Thursday 7 March 2024

देश में कितने गरीब

80 करोड़ लोग 5 किलो अनाज पर तो देश में कितने गरीब हैं ?
0 नीति आयोग ने पहले कहा था कि देश में 11.28 प्रतिशत गरीब हैं लेकिन बाद में उसने दावा किया कि इनकी संख्या 5 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस अनुमान का आधार नेशनल संैपल सर्वे द्वारा प्रकाशित 2022-23 के हाउसहोल्ड कंज़म्पशन एक्सपेंडीचर सर्वे को बताया जाता है। आयोग के अनुसार शहरों में प्रति माह 6459 रू आय का 39 प्रतिशत भोजन पर  और गांवों में 3773 रू. में से 46 प्रतिशत खाने पर खर्च करने वाले लोग गरीब नहीं हैं। सवाल यह है कि अगर नीति आयोग के आंकड़े सही है तो सरकार 81.35 करोड़ लोगों को गरीब मानकर निशुल्क अनाज क्यों दे रही है? क्या मनरेगा में रजिस्टर्ड 15.4 करोड़ लोग और उज्जवला योजना में गैस पाये जो लोग एक साल में केवल 3.7 सिलेंडर ही खरीद पा रहे हैं वे अमीर हैं?        
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
 देश में गरीबों की वास्तविक संख्या जानने से पहले यह देखा जाये कि हमारे माननीय सांसदों की आर्थिक हालत क्या है तो पता चलता है कि संसद पर एक तरह से पूंजीपतियों या उनके प्रतिनिधियों का अघोषित अधिपत्य स्थापित होने लगा है। एडीआर यानी एसोसियेशन आॅफ़ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स ने 2023 में एक सर्वे कर बताया था कि हमारे सांसदों की औसत सम्पत्ति 38.33 करोड़ रूपये है। लोकसभा और राज्यसभा के कुल सांसदों में से 7 प्रतिशत अरबपति हैं। उधर देश के किसानों की आय औसत भारतीय से भी कम है। विडंबना यह है कि 40 प्रतिशत एमपी पर क्रिमनल केस चल रहे हैं। इनमें से जिन 25 प्रतिशत सांसदों पर बेहद संगीन अपराधिक मामले चल रहे हैं वे और भी अधिक अमीर हैं। स्वच्छ छवि वाले एमपी की संपत्ति 30 करोड़ तो अपराधिक छवि वाले एमपी की संपत्ति 50 करोड़ से अधिक है। सरकार के आयुष्मान भारत के द्वारा निशुल्क इलाज के दावों के बावजूद एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि शहरी इलाकों में 5.91 और गांवों में 7.13 प्रतिशत खर्च दवाओं पर हो रहा है। ऐसे ही शहरी आबादी जहां ईंधन पर अपनी आय का 6.26 तो गावों की आबादी 6.66 प्रतिशत खर्च करती है। 2004 से 2012 के दौरान हमारी विकास दर आज़ादी के बाद की सबसे अधिक यानी 8 प्रतिशत थी जिसमें 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये थे। 
पहले गरीबी से बाहर आने का पैमाना लोेगों की व्यक्तिगत खपत को माना जाता था लेकिन पिछले दस साल से यूएनडीपी ने इस पैमाने को बदल दिया है। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के गरीबी मापने के 10 पैमानों में दो अपनी तरफ से जोड़ दिये हैं। इनमें एक तो स्टैंडर्ड आॅफ लिविंग में सुधार मानते हुए परिवार में बैंक एकाउंट और महिला की डिलीवरी अस्पताल या नर्सिंग होम में होना माना गया है। ज़ाहिर है कि पिछले कुछ सालों में पीएम जनधन योजना के तहत 40 करोड़ से अधिक लोगों के खाते बैंकों में खुले हैं। इसके साथ जागरूकता बढ़ने से 80 प्रतिशत महिलायें बच्चो को जन्म देने के समय चिकित्सा संस्थानों में भर्ती होने लगी हैं। नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रहमण्यम ने 17 जुलाई 2023 को बताया था कि 2019-21 तक देश की 14.96 प्रतिशत आबादी गरीब थी यानी पांच साल में 13.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गये। हैरत की बात यह रही कि इसके 6 माह बाद ही नीति आयोग के एक चर्चा पत्र जारी कर दावा किया कि 2022-23 तक देश में गरीबों की तादाद घटकर 11.28 प्रतिशत ही रह गयी है। आयोग ने इस तरह पिछले 9 साल में 24.82 करोड़ लोगों के निर्धनता से मुक्त होने का दावा कर दिया। 
इसके बाद फरवरी 2024 में आयोग ने देश में 5 प्रतिशत आबादी ही बीपीएल रह जाने का अनोखा दावा कर एक तरह से एक माह में ही 8 करोड़ गरीब कम होने का चमत्कार वाला एलान कर दिया। गरीबी कम होने का सीधा आधार देश की जीडीपी बढ़ना भी माना जाता है। लेकिन अगर हम कोविड लाॅकडाउन नोटबंदी और जीएसटी का असर अर्थव्यवस्था पर देखें तो करोड़ों लोगों की असंगठित क्षेत्र में नौकरियां गयीं हैं। इसके बाद गांव के वे लोग या तो कृषि की ओर लौटे या फिर मनरेगा में काम करके अपने परिवार को जैसे तैसे जीवन यापन के लिये स्वरोज़गार की तरफ रूख़ किया। इस काम के लिये उन्होंने अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी अपने साथ जोड़ा जिसका आंकड़ा सरकार ने इस्तेमाल करते हुए उसकी नौकरी और उसकी भारी भरकम सेलरी को भाव न देते हुए उसके पूरे परिवार की पहले से कम आय के बावजूद रोज़गार की बढ़ी हुयी संख्या के आंकड़े जारी कर दिये। यही वजह है कि घरेलू बचत दर तेजी से गिरी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन इस तरह के परिवार के सदस्यों के काम को जिसमें उनको कोई वेतन नहीं मिलता रोज़गार नहीं मानती है। यह भी एक तथ्य है कि जीडीपी या अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ने से ही प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती क्योंकि अडानी अंबानी और आम आदमी की कुल आय जोड़कर उसको देश की कुल आबादी से भाग देकर औसत आय निकाली जाती है। 
जिससे वास्तविक स्थिति और लोगों की असली आमदनी सामने नहीं आती है। सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोगों की आय और खर्च लगभग उतना ही है जितने अनुपात में पहले था। महंगाई और बेरोज़गारी की बढ़ती दर को देखा जाये तो बढ़ी आय और घरों में होने वाले नये खर्च का समीकरण मेल नहीं खाता है। आर्थिक विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि चूंकि यह सर्वे 11 साल बाद आया है जिससे इसके आंकड़े काफी सीमा तक बढ़े हुए लगते हैं लेकिन उस अनुपात में नहीं बढ़े हैं जिस हिसाब से किसी बढ़ती हुयी प्रगतिशील और सकारात्मक समावेशी इकाॅनोमी में यह प्राकृतिक रूप से स्वयं ही बढ़ने चाहिये। 2017-18 में ऐसी ही हकीकत का आईना दिखाती सर्वे रिपोर्ट को सरकार ने मानने से मना कर दिया था। इसका मतलब यह माना जा सकता है कि सरकार गरीबी को नापने में भी वही खेल कर रही है जो वह अन्य क्षेत्रा में आंकड़ों की बाज़ीगरी अकसर करती रही है। दुष्यंत का शेर याद आ रहा है-
0 तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान शायर की,
  यह एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिये।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार ैके संपादक हैं।*

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