हमारा संविधान ही है सर्वोपरि!
0 इस देश में 2014 के बाद से जो थोड़ी बहुत उम्मीद कानून के राज न्याय और निष्पक्षता की बची है वह सुप्रीम कोर्ट से ही है। पिछले दिनों वक़्फ़ कानून के कुछ प्रावधानों पर सबसे बड़ी अदालत ने जिस तरह से सरकार से सख़्ती से कुछ सवाल पूछे उससे यह आशा एक बार फिर मज़बूत हुयी है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विध्ेायकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। नियम यह है कि अगर सरकार दोबारा उन कानूनों को गवर्नर के पास फिर से पास करने के लिये बिना बदलाव किये भेज देती है तो राज्यपाल को उनको पास करना ही होगा लेकिन यहां गवर्नर केंद्र के इशारे पर उनको फिर से दबाकर बैठ गये। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है। ऐसे मंे सुप्रीम कोर्ट ने मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार के उन दस कानूनों को बिना गवर्नर और प्रेसीडेंट के हस्ताक्षर के ही पास घोषित करके आगे के लिये ऐसे मामलों में दोनों के लिये कानून पास करने या फिर से विचार के लिये वापस लौटाने के लिये तीन महीने का समय निर्धारित करके सराहनीय काम किया है। यह एक तरह से लोकतंत्र संविधान और चुनी हुयी सरकार के अधिकार की रक्षा का आदेश माना जाना चाहिये। लेकिन धनकड़ साहब मोदी सरकार का अंध समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बोल रहे हैं।
उनको लगता है जिस तरह से वे बंगाल का गवर्नर रहते हुए ममता सरकार को नाको चने चबवाकर इनाम के तौर पर उपराष्ट्रपति बन गये वैसे ही शायद अब मोदी सरकार को खुश करके राष्ट्रपति भी बन सकते हैं। हम यह दावा नहीं कर सकते कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। हम यह भी नहीं कह रहे कि सुप्रीम कोर्ट के 12 मई के बाद नये बनने वाले चीफ जस्टिस सबसे बड़ी अदालत के पुराने फैसलों पर टिके ही रहेंगे या सरकार द्वारा फिर से विचार करने की अपील पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिये गये निर्णय की तरह पीछे हट जायेंगे? यह बात किसी से छिपी नहीं रह गयी है कि विपक्ष के आरोप के अनुसार वर्तमान सरकार का पूरा विश्वास संविधान कानून के राज और निष्पक्षता में नहीं है। संघ परिवार पर सेकुलर दल यहां तक आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार लोकतंत्र समानता धर्मनिर्पेक्षता जनपक्षधरता समाजवाद निष्पक्षता पारदर्शिता और स्वायत संस्थाओं की स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करती है। यही वजह है कि वह सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसलों से तिलमिला रही है। अमित शाह हों रिजिजू हों धनकड़ हों या दुबे और शर्मा ये सब संघ परिवार के एजेंडे के लिये किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ही आज लोकतंत्र संविधान और समानता को बचाने का प्रयास कर रहा है जबकि मोदी सरकार उसको भी मीडिया पुलिस सीबीआई ईडी और चुनाव आयोग जैसी अन्य संस्थाओं की तरह अपने दबाव में लेकर अपना मनमाना जनविरोधी और संविधान विरोधी एजेंडा किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है, जिससे आशंका यही है कि वह एक दिन सफल हो सकती है। शायर ने कहा है कि - तारीख़ के औराक़ में जो लोग बड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं जो लाशों पर खड़े हैं।
0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।