Thursday, 24 April 2025

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट

न संसद न कोर्ट न ही राष्ट्रपति,
 हमारा संविधान ही है सर्वोपरि!
0 इस देश में 2014 के बाद से जो थोड़ी बहुत उम्मीद कानून के राज न्याय और निष्पक्षता की बची है वह सुप्रीम कोर्ट से ही है। पिछले दिनों वक़्फ़ कानून के कुछ प्रावधानों पर सबसे बड़ी अदालत ने जिस तरह से सरकार से सख़्ती से कुछ सवाल पूछे उससे यह आशा एक बार फिर मज़बूत हुयी है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विध्ेायकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। नियम यह है कि अगर सरकार दोबारा उन कानूनों को गवर्नर के पास फिर से पास करने के लिये बिना बदलाव किये भेज देती है तो राज्यपाल को उनको पास करना ही होगा लेकिन यहां गवर्नर केंद्र के इशारे पर उनको फिर से दबाकर बैठ गये। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है। ऐसे मंे सुप्रीम कोर्ट ने मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार के उन दस कानूनों को बिना गवर्नर और प्रेसीडेंट के हस्ताक्षर के ही पास घोषित करके आगे के लिये ऐसे मामलों में दोनों के लिये कानून पास करने या फिर से विचार के लिये वापस लौटाने के लिये तीन महीने का समय निर्धारित करके सराहनीय काम किया है। यह एक तरह से लोकतंत्र संविधान और चुनी हुयी सरकार के अधिकार की रक्षा का आदेश माना जाना चाहिये। लेकिन धनकड़ साहब मोदी सरकार का अंध समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बोल रहे हैं।
       उनको लगता है जिस तरह से वे बंगाल का गवर्नर रहते हुए ममता सरकार को नाको चने चबवाकर इनाम के तौर पर उपराष्ट्रपति बन गये वैसे ही शायद अब मोदी सरकार को खुश करके राष्ट्रपति भी बन सकते हैं। हम यह दावा नहीं कर सकते कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। हम यह भी नहीं कह रहे कि सुप्रीम कोर्ट के 12 मई के बाद नये बनने वाले चीफ जस्टिस सबसे बड़ी अदालत के पुराने फैसलों पर टिके ही रहेंगे या सरकार द्वारा फिर से विचार करने की अपील पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिये गये निर्णय की तरह पीछे हट जायेंगे? यह बात किसी से छिपी नहीं रह गयी है कि विपक्ष के आरोप के अनुसार वर्तमान सरकार का पूरा विश्वास संविधान कानून के राज और निष्पक्षता में नहीं है। संघ परिवार पर सेकुलर दल यहां तक आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार लोकतंत्र समानता धर्मनिर्पेक्षता जनपक्षधरता समाजवाद निष्पक्षता पारदर्शिता और स्वायत संस्थाओं की स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करती है। यही वजह है कि वह सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसलों से तिलमिला रही है। अमित शाह हों रिजिजू हों धनकड़ हों या दुबे और शर्मा ये सब संघ परिवार के एजेंडे के लिये किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ही आज लोकतंत्र संविधान और समानता को बचाने का प्रयास कर रहा है जबकि मोदी सरकार उसको भी मीडिया पुलिस सीबीआई ईडी और चुनाव आयोग जैसी अन्य संस्थाओं की तरह अपने दबाव में लेकर अपना मनमाना जनविरोधी और संविधान विरोधी एजेंडा किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है, जिससे आशंका यही है कि वह एक दिन सफल हो सकती है। शायर ने कहा है कि - तारीख़ के औराक़ में जो लोग बड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं जो लाशों पर खड़े हैं।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 17 April 2025

मुर्शिदाबाद हिंसा

मुर्शिदाबाद हिंसा है अस्वीकार, 
कट्टर मुसलमान, ममता ज़िम्मेदार?
0 केंद्र सरकार के पक्षपातपूर्ण वक़्फ़ कानून के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करना तो समझ में आता है लेकिन जब बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने साफ कह दिया था कि वह बंगाल में नये वक़्फ़ कानून को लागू नहीं करेंगी तो वहां इस कानून के खिलाफ़ शुरू हुए आंदोलन का हिंसक हो जाना समझ से बाहर है। खासतौर पर मुस्लिम बहुल ज़िले मुर्शिदाबाद में इतनी अधिक हिंसा होना कि वहां तीन गै़र मुस्लिमों का मारा जाना और सैंकड़ों गै़र मुस्लिमों का जान बचाने को पड़ौसी ज़िले मालदा में भागकर शरण लेना अफसोसनाक शर्मनाक और दर्दनाक है। हालांकि जांच के बाद ही यह पता लगेगा कि इतनी हिंसा के पीछे किसकी और क्या साज़िश थी लेकिन ममता और कट्टर मुसलमान अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले का इतिहास दिलचस्प है। इस ज़िले को मुस्लिम बहुल होने के कारण आज़ादी के समय पाकिस्तान का हिस्सा माना गया था। लेकिन बाद में जब हिंदुस्तान पाकिस्तान की सीमा तय हुयी तो इसको वापस भारत का हिस्सा बना दिया गया। इसके बावजूद आज तक इस जनपद में कभी भी भारत विरोधी या हिंदू मुस्लिम विवाद सामने नहीं आया। मुर्शिदाबाद बंगाल के उन तीन ज़िलों में शामिल है जिनमें मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है। सबको पता है कि बंगाल के बाकी 20 जनपद ही नहीं बल्कि देश के एक राज्य कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी राज्यों और उंगलियों पर गिनने लायक क्षेत्रों को अपवाद मानें तो लगभग सभी ज़िलों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। उनको कई जगह कभी कभी तनाव या दंगा होने पर अल्पसंख्यक होने के कारण पक्षपात अन्याय और अत्याचार का सामना भी करना पड़ता है। ऐसे में मुर्शिदाबाद सहित जिन चंद ज़िलों में वे बहुसंख्यक हैं उनको वहां अल्पसंख्यक गैर मुस्लिमों के साथ प्यार मुहब्बत अमन चैन और भाईचारे से रहकर एक मिसाल पेश करनी चाहिये। तभी वे हिंदू भाइयों से यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे भी उनके साथ अन्य राज्यों और ज़िलों में ऐसे ही आपसी सद्भाव से रहें। यह माना जा सकता है कि किसी भी समुदाय या कौम में सब लोग हिंसक हमलावर या दंगाई नहीं होते लेकिन यह भी सच है कि अगर किसी भी धर्म के बहुसंख्यक लोग चाहें तो अपने ही समाज के चंद मुट्ठीभर शरारती लड़ाकू और दंगाई लोगों को लगाम लगाकर रख सकते हैं। कभी कभी किसी समाज के अधिकांश लोग जब किसी विवादित तनावपूर्ण और हिंसक मुद्दे पर चुप्पी साधकर अपने घर में बैठ जाते हैं तो ऐसे में दंगाई तत्वों के हौंसले बुलंद हो जाते हैं। साथ ही जब सरकारें किसी वर्ग विशेष धर्म विशेष जाति विशेष को अपना वोट बैंक मानकर उनको खुलकर अपनी मनमानी करने का मौका देती हैं तो उन लोगों के पर निकल आते हैं।
      इस मामले में पक्ष विपक्ष सभी दलों की सरकारों को समय समय पर परखा गया है तो वे संविधान कानून और अपनी निष्पक्षता की शपथ पर पूरी तरह से खरी नहीं उतरती हैं। भाजपा सरकारें तो ऐसे आरोपों को लेकर इस मामले में सबसे आगे हैं। यहां बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कोई बहाना कोई राजनीतिक आरोप और कोई तर्क उनका बचाव नहीं कर पा रहा है कि राज्य की मुखिया होने के कारण यह उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वे मुर्शिदाबाद सहित उन क्षेत्रों की समुचित निगरानी राज्य के सभी नागरिकों की रक्षा और अपना संवैधानिक उत्तरदायित्व पूरा करती जो वे नहीं कर पायीं हैं। उनकी खुफिया एजेंसी पुलिस और पूरा सरकारी अमला इस मामले में नाकाम रहा है कि वे इतनी बड़ी हिंसक घटना आंदोलन और उनके अनुसार साज़िश को होने से पहले न तो पता लगा सकीं और न ही रोक सकीं। यह बात अपनी जगह ठीक हो सकती है कि जिन ज़िलों में अधिक हिंसा हुयी है वहां मालदा सहित कांग्रेस का बहुत अधिक असर है। यह तथ्य भी सही हो सकता है कि प्राथमिक जानकारी यह मिल रही है कि अधिकांश दंगाई मूल रूप से बंगाल के निवासी नहीं थे बल्कि पड़ौसी देश बंग्लादेश से अवैध रूप से सीमा पार करके आये थे। ऐसे में यह भी सवाल उठना स्वाभाविक है कि हमारे बाॅर्डर पर हमारी बाॅर्डर सिक्योर्टी फोर्स क्या कर रही थी? सीएम ममता के इस गंभीर आरोप की भी जांच होनी चाहिये कि केंद्र की भाजपा सरकार ने जानबूझकर पड़ौसी देश से घुसपैठियों को दंगा करने के लिये मुर्शिदाबाद में आने दिया? उधर भाजपा का दावा है कि ममता ने उन दंगाइयों को बंगाल में आने का रास्ता खुद ही दिया है?
      कुछ ऐसे वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं जिनमें कुछ उग्र कट्टर मुस्लिम यह कहते नज़र आ रहे हैं कि हम ममता के नहीं ममता हमारे रहमो करम यानी वोट पर निर्भर है लेकिन कोई बंगाली मुस्लिम अपने पूरे होश ओ हवास में ऐसी बेतुकी भड़काने वाली और बेवकूफी की बात कहेगा यह शक पैदा करता है। उनको यह तो पता होगा ही ऐसा कहने से न केवल वे खुद और ममता कमज़ोर होंगी बल्कि उन दोनों की विरोधी माने जाने वाली भाजपा मज़बूत होकर तृणूमूल कांग्रस का हिंदू वोट और अधिक अपनी खींचने में सफल होगी। बंगाल में 2026 में विधानसभा चुनाव होना है। वहां इस बार भाजपा दिल्ली की तरह किसी कीमत पर साम दाम दंड भेद से सत्ता ममता से छीनना चाहती है। यह भी सबको पता है कि जहां जहां दंगा होता है वहां वहां भाजपा मज़बूत होती जाती है और एक दिन सरकार बना लेती है। हालांकि वक्फ कानून गलत है उस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रूख अपनाया है लेकिन उस कानून के खिलाफ विरोध करते हुए कानून किसी को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिये। साथ ही ममता बनर्जी के लिये एक शेर याद आ रहा है- न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफ़िला क्यों लुटा, मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 10 April 2025

जज भी हैं इंसान

जज भी ग़ल्ती करेंगे हैं इंसान, 
सरकार में बैठे नेता हैं भगवान?
0 दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से भारी नक़दी मिलने के मामले की जांच जारी है। यह बात सही है कि अदालतों पर जनता का विश्वास बनाये रखने के लिये इस मामले की निष्पक्ष और शीघ्र जांच पूरी की जानी चाहिये। यह भी सही है कि अगर जांच के बाद जज साहब कसूरवार पाये जाते हैं तो उनके खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही भी होनी चाहिये। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान हमें यह भी याद रखना चाहिये कि जिस तरह से अचानक सरकार से जजों की नियुक्ति के लिये एक बार फिर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग व्यवस्था लागू करने की मांग तेज़ हो गयी है, उससे न्यायालयों में पारदर्शिता निष्पक्षता और ईमानदारी नहीं बढ़ेगी बल्कि सरकार का हिंदुत्व एजेंडा आगे बढ़ाने के लिये मसले का रूख़ बदला जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
   जस्टिस वर्मा का दावा है कि स्टोर रूम में मिली नक़दी की उनको जानकारी नहीं थी। उनका यह भी कहना है कि उनके कर्मचारियों की स्टोर तक पहंुच थी और स्टोर खुला था। जस्टिस वर्मा मात्र इतना कहने से ही बेकसूर माने जा सकते हैं क्योंकि जज लोया की संदिग्ध मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने जो फैसला सुनाया था उसमें चार जजों जज श्रीकांत कुलकर्णी एसएम मोदक वी सी वार्डे और रूपेश राठी के बयान के आधार पर ही बिना किसी ठोस सबूत और गवाह के सभी आरोपों को दरकिनार कर दिया गया था। सीजेआई का मानना था कि जज लोया के साथ अंतिम समय मंे जो चार जज मौजूद थे, उनका कहना है कि जज लोया की मौत वास्तव में दिल का दौरा पड़ने से हुयी थी। इसके बाद इस मामले को बंद कर दिया गया। इस मामले को नज़ीर मानें तो जस्टिस वर्मा का मामला भी आगे चलकर उनके बयान के आधार पर खत्म किया जा सकता है। जस्टिस वर्मा का यह भी दावा है कि उनको फंसाया जा रहा है। लेकिन सवाल और भी हैं। अगर जस्टिस वर्मा के घर आग बुझाने गयी टीम को वहां नकदी मिली तो दिल्ली पुलिस सीबीआई और ईडी ने वहां तत्काल पहुंचकर उनके स्टाफ को हिरासत में क्यों नहीं लिया? आधे जले नोट व कमरा सील क्यों नहीं किये गये? जब जले नोट वीडियो में देखे जा सकते हैं? जब जले नोट की गड्डिया बाहर सड़क पर कूडे़े में पड़ी बाद में बरामद की गयीं तो आग बुझाने वाली फायर ब्रिगेड टीम से पूछताछ क्यों नहीं की गयी?
      यह भी जांच होनी चाहिये कि वो कौन सी शक्ति थी जिसने फायर ब्रिगेड के इंचार्ज से यह बयान दिलाया कि जज के घर से कोई नोट बरामद नहीं हुए जबकि उनके ही स्टाफ के द्वारा बनाई गयी अधजले नोटों की वीडियो तब तक सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट और सरकार के सामने मजबूरी थी कि वे चाहकर इस मामले को न तो दबा सकते थे और न ही लीपापोती कर दफन कर सकते थे। माना न्यायमूर्ति वर्मा को अभियोजन से कानूनन छूट प्राप्त है लेकिन क्या उनके स्टाफ को भी ऐसी ही विशेष छूट मिली हुयी है? आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक और दलित से लेकर अल्पसंख्यक तक अगर ऐसा ही मामला होता तो गोदी मीडिया ने अब तक आसमान सर पर उठा लिया होता लेकिन एक खास एजेंडे पर चलने वाला दलाल मीडिया अब कोर्ट और सरकार के डर से चुप्पी साध गया है। वैसे भी इस दौर में मीडिया के साथ ही पुलिस चुनाव आयोग सीबीआई ईडी और ज्यूडशरी सहित तमाम स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्ता और स्वतंत्रता सवालों के घेरे में आ चुकी है।
    संविधान में चाहे जो भी लिखा हो लेकिन हम देख रहे हैं कानून सबके लिये एक समान नहीं है। यहां तक कि आम जनता में भी अमीर और गरीब के लिये कानून अलग अलग तरीके से काम करता देखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जाने माने वकीलों की फीस इतनी अधिक है कि उसको हर भारतीय सहन नहीं कर सकता। यही हालत बड़े निजी अस्पतालों और कालेजों की हो चुकी है। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस पर कोर्ट की ही एक महिला कर्मचारी ने यौन अपराध के गंभीर आरोप लगाये थे। उस महिला हो तत्काल उसके पद से निलंबित कर दिया गया मानो वह जांच को अपने पद पर रहते प्रभावित कर सकती थी और जो सबसे बड़े जज ऐसा कर सकते थे वे अपने पद पर बने रहे क्योंकि उनको कौन हटाता? उस मामले की सुनवाई में आश्चर्यजनक रूप से आरोपी चीफ जस्टिस खुद उस बैंच में शामिल थे जो उनके मामले की सुनवाई कर रही थी। बाद में वे अपनी ही बैंच के आदेश से ससम्मान निर्दोष पाये गये। इसके बाद वह महिला भी अपने पद पर बहाल हो गयी। सवाल यह है कि अगर आरोप झूठे थे तो उस महिला का सज़ा क्यों नहीं दी गयी? फिर मंदिर मस्जिद विवाद का एतिहासिक फैसला आस्था के आधार पर देने के बाद वह चीफ जस्टिस और बैंच के अन्य जज रिटायर होकर सरकार से सम्मानजनक अन्य पद पाकर इनाम पाते पाये गये।
     यह ठीक है कि अदालतों में जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिये काॅलेजियम सिस्टम को लेकर अकसर सवाल उठते हैं। लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान सरकार जितना पक्षपात अन्याय और अत्याचार कर रही वह काॅलेजियम की जगह नेशनल ज्यूडशरी कमीशन लागू करने के बाद अपनी पसंद के जज ही नियुक्त करेगी और सरकार की मंशा के हिसाब से काम न करने वाले जजों का रातो रात ट्रांस्फर कर दिया करेगी। जो पहले के काॅलेजियम से भी खराब सिस्टम होगा। साथ ही यह भी माना जा सकता है कि जिस तरह से हमारे नेता अधिकारी और समाज के अन्य वर्ग करप्ट बेईमान और पक्षपाती हैं उसी तरह से जज भी हो सकते हैं लेकिन यह भी अपनेआप में अन्याय से कम नहीं है कि केवल जजों से ही ईमानदारी की आशा की जाये। अगर हम सरकार व्यवस्था और सिस्टम को सुधारना चाहते हैं तो पूरे समाज को सही करना होगा। किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि- क़ातिल की यह दलील भी मुंसिफ ने मान ली, मक़तूल खुद गिरा था खंजर की नोक पर।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।