Friday, 17 January 2025

90 घंटे काम क्यों...

90 घंटे चाहिये काॅरपोरेट को काम, 
कंपनी का लाभ, देशहित का नाम !
0 एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रहमण्यन ने कामगारों को 90 घंटे काम करने का उपदेश दे दिया है। वे अपने कर्मचारियों को शनिवार को छुट्टी नहीं देते हैं। वे चाहते हैं कि उनके कामगार संडे को भी काम करें। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन वामपंथी और सामाजिक संगठन भी मूर्ति और सुब्रहमण्यन की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह पूंजी बढ़ाने यानी लाभ को ही सब कुछ मानकर चलता है। जबकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है जिसे रोज़ी रोटी यानी आमदनी के साथ ही भावनाओं आस्थाओं  मनोरंजन मानवता सामाजिकता संवेदनशीलता परिवार प्यार मुहब्बत सेवा अध्ययन गीत संगीत साहित्य घूमने फिरने गपशप हंसी मज़ाक आराम रिश्ते नातों के लिये भी समय चाहिये। चालाकी और धूर्तता यह कि कारपोरेट कम से कम पैसे में अधिक से अधिक काम अपनी कंपनी के लिये लेकर इसे देश के लिये बताकर कामगारों का खून चूसना चाहता है। ऐसे दौर मंे जब वर्क लाइफ बैलेंस पर राष्ट्रीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक जमकर बहस चल रही है, लाॅर्सन एंड टुब्रो के मुखिया से यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी तो सालाना 51 करोड़ है, जो उनकी कंपनी के कर्मचारियों के वेतन से 543 गुना अधिक है। उनका कहना है कि जो लोग संडे की छुट्टी करते हैं वे घर पर अपनी पत्नी को निहारकर क्या हासिल कर लेते हैं? उनको शायद यह पता नहीं कि और भी ग़म हैं ज़माने में काम के सिवा। एक फिल्मी गीत के बोल हैं- तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये। ऐसे लोगोें को धनपशु कहा जाता है जिनको जीवन में पैसे के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता या धन दौलत ही सबकुछ लगता है। ऐसे लोगों का बस चले तो ये ज़मींदारी या सामंतवादी युग की तरह से मज़दूरों के गले में बेड़िया डालकर उनसे दिन रात काम करायें और उनको केवल जिं़दा रहने के लिये 24 घंटे में दो रूखी सूखी रोटी ही दें। यानी इंसान नहीं इनको गुलाम चाहिये। चर्चा यह भी है कि 90 घंटे काम की बिना मांगे सलाह देने वाले काॅरपोरेटर सर के पास केंद्र सरकार की जल शक्ति योजना का अरबों रूपये का टेंडर है और ये काॅन्ट्रैक्टर्स से काम पूरा कराकर उनका पैसा पूरा और समय पर ना देने के लिये भी बदनाम हैं। यही वजह है कि लेबर टैक्सटाइल्स पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य और सीपीआई एमएल के बिहार से सांसद राजाराम सिंह ने श्रम मंत्री को पत्र लिखकर 90 घंटे काम का विरोध करते हुए कहा है कि अधिक समय काम करने से प्राॅडक्टिविटी बढ़ने की जगह घट जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि ऐसा करना श्रम कानून का उल्लंघन होगा। 
     1921 में इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन के मुताबिक सप्ताह में 48 घंटे काम का अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाया गया था। 1935 आते आते दुनिया के विकसित और सभ्य देशों ने काम के घंटे घटाकर 40 कर दिये और आज ये सम्पन्न और समृध्द देशों में 29 से 35 तक आ चुके हैं। मिसाल के तौर पर अधिक उत्पादकता और बेहतर अर्थव्यवस्था के हिसाब से नार्वे सबसे आगे है लेकिन यहां कामगार 35 घंटे ही काम करते हैं। ऐसे ही 29 घंटे तक काम लेने वाले आॅस्ट्रिया फ्रांस और डेनमार्क में भी सबसे अच्छा रिर्टन मिलता है। 90 घंटे काम की सलाह देने वाले यह नहीं सोचते कि भारत में 90 प्रतिशत मज़दूर असंगठित क्षेत्र में हैं। श्रम पोर्टल पर केवल 28 करोड़ कामगार दर्ज हैं। इनमें से 94 प्रतिशत की आमदनी 10 हज़ार से भी कम है। जबकि ये सप्ताह में सातों दिन 10 घंटे से अधिक काम करते हैं। ढाबों होटलों और हलवाई की दुकान पर मज़दूर 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन उनको पर्याप्त पैसा नहीं मिलता। आई एल ओ की अपै्रल 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत घंटों के हिसाब से काम में दुनिया में सातवें स्थान पर है। घामिया भूटान और कांगों जैसे देशों का स्थान इस रैंकिंग मेें भारत से पहले आता है। इन छोटे देशों में लोग 50 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन खराब अर्थव्यवस्था की वजह से यहां अधिक घंटे काम करने के बाद भी लोगों को वेतन बहुत कम मिलता है। इसकी वजह इन देशों की उत्पादकता कम और गरीबी अधिक होना माना जाता है। यही कारण है कि भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 140 वें स्थान पर है। इससे यह पता चलता है कि अधिक मेहनत करने के बाद भी लोगों को पूरा या अधिक वेतन नहीं मिलता है। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। 
       कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में किसी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के चाहिये।
0 जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
  उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

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