम में भी आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा पर तवज्जो देनी होगी। उनको परिवार नियोजन भी अपनाना होगा। उनको बैंक और बीमा के क्षेत्र में जो सुविधायें दूसरे समाज के लोग ले रहे हैं। उनका कथित वर्जित सहारा भी कट्टरपंथी लोगों की दकियानूसी बातें अनसुनी करके लेना होगा। आज दरअसल पैसा और शिक्षा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 1968 में डाॅ अब्दुल जलील फ़रीदी ने मुसलमानों की भलाई के नाम पर मुस्लिम मजलिस बनाई थी। उनके नाम पर मुस्लिम लीग भी बनी। ओवैसी ने उनकी रक्षा के लिये एमआईएम बनाई लेकिन वे उनका राजनीतिक नुकसान ही अधिक कर रहे हैं। ऐसी अनेेक कथित मुस्लिम तंज़ीमों पार्टियों और कमैटियों का यहां नाम गिनाया जा सकता है। जिनकी लिस्ट बहुत लंबी है। लेकिन उनसे कभी भी मुसलमानों ना केवल भला नहीं हुआ बल्कि उल्टा नुकसान ही ज़्यादा हुआ है। मुसलमान जब तक धार्मिक कट्टर पुरातनपंथी दकियानूसी संकीर्णतावादी पिछड़ी हुयी सोच से बाहर निकलकर अपने हमवतन दूसरे समाज के लोगों के साथ हर मैदान में कंध्ेा से कंधा मिलाकर चलते हुए मुख्य धारा में शामिल नहीं होगा। तब तक उसको आज की प्राॅब्लम से कोई दूसरा नहीं बचा सकता। यह माना कि कुछ सरकारें उसके साथ पक्षपात अन्याय और अत्याचार कर रही हैं। लेकिन आज के माहौल मेें इन समस्याओं से मुसलमानों को उनका अपना कोई संगठन नहीं बचा सकता। वे अगर आंदोलन करेंगे तो उनको पुलिस प्रशासन परमीशन नहीं देगा। अगर वे बिना इजाज़त विरोध प्रदर्शन करेेंगे तो हिंसा के आरोप लगने पर उन पर सख़्त कानूनी कार्यवाही होगी। ऐसी सरकारों को चलाने वाले दल उनका वोट भी नहीं चाहते। बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी को याद कीजिये। उसने मस्जिद मंदिर के मसले को
लेकर केवल कोर्ट में पूरी मज़बूती से लड़ने की बजाये सड़कों पर जो नादानी और दुस्साहस किया उसका दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया से नतीजा यह हुआ कि दंगे हुए हज़ारों लोग मारे गये। कई रोज़गार खो बैठे। कई बेघर हो गये। अनेक जेल चले गये। और तो और जिस बाबरी मस्जिद के नाम पर यह सब नुकसान उठाया वह भी अंत में शहीद हो गयी और अंजाम यह हुआ कि वहां आज इस सबके बाद भी मंदिर बन रहा है। मथुरा काशी के बारे में हो सकता है कि मुसलमान बाबरी मस्जिद के मामले से सबक लें। यह माना जा सकता है कि भाजपा सरकारों की अधिक शक्ति उस हिंदू जनसमर्थन में है जो मुसलमानों से झूठ व नफ़रत फैलाने के बाद डरकर उसे अलग थलग करने मंे कोई बुराई नहीं समझ रहा है। लेकिन विश्वास कीजिये आज भी इस देश में भाजपा को 38 प्रतिशत वोट मिलता है। जिसमें से मुश्किल से 8 से 10 प्रतिशत मुसलमानों के खिलाफ होगा। एक समय आयेगा जब यह सब बदलेगा तब तक मुसलमानों को खुद को बदलकर हिंदू भाइयों का दिल जीतना है।  

 *0 लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

भारत जोड़ो

*भारत जोड़ो यात्रा: कांग्रेस का सपोर्ट बढ़ेगा वोट नहीं ?*

0 कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार संकट में है। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 206 सीट व 11.90 करोड़ वोट जबकि भाजपा को 116 सीट व 7.84 करोड़ वोट मिले थे। लेकिन एक दशक में ही हालत बिल्कुल बदल गयी। 2019 के चुनाव में भाजपा को 22.9 करोड़ तो कांग्रेस को 11.94 करोड़ वोट मिले। इस दौरान कांग्रेस के वोट तो लगभग उतने ही रहे लेकिन सीट एक चैथाई रह गयी। उधर भाजपा के वोट तीन गुना और सीट ढाई गुना हो गयी। 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से 189 सीटों पर सीधी लड़ाई में 166 तो 2019 के संसदीय चुनाव में 190 सीट पर डायरेक्ट टक्कर देते हुए 175 सीट जीत लीं। जबकि भाजपा राज्य के क्षेत्रीय दलों से उस अनुपात में सीटें नहीं जीत सकी है।           

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      कांग्रेस ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगभग साढ़े तीन हज़ार किमी. की लगभग चार माह से अधिक की भारत जोड़ो यात्रा ऐसे समय में शुरू की है जबकि देश को वास्तव में इस तरह के संदेश की ज़रूरत है। जनता का एक बड़ा वर्ग इस विचार को पसंद भी कर रहा है। वह इस यात्रा को आगे बढ़कर सपोर्ट भी कर रहा है। लेकिन यह सपोर्ट वोट मंे भी बदले यह ज़रूरी नहीं है। इसकी वजह एक सर्वे के अनुसार कांग्रेस को सपोर्ट करने वाले 18 फीसदी लोगों में से राहुल को पीएम चाहने वाले मात्र 10 फीसदी ही लोग हैं। यही कारण है कि भाजपा कांग्रेस से मुद्दों पर चुनाव ना लड़कार राहुल के मुकाबले मोदी को आगे कर देती हैै। 2014 में कांग्रेस के पूरे देश के विभिन्न राज्यों मंे कुल 1207 विधायक थे। जो आज घटकर 690 रह गये हैं। उसकी सरकार भी आज मात्र दो राज्यों तक सीमित हो गयी है। 2014 के चुनाव में कांगे्रेस के 64 लोग दूसरे दलों में जाकर चुनाव लड़े। ऐसे ही अब तक कांगेे्रस के कुल 553 पूर्व या वर्तमान एमएलए पार्टी छोड़कर दूसरे दलों के टिकट पर चुनाव लड़े हैं। जिनमें से सबसे अधिक भाजपा के टिकट पर 107 कांग्रेसी चुनाव लड़े हैं। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। पहले कांगे्रेस को लगा कि वह 1979 और 1989 की तरह एक बार फिर से विपक्षी दलों की आपसी कलह से सरकार गिर जाने से खुद ब खुद सत्ता में वापस आ जायेगी। लेकिन 1999 से 2004 तक वाजपेयी की एनडीए सरकार पहली बार विपक्ष की गठबंधन सरकार होकर भी अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रही।  कांग्रेस 2004 से 2014 तक फिर एक दशक लगातार सत्ता में रहकर यह भूल गयी कि उसके लिये भाजपा एक बार फिर बड़ी चुनौती बनकर सामने आने वाली है। मोदी के नेतृत्व में काॅरपोरेट व आरएसएस के हिंदूवादी ज़बरदस्त समर्थन व अन्ना हज़ारे के करप्शन विरोधी आंदोलन से कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार जिस बुरी तरह बदनाम होकर सत्ता से बाहर हुयी उसकी दूसरी मिसाल इतिहास में मुश्किल से ही मिलेगी। इतना ही नहीं मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस तरह से मुख्य धारा के मीडिया चुनाव आयोग सीएजी सीवीसी जैसी स्वायत्त संस्थाओं पुलिस व दूसरी जांच एजंसियों का खुलकर और एक सीमा तक न्यायपालिका और सोशल मीडिया का दुरूपयोग करके कांग्रेस विरोधी दलों एनजीओ सेकुलर व निष्पक्ष सिविल सोसायटी को निशाने पर लिया। उससे लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता और समानता के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का दायरा संकुचित होता चला गया। कांग्रेस की छवि लगातार हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक बनती रही लेकिन कांग्रेस इस अभियान की कोई ठोस काट आजतक तलाश नहीं कर पाई। अन्य विपक्षी दलों के साथ ही कांग्रेस को चुनावी चंदा देने वाले लोगों को भी तरह तरह से परेशान किया जाना लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस ना केवल सियासत में अलग थलग पड़ती गयी बल्कि लेवल प्लेयिंग फील्ड ना होने से उसको संगठन चलाना राजनीति करना और भाजपा व अन्य विरोधियों कोे चुनाव में कड़ी टक्कर देना भी लगभग असंभव हो गया। इस दौरान आंदोलन अनशन और रैली की तो बात ही छोड़ दो। कांग्रेस का जनाधार सिमटने लगा। उधर 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी के कांग्रेस मुखिया के पद से हटने और सोनिया गांधी के लगातार बढ़ती उम्र और बीमार रहने से कोई तीसरा विकल्प सामने ना होने से संगठन स्तर पर भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचने लगा। कांग्रेस मुख्य विरोधी दल होकर भी यह नहीं समझ पाई कि वह इस संकट का सामना कैसे करे? उसने राज्यों में अपनी जगह छीनने वाले क्षेत्रीय दलों से भी तालमेल बनाना ज़रूरी नहीं समझा। 2019 के चुनाव में वह इस गलतफहमी का शिकार हो गयी कि वह पहले की तरह एक बार फिर आसानी से सत्ता में वापसी कर लेगी। वह यह भी भूल गयी कि इस बार उसका पाला जनता पार्टी जनता दल या राजग से नहीं मोदी के नेतृत्व में ऐसी आक्रामक हिंदूवादी पंूजीवादी व विपक्ष को विलेन बनाने देने वाले मीडिया के सहयोग से चुनौती देने वाली भाजपा से पड़ा है। जिससे वह आसानी से पार नहीं पा सकती है। कांग्रेस ने यह भी नहीं सोचा कि वह तमिलनाडु बंगाल उड़ीसा गुजरात दिल्ली असम आंध्रा महाराष्ट्र उत्तराखंड और यूपी बिहार सहित जिन राज्यों से एक बार सत्ता से बाहर हो गयी वहां फिर उसकी कभी भी वापस सरकार क्यों नहीं बनी? उसका संगठन भी धीरे धीरे खत्म हो गया। उसके पास पार्टी फंड का अभाव होने लगा। उसका वोटबैंक बृहम्ण दलित और मुसलमान भी उससे छिटने लगा। कांग्रेस की तबाही के लिये शायद यह कुछ कम था कि उसकी जगह विभिन्न राज्यों में सत्ता मेें आये क्षेत्रीय दलों सपा बसपा राजद जदयू बीजद टीएमसी डीएमके एआईएडीएमके वाईएसआर कांग्रेस टीआरसी शिवसेना टीडीपी एनसीपी आम आदमी पार्टी पीडीपी असम गण परिषद और पूर्वोत्तर के अनेक राज्य स्तरीय दलों ने राज्यों के विधानसभा के साथ लोकसभा का चुनाव लड़ना भी शुरू कर दिया। इनका मुकाबला करके कांग्रेस कभी कभी कहीं कहीं तो इनमें से कुछ को कुछ बार हरा पाई। लेकिन अंत में वह इन क्षेत्रीय और भाषाई अस्मिता वाले दलों के सामने कमज़ोर पड़ गयी। इस दौरान इस मौके का लाभ उठाकर भाजपा संघ व कारपोरेट के कंध्ेा पर सवार होकर हिंदुत्व व उग्र राष्ट्रवाद के सहारे क्षेत्रीय दलों व कांग्रेस से दो दो हाथ कर आगे निकलने मंे सफल होने लगी। कांग्रेस आज तक यह सीधी सी बात नहीं समझ पा रही है कि वह जितनी पुरानी पार्टी हो चुकी है उसकी एंटी इन्कम्बंैसी भी उतनी ही अधिक हो चुकी है। आज बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी के बावजूद जनता का एक बड़ा वर्ग मोदी और भाजपा के साथ क्यों खड़ा है इसका कोई जवाब जब तक कांग्रेस नहीं तलाश करती उसको सपोर्ट तो मिल सकता है लेकिन वोट नहीं। कांग्रेस को जनता के सामने भाजपा से इतर वैकल्पिक नई आर्थिक नीति नया विकास माॅडल नये भारत का रोडमैप और हिंदुत्व व उग्र राष्ट्रवाद का नुकसान तथा समानता निष्पक्षता व पंूजीवाद की जगह समाजवाद लाना होगा।

0 लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर हैं।

स्थानीय निकाय

नगर निगम हो नगरपालिका हो या नगरपंचायत हर स्थानीय निकाय से जनता की आशायें लगभग एक सी होती हैं। उनको लगता है कि इन निकायों का मुख्य काम सड़क बनवाना सफाई कराना पानी सप्लाई और स्ट्रीट लाइटें जलवाना होता है। अगर थोड़ा और विस्तार में जायें तो जनता इन लोक संस्थाओं ने यह भी आशा करती हैं कि ये गृहकर और जलकर कम से कम लगायें और उसको भी जल्दी जल्दी ना बढ़ायें। इसके साथ ही इन निकायों के कार्यालयों में बनने वाले जन्म मृत्यु और नो ड्यूज़ प्रमाण पत्रों आदि को बनाने में आसानी हो और सुविधा शुल्क ना वसूला जाये यह भी आम आदमी की इच्छा रहती हैै। लेकिन कम लोगों को पता है कि स्थानीय निकायों का कार्यक्षेत्र कितना बड़ा है। उनके अधिकार क्षेत्र में कितने जनहित के कार्य आते हैं। वे जनता के जीवन से जुड़ी कौन सी ऐसी सुविधा है जो नहीं दे सकते? मिसाल के तौर पर चुंगी के स्कूलों का नाम आपने सुना होगा। जो अब नाम के ही रह गये हैं। मतलब कहने का यह है कि शिक्षा भी स्थानीय निकायों के अधिकार में है। स्थानीय निकाय प्राथमिक शिक्षा ही नहीं हाईस्कूल इंटर काॅलेज और डिग्री काॅलेज भी हिंदी या अंग्रेज़ी मीडियम में लड़के और लड़कियों के लिये खोल सकते हैं। वे उनको आवश्यकतानुसार दो शिफ़्ट में भी चला सकते हैं। इसके साथ ही वे इलाज के लिये अस्पताल भी चला सकते हैं। जिनमें गरीब यानी बीपीएल परिवारों को लगभग निशुल्क या मात्र लागत पर व रियायती दरों पर सभी को इलाज भर्ती सुविधा आॅप्रेशन ब्लड यूरीन स्टूल टैस्ट अल्ट्रा साउंड एक्सरे एमआरआई ईसीजी टीएमटी सीटी स्कैन एंडो स्कोपी प्लाॅस्टर फीज़ियो थैरेपी ईएनटी यानी नाक कान गला का उपचार आरसीटी यानी दांातों का हर तरह का इलाज आईसीयू सुविधा आंखों का चैकअप आॅप्रेशन चश्मा लैंस नाॅर्मल या सीजे़रियन डिलीवरी और डायलिसिस की सुविधा भी उपलब्ध कराई जा सकती है। इसके साथ ही स्थानीय निकाय ये महंगी और अत्याध्ुनिक चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराने में समय लगने पर तत्काल प्रभाव और संसाधनों की कम उपलब्धता तक अपने स्तर पर होम्योपैथी आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा की सुविधायें एक रूपये की रजिस्ट्रेशन फीस पर आसानी से उपलब्ध करा सकती है। लेकिन उसको महंगी चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराने के लिये शासन प्रशासन की औपचारिकतायें पूरी करने और धन की व्यवस्था होने तक अपने प्रयास लगातार जारी रखने होंगे। इसके साथ ही स्थानीय निकाय हर मुहल्ले या वार्ड में छोटे और मुख्य स्थानों पर निकाय की ज़मीन उपलब्ध होने पर बैंक्वट हाॅल खोल सकती हैं। इससे ना केवल गरीब कमज़ोर और दलित वर्ग को आसानी से अपने प्रोग्राम करने को जगह मिलने लगेंगी बल्कि मीडियम क्लास को भी उचित खर्च देकर विवाह सांस्कृतिक प्रोग्राम और अन्य कामों के लिये बड़े हाॅल आराम से मिलने लगेंगे। स्थानीय नगर निगम नगर पालिका और नगर पंचायतें अपने स्तर पर लोगों के मनोरंजन के लिये आबादी के बाहर जगह तलाश कर या खरीदकर पार्क भी बना सकती हैं। इनमें बच्चो के लिये झूले बड़ों के लिये जिम वाॅकिंग ट्रेक और झील बनाकर बोटिंग की सुविधा भी दी जा सकती है। ऐसे ही पालिकायें नगर को साफ और स्वस्थ रखने के लिये लगातार अभियान चलाकर आबादी क्षेत्र से मच्छर भगा सकती हैं। कम स्थानीय निकायों को जानकारी है कि उनके अधिकार क्षेत्र में स्थानीय सांस्कृतिक गातिविधियों को बढ़ावा देना भी है। इसके लिये वे समय पर विभिन्न प्रदर्शनी लगा सकती हैं। उनमें उस क्षेत्र के विशेष कामों जैसे काष्ठकला कांवड़ या अन्य विशेष रोज़गार को वित्तीय सहायता प्रशासनिक कामों में सहायता और दूसरी औपचारिकतायें पूरी करने मंे मदद कर सकती हैं। इन नुमाइशों के द्वारा ही खाने पीने के स्टाल चाट बच्चो के लिये चाउमिन डोसा बर्गर पिज़्ज़ा आइसक्रीम कुल्फी हलवा परांठा खिलौने आदि उपलब्ध कराये जा सकते हैं। इतना ही नहीं इन प्रदर्शनियों में शिक्षा भारतीय सभ्यता उदारता एकता भाईचारा परस्पर प्यार मुहब्बत साहित्य संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये कवि सम्मेलन मुशायरा गीत संगीत डांस नाटक समूहगान वाद विवाद प्रतियोगिता भाषण बाॅडी शो मिमिक्री हास परिहास कराओके आदि से प्रतिभाओं को निखारा जा सकता है। यहां तक कि उनको इनाम और वित्तीय सहायता देकर हौंसला भी बढ़ाया जा सकता है। नगर में लाईब्रेरी बनाई जा सकती है। जहां खासतौर पर गरीब लेकिन काबिल बच्चो को स्कूल की निशुल्क पुस्तकें दी जा सकती है। पत्रकरों के लिये प्रैस भवन बनाया जा सकता है। जिसमें वे प्रैस वार्ता अपनी मीटिंग या बाहर से आने वाले पत्रकार साथियों को निशुल्क ठहरा सकते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के लिये पालिकायें वृध्दा आश्रम बना सकती हैं। साथ ही एक ऐसा प्रोजैक्ट भी शुरू हो सकता है। जिसमें बच्चो को यह समझाया जायेगा कि उनको बुढ़ापे में अपने माता पिता को अपने साथ ही रखना क्यों ज़रूरी है? एक ऐसा आश्रम भी बनना चाहिये जिसमें मानसिक व शारिरिक रूप से विकलांग बच्चो को रखकर उनकी सेवा की जा  सके। उनको रोज़गार का प्रशिक्षण भी वहां दिया जायेगा। ऐसे ही जो बच्चे अपने परिवार के नियंत्रण से नशाखोरी या गलत संगत की वजह से बाहर हो जाते हैं। उनके सुधार उपचार और मानसिक परिष्कार के लिये एक सेंटर खोला जाये जिसमें निशुल्क या बहुत कम फीस पर ऐसे बच्चो को नाॅर्मल किया जा सकेगा। जेनरिक दवाइयोें के साथ ही ऐसे अनेक जनहित के काम हैं जो जनता के सुझाव पर हो सकेंगे।

लूलू ग्रुप के बॉस

*सबके काम आते हैं लुलु ग्रुप के बाॅस अब्दुल क़ादर यूसुफ अली!*

0यूपी की राजधानी लखनउू के बाद लुलु माॅल के स्वामी और केरल निवासी यूसुफ़ अली ने राज्य के चार और शहरों नोएडा बनारस प्रयागराज और कानपुर में लुलु माॅल खोलने का ऐलान किया है। लुलु ग्रुप ने लखनउू में 2000 करोड़ निवेश सहित भारत में पांच माॅल पर अब तक 7000 करोड़  लगाकर देश में 12 और माॅल खोलकर कुल 19000 करोड़ का निवेश करने की योजना बनाई है। लुलु ग्रुप इंटरनेशनल एक मल्टी नेशनल कंपनी है। इसका मुख्यालय दुबई की राजधानी आबू धाबी में है। लुलु अरबी का शब्द है। जिसका मतलब मोती होता है। लुलु ग्रुप का वार्षिक कारोबार 8 अरब डाॅलर का है। लुलु का बिज़नेस अमेरिका यूरूप एशिया अरब देशों सहित 22 मुल्कों में है। इसमें 57000 से अधिक लोग काम कर रहे हैं।       

     *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      लुलु ग्रुप के मालिक यूसुफ अली न केवल केरल के लोगों की पार्टी धर्म व जाति देखे बिना रोज़गार व अन्य ज़रूरतोें को पूरा करके मदद करते हैं बल्कि अरब मुल्कों में भी भारतीयों के बिना पक्षपात मानवता के आधार पर काम आते हैं। जून 2021 में दुबई में अली ने एक सूडानी नागरिक की 2012 में सड़क दुर्घटना में हत्या के आरोप मंे उम्रकैद की सज़ा होने पर केरल निवासी कृष्णन को 5 लाख दिरहम यानी भारतीय एक करोड़ रूपेय की ब्लड मनी देकर जेल जाने से बचाया था। पिछले महीने अली तिरूअनंतपुरम में लोक केरल सभा की एक मीटिंग में बोल रहे थे। वहां एक नौजवान अचानक खड़ा होकर उनसे अपने मृत पिता की डैड बाॅडी सउूदी अरब से केरल लाने को सहायता मांगता है। अली ने अपना संबोधन बीच में ही रोककर अपनी टीम को तत्काल अरब में फोन पर आदेश दिया कि उस युवक के पिता को भारत भेजने की व्यवस्था उनकी कंपनी के खर्च पर की जाये। इतना ही नहीं अगस्त 2019 में भाजपा के सहयोगी संगठन और भारत धर्म जनसेना के राज्य प्रमुख तुषार वेलापल्ली को जब दुबई में एक चैक बाउंस होने पर जेल जाना पड़ा तो अली ने उनकी ज़मानत राशि भरकर उनको रिहा कराया। लुलु स्वामी की इस तरह की समाजसेवा इंसानियत और हर किसी की मदद की कहानियां एक दो नहीं ढेर सारी हैं। नट्टिका बीच पर मछली पकड़कर अपना रोज़गार चलाने वाले पीवी राजू की नज़र में अली किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं। राजू का कहना है कि 6 साल पहले वह अली के पास उस दौर में गये थे जब वे सब जगह से निराश हो चुके थे। उनको अपनी बेटी को एक व्यवसायिक कोर्स कराने के लिये कुछ आर्थिक सहायता की ज़रूरत थी। अली ने न केवल उसकी बेटी की पढ़ाई का पूरा ख़र्च उठाया बल्कि बातों ही बातों में ये पता चलने पर कि उसके पास सर छिपाने को अपना मकान तक नहीं है। अली ने उसे अपने खर्च पर एक बेहतरीन मकान भी बनाकर उपहार में दिया। पिछले साल जब राजू अपनी इसी बेटी की शादी का कार्ड देने अली के पास गया तो अली ने शादी के लिये सोने की एक चैन उसकी बेटी को तोहफे के तौर पर देते हुए हर हाल में शादी में आकर बेटी को आशीर्वाद देने का वादा किया। अली के जीवन का धनी भारतीय के तौर पर बिज़नेस सफर केरल के इसी नट्टिका गांव से 1970 में शुरू हुआ था। अली उन दिनों बिज़नेस एडमिनिस्टेªशन का डिप्लोमा करने अहमदाबाद गये थे। जहां उनके पिता एम के अब्दुल कादर एक बिज़नेस चलाते थे। उनके वहां पहले से ही रेस्टोरेंट जनरल स्टोर और होम एप्लायंसेज़ आउटलेट सहित पांच स्टोर चल रहे थे। अहमदाबाद में रहकर पढ़ाई करते हुए अली ने अपने पिता के कारोबार के व्यवसाय के प्रशासनिक कामों को संभालना शुरू कर दिया था। इसके कुछ समय बाद अली के अंकल एम के अब्दुल्ला ने उनको यूएई में चल रहे अपने डिपार्टमेंटल स्टोर को चलाने में मदद करने को कहा। अली आबूधाबी के ईएमकेई स्टोर को संभालने दिसंबर 1973 में मुंबई से दुबई चले गये। दुबई ने अली ने फ्रोज़न फूड प्रोडक्ट्स के आयात पर फोकस करते हुए कोल्ड स्टोर चेन और फूड प्रोसेसिंग यूनिट पर खास जोर दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह एक दशक में ही दुबई के मुख्य कारोबारियों में अपने ग्रुप को शामिल करने में सफल रहे। 1990 में गल्फ वार के बाद अली ने दुबई में पहला सुपर मार्केट लुलु ब्रांड के नाम से आबूधाबी में शुरू किया। इस दौरान दुबई की सरकार ने भी अली को देश के बुरे वक्त में साथ देते देख हर तरह का सहयोग देना शुरू कर दिया। जिससे अली के कारोबार को मानो पर लग गये। इसके बाद अली ने 2000 में वहां अपना हाइपरमार्केट खोला। इसके बाद लुलु ग्रुप ने अपना विस्तार पूरे मिडिल ईस्ट में करना शुरू कर दिया। 2020 में दुबई की सरकारी कंपनी एडीक्यू ने लुलु के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हुए उसे इजिप्ट में विस्तार के लिये एक अरब डाॅलर का निवेश दिया। इतना होना था कि लुलु के सहयोग करने वालों की लंबी लाइन लग गयी। लुलु ग्रुप ने अन्य देशों की सरकार व कंपनियों से भी हाथ मिलाना शुरू कर दिया। सउूदी अरब के पब्लिक इंवेस्टमेंट फंड ने लुलु को हाथो हाथ लिया। अली के केरल स्थित गांव में उनके घर के बाहर नौजवानों व अन्य लोगों की लंबी लाइनें काम की तलाश में लगने लगीं। अली ने भी अपने गांव और आसपास के लोगों को नौकरी देने में कमी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने इस काम पर खास जोर देने के लिये अरब देशों में भी अपने राज्य केरल से आने वालों के लिये अपने गांव के नाम पर नट्टिका काउंटर अलग से खोल दिये। जिसकी निगरानी खुद वह पर्सनली करते हैं। अली ने गांव के हर परिवार से योग्यता के हिसाब से एक आदमी को अपने लुलु ग्रुप में ज़रूर काम देने का अघोषित नियम ही बना दिया। कई परिवारों के एक से अधिक लोग भी लुलु में काम कर रहे हैं। जिनका वेतन भी अन्य कंपनी से कहीं अधिक है। रोज़गार देने का लुलु गांव में सबसे बड़ा ज़रिया बन गया। इतना ही आगे चलकर अली अरब देशों के शासकों के इतने चहेते हो गये कि वह भारत सरकार और अरब शासकों के बीच संवाद सहयोग और आपसी कारोबार के पुल बन गये। अली बिना इजाज़त अरब शासकों के घर जाने वाले चंद लोगों में शुमार किये जाते हैं। अली ने दुबई सरकार से बात करके हिंदुओं के लिये अंतिम संस्कार व ईसाइयों के लिये चर्च बनाने को सरकारी ज़मीन भी दिलाई है। अली ने दुबई जाने पर पीएम मोदी को कश्मीर से फल व सब्जी आयात कर 800 कश्मीरियों को रोज़गार देने का सफल प्रोजेक्ट भी पेश किया। अली ने लुलु ग्रुप के ज़रिये कामयाब कारोबारी के साथ ही भारतपे्रमी व अच्छे इंसान की भी पहचान बनाई है।

*नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

नीतीश कुमार अवसरवादी

*अवसरवादी हैं नीतीश कुमार, मोदी को चुनौती के नहीं हैं आसार!*

0‘देश का नेता कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो’ बिहार के सीएम और जनता दल यू के मुखिया नीतीश कुमार के भाजपा का साथ छोड़ने के बाद भले ही उनकी पार्टी के अति उत्साही कार्यकर्ताओं ने ये नारे लगाये हों लेकिन जिन विपक्षी दलों को भी यह भ्रम है कि नीतीश 2024 में विरोधी दलों के किसी गठबंधन का नेतृत्व कर सकते हैं। वे एक तरह से खुशफहमी का ही शिकार माने जा सकते हैं। इसकी वजह यह है कि नीतीश सत्ता में रहने के लिये अब तक जितनी बार और जितने समय तक भाजपा के साथ रह चुके हैं। उससे उनकी छवि अवसरवादी उसूलविहीन और पलटूराम की बन चुकी है। दूसरी तरफ सबसे बड़ी विरोधी पार्टी कांग्रेस नीतीश को पीएम पद के लिये राहुल की जगह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगी। अन्य विपक्षी दल भी अलग सोचते हैं।           

       -इक़बाल हिंदुस्तानी

      शिवसेना अकाली दल के बाद भाजपा का साथ छोड़ने वाला जदयू तीसरा बड़ा दल है। अगर यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा कि अब एनडीए में कोई बड़ा सहयोगी राजनीतिक घटक नहीं बचा है। यह ठीक है कि एनडीए छोड़ने से पहले नीतीश की सोनिया गांधी से कई बार फोन पर बात हुयी थी। लेकिन यह जानकारी किसी को नहीं है कि इसमें क्या क्या बात हुयी है? पत्रकारों के इस बारे में पूछने पर भी नीतीश कुछ बोलने को तैयार नहीं हुए। नीतीश के भाजपा से अलग होने के कई कारण गिनाये जा रहे हैं। उनमें से एक बड़ा कारण जदयू के कोटे से केंद्रीय मंत्री बने आरसीपी सिंह की मदद से जदयू को शिवसेना की तरह तोड़न की साजिश रचने का भाजपा पर जदयू ने आरोप लगाया है। हालांकि आरसीपी एक तरह से जदयू के छिटकने का आखिरी बहाना बने लेकिन जदयू और भाजपा में 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद ही तनाव और टकराव की स्थिति बन गयी थी। नीतीश का आरोप था कि उनको 43 सीटों तक सीमित कर कमज़ोर करने के लिये भाजपा ने एलजेपी के चिराग पासवान से सीटों का गुप्त समझौता किया था। पिछले दिनों भाजपा की पटना में हुयी बैठक में पार्टी मुखिया जे पी नड्डा ने कहा कि बीजेपी अगर इसी तरह काम करती रही तो क्षेत्रीय दल ख़त्म होने से कोई रोक नहीं पायेगा। नीतीश ने नड्डा के इस बयान को चुनौती के रूप में लिया और जदयू में टूट होने से पहले ही पाला बदल लिया। सुविख्यात पत्रकार राजदीप सरदेसाई का कहना है कि भाजपा के सहयोगी आजकल यह रहस्य समझने में व्यस्त हैं कि भाजपा से गठबंधन करने के बाद कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस व पीडीपी बिहार की एलजीपी व जदयू तमिलनाडू की एआईएडीएमके पंजाब का अकाली दल और महाराष्ट्र की शिवसेना की हालत लगातार ख़राब क्यों होती चली गयी? इनमें से कुछ दल तो आज अंतिम सांसे गिन रहे हैं। जानकार यह भी कहते हैं कि जिस तरह से बीजेपी ने यूपी में मंडल की काट कर कमंडल को आगे किया वह बिहार में ऐसा आज तक नहीं कर पायी। इसकी वजह बीजेपी का बिहार में अपना नेतृत्व पैदा ना कर शुरू से ही नीतीश के कंधे पर सवार होना माना जाता रहा है। बीजेपी ने वहां यादवों में जगह बनाने के लिये नंद किशोर यादव व नित्यानंद राय को आगे किया लेकिन ये दोनों ही लालू यादव के यादव मुस्लिम तिलिस्म को तोड़ने में नाकाम रहे। बीजेपी के कोटे से डिप्टी सीएम रहे सुशील मोदी भी वहां कोई बड़ा चमत्कार नहीं कर सके। उल्टे उन्होंने नीतीश को पीएम बनने की क्षमता वाला नेता बताकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। भला जब तक मोदी मौजूद हैं। तब तक भाजपा का कोई दूसरा नेता पीएम बनने के बारे में सोच नहीं सकता। ऐसे में नीतीश को पीएम मैटिरियल बताने वाला बिहार में भाजपा नेतृत्व कैसे कर सकता है? बिहार में राजनीति के तीन बड़े केंद्र राजद जदयू और भाजपा हैं। जब तक इनमें से दो साथ नहीं आते तब तक सरकार नहीं बन पाती। ऐसे में नीतीश ने अवसर का लाभ उठाकर खुद को संतुलन का केंद्र बना लिया है। वे जब भाजपा से नाराज़ हो जाते हैं तो राजद के साथ आ जाते हैं। जब राजद से खफा होते हैं तो फिर से भाजपा के साथ चले जाते हैं। लेकिन आगे ये सिलसिला चलने वाला नहीं लगता क्योंकि अब भाजपा अपने दम पर बिहार में आगे बढ़ेगी? सियासत के जानकारों का कहना है कि जदयू ही नहीं भाजपा अनेक क्षेत्रीय दलों को पहले वोट और सत्ता हासिल करने के लिये सीढ़ी की तरह उनसे गठबंधन कर इस्तेमाल करती है। उसके बाद धीरे धीरे अपने सहयोगियोें को ही अंदर अंदर कमज़ोर करने की रण्नीति पर काम शुरू कर देती है। कई बार भाजपा अपने सहयोगियों को ऐसे समय पर झटका देती है कि वे राजनीतिक रूप से बेअसर हो जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल बसपा मानी जाती है। जिसको भाजपा ने कई बार झुककर सपोर्ट कर सरकार बनवाई लेकिन आज उसको मरणासन्न अवस्था में ले जाकर छोड़ दिया है। भाजपा का मकसद बसपा के दलित मुस्लिम गठजोड़ को सदा के लिये तोड़ना था। यह काम उसने बखूबी कर लिया है। इतिहास देखें तो 1998 में कर्नाटक में बीजेपी ने रामकृष्ण हेगड़े की लोक शक्ति पार्टी से गठबंधन कर लिंगायत वोट पर कब्ज़ा कर खुद 13 सीट जीत ली थी। जबकि हेगड़े मात्र 3 सीट ही जीत सके थे। नोट करने वाली बात यह है कि चुनाव से पहले ही भाजपा नेता अनंत कुमार ने दावा कर दिया था कि इस चुनाव के बाद कर्नाटक में हेगड़े ज़ीरो हो जायेंगे। यही हुआ भी। दरअसल ये वही लिंगायत वोट बैंक था जिसे अनंत कुमार और येदियुरप्पा ने आगे चलकर अपना बड़ा आधार बनाया और 2008 में इसी बल पर वहां भाजपा सत्ता में भी आ गयी। बीजेपी को जब यह विश्वास हो जाता है कि उसको अब अपने पुराने सहयोगी की ज़रूरत नहीं है तो वह अपने बल पर सत्ता पाने के लिये अपने सहयोगी दल को ठिकाने लगाने में देर नहीं करती। सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार इसी बात को दूसरी तरह से कहते हैं कि भाजपा ही नहीं किसी भी दल को अपने विस्तार का अधिकार है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इसके लिये नैतिक ईमानदार और स्वस्थ तरीके अपनाये जा रहे हैं या फिर सरकारी मशीनरी जैसे सीबीआई ईडी जैसी शासकीय शक्तियों का दुरूपयोग कर क्षेत्राय छोटे और कम संसाधन और आधार वाले दलों को खत्म किया जा रहा है? यह किसी से छिपा नहीं है कि किस तरह देश में केंद्रीय सत्ता लोकतंत्र कोर्ट मीडिया चुनाव आयोग आदि आज सवालों के घेरे में हैं।         

*(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Saturday 30 July 2022

पसमांदा मुसलमान

*अब भाजपा पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने में कामयाब होगी ?*

0पीएम मोदी ने हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कहा है कि भाजपा कार्यकर्ता स्नेहयात्रा शुरू करके अब पार्टी से पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने का काम शुरू करें। इससे पहले भाजपा सबका साथ सबका विकास का नारा देकर पार्टी से बृहम्ण बनियों की पार्टी का टैग हटाने को पहले गैर यादव पिछड़ों फिर गैर जाटव दलितों और अब आदिवासियों को जोड़ने के लिये सफलता काफी हद तक पा चुकी है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है। उनका प्रतिनिधित्व भाजपा शासित राज्यों व लोकसभा में पार्टी में लगभग आज शून्य है। इसका दोष भाजपा और मुसलमान एक दूसरे को देते रहे हैं। लेकिन पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने का भाजपा का इरादा एक रण्नीति के तहत आगे सफल हो सकता हैै।        

      -इक़बाल हिंदुस्तानी

      पसमांदा दरअसल फारसी का शब्द है। जिसका मतलब पीछे रह जाने वाले से होता है। हालांकि इस्लाम मंे जातिवाद का कोई अस्तित्व नहीं है लेकिन यह भी सच है कि भारतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद है। पसमांदा शब्द मुस्लिम समाज में उन मुसलमानों के लिये इस्तेमाल होता है। जिनको जानबूझकर पिछड़ों दलितों और आदिवासियों से भी अधिक जातीय पक्षपात का शिकार बनाकर अलग थलग रखा गया है। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान के प्रोफेसर खालिद अंसारी का कहना है कि पसमांदा शब्द पहली बार 1998 में पूर्व राज्यसभा सदस्य अली अनवर अंसारी द्वारा उस समय सार्वजनिक रूप से पहली बार प्रकाश में आया जब अली अनवर ने आॅल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ नामक संस्था का गठन किया था। अली अनवर का कहना रहा है कि मुसलमानों में पिछड़ों में पिछड़े और दलित दोनों एक साथ शामिल हैं। जबकि वे दलित मुसलमानों को पसमांदा की अलग श्रेणी में रखना चाहते हैं। दरअसल हिंदुओं की तरह ही मुसलमानों मंे कुछ लोग अशरफ यानी उच्च जाति अजलाफ यानी पिछड़े और अरज़ाल यानी दलित मुस्लिम जाति के हिसाब से विभाजन मानते रहे हैं। अशरफ उन मुसलमानों को कहा जाता है जो अरब तुर्की परसिया या अफगानिस्तान से सैयद शेख़ पठान और मुग़ल की शक्ल में आये या फिर राजपूत गौड़ त्यागी जैसी उच्च हिंदू जाति से मतान्तरण करके ईमान लाये। अजलाफ वो मुसलमान कहलाते हैं जो कि मोमिन अंसार दरर्ज़ी रायीन मीडियम जातियों से आते हैं। अरज़ाल 1901 की जनगणना के अनुसार सबसे निचली श्रेणी मंे वो जातियां आती हैं जिनमें अछूत यानी हलालखोर, हेलास, लालबेगीस धोबी नाई चिक्स और फ़क़ीर शामिल हैं। सच्चर कमैटी की 2005 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि जिनके साथ सामाजिक स्तर पर कोई पक्षपात नहीं हुआ वे अशरफ, हिंदू पिछड़ों की तरह अजलाफ और हिंदू दलितों की तरह अरज़ाल हैं। जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की मई 2007 की रिपोर्ट में भी यह दोहराया गया है कि भारतीय मुसलमानों में भी अन्य धर्मों की तरह जाति व्यवस्था मौजूद है। देश में 1931के बाद से जाति के आधार पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन सच्चर कमीशन जहां मुसलमानों में पिछड़ों और दलितों आदिवासियों की संख्या 40 प्रतिशत के आसपास मानकर चलता है वहीं पसमांदा मुस्लिम एक्टिविस्ट इनकी तादाद दोगुनी यानी 80 से 85 प्रतिशत होने का दावा करते हैं। यह आंकड़ा 1871 की जनगणना से मेल खाता है जिसमें कहा गया था कि अविभाजित भारत में केवल 19 प्रतिशत उच्च जाति के मुसलमान रहते हैं। इसी वजह से यह भी कहा जाता है कि देश के बंटवारे मंे जो लोग पाकिस्तान गये उनमें भी अधिक तादाद अशरफ मुसलमानों की ही थी। जिससे पसमांदा मुसलमानों का यह आंकड़ा 80 से बढ़कर 85 फीसदी तक पहंुच चुका है। पसमांदा जातियों का आरोप है कि मुसलमानों के नाम पर आज सब जगह अशरफ जातियों का कब्ज़ा है। उनका यह भी कहना है कि उनको धर्म यानी मुसलमानों के नाम पर आरक्षण नहीं चाहिये बल्कि पसमांदा जाति के नाम पर अलग से आरक्षण दिया जाना चाहिये जिससे मुट्ठीभर अशरफ मुसलमान उनके हिस्से के जनप्रतिनिधि सरकारी नौकरी व संस्थाओं पर कब्ज़ा जमाकर पहले की तरह उनके हक़ ना मार सकें। अब सौ टके का सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा वास्तव में पसमांदा मुसलमानों को पार्टी में जोड़ना चाहती है? इसका जवाब है हां। यूपी की सियासत में देखें तो आज़म खां जो अशरफ जाति से आते हैं। पिछले काफी समय से जेल में रहे और आज भी कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। दूसरी तरफ पसमांदा जाति से दानिश आज़ाद अंसारी को बिना चुनाव लड़े योगी सरकार ने मंत्री बनाकर पसमांदा मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने का बड़ा संकेत दिया है। इससे पहले शिया सुन्नी के बीच की खाई को देखते हुए शिया समाज को भाजपा से मुख्तार अब्बास नक़वी को मंत्री बनाये रखकर जोड़ा ही जा चुका है। लेकिन उनकी तादाद बहुत कम होने से कोई खास लाभ नहीं हुआ। सवाल यह है कि जिस भाजपा की सारी सियासत मुसलमान विरोधी मानी जाती है। उसको पसमांदा के नाम पर पार्टी से अगर जोड़ा भी जाता है तो क्या भाजपा समर्थक कट्टर हिंदू फिर भी कमल पर वोट देता रहेगा? सवाल यह भी है कि विपक्ष के आरोपानुसार जिस मुसलमान का मात्र धर्म देखकर अशरफ अजलाफ या अरज़ाल पता किये बिना कदम कदम पर शोषण अन्याय पक्षपात उत्पीड़न माॅब लिंचिंग सार्वजनिक जगह पर नमाज़ पर पाबंदी तीन तलाक़ पर रोक लवजेहाद नकाब मांस एंटी रोमियो अभियान एनआसी काॅमन सिविल कोड का डर अन्याय का विरोध प्रदर्शन करने पर सबक सिखाने को उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चलाया जा रहा है वो भाजपा को वोट कैसे दे सकते हैं? तो जवाब यह है कि जिस तरह से पिछले यूपी सहित चार राज्यों के चुनाव में मुसलमानों ने भाजपा को 8 प्रतिशत वोट दिये हैं। वे भविष्य में सेकुलर दलों से निराश हताश और नाराज़ होकर भविष्य में भाजपा का दोस्ती का हाथ थाम भी सकते हैं। यह इसलिये भी मुमकिन है कि आज सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर आरक्षण खत्म करने के बावजूद भाजपा सबसे अधिक पिछड़ों, दलित राष्ट्रपति बनाकर दलितों और अब आदिवासी प्रेसीडेंट बनाकर आदिवासियों का जिस तरह से वोट लेने मंे सफल है। उसी तरह मुसलमानों को विभिन्न योजनाओं का लाभ और बुल्डोज़र का डर दिखाकर उनका वोट भी पसमांदा के नाम पर पहले से अधिक ले ही सकती है। भाजपा को 2024 में एंटी इन्कम्बैंसी से घटने वाले हिंदू वोटों की क्षतिपूर्ति भी तो करनी है।     

 *(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Sunday 24 July 2022

रेवड़ी बांटना

*रेवड़ी बांटना या बैंको का कर्ज़ माफ़ करना जनहित की राजनीति ?* 

0पीएम मोदी ने बिना केजरीवाल व अन्य विपक्षी नेताओं का नाम लिये कुछ राज्यों द्वारा जनहित में चलाई जा रही निशुल्क योजनाओं को रेवड़ी बांटने की संज्ञा दी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर ऐसी योजनायें चलाने से राज्यों का बजट घाटे में जा रहा है तो यह चिंता की बात है। लेकिन विपक्ष का सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार द्वारा विगत 8 साल में अपने चहेते पूंजीपतियों के 11 लाख करोड़ से अधिक के एनपीए यानी बुरे कर्ज़ माफ कर देना जनहित में है? केजरीवाल का आरोप यह भी है कि मोदी सरकार जनहित की बजाये ‘धनहित’  में अधिक काम कर रही है। यह भी सच है कि जनहित में राज्यों की चल रही योजनाओं का कुल बजट डेढ़ लाख करोड़ के आसपास हैै।       

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      2014 में केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार के आने के बाद से देश में कुछ चीजे़ पूरी तरह बदल गयी हैं। मिसाल के तौर पर 1991 से पहले हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था चलती थी। सरकार का झुकाव समाजवाद की तरफ रहता था। एल पी जी यानी लिबरल प्राईवेट और ग्लोबल यानी आर्थिक उदारीकरण के बाद भी सरकारें गरीब कमज़ोर दलितों पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का काफी ख़याल रखती थीं। देश संविधान के हिसाब से काफी हद तक चलता था। राज्यों को कुछ अपवाद छोड़कर स्वायत्ता मिली हुयी थी। जांच एजेंसियों का खुला दुरूपयोग और वह भी पूरी निर्लजता से केवल विपक्ष के खिलाफ नहीं होता था। मीडिया आज की तरह पूरी तरह सरकार के तलुवे नहीं चाटता था। कोर्ट सरकार के गलत फैसलों के खिलाफ पूर सख़्ती से खड़े होेते थे। सेकुलर होना सिकुलर या शेखुलर यानी बीमार या मुसलमान समर्थक होना नहीं माना जाता था। सोशल मीडिया पर इतनी बेशर्मी से खुलेआम ज़हर साम्प्रदायिकता कट्टरता झूठ और नफरत नहीं परोसी जाती थी। सरकार की नीतियों उसके संचालन और योजनाओं पर एक बाहरी कथित सांस्कृतिक संगठन इतना हावी पहले कभी नहीं था। लेकिन आज बहुत कुछ बदल चुका है। आज की सरकार का पूंजीपतियों के पक्ष में खुलेआम नीतियां बनाना बुरा नहीं समझा नहीं जाता है। यही वजह है कि कुछ उद्योगपति जानबूझकर यानी विलफुल डिफाल्टर बन रहे हैं। आरबीआई और नेशनल बैंक इस सच को जानते हैं। लेकिन वे सत्ता के दबाव में ना केवल ऐसे धोखेबाज़ चालाक और मक्कार धनवानों को ना केवल लगातार लोन देने को मजबूर किये जा रहे हैं बल्कि उनका पुराना लाखों करोड़ का कर्ज़ पहले राइट आॅफ और बाद में औने पौने में बैंकरप्सी एक्ट में समझौता करके चंद रूपये वसूल करके माफ किया जा रहा है। विपक्ष का आरोप है कि ऐसे अधिकांश पंूजीपतियों से सत्ताधारी दल मोटी रकम चुनावी चंदे में लेकर ऐसा कर रहा है। इस मामले में इसलिये भी कुछ दावे से नहीं कहा जा सकता है क्योंकि मोदी सरकार ने इलैक्टोरल बांड जिस गोपनीय तरीके से सियासी दलों को देने का रहस्यमयी और विवादित तरीका ईजाद किया है। वह अपने आप में शक को और अधिक बढ़ाता ही है। आंकड़े बताते हैं कि इन बांड की 90 प्रतिशत रकम भाजपा के खाते में जा रही है। सवाल यह है कि जब सरकार ही पंूजीपतियों के साथ खुलकर खड़ी है। वह उनका काॅरपोरेट टैक्स लगातार कम कर रही है। उनको कोरोना के दौरान 20 लाख करोड़ का विशाल आर्थिक पैकेज भी दिया गया है। जिसका कोई विशेष लाभ आम जनता को नहीं मिला है। सरकार उनका कैपिटल गैन का टैक्स भी कम कर रही है। उनको उद्योग धंधे लगाने के लिये निशुल्क या ना के बराबर कीमत या एक रूपये एकड़ के पट्टे पर करोड़ों की सरकारी यानी आम जनता की ज़मीन भी दे रही है। उनको कर्मचारियों को निविदा पर अस्थायी तौर पर रखने और चाहे जब निकालने की सुविधा भी दे रही है। उनको मज़दूरों से 8 की बजाये 12 घंटे काम की छूट भी दे रही है। यह सूची बहुत ही लंबी है। दूसरी तरफ सरकार जीएसटी के नाम पर आम जनता पर करों का बोझ बढ़ाती जा रही है। महंगाई रोक नहीं पा रही है। बेेरोज़गारी दर आज़ादी के बाद सबसे अधिक हो चुकी है। रूपया डाॅलर के मुकाबले ऐतिहासिक गिरावट दिखा रहा है। निर्यात बढ़ नहीं रहा है। बढ़ते आयात से विदेशी मुद्रा कम होती जा रही है। रेलवे में वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली किराये की छूट सरकार ने खत्म कर दी है। सिलेंडर की सब्सिडी खत्म करने से उसकी कीमत पर 8 साल में ढाई गुना से अधिक हो चुकी है। नये रोज़गार निकल नहीं रहे हैं। मंदी आने से पुरानी नौकरी भी जा रही हैं। मनरेगा में 100 दिन की बजाये 27 दिन ही गांवों में काम मिल रहा है। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि पूंजीपतियों उद्योगपतियों और काॅरपोरेट को दी गयी तमाम सरकारी छूट सहायता पैकेज का कोई विशेष लाभ आम जनता को नहीं मिल रहा है। आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। देश के 10 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश के 60 प्रतिशत आम लोगों से अधिक सम्पत्ति है। ऐसे में अगर कुछ राज्य सरकारें आम आदमी को कुछ यूनिट बिजली और चंद लीटर पानी निशुल्क दे रही हैं तो केंद्र सरकार को परेशानी क्यों हो रही है? अगर कुछ राज्य सरकारें जनहित में सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सस्ता और अच्छा उपलब्ध करा रही हैं तो यह निशुल्क रेवड़ी बांटना हो गया? यह ठीक है कि केंद्र सरकार भी गरीबों को सस्ता अनाज पीएम आवास योजना जलनल योजना जनधन योजना पीएम किसान सम्मान निधि कारोबार के लिये मुद्रा योजना पीएम रसोई गैस योजना आयुष्मान स्वास्थय बीमा आदि अनेक जनहित की योजनायें चला रही है। लेकिन राज्यों को ऐसी योजनायें चलाने पर निशुल्क रेवड़ी बांटना बताना उचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही राज्य पहले ही परेशान जनता पर कोई नया बोझ नहीं डालना चाहते या पुरानी सुविधा नहीं छीनना चाहते तो यह अच्छी बात मानी जानी चाहिये। हालांकि जीएसटी में जो कर बढ़ रहे हैं। उनका लाभ भी राज्यों को मिलना है। लेकिन मोदी सरकार को यह बात समझनी चाहिये कि वह अगर पूंजीपतियों के साथ खुलकर खड़ा होने में कोई लज्जा या बुराई नहीं समझती तो यह आम जनता के हित के खिलाफ ही जाता है। दुनिया के तमाम अर्थ विशेषज्ञ बार बार बता चुके हैं कि पंूजीवाद पहले अपने लाभ देखता है। उसके लिये जनहित का कोई मतलब नहीं है। यह काम सरकार का होता है। लेकिन मोदी सरकार खुद जनहित ना देखकर पूंजीपति समर्थक है। जो खुद मेें राज्यों के मुकाबले दुखद है।

 *(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*

Friday 15 July 2022

भाजपा और विपक्ष

*भाजपा अब कांग्रेस ही नहीं क्षेत्रीय दलों को भी ख़त्म कर देगी ?*

0जब अमित शाह यह दावा करते हैं कि भाजपा देश पर 40 से 50 साल राज करेगी तो कुछ लोगों को यह अतिश्योक्ति लगता है। लेकिन जिस तरह से भाजपा ने एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को धीरे धीरे ऐसे हालात में पहुंचा दिया है। जहां वह पहले से कमज़ोर नज़र आती है। वहीं अब भाजपा सपा बसपा और राजद के बाद अन्य क्षेत्रीय दलों को निबटाने में लग गयी है। इसकी ताज़ा मिसाल महाराष्ट्र की शिवसेना है। जिससे न केवल राज्य की सत्ता छिन गयी है बल्कि अब पार्टी पर कब्जे़ की लड़ाई मंे भी ठाकरे को कड़ी चुनौती मिलने जा रही है। इसके बाद भाजपा के निशाने पर दक्षिण के राज्य आंध्रा तेलंगाना और तमिलनाडू के क्षेत्रीय दल हैं।

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      रामपुर और आज़मगढ़ के लोकसभा उपचुनाव जीतकर भाजपा ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसने यूपी के क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी को पूरी तरह मरणासन्न कर दिया है। यहां एक और क्षेत्रीय दल बसपा तो पहले ही आईसीयू में भर्ती होकर अंतिम सांसे गिन रही है। कांग्रेस का इस राज्य में कोई जनाधार तो दूर संगठन तक नहीं बचा है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगा लेकिन हालात अगर ऐसे ही रहे और कोई बड़ी घटना नहीं घटी तो यूपी में भाजपा 2024 के आमचुनाव में अपना मिशन 75 सीट आराम से पूरा कर लेगी। इसकी वजह यह है कि जिस सपा का मुख्य आधार वोटबैंक यादव और मुस्लिम रहा है। वह भी उसे उसके गढ़ आज़मगढ़ और रामपुर में जिताने में नाकाम रहा है। जबकि ये दोनों सीटें पहले उसके पास ही थीं। ये अखिलेश यादव और आज़म खां ने भारी अंतर से जीती थीं। हालांकि प्रतिष्ठा का प्रश्न बनीं इन दोनों सीटों पर हार के सपा कई कारण गिना रही है। लेकिन अगर इनमंे कुछ हद तक सच्चाई हो तो भी सपा अपनी नाकामी को छिपा नहीं सकती है। साम दाम दंड भेद से ही सही लेकिन यह यूपी के सीएम और भावी पीएम योगी की सफलता ही है। जहां तक बसपा सुप्रीमो बहनजी का सवाल है। वे बार बार अपनी नालायकी नासमझी और नाकामी का ठीकरा मुसलमानों के सर फोड़कर अपनी पार्टी की कब्र अपने हाथों खोदती रहती हैं। उन्होंने यूपी के विधानसभा चुनाव के बाद दो संसदीय उपचुनाव के नतीजे आने पर एक बार फिर कहा है कि मुसलमानों ने अगर हमें वोट दिया होता तो हम भाजपा को हरा सकते थे। लेकिन वे यह सच मानने से बार बार इन्कार कर रही हैं कि उनको लोग भाजपा की ही बी टीम मानते हैं। ऐसे में बसपा को जिताना भाजपा को ही जिताना है। रामपुर में बहनजी ने बसपा का प्रत्याशी ही खड़ा नहीं किया। जिससे उनका परंपरागत दलित वोट भाजपा को जाने से कमल खिलने में आसानी हो गयी। उधर आज़मगढ़ में बहनजी ने जानबूझकर मुस्लिम वोट बांटने को गुड्डू जमाली को चुनाव में उतारा। साथ ही वहां भाजपा का प्रत्याशी यादव होने से यादव वोट भी बंट गया। यहां भी बताया जाता है कि काफी बड़ी संख्या में दलित वोट भाजपा उम्मीदवार के साथ गया है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले आम चुनाव में विधानसभा चुनाव से भी अधिक दलित वोट भाजपा के साथ जायेगा। लेकिन बहनजी से मुसलमानों का बचा खुचा भरोसा भी उठ जाने से 2019 की तरह उनकी दलित मुस्लिम यानी सपा बसपा गठजोड़ से मिली 10 सीट भी वापस आनी असंभव है। अब तक यह देखने में आया है कि जो लोग राज्य विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों को अलग अलग कारणों से वोट दे भी देते हैं। वे भी लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मोदी और हिंदुत्व की वजह से चले जाते हैं। जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना के हिंदुत्व से हटने और मोदी का साथ छोड़ने से विद्रोह हुआ है। उसका असर दूरगामी होने के आसार बन रहे हैं। यह ठीक है कि शिवसेना पर ठाकरे परिवार का प्रभाव ही अधिक माना जाता रहा है। यही वजह है कि राज ठाकरे छगन भुजबल व नारायण राणे के मूल शिवसेना से अलग होने पर भी ठाकरे की शिवसेना के संगठन पर आज तक कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। लेकिन शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे के अलग होकर सीएम बन जाने से भी ऐसा ना हो पक्का कहा नहीं जा सकता है। मोदी और शाह संघ की योजना से जिस रास्ते पर चल रहे हैं। उससे ऐसा लगता है कि वे बिहार में भी जनता दल यू से जल्दी ही पीछा छुड़ाकर वहां भाजपा का सीएम देखना चाहते हैं। वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही राजनीतिक रूप से इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि किसी भी सियासी झटके को झेल नहीं पायेंगे। उधर तमिलनाडू में जयललिता की मृत्यु के बाद एआई डीएमके में पनीरसेल्वम और पलानी स्वामी गुट में आपसी टकराव इतना बढ़ चुका है कि कभी भी ख़बर आ सकती है कि उसका एक गुट महाराष्ट्र की तरह अलग होकर भाजपा में शामिल होने जा रहा है। इसके साथ ही तेलंगाना में भी भाजपा ने नज़रें गड़ा रखी हैं। पिछले दिनों वहां भाजपा के सम्मेलन में मोदी और शाह ने टीएसआर सरकार पर एमआईएम से मिलकर मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत करने का आरोप लगाया है। साथ ही भाजपा ने हैदराबाद को भाग्यनगर बनाने का शिगूफा सोच समझकर छोड़ा है। ऐसे ही भाजपा की आंखें आंध्रा प्रदेश की वाईएसआर सरकार पर लगी हुयी हैं। भाजपा का आरोप है कि तेलंगाना और आंध्रा में वंशवादी दलों की सरकारें जनता का भला ना करके अपने परिवारों के निजी हितों को आगे बढ़ा रही हैं। यही आरोप भाजपा उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार पर लगा चुकी है। लेकिन नवीन पांचवी बार मुख्यमंत्री बनकर एंटी इनकंबैसी को लगातार धता बता रहे हैं। भाजपा के निशाने पर बंगाल की टीएमसी भी है। लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी का इतने बड़े बहुमत से जीत जाना फिलहाल भाजपा की चाल को हल्का रखने के लिये मजबूर कर रहा है। हालांकि पंजाब में भी वंशवादी और करप्शन के आरोपों से घिरा अकाली दल भाजपा का सहयोगी रहा है। लेकिन वह पिछले दिनों किसानोें के मुद्दे पर भाजपा से अलग हो गया था। अब फिर से भाजपा अकाली दल को साधने का प्रयास कर रही है। भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती फिलहाल आम आदमी पार्टी बनी हुयी है। जो दिल्ली के बाद पंजाब जैसे बड़े राज्य में भी बंपर बहुमत से सत्ता में आ गयी है। उधर केरल में भी भाजपा वामपंथियों से लड़कर धीरे धीरे अपनी जगह बना रही है। लगता यही है कि आज नहीं तो कल भाजपा किसी कीमत पर भी सब राज्य जीतेगी।  

( *लेखक पब्लिक आॅब्ज़वर के संपादक एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*)

Sunday 3 July 2022

उदयपुर हत्याकांड

*उदयपुर हत्याकांड: सख़्त सज़ा के साथ ही ब्रेनवाश भी ज़रूरी!*

0पैगं़बर साहब का अपमान करने की आरोपी नूपुर शर्मा का समर्थन करने पर राजस्थान के एक दजऱ्ी कन्हैया लाल की बर्बर हत्या करने वाले ग़ौस मुहम्मद और मुहम्मद रियाज़ को सख़्त और जल्दी सज़ा मिलनी चाहिये। इसमें किसी तरह के बचाव या अगर मगर की ज़रूरत ही नहीं है। कानून द्वारा जुर्म की सज़ा दिये जाने का मक़सद सभ्य समाज में बदला नहीं सुधार भी माना जाता है। इसलिये भविष्य में ऐसे जघन्य व डरावने अपराध रोकने के लिये कन्हैया के हत्या आरोपियों जैसे कट्टरपंथियों की सोच को बदलने के लिये उनका ब्रेनवाश करना भी ज़रूरी है। इसके साथ ही हमें ऐसा समाज बनाने की ज़रूरत है। जिसमें धर्म निजी जीवन तक ही सीमित रहे और सरकार सब धर्मों को न केवल बराबर समझे बल्कि उसका व्यवहार भी समानता का दिखे।      

         *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      संविधान विशेषज्ञ और नलसार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फ़ैजान मुस्तफ़ा का कहना है कि एक उदार व मज़बूत लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी पहली शर्त है। हालांकि इस अभिव्यक्ति की भी कुछ सीमायें हैं। लेकिन जहां तक किसी की अभिव्यक्ति से किसी दूसरे की भावनायें आहत होने का सवाल है। उसके लिये हमारे यहां कानून मौजूद है। धारा 153 और 295 में ऐसे मामलों से निबटने के लिये पर्याप्त व्यवस्था की गयी है। मुस्तफ़ा का कहना है कि अगर हमारा समाज परिपक्व और तार्किक हो जाये तो इन धाराओं की भी ज़रूरत नहीं रह जायेगी। कहने का मतलब यह है कि एक कंपोजि़ट सोसायटी में इतनी सदियां बीतने के बाद इतनी समझ तो विकसित हो ही जानी चाहिये कि हम एक दूसरे के धर्म जाति भावना सोच परंपरा रीति रिवाज त्यौहार और खानपान व रहनसहन का सम्मान कर सकें। देश सह अस्तित्व और सहनशीलता की भावना से ही चलते हैं। लेकिन यह भी सच है कि समाज में सदा से ऐसे चंद कट्टर साम्प्रदायिक अंधविश्वासी संकीर्ण स्वार्थी लोग भी सभी वर्गों में रहे हैं। जो दूसरे लोगों को समान नहीं मानते। यही वजह है कि वे दूसरे मज़हब के मानने वालों का सम्मान भी नहीं करते। यहां तक कि वे अपने से अलग लोगों को हिंसक कट्टरपंथी दंगाई झूठा समाज विरोधी लड़ाकू और सारी बुराइयों की जड़ बताते हैं। इन हालात में ऐसे सरफिरे मूर्ख भावुक उग्र अंधभक्त और पाखंडी लोगांे का दुरूपयोग राजनीति अपनी सत्ता पाने और उसे बनाये रखने को बखूबी करने लगती है। अगर सरकार पुलिस और कोर्ट निष्पक्ष रहे तो ऐसे कट्टरपंथियों की हिम्मत नहीं होगी कि वे एकता भाईचारे व अमनचैन में आग लगा सकें। यहां यह विचार करना समय की मांग है कि आखि़र कन्हैया के हत्यारों के दिमाग में यह क्रूर और हैवानी विचार कहां से और कैसे आया कि अगर किसी ने पैगं़बर की शान में गुस्ताख़ी की है या उस गुस्ताख़ी करने वाली का मात्र समर्थन कर दिया है तो उसकी जान खुद ले लेनी चाहिये? वह भी इतने ज़ालिम और रूह फ़ना करने वाले बर्बर तरीके से? उसकी शर्मनाक और दर्दनाक वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल कर दूसरे लोगोें को डराकर आप आईएसआईएस के आतंकियों जैसा जंगली काम आखि़र किसके इशारे पर कर रहे हैं? अगर किसी ने आपकी मज़हबी भावनायें आहत की भी हैं तो उसको कानून सज़ा देगा। अगर सज़ा देने का यह काम मुश्किल और देर से होने वाला या ना भी होने वाला हो तो क्या आप अपने धर्म के हिसाब से सज़ा देने को कानून हाथ में ले लेंगे? वो आपके सब्र करने माफ करने और नज़रअंदाज़ करने के बड़े बड़े मज़हबी दावे कहां गये? या हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और हैं? अगर हां तो कल दूसरे लोग भी ऐसा करने लगे तो समाज में अराजकता फैल जायेगी। उस जंगलराज का जि़म्मेदार कौन होगा? जब खुद पैग़ंबर साहब के साथ उनके जीवन में उनके विरोधी उनका अपमान और हमला किया करते थे। तब पैगं़बर साहब तो उनको माफ कर दिया करते थे। वे तो अपने दुश्मनों से बदला नहीं लिया करते थे। उनके मानने वाले उनके रास्ते पर चलने का दावा करते हैं तो फिर उदयपुर जैसा हत्याकांड कैसे हो जाता है? अगर आपका अल्लाह रोज़ ए महशर और जन्नत दोज़ख़ में पूरा भरोसा है तो यह मसला अपने अल्लाह पर ही छोड़ दो न? वह खुद सज़ा देगा। सौ टके का सवाल यह भी है कि जब इस्लाम को मानने वाले ही पैग़ंबर के दिखाये रास्ते पर नहीं चलेंगे तो गैर मुस्लिमों से क्यों आशा करते हैं कि वे इस्लाम के हिसाब से चलें नहीं तो उनको इस्लाम के हिसाब से कानून हाथ में लेकर वे खुद बर्बर सज़ा देकर पूरी दुनिया में इस्लाम और पैगं़बर के संदेश पर उंगली उठाने का अनचाहा मौका देंगे? हमारा मानना है कि सज़ा इंसान को केवल डराती है। इतना तो कन्हैया के हत्यारे भी जानते होंगे कि वे पकड़े जायेंगे और जेल जायेंगे। उनको उम्रकै़द या फांसी होगी। लेकिन सवाल यह है कि जो लोग आत्मघाती बम लगाकर मुस्लिम मुल्कों अपने ही मुस्लिमों को इस्लाम विरोधी बताकर अकसर मौत के घाट उतारते रहते हैं। उनको आप सज़ा के तौर पर जेल या जान जाने से कैसे डरा सकते हैं? हमारा कहना है कि इसका बेहतर इलाज यही है कि ऐसे लोगों का ब्रेनवाश किया जाये कि आज के दौर में मज़हबी राज नहीं चलेगा। देश संविधान कानून और एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करके ही चलेगा। धर्म को सार्वजनिक जीवन में ना लाकर घरों या धार्मिक स्थलों तक सीमित रखा जाये। किसी के पूजा पाठ या नमाज़ जैसी धार्मिक गतिविधियों से किसी दूसरे वर्ग को तकलीफ़ समस्या या नुकसान ना हो। सरकार उसके द्वारा बनाये जाने वाले कानून उनके अनुसार कार्यवाही करने वाली पुलिस उनके हिसाब से सज़ा देने वाली अदालतें और दूसरी प्रशासनिक एजंसियां सब सेकुलर निष्पक्ष और ईमानदार ना केवल होनी चाहिये बल्कि अपने कामों जांच और फैसलों से समानता का व्यवहार करती नज़र भी आनी चाहिये। यह कड़वा सच हम सबको जितनी जल्दी समझ आ जायेगा देश और समाज का उतना ही भला होगा कि आज के दौर में लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता नैतिकता निष्पक्षता समानता सबको न्याय व सुरक्षा और उदारता का कोई विकल्प नहीं है। अगर हम संविधान के इन बुनियादी मूल्यों पर व्यवहारिक से खरे नहीं उतरते हैं तो समाज में शांति नहीं होगी। दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां शांति नहीं होती वहां आर्थिक उन्नति भी नहीं होती। इसीलिये सभी धर्म के कट्टरपंथियों को यह आज नहीं तो कल समझना और मानना ही होगा कि आप समाज को अपने धर्म के हिसाब से हिंसक तौर तरीकों से नहीं हांक सकते।   

 *नोट-लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Sunday 26 June 2022

शिवसेना में विद्रोह

*महाराष्ट्रः सरकार तो नहीं बचेगी, शिवसेना ठाकरे की ही रहेगी?*

0एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों में जो बग़ावत हुयी है। उससे आज नहीं तो कल ठाकरे सरकार का जाना तो लगभग तय है। लेकिन कम लोगों को पता है कि यह वास्तव में महाराष्ट्र सरकार से अधिक उस मुंबई महानगर निगम पर कब्जे़ की लड़ाई की बानगी है जिसका बजट देश के लगभग एक दर्जन से अधिक छोटे राज्यों से अधिक यानी 26000 करोड़ का है। कुछ माह बाद इसके चुनाव होने हैं। इसके साथ ही यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले की उस कवायद का भी हिस्सा है। जिसमें भाजपा को महाराष्ट्र बंगाल व तमिलनाडू में 2019 के बाद बदले समीरणों को बहुमत पाने में बाधा बनने से हर हाल में रोकना है। दल बदल कानून से बचने में शिंदे गुट कामयाब होता है या नहीं यह देखना रोचक होगा।    

     *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      शिवसेना ने पिछला विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था। दोनों को साझा रूप से बहुमत भी मिल गया था। लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों में विवाद होने के बाद गठबंधन टूट गया था। इसके बाद शरद पवार जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने उध्दव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना की एनसीपी और कांग्रेस के सपोर्ट से सरकार बनवा दी थी। दरअसल उसी समय एकनाथ शिंदे को सीएम बनाये जाने का प्रस्ताव था। लेकिन अंतिम क्षणों में पवार ने ठाकरे को सीएम बनने के लिये तैयार किया था। इससे आज के विद्रोह की बुनियाद उसी दिन पड़ गयी थी। इसके बाद ये आरोप लगातार लगते रहे कि ठाकरे पवार के इस एहसान की वजह से शिवसेना से अधिक एनसीपी को वेट देने लगे हैं। उधर भाजपा के पूर्व सीएम देवेंद्र फड़नवीस एनसीपी में नाकाम विद्रोह कराकर शपथ लेकर भी बहुमत साबित ना कर पाने के बाद लगातार तीन दलों की महा विकास अघाड़ी सरकार को तोड़ने का प्रयास करते रहे। उधर केंद्र की मोदी सरकार ने ठाकरे सरकार के कई मंत्री से लेकर विधायकों व एनसीपी के कुछ नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों की जांच की तलवार लटकाकर व कुछ को जेल भेजकर इतना अधिक दबाव बना दिया कि उनके पास शिवसेना से बगावत करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। इस असंतोष और बेचैनी का इशारा ठाकरे सरकार को हाल ही में हुए राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों में महा अघाड़ी के विधायकों का भाजपा के पक्ष में मतदान करने से मिल गया था। ठाकरे ने शक होने पर शिंदे को तलब कर उनसे सफाई मांगी तो वह कोरा झूठ बोलकर अपने आंसुओं की आड़ में बच निकले। इसके बाद शिंदे ने दिल्ली के इशारे पर ईडी की जांच से बचने मोटी रकम का लालच असंतुष्ट विधायकों को मंत्री पद दिलाने व खुद उपमुख्यमंत्री बनने और ठाकरे के हिंदुत्व से हटने व शिवसेना मंत्रियों व विधायकों को सीएम ठाकरे द्वारा भाव ना देने के बहाने भड़काकर विद्रोह को अंजाम तक पहंुचा दिया। इस विद्रोह से पहले तो ठाकरे और पूरी शिवसेना सकते में आ गयी। इसके साथ ही सहयोगी दल एनसीपी और कांगे्रस भी ठगे से रह गये। लेकिन जैसे ही शिंदे ने यह बयान दिया कि उनके साथ एक बहुत बड़ी शक्ति यानी भाजपा है तो पवार ने घाघ राजनेता की तरह ठाकरे सरकार  बनाने की तरह उसे बचाने को एक बार फिर पूरी मज़बूती और परिपक्वता से कमान संभाल ली। ठाकरे ने उनकी सलाह मानते हुए सीएम आवास तो तत्काल छोड़ दिया। लेकिन पद से रिज़ाइन नहीं किया। इसका नतीजा यह हुआ कि जो शिंदे पूरी शिवसेना अपने साथ होने का दावा कर रहे थे। वे बाद में कहने लगे कि उनके साथ दो तिहाई शिवसेना विधायक हैं। एक बार पहले ही आधी रात को शपथ लेकर सरकार ना बना पाने वाले फड़नवीस की भाजपा ने भी फिर से लज्जित होने से बचने को शिंदे से यह बयान पलटवा दिया कि उनके साथ कोई केंद्रीय राजनीतिक दल है। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। इतने समय में ही शिवसेना शुरू के झटकों से उभरकर बचाव की मुद्रा छोड़ अपने परंपरागत आक्रामक रूप में वापस आ गयी। उसने सरकार जाती देख अंतिम समय तक कानूनी लड़ाई के साथ ही अपनी पार्टी बचाने और विद्रोही विधायकों को सड़क पर जनता के बीच धोखेबाज़ डरपोक और मराठी अस्मिता का सौदा करने वाले साबित करने की जंग का एलान कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि विद्रोही शिंदे गुट वहीं अटक गया है। इस दौरान यह प्रस्ताव भी आया कि ठाकरे महा अघाड़ी छोड़कर भाजपा के साथ आयें। लेकिन ठाकरे ने इससे मना कर दिया। अब तक का रिकार्ड देखा जाये तो ठाकरे सरकार कोरोना से लेकर कानून व्यवस्था और राज्य की उन्नति व विकास में देश के कुछ गिने चुने सफल सीएम में गिने जाते हैं। अपवाद के तौर पर पालघर में तीन साधुओं की माॅब लिंचिंग उनकी बड़ी नाकामी रही हैै। लेकिन दिल्ली के साथ उनके रिश्ते कभी भी सामान्य नहीं रहे। जब जब मोदी सरकार सीबीआई व ईडी ने ठाकरे सरकार पर हमला बोला उन्होंने बिना डरे जवाबी धावा बोला है। इसके साथ ही भाजपा के खास रहे रिपब्लिक चैनल के अर्णव गोस्वामी फिल्म कलाकार सुशांत राजपूत कंगना रानौत नवनीत राणा या नूपुर शर्मा ठाकरे ने कानूनी कार्यवाही की पहल करके केंद्र सरकार को सीधी चुनौती दी है। बुल्ली डील एप और सुल्ली सेल जैसे मुस्लिम महिलाओं की बोली लगाने वालों और मस्जिद से अज़ान के समय हनुमान चालीसा का लाउड स्पीकर पर पाठ करने वालों के खिलाफ भी ठाकरे सरकार ने पूरी सख़्ती से कार्यवाही कर भाजपा की हिंदुत्ववादी नहीं मुस्लिम विरोधी हरकतों पर ना झुकने का कड़ा संदेश दिया है। उनका एक मंत्री शाहरूख़ खान के बेटे को ईडी द्वारा फर्जी केस में फंसाये जाने पर ईडी के एक चर्चित अधिकारी से भी भिड़ चुका है। जिसकी कीमत वह आज जेल जाकर चुका रहा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ठाकरे की सरकार भले ही चली जाये लेकिन वह झुककर भाजपा से अब समझौता करने वाले नहीं है। जहां तक संगठन का सवाल है। इसमें कोई दो राय नहीं शिंदे के साथ शिवसैनिक और मराठी जनता का बड़ा वर्ग क्षेत्रीय अस्मिता मराठी मानुस और ठाकरे परिवार के प्रति अटूट वफादारी की वजह से नहीं आयेगा। यह भी तय है कि जब कभी भी शिंदे अपने विद्रोही विधायकों के साथ मुंबई विधानसभा में स्पीकर के चुनाव अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान या अपने विद्रोह को कानूनी साबित करने को अपना पक्ष रखने आयेंगे उनका मूल शिवसेना इतना जोरदार विरोध करेगी कि सब बागी एमएलए उनके साथ नहीं रह पायेंगे। वैसे भी उनके आने से पहले ही उनके 12 से 16 विधायक पार्टी से निकालकर उनका पक्ष कमजोर कर दिया जायेगा। जिससे वे विधायकी खो सकते हैं। 

*नोट-लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर एवं  नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

           


Monday 20 June 2022

अग्निवीर

*अग्निवीर: समस्या 4 साल की नहीं 8 साल की है ?* 

0सेना में भर्ती के लिये मोदी सरकार ने अग्निवीर योजना पेश की है। इसका मकसद ना केवल युवाओं को रोज़गार देना है बल्कि उनके मन में देशभक्ति की भावना को बढ़ाना और मां भारती की सेवा का अधिक से अधिक युवाओं को मौका देना है। इसीलिये इसका सेवाकाल 15 की जगह 4 साल रखा गया है। चार साल की सेवा के बाद 75 प्रतिशत को 12 लाख रू. व 25 प्रतिशत को स्थायी सैनिक बनने का गौरव भी मैरिट के आधार पर मिलेगा। लेकिन इस योजना की अवधि 4 साल होना कुछ युवाओं को भा नहीं रहा है। वे इसके विरोध में सड़कों पर उतर आये हैं। कुछ जगह विरोध हिंसक भी हो गया है। जोकि बिल्कुल गलत है। विरोध पेंशन ना मिलने को लेकर भी है। लेकिन यह समस्या केवल पेंशन या अवधि चार साल से अधिक मोदी सरकार के 8 साल के कार्यकाल की आार्थिक नीतियों को लेकर अधिक है।    

      *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      1991 में हमारे देश में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने पूंजीवादी आर्थिक नीतियां खुलकर अपनानी शुरू कर दी थीं। उसके बाद देवगौड़ा गुजराल की संयुक्त मोर्चा वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की वामपंथी दलों के सहयोग से बनी सरकारें भी लगातार समाजवाद का रास्ता छोड़कर एकतरफा पूंजीवाद का पक्ष लेती नज़र आने लगीं। 2014 में बनी भाजपा की मोदी सरकार ने इस मामले में पिछली सरकारों के पंूजीपतियों के पक्ष में साफ नज़र ना आने को बीच बीच में रोज़गार का अधिकार यानी मनरेगा सूचना का अधिकार यानी आरटीआई शिक्षा अधिकार और भोजन का अधिकार जैसे कुछ ऐसे काम करने की भी ज़हमत नहीं की जिससे यह भ्रम हो कि यह सरकार भी कुछ कुछ समाजवादी है। यह सारी भूमिका हमने इसलिये बताई कि अग्निवीर योजना में 75 प्रतिशत सैनिकों को चार साल बाद 12 लाख रू. अन्य सरकारी सेवाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण व प्राथमिकता और अन्य तमाम सुविधायें मिलने के बावजूद पेंशन ना मिलना सरकार की पूंजीवादी नीतियों की मजबूरी है। सरकार बहुत तेज़ी से अपने उपक्रमों का निजीकरण कर रही है। इसमें इस बात का भी ख़याल नहीं रखा जा रहा है कि केवल नुकसान में चलने वाली सरकारी कंपनियों को बेचा जाये। मोदी सरकार का मानना है कि व्यापार करना सरकार का काम ही नहीं है। पंूजीपतियों को नवरत्न सरकारी कंपनियां भी औनपौने दाम पर बची जा रही हैं। कारपोरेट का टैक्स लगातार कम किया जा रहा है। उनको सस्ती दर पर बैंक लोन दिया जा रहा है। उनका लाखों करोड़ का एनपीए यानी बुरा कर्ज़ बड़ी तेजी से पहले राइट आॅफ और फिर माफ किया जा रहा है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार ऐसा करके इन बड़े पूंजीपतियों से भाजपा के लिये मोटा चुनावी चंदा ले रही है। इलैक्ट्रोरल बांड के ज़रिये सभी दलों को मिलने वाले चंदे को देखा जाये तो इसमें भाजपा सबसे आगे नज़र भी आती है। वैसे भाजपा ही नहीं सभी दलों को इसके अलावा भी चंदा मिलता रहा है। जिसका हिसाब किताब चुनाव आयोग के पास भी नहीं है। सत्ताधरी दल चाहे आज भाजपा हो या कल कांग्रेस या दूसरे दल रहे हों या आज अन्य राज्यों मंे सेकुलर दल हों उनके पास पैसा उगाहने के अन्य नैतिक और अनैतिक तरीके भी रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि जिस तरह से 2004 में वाजपेयी सरकार ने केंद्र में सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी थी। उसके बाद न केवल भाजपा शासित बल्कि अन्य दलों की अधिकांश राज्य सरकारों ने भी अपने अपने कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी थीं। आज हालत यह है कि केंद्र सरकार हो या राज्य सराकारें सबके पास धन की कमी है। यही वजह है कि वे कई सालों से लाखों पद खाली होने के बाद भी सरकारी भर्ती खोलने को तैयार नहीं हैं। मोदी पीएम बनने से पहले हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके सत्ता मंे आये थे। लेकिन उनके 8 साल के कुल कार्यकाल में भी इतने रोज़गार शायद पैदा नहीं हुए होंगे। उधर किसान पहले ही पेरशान हैं। महंगाई से आम आदमी का दम घुट रहा है। लेकिन मोदी सरकार ने इन वास्तविक समस्याओं से लोगों का माइंड हटाने केे लिये भावनात्मक मुद्दे ही बार बार उठाये हैं। सवाल यह है कि अग्निवीर योजना से सबको ना सही लेकिन कुछ युवाओं को कुछ समय का तो रोज़गार मिलेगा। बढ़ती आबादी और घटती आमदनी के दौर में सरकार बिना पेंशन व कम समय की नौकरी के अलावा चाहकर भी और क्या कर सकती है? जब 2019 में हमने मोदी सरकार को एक बार फिर से सत्ता में लाने को बहुमत दिया था तो क्या हम इस सच से अंजान थे कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां क्या हैं? अगर हमने सांस्कृतिक धार्मिक जातीय क्षेत्रीय और एक वर्ग विशेष को मुख्य धारा में लाने के नाम पर कानूनी गैर कानूनी सरकारी बल प्रयोग करने को वोट दिया था तो आज मोदी सरकार की गल्ती कहां है? पंूजीवादी नीतियों का प्रतिफल यही होना था यही हो रहा है। आज निजी शिक्षा और निजी इलाज आम आदमी ही नहीं मीडियम क्लास की पहंुच से भी बाहर होता जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में करप्शन किसी से छिपा नहीं है। लेकिन भाजपा की प्राथमिकता में जो राम मंदिर धारा 370 और काॅमन सिविल कोड जैसे मुद्दे थे। वह उन पर पूरी ईमानदारी और लगन से काम कर ही रही है। दो वादे मोदी सरकार ने पूरे कर दिये है। तीसरा भी अगले आम चुनाव से पहले पूरा होने के पूरे आसार हैं। हमें पूरा विश्वास है कि इन और इन जैसे अन्य राष्ट्रवादी मुद्दों पर ही मोदी जी 2024 में न केवल तीसरी बार पीएम बन जायेंगे बल्कि भाजपा के वोट और सीट दोनों पहले से और बढ़ जायेंगे। इसकी वजह यह है कि गोदी मीडिया ने देश के जनमानस को दिन रात एक करके विकास रोटी रोज़ी नौकरी पेंशन शिक्षा चिकित्सा समानता मानवता गरिमा नागरिक अधिकार संविधान न्याय और सुशासन जैसे मुद्दों  को गैर ज़रूरी और नफ़रत हिंसा हिंदू मुस्लिम बैर हिंदू राष्ट्र नकाब हिजाब जनसंख्या बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद मथुरा की ईदगाह समान नागरिक संहिता सड़क पर नमाज़ मस्जिद की अज़ान कपड़ों से पहचान हिंसा आगज़नी का आरोप लगने पर बिना अपराधी साबित हुए किसी के घर चलने वाले बुल्डोज़र का जोशभरा आंखो देखा हाल और स्टूडियो में रोज़ नागरिकों में आपसी दरार बढ़ाने वाली गरमा गरम सड़कछाप बहसों को जनता के सबसे बड़े सवाल मांग और मकसद बना रखा है। सवाल यह है कि ऐसे में चार साल की सेवा और पेंशन की बात कौन सुनेगा?  

नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।

Sunday 12 June 2022

सब धर्मों का सम्मान

*सब धर्मों का सम्मान तभी होगा जब कानून का सम्मान होगा!* 
0दो भाजपा प्रवक्ताओं ने इस्लाम के पैगं़बर हज़रत मुहम्मद के बारे में कुछ अपमानजनक बोला तो भाजपा ने उनमें से एक को पार्टी से बाहर कर दिया और दूसरे को 6 साल को सस्पैंड कर दिया। भाजपा ने यह भी सफाई दी कि वह सब धर्मों का बराबर सम्मान करती है। इसके बाद हज़ूर की शान में गुस्ताख़ी करने वाले इन दोनों नेताओं के खिलाफ़ पुलिस ने रिपोर्ट भी दर्ज कर ली। हो सकता है कि कुछ समय जांच के बाद पुलिस इनको गिरफ़तार भी कर ले। लेकिन यह विवाद इसके बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश में कई जगह इस मामले में प्रदर्शन आगज़नी और हिंसा हुयी है। कुछ कट्टरपंथी आरोपियों को चैराहे पर फांसी देने की मांग कर रहे हैं। जबकि एक आतंकी संगठन ने दोनों को आत्मघाती बम से उड़ाने की धमकी दी है। जो कि ग़लत है।    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      आमतौर पर दुनिया के देश लोकतंत्र और राजशाही दो ही तरीकों से चलते हैं। बताया जाता है कि हमारे देश में लोकतंत्र है। जिसके लिये संविधान यानी नियम कानून बनाये गये हैं। यह भी माना जाता है कि देश के सभी नागरिक समान हैं। हालांकि व्यवहारिक रूप में ऐसा कम ही देखने को मिलता है। उनको अभिव्यक्ति की आज़ादी तो है लेकिन एक दूसरे की यह स्वतंत्रता वहां समाप्त हो जाती है। जहां से दूसरे की शुरू होती है। पैग़ंबर का मामला तो ताज़ा है। अगर आप इतिहास देखें तो सारे फ़साद वहीं से शुरू होते हैं। जहां हम कानून का सम्मान नहीं करते। मिसाल के तौर पर इस्लाम ही नहीं सभी धर्म आस्था यानी ईमान से चलते हैं। मतलब यह है कि आस्था का आप केवल सम्मान कर सकते हैं। उसको प्रमाणिक वैज्ञानिक तर्कसंगत उचित सही सच न्यायसंगत और सार्वभौमिक साबित नहीं कर सकते। इसलिये ऐसे कानून बनाये गये हैं कि कोई किसी के धर्म को उनके अवतार को पवित्र धार्मिक ग्रंथों को उनके ईश्वर देवी देवता मंदिर मस्जिद इमाम पुजारी और धर्म से जुड़ी मान्यताओं को बुरा नहीं कहेगा। यानी किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचायेगा। कोई अगर जानबूझकर ऐसा करेगा तो उसके खिलाफ कानून अपना काम करेगा। लेकिन यह भी देखने में आता है कि कुछ लोग अलग अलग कारणों से लगातार इस तरह के बयान काम और हरकतें करने से बाज़ नहीं आते। जिससे समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी तनाव टकराव हिंसा और अशांति पैदा होती है। इससे ना केवल देश का आर्थिक सामाजिक और कानून व्यवस्था का नुकसान होता है बल्कि ये मामले कभी कभी विदेशों तक में देश को बदनाम और अपमानित करा देते हैं। जैसा कि पैगं़बर वाले वर्तमान मामले में इस बार हुआ है। अगर भाजपा प्रवक्ताओं के विवादित बयान देते ही भाजपा व उसकी सरकार तत्काल हरकत में आती और जो कार्यवाही अरब देशों के विरोध दर्ज करने के बाद हुयी है, वह अपने भारतीय नागरिकों के विरोध व नाराज़गी को दूर करने के लिये पहले ही हो जाती तो इससे आज के मुश्किल हालात से बचा जा सकता था। खैर फिर भी देर आयद दुरस्त आयद मानकर हमें यह संतोष करना होगा कि कार्यवाही की गयी है। वैसे ही अगर हम गहराई से देखें तो यह मामला जितना तूल पकड़ गया है। वह एक लक्ष्ण मात्र है। रोग यह है कि हम संविधान में सबको बराबर अधिकार दिये जाने के बावजूद व्यवहार में समान नहीं मान रहे हैं। सच यह भी है कि हम सब एक दूसरे को कानून से चलने को तो कहते हैं। मगर खुद उस पर अमल नहीं करते। इतना ही नहीं आरोपियों के खिलाफ रपट भी दर्ज हो गयी है। आगे सज़ा देने का काम कोर्ट का है। सवाल यह भी है कि जब आरोपियों को सत्ताधारी दल ने अनुशासन की कार्यवाही करके सज़ा दे दी तो भी लोग संतुष्ट क्यों नहीं हो पा रहे हैं? लेकिन कुछ कट्टरपंथी आरोपियों को अपने हिसाब से सज़ा देने की मांग कर रहे हैं। ऐसे ही मस्जिदंे नमाज़ पढ़ने के लिये होती हैं। लेकिन कई बार जुमे की नमाज़ के बाद नमाज़ी बड़ी तादाद में बिना पुलिस प्रशासन से अनुमति लिये वापसी में प्रदर्शन करना शुरू कर देते हैं। प्रदर्शन करो लेकिन अनुमति लेकर। सरकार और मुसलमानों दोनों को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके बीच कुछ सालों से आपसी विश्वास कम क्यों हो रहा है? क्या मुसलमानों की इस शिकायत में कुछ दम नहीं है कि सरकार उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं कर रही है? साथ ही मुसलमानों को यह समझना ही होगा कि उनको सरकार से अगर अपनी जायज़ बात मनवानी है तो कानून का रास्ता ही अपनाना होगा। अगर कुछ लोग आंदोलन के नाम पर कानून हाथ में लेंगे तो उनकी मांगे तो पूरी होंगी ही नहीं साथ ही सरकार उनसे बेहद सख़्ती से पेश आयेगी। जिससे उनका उल्टा और अधिक नुकसान ही होगा। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में बहुमत की जगह बहुसंख्यकवाद ने ले ली है। इसी वजह से पहले जो सेकुलर दल जाति और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता की सियासत करते थे। आज उसके विकल्प के रूप में भाजपा हिंदू तुष्टिकरण करके बहुसंख्यकवाद की राजनीति कर रही है। यह अलग बात है कि आज भाजपा के ये दो प्रवक्ता अल्पसंख्यकोें के खिलाफ ज़हर उगलते हुए अचानक लक्ष्मण रेखा पार करके ना केवल भारतीय मुसलमानों बल्कि देश के सेकुलर भारतीयों व दुनिया के दो अरब मुसलमानों के दिल को दुखाकर उनकी नज़र में इस्लाम के दुश्मन बन चुके हैं। लेकिन सच यह है कि कई साल से देश में जिस तरह की राजनीति चल रही है। जिस तरह के बयान कानून और घटनायें चुनचुनकर हो रही हैं। जिस तरह से एक वर्ग विशेष को टारगेट किया जा रहा है। जिस तरह से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष के नरसंहार का खुला आव्हान किया जाता रहा है। उससे एक ऐसा माहौल बना जिसमें ये दो प्रवक्ता एक दूसरे से आगे निकलकर अपने वरिष्ठ नेताओं पार्टी पदाधिकारियों और कुछ बडे़े सरकारी ओहदों पर बैठे अपने आक़ाओं को खुश करने के लिये कानून और धर्म की मर्यादा व सीमा भूलकर मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहचा बैठे। लेकिन अब खुद भाजपा ने अपने तीन दर्जन से अधिक फायर ब्रांड नेताओं की सूची बनाकर उनमें से दो दर्जन से अधिक को संभल कर बोलने की चेतावनी जारी कर यह भरोस दिलाया है कि देश संविधान से चलेगा और सबका सम्मान होगा।  
 *नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Tuesday 24 May 2022

देशद्रोह क्या है?

*देशद्रोह राजद्रोह दलद्रोह सरकार द्रोह या जनद्रोह सच क्या है?

0सेडिशन यानी देशद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता 1860 में बनकर जब लागू हुयी तब बना था। लेकिन आईपीसी की धारा 124 ए सही मायने में राजद्रोह थी देशद्रोह नहीं। वजह यह है कि यह राजा जाॅर्ज पंचम के लिये बनाया गया था। उस समय भारत गुलाम था। अंग्रेज़ों ने बड़ी चालाकी से अपनी राजशाही के विरोध को देशद्रोह के नाम पर कुचलने को इसे आज़ादी की मांग करने वाले भारतीयों को दबाने के लिये बेशर्मी और बेदर्दी से इस्तेमाल किया। 1947 में देश आज़ाद होने के बाद इस जनविरोधी कानूनी की कोई ज़रूरत नहीं थी। लेकिन पहले कांग्रेस फिर जनता पार्टी और आज भाजपा ने इसे अपने विरोधियों से निबटने के लिये बनाये रखने में अपना राजनीतिक लाभ देखा। अब सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा कर जनता के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला किया है।      
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
        सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह कानून के अमल पर तत्काल प्रभाव से अंतिम निर्णय आने तक रोक लगा दी है। जिससे पहले दर्ज ऐसे सभी मामलों पर आगे कार्यवाही नहीं होगी और इन कानून के तहत नये मामले दर्ज नहीं होंगे। आज़ादी का अमृत उत्सव वर्ष मना रही मोदी सरकार इसे जैसा का तैसा बनाये रखने या इसमें संशोधन कर प्रयोग करने पर सुनवाई के दौरान कोई स्पश्ट पक्ष रखने से बचती रही। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2019 तक देशद्रोह के आरोप में कुल 326 मामले दर्ज किये गये। इनमें से मात्र 6 लोग दोषी साबित हो सके। हैरत की बात यह है कि सबसे अधिक असम में 54 मामले झारखंड में 40 हरियाणा में 31 बिहार केरल व कश्मीर में 25-25 केस दर्ज किये गये। कर्नाटक में 22 यूपी में 7 बंगाल में 8 और दिल्ली में 4 व महाराष्ट्र पंजाब व उत्तराखंड में एक एक मुकदमा देशद्रोह के आरोप में दर्ज किया गया। सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है कि देशद्रोह क्या है? क्या देशद्रोह व राजद्रोह एक ही चीज़ है? क्या किसी सरकार का विरोध करना या सत्ता में बैठे दल का विरोध करना देशद्रोह माना जा सकता है? क्या जनद्रोह देशद्रोह से भी बड़ा अपराध नहीं है? आपको याद होगा कांग्रेस ने कभी भी अपने राज में इस जनविरोध्ी कानून को बदलने या खत्म करने का इरादा या कोशिश नहीं की। वजह सत्ता में रहकर हर दल काफी हद तक बेलगाम होकर अपने विरोधियों को दबाकर डराकर या धमकाकर चुप रखना चाहता है। इसका प्रमाण यह भी है कि देशद्रोह कानून हटाना तो दूर कांग्रेस ने अपने कई दशक के एकछत्र राज में उल्टे मीसा रासुका यूएपीए टाडा और पोटा   जैसे कानून बनाये। इसमें कोई दो राय नहीं आतंकवाद नक्सलवाद माफिया गैंगेस्टर और समाज विरोधी अपराधी प्रवृत्ति के बदमाशों को सज़ा दिलाने को कुछ सख़्त कानूनों की ज़रूरत सभी सरकारों को होती है। लेकिन इन कानूनों की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों पत्रकारों समाजसेवियों इंटलैक्चुअल एनजीओ और निष्पक्ष व मानव अधिकार संगठनों को निशाने पर लेकर फर्जी मामले दर्ज कर उनको ज़मानत ना देकर लंबे समय तक बिना अपराध साबित किये जेल में रखना संविधान विरोध्ी कानून विरोधी और लोकतंत्र विरोधी माना जाता है। यह बात सही है कि कुछ संगीन मामलों में अपराधियों को जेल में रखना ज़रूरी होता है। उनको ज़मानत इसलिये भी नहीं दी जाती जिससे वे बाहर आकर सबूतों से छेड़छाड़ गवाहों पर हमला या कोई नया अपराध ना कर बैठें। लेकिन हमारी सरकारों की ऐसी मंशा नहीं रहती। अकसर यह देखा जा रहा है कि सरकारें अपने दल के नेताओें व समर्थकों को तो बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी बचाती हैं जबकि विरोधी दल के कार्यकर्ताओं व निष्पक्ष व सेकुलर लोगों को सत्ताधरी दल के जनविरोधी कामों का विरोध शांतिपूर्वक लोकतांत्रिक तरीके से करने पर भी फर्जी मुकदमों में फंसाकर उनकी ज़मानत का भी लंबे समय तक विरोध करती रहती हैं। इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर सच की लड़ाई लड़ने वाले पत्रकार स्पश्टवादी लेखक मानवधिकारवादी और समाज के वे सब लोग सरकार के निशाने पर रहते हैं जो उसके जनविरोधी फैसलों का खुलकर विरोध करते हैं। इसी लिये सबसे बड़ी अदालत ने देशद्रोह कानून पर रोक लगाई है। सबसे बड़ी अदालत में सुनवाई के दौरान पहले सरकार ने कहा कि देशद्रोह कानून सही है। सरकार उसको खत्म करने का विरोध करेगी। दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जब अपने घोषणापत्र में यह वादा किया कि वह अगर सत्ता में आई तो इस कानून को खत्म कर देगी तो मोदी ने कांग्रेस को इस पर जमकर कोसा था कि वह टुकड़े टुकड़े गैंग के पक्ष में ऐसा करना चाहती है। लेकिन जब मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रूख़ देखकर यह समझ लिया कि वह इस कानून को हर हाल में खत्म करके ही दम लेगा तो उसने यू टर्न लेते हुए इस पर पुनर्विचार को तैयार होने का दावा किया। इसका कारण यह बताया गया कि मोदी नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में हैं। सवाल यह है कि अचानक मोदी सरकार को ऐसा क्यों लगने लगा कि यह कानून हटना चाहिये? सच यह है कि सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या फिर भाजपा व अन्य दलों की। वे विपक्ष में रहकर तो ऐसे कानूनों को जनविरोधी लोकतंत्र विरोधी और अभिव्यक्ति के खिलाफ बताते हैं। लेकिन जब खुद सत्ता में आ जाते हैं तो ना केवल ऐसे कानूनों की पैरवी करते हैं, जमकर अपने विरोधियों के खिलाफ इन कानूनों का गलत इस्तेमाल करते हैं बल्कि पहले से मौजूद ऐसे कानूनों को और अधिक सख़्त डरावना बनाकर मनमाना इस्तेमाल करके बिना अपराध साबित किये विपक्ष निष्पक्ष धर्मनिर्पेक्ष जनवादी संघर्षशील मानव अधिकार संगठन के प्रगतिशील कार्यकर्ताओं आरटीआई एक्टिविस्टों लेखकों पत्रकारों व साहित्यकारों को सरकार के गलत फैसलों का विरोध करने आंदोलन करने या किसी भी प्रकार से जनता को जागरूक करने पर इन कानूनों के तहत जेल भेजकर उनकी ज़मानत कई कई साल तक ना होने देकर अन्य सरकार विरोधियों को एक तरह से संदेश दिया जाता है कि वे भी इसी तरह से जेल भेजे जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिये यह रोक लगाई है। यह तय होना ही चाहिये कि सरकार का विरोध सत्ताधारी दल का विरोध या किसी पद पर बैठे बड़े से बड़े व्यक्ति के संविधान विरोधी फैसलों का लोकतांत्रिक शांतिपूर्ण विरोध देशद्रोह नहीं होता है।

 *नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Monday 16 May 2022

घटेगी अब आबादी....

*अच्छे दिन: अब हमारी आबादी घटनी शुरू हो जायेगी?* 
0राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवे सर्वे के अनुसार देश की प्रजनन दर 2 पर आ गयी है। किसी देश के वर्तमान जनसंख्या स्तर को जैसा का तैसा बनाये रखने के लिये टीएफआर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 2.1 होना चाहिये। हालांकि यह दर पांच राज्यों बिहार में 2.98 मेघालय में 2.91 यूपी में 2.35 झारखंड में 2.26 और मणिपुर में 2.17 अभी भी प्रतिस्थापन दर से कुछ अधिक बनी हुयी है। लेकिन संतोष की बात यह है कि देश के कुल 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से मात्र पांच में ही यह स्थिति है। इसका मतलब यह है कि देश का टीएफआर 2 यानी रिप्लेसमेंट लेवल से भी नीचे पहुंच गया है। इस सर्वे से इस झूठ की पोल खुलती है कि देश में एक वर्ग विशेष की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि वह बहुसंख्यक हो जायेगा?    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत किया जाता है। एनएफएचएस-5 में 6 लाख 37000 परिवारों को शामिल किया गया है। इसमें देश के सभी 28 राज्यों एवं 8 केंद्र शासित प्रदेशों के 707 जि़लों को शामिल किया गया है। सर्वे से पता चलता है कि देश के 67 प्रतिशत परिवार गर्भनिरोधक साधन अपना रहे हैं। पहले यह संख्या 54 प्रतिशत थी। हालांकि अभी भी देश के 9 प्रतिशत परिवारों तक गर्भनिरोधक साधन नहीं पहुंच पाये हैं। इनमें 11.4 प्रतिशत परिवार बेहद गरीब तो 8.6 प्रतिशत उच्च श्रेणी के हैं। आधुनिक गर्भनिरोधकों के प्रयोग के लेकर भी यह असमानता सामने आती है। निम्न आय वर्ग में इनका इस्तेमाल करने वाले 50.7 प्रतिशत तो उच्च आय वर्ग में 58.7 प्रतिशत हैं। यही उपयोग का अंतर कामकाजी महिलाओं में जहां 66.3 प्रतिशत है तो बेरोज़गार महिलाओं में 53.4 प्रतिशत है। गर्भनिरोधक प्रयोग करने व अन्य साधन परिवार नियोजन के लिये अपनाने में धर्म से अधिक शिक्षा की भूमिका पहले भी सामने आती रही है। इस बार के एनएफएसएच सर्वे के अनुसार 64.7 प्रतिशत सिख 35.9 प्रतिशत हिंदू और 31.9 प्रतिशत मुस्लिम पुरूष गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करना महिलाओं का काम बताते हैं। इस सर्वे में जो टीएफआर यानी प्रजनन दर 2.0 तक पहंुच गयी है वह 2018 के सर्वे में 2.2 थी। टीएफआर उस दर को कहते हैं जिसमें एक महिला अपने पूरे जीवन में जितने बच्चो को जन्म देती है। हालांकि इस सर्वे के विस्तार से आंकड़े अभी सामने नहीं आये हैं। लेकिन अगर जाति धर्म और क्षेत्र के हिसाब से देखा जाये तो पिछले सर्वे की तरह इस सर्वे में भी यही आभास मिलता है कि परिवार नियोजन अपनाने या आबादी बढ़ाने का रिश्ता सबसे अधिक शिक्षा और सम्पन्नता से है। यह विडंबना ही है कि आज देश में जिस तरह की आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं। उनसे चंद अमीर और अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। वहीं गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं देश में कोरोना अविवेकपूर्ण लाॅकडाउन नोटबंदी और जीएसटी से इतनी अधिक बेरोज़गारी बढ़ी है कि दो करोड़ से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे चले गये हैं। बड़ी संख्या में लोगों की आय घट गयी है। जिनकी आय नहीं भी घटी है। उनको दिन ब दिन बढ़ती महंगाई की वजह से उतनी ही आय में गुज़ारा करना मुश्किल हो रहा है। हालांकि परिवार नियोजन के सस्ते और सरकार के स्तर पर निशुल्क साधन भी उपलब्ध् कराये जाते हैं। लेकिन अगर गुणवत्ता और उपलब्ध्ता के आधार पर देखें तो परिवार नियोजन ही नहीं जीवन के हर मामले में सम्पन्न और विपन्न नागरिक के लिये अलग अलग स्तर है। इतना ही नहीं जो लोग एक वर्ग विशेष का आर्थिक बहिष्कार और सामूहिक नरसंहार का खुलेआम गैर कानूनी आव्हान आयेदिन करते रहते हैं। वे साथ साथ यह झूठ भी फैलाते रहते हैं कि इस वर्ग विशेष की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि ये आने वाले कुछ दशक मंे बहुसंख्यक हो जायेंगे। इस मामले में कुछ राज्य सरकारें दो बच्चो का कानून पहले ही बना चुकी हैं। अगर हम राज्य अनुसार देखें तो देश में सबसे कम प्रजनन दर केरल और कश्मीर में है। कश्मीर मुस्लिम बहुल है। साथ ही केरल में हिंदू मुस्लिम और ईसाई लगभग समान संख्या में हैं। इसका मतलब साफ है कि आबादी बढ़ने या परिवार नियोजन का सीधा संबंध धर्म या जाति से नहीं बल्कि शिक्षा और सम्पन्नता से है। लेकिन सच यह है कि यह कटु सत्य उन चंद साम्प्रदायिक राजनीतिक और धर्मांध लोगों को फूटी आंख नहीं सुहाता जो अपने वोटबैंक को गुमराह कर डराकर और झूठ फैलाकर बार बार भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव जीतकर सत्ता का सुख लूट रहे हैं। ऐसे ही आबादी की जब भी बात आती है। एक और झूठ बार बार बोला जाता है कि देश का एक वर्ग चार चार शादियां और 25 बच्चे पैदा कर रहा है। लेकिन आज तक किसी भी विश्वस्त सरकारी और अधिकृत सर्वे में इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो सकी है। आंकड़े बताते हैं कि सबसे अधिक बहुविवाह आदिवासी जैन और हिंदू पुरूष कर रहे हैं। ऐसे ही इस झूठ को एक और तथ्य से जांचा जा सकता है कि जब सभी वर्गों में ही 1000 पुरूषों की पीछे 954 महिलायें पैदा हो रही हैं तो किसी भी समाज वर्ग धर्म या क्षेत्र का भारतीय अगर एक से अधिक शादी करेगा तो शेष पुरूष उसी समाज की किस महिला से शादी कर पायेंगे? यहां तो एक पुरूष को एक महिला उपलब्ध होना ही संभव नहीं है तो एक से अधिक शादी करने पर अतिरिक्त महिलायें कहां से आयेंगी? क्या वर्ग विशेष का हर पुरूष एक महिला अपने समाज की और तीन दूसरे समाज से लाकर शादी कर रहा है? यदि ऐसा होता तो दूसरे समाज में हर चार में से तीन पुरूष ना सही कम से कम हर दूसरा पुरूष तो बिना शादी के रह जाता? लेकिन ऐसा करना भी एक तरफा तो संभव नहीं हो पाता। दूसरे तथाकथित लवजेहाद के खिलाफ कानून बनने से अब तो यह लगभग नामुमकिन सा ही हो गया है। यह भी सोचने की बात है कि अगर एक वर्ग ऐसा करेगा तो दूसरा वर्ग भी करेगा ही। ऐसे में आप सच और दुष्प्रचार में अंतर देख सकते हैं।
           *0लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर और नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Sunday 24 April 2022

योगी की पहल

*मुख्यमंत्री योगी की यह सराहनीय पहल सबके हित में है!*

0यूपी के सीएम आदित्यनाथ योगी ने दोबारा राज्य का कार्यभार संभालने के बाद पुलिस प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पहली मुलाक़ात में प्रदेश में एकता भाईचारा और अमनचैन बनाये रखने के लिये जो व्यापक दिशा निर्देश दिये हैं। उनकी सराहना करना इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि इस समय तमाम दूसरे राज्यों में जिस तरह से धार्मिक जुलूसों को लेकर विभिन्न वर्गों में हिंसा और दंगे हुए हैं। वैसा यूपी में ना हो इसके लिये जिस तैयारी इच्छाशक्ति और निष्पक्षता की आवश्यकता है। उसको योगी जी ने समय रहते समझकर जिस तरह के एहतियाती क़दम उठाये हैं। वे उनकी इस बात को भी सही साबित करते हैं कि यूपी में 800 से अधिक धार्मिक जुलूस निकले लेकिन कहीं से टकराव या दंगा तो दूर कहासुनी तक की ख़बर नहीं है।    

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      राजनीतिक रूप से हम सब किसी पार्टी का समर्थन या विरोध कर सकते हैं। यह हम सबकी संवैधानिक स्वतंत्रता का हिस्सा है। लेकिन सरकार सबकी होती है। अगर कोई सरकार गलत काम करती है तो उसकी आलोचना होती है। होनी भी चाहिये। लेकिन अगर कोई सरकार अच्छा काम करती है तो उसकी सराहना भी करनी चाहिये। अगर कोई विरोध के लिये विरोध और समर्थन के लिये समर्थन करता है तो वह निष्पक्ष ना होकर अंधभक्त कहलाता है। ऐसा करने वाला पत्रकार भी नहीं हो सकता वह पक्षकार कहलाता है। फिर वह चाहे किसी भी पार्टी किसी भी सोच या किसी भी बड़े से बड़े नेता का अंधभक्त ही क्यों ना हो? मिसाल के तौर पर यूपी में जब से योगी सीएम बने हैं। उन्होंने जो भी काम किये हैं। उनसे कुछ लोग सहमत हो सकते हैं। कुछ लोग असहमत भी हो सकते हैं। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं। जिनसे असहमत होने या विरोध करने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। मिसाल के तौर पर सीएम और सांसद बनने से पहले गोरखपुर मठ के मुखिया रहे योगी ने जिस तरह से यह अंधविश्वास तोड़ा कि जो सीएम नोएडा का दौरा कर लेता है। वह फिर से यूपी का चुनाव नहीं जीत पाता, वह एक सराहनीय उदाहरण है। इसके साथ ही उनकी छवि एक सख़्त प्रशासक की बनी है। यह अलग बात है कि यह छवि बनाने में कभी कभी उनके पुलिस प्रशासन ने ऐसी अतिरिक्त शक्ति और अवांछित उत्साह का परिचय दिया जिससे उनकी सरकार पर विपक्ष ने तरह तरह के आरोप भी लगाये। लेकिन यह पहले भी होता रहा है। हाल ही में इसी तरह की कई शिकायतें मिलने पर सीएम योगी ने पुलिस प्रशासन को दो टूक आदेश दिये थे कि माफिया या गैंगेस्टर कुख्यात अपराधियों के सिवा गरीब या व्यापारियों पर लगने वाले मामूली अपराध के आरोपों में बुल्डोज़र का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। इसी तरह उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न जुलूस और शोभायात्राओं में आयेदिन हो रहे विभिन्न वर्गों के टकराव को देखते हुए यूपी में ऐसे आयोजनों को लेकर व्यापक दिशा निर्देश जारी कर दिये। इनमें साफ साफ कहा गया है कि कोई भी नया जुलूस नहीं निकाला जायेगा। साथ ही हर जुलूस को निकालने के लिये प्रशासन से अनुमति लेनी अनिवार्य होगी। इतना ही नहीं आयोजकों को इस आश्य का शपथपत्र भी पुलिस को देना होगा कि वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे साम्प्रदायिक सौहार्द या कानून का उल्लंघन हो। इस तरह के आयोजनों को लेकर और भी कई शर्तें और नियम कड़ाई से लागू करने की बात कही गयी है। साथ ही यह भी स्पश्ट कर दिया गया है कि पुलिस प्रशासन इस तरह के मामलों में पूरी तरह से निष्पक्ष और कानून के हिसाब से काम करेगा। किसी भी पक्ष को नियम कानून से छूट या मनमर्जी से कुछ भी असामाजिक या अपराधिक करने की स्वतंत्रता किसी भी हालत में नहीं दी जायेगी। इसके बावजूद अगर कोई कानून हाथ में लेगा तो उस पर सख़्त कार्यवाही की जायेगी। इतना ही नहीं योगी जी ने अपने दिशा निर्देशों में भविष्य में विवाद का कारण बनने वाले अन्य मामलों में भी बखूबी अग्रिम संज्ञान लिया है। उनका कहना है कि किसी भी धर्मस्थल पर लगे लाउड स्पीकर नियम अनुसार ही प्रयोग किये जा सकेंगे। नियम से मतलब यह है कि इसके लिये पुलिस प्रशासन से अनुमति लेनी होगी। साथ ही इनकी आवाज़ का एक निर्धारित डेसिबल होगा। सुप्रीम कोर्ट के पहले से ही दिये दिशा निर्देश के मुताबिक रात 10 बजे के बाद और सुबह 6 बजे से पहले किसी भी सूरत में लाउड स्पीकरों का इस्तेमाल किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रतिबंधित रहेगा। नये आदेश में यह भी कहा गया है कि पुलिस प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि किसी भी धार्मिक स्थल से पूजा पाठ या नमाज़ आदि की आवाज़ उस स्थल के अंदर तक ही सीमित रहे। हालांकि अभी केवल नोएडा में पुलिस ने कुछ धार्मिक स्थलों को इस बाबत अवगत कराया है। लेकिन आशा है कि ईद के बाद पूरे प्रदेश में इस आदेश पर अमल होने लगेगा। फिलहाल मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि और उससे लगी ज्ञानवापी मस्जिद में वहां के आयोजकों ने खुद ही या तो लाउड स्पीकर उतार दिये हैं या फिर उनकी आवाज़ काफी कम कर दी गयी है। इतना ही नहीं सीएम योगी के गृहनगर और उनके मठ गोरखनाथ धाम में भी ऐसी ही मिसाल पेश की गयी है। यह अपने आप में सुखद और सराहनीय पहल है कि सरकार के आदेश को लागू करने के लिये पुलिस प्रशासन को कहीं भी सख़्ती या दंडात्मक कार्यवाही करने की ज़रूरत शायद नहीं होगी। जागरूक नागरिक और प्रगतिशील सिविल सोसायटी समय की ज़रूरत समझते हुए लगता है पूरे प्रदेश में ही कुछ समय में ऐसे लाउड स्पीकर या तो खुद ही उतार देेंगे या उनकी आवाज़ इतनी कम कर देंगे जिससे दूसरे वर्ग के लोगों को कोई कष्ट ना हो। सीएम योगी की यह पहल एक तरह से फ़साद की जड़ खत्म करने जैसा है। हम लोग आज 21 वीं सदी मेें जी रहे हैं। हम सबको यह समझना चाहिये कि आपसी प्रेम भाईचारे और शांति के बिना ना तो कोई समाज प्रगति कर सकता है और ना ही सदा लड़ता टकराता घृणा करता और पक्षपात व हिंसा के साथ आगे बढ़ सकता है। हम सबको सह अस्तित्व और पूरी दुनिया को परिवार मानने का अपना दावा कार्यान्वित करके विश्व के सामने एक उदाहरण रखना होगा। अन्यथा हम सब अपना आर्थिक नुकसान बढ़ाने को अभिषप्त होेंगे।                                          

 *0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*