Thursday, 12 June 2025

पाकिस्तान हल्कान

पाकिस्तान: अपने आतंक के बोझ से खुद होगा हलकान!
0 आॅप्रेशन सिंदूर के बाद से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। पहलगाम हमले का बदला लेने के लिये जब भारत ने उसके नौ आतंकी ठिकानों पर मिसाइल दाग़ीं तो तो वह उनमें से एक को भी इंटरसेप्ट कर नाकाम नहीं कर पाया। उसने अपना रक्षा बजट बेतहाशा बढ़ा दिया है। पाकिस्तान आज आर्थिक रूप से भारी संकट में है। सिंध ुजल समझौता टूटने से पाक में सूखा पड़ने के आसार अभी से दिखने लगे हैं। उसकी कुल खेती लायक ज़मीन में से 70 प्रतिशत पर 263 अमीर सामंत और नवाब रहे बड़े लोगों का कब्ज़ा है। आतंकवाद उसे अंदर ही अंदर खाता जा रहा है। पिछले साल आई भीषण बाढ़ से उसकी एक तिहाई खेती तबाह हो गयी। वहां निर्माण से अधिक आतंक पैदा हुआ है। पाक लगभग दिवालिया हो चुका है।                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     आॅप्रेशन सिंदूर से घबराये पाकिस्तान ने जब पलटवार करने को भारत पर मिसाइल हमला करना चाहा तो उसका एक भी वार कामयाब नहीं हुआ। इन सबको भारत ने नाकाम कर दिया। इससे यह साबित होता है कि पाकिस्तान भारत का सीधी जंग होने पर बराबर का मुकाबला नहीं है। इससे पहले भी पाकिस्तान हम से कई जंग हार चुका है। यही वजह है कि उसने आतंक के ज़रिये एक छिपा हुआ गोरिल्ला यानी छद्म वार का रास्ता चुना है। विश्व के सैन्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि पाकिस्तान भारत के साथ सीधे युध्द में तीन से 7 दिन तक ही टिक सकता है। आॅप्रेशन सिंदूर के बाद तीन दिन बाद ही जिस तरह से पाकिस्तान ने भारत के सामने घुटने टेक दिये उससे दुनिया के रक्षा जानकारों का यह अंदाज़ सही साबित भी हो चुका है। इस मामले में पाकिस्तान की चार बड़ी समस्यायें सामने आ रही हैं जिसमें सैन्य, आर्थिक रण्नीतिक और भौगोलिक चुनौती उसके सामने खड़ी हैं। भारत के पास 15 लाख एक्टिव और 11 लाख 50 हज़ार रिज़र्व फौजी हैं जबकि पाकिस्तान के पास 6 लाख 50 हज़ार सक्रिय और 5 लाख सुरक्षित सैनिक हैं। जानकारों का कहना है कि भारत की सेना को लेकर कई लोगों को यह भ्रम रहता है कि उसकी सेना चीन बंगलादेश की सीमा और कश्मीर में विभाजित है जबकि पाकिस्तान की सेना खुद भी ब्लोचिस्तान और खैबर पख्तूनवा के साथ ही अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर चार चार जगह बंटी हुयी है। 
    भारत के पास टैंक 4614 एयरक्राफट 2230 जबकि पाक के पास टैंक 3742 और एयरक्राफट केवल 425 ही हैं। युध्दपोत के हिसाब पाक भारत के सामने कहीं मुकाबले मंे टिक ही नहीं सकता क्योंकि हमारे पास जहां पूरा नौसैनिक बेड़ा है तो पाक के पास छोटा सा पोत है। जो हाथी और चींटी जैसा मुकाबला माना जा सकता है। मिसाइलों के मामले में भी पाकिस्तान भारत से हर मामले में उन्नीस ही साबित होगा। गोला बारूद पाक पूरी तरह से बाहर से आयात करने पर निर्भर है जिससे वह चार से सात दिन तक का ही कोटा रखता है जबकि भारत खुद भी गोला बारूद बनाता है जिससे वह इस मामले में भी पाक पर बहुत भारी पड़ने वाला है। भारत की जीडीपी पाक से दस गुना अधिक है। भारत का रक्षा बजट 83 बिलियन डाॅलर जबकि पाक का मात्र 7 से 8 बिलियन डालर था जो अब 9 बिलियन किया है। पाक में महंगाई की दर 23 प्रतिशत अभी है जो जंग जारी रहने पर वह कई गुना बढ़कर पाक का दिवाला निकाल देगी। जहां तक भौगोलिक और रण्नीतिक लड़ाई की बात है तो भारत की सेना मैदानी और पहाड़ी दोनों तरह के मोर्चो पर लड़ने के लिये प्रशिक्षित रही है जबकि पाक की सेना शुरू से ही रक्षात्मक होने की वजह से जंग चालू होने के कुछ समय बाद ही पीछे हटने पर मजबूर हो जाती है। 
       1971 की जंग मंे भारत ने पाकिस्तान के एकमात्र करांची पोर्ट की पूरी तरह नाकेबंदी कर दी थी। यह जंग केवल 13 दिन चली था। जबकि हमारे पास रसद तेल और दूसरे जंगी सामान पहंुचाने के कई वैकल्पिक रास्ते मौजूद रहे हैं जिनमें से एक भी पाक के बस का बंद करना नहीं है। इस कमज़ोरी को समझते हुए पाक ने इस बार तुर्की से एक युध्दपोत उधार ले लिया था लेकिन वह उसकी कोई खास मदद कर पाया हो ऐसी कोई ख़बर अब तक सामने नहीं आई है। पाक की सेना भारत से लड़ने को अगर घरेलू मोर्चे से हटती है तो उसके पाले हुए अफगानी आतंकी उसकी सत्ता पर हमला कर सत्ता पलट कर अंदरूनी मसला खड़ा कर सकते हैं। चीन का खुलकर समर्थन हासिल करने का पाक का दावा उसका माॅरल हाई कर सकता है यह किसी हद तक सच है। पाक का जंग में कमजोर पड़ने पर परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने की धमकी देना एक तरह से ब्लैकमेल करना है जिसे दुनिया चुपचाप शायद ही देख सकती है। आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मोनेट्री फंड ने उसको इस संकट से निकालने के लिये 7 अरब डालर का बेलआउट पैकेज दिया है लेकिन उसकी शर्तें इतनी मुश्किल जनविरोधी और सख़्त हैं कि पाक के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई वाली हालत है। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ का कहना है कि पाक की कर्ज़ चुकाने की क्षमता आज दुनिया के किसी भी आज़ाद और संप्रभु देश के मुकाबले सबसे कमज़ोर है। उसके कर्ज़ का ब्याज भुगतान ही कुल आने वाले राजस्व का आधा है। 
      2017 का विदेशी कर्ज़ 66 से बढ़कर 100 बिलियन हो चुका है। डाॅलर की कीमत 267 रूपये हो चुकी है जिससे पाक का कर्ज़ बिना और लिये ही बढ़ता जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डालर बचा है जोकि आगामी तीन सप्ताह के लिये ही हैै। उसकी सीमा पर विदेशी माल के ढेर लगे हैं। लेकिन उनकी कीमत चुकाने के लिये विदेशी मुद्रा ना होने से वह माल पाक मंे अंदर प्रवेश नहीं कर पा रहा है। आतंकवाद उग्रवाद चरमपंथ कट्टरपंथ करप्शन सेना का बार बार चुनी हुयी सरकार का तख़्ता पलट करना आर्थिक गैर बराबरी विदेश में काम करने वाले पाकिस्तानियों पर अर्थव्यवस्था का टिका होना आज़ादी के दशकों बाद तक अपना संविधान ना बना पाना लोकतंत्र मज़बूत ना होना सेना पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना अमेरिका और खाड़ी के देशों से मिलने वाली बड़ी वित्तीय मदद का बड़ा हिस्सा तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को पैदा कर पालना पोसना और भारत की तरह ज़मींदारी उन्मूलन ना कर देश में केवल बेहद गरीब और बेहद अमीर दो ही वर्ग आज तक बने रहना भी पाक की तबाही का कारण बना है। 
      ऐशियन लाइट की रिपोर्ट बताती है कि पाक ने जेहाद के नाम पर अमेरिका से मोटी रकम हथियार और राजनीतिक मदद लेकर पहले 1979 में रूस को अफगानिस्तान से निकालने कश्मीर को आज़ाद कराने के दावे को लेकर और बाद में 2001 में ओसामा बिन लादेन के 9 बटे 11 के हमले के बाद अलकायदा को ख़त्म करने को लेकर लोहे को लोहे से काटने के लिये अपनी सरज़मीं पर दहशतगर्द पैदा करने का कारखाना लगाया। अब जब ये अभियान खत्म हो चुका है तो पाक को अमेरिकी और अन्य मुल्कों की मदद मिलनी तो बंद हो ही गयी है। साथ ही उसने जिस तालिबान के जिन्न को बोतल से निकाला था। वह आज अफगानिस्तान में मिशन पूरा होने पर पाकिस्तान के गले का सांप बन गया है। कहावत सही है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये।
नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।

Thursday, 5 June 2025

चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था

चैथी बड़ी अर्थव्यवस्था होना नहीं,
प्रति व्यक्ति आय बढ़ना विकास है ?
0 नीति आयोग का दावा है कि देश दुनिया की चैथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जबकि सच यह है कि आईएमएफ ने यह मात्र अनुमान लगाया है कि शायद भारत 2025 खत्म होने तक जापान को पीछे छोड़कर यह स्थान पा सकता है। उधर मोदी सरकार का कहना है कि वह देश को जल्दी ही विश्व की तीसरी बड़ी इकाॅनोमी बना देगी। लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश की जीडीपी उनके कार्यकाल में कांग्रेस की सरकार के मुकाबले आधी से भी कम स्पीड यानी 2014 से 2023 तक 84 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक दोगुने से भी अधिक यानी 183 प्रतिशत बढ़ी थी। जबकि दुनिया की तालिका में भारत प्रति व्यक्ति आय 2600 डाॅलर के हिसाब से देखा जाये तो हम 144 वें स्थान पर हैं।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      इंटरनेशनल माॅनेटरी फंड के अधिकृत आंकड़ों के अनुसार दुनिया में जीडीपी के हिसाब से 2025 के अंत तक अमेरिका 30507.22 बिलियन डाॅलर से नंबर वन तो चीन 19231.71 बिलियन डाॅलर से दूसरे व जर्मनी 4744.80 बिलियन डाॅलर से तीसरे भारत 4187.02 बिलियन डाॅलर के साथ चैथे और 4186.43 बिलियन डाॅलर से जापान पांचवे स्थान पर पहुंच सकता है। 2014 से 2023 तक चीन की जीडीपी 84 तो अमेरिका की 54 प्रतिशत बढ़ी है। इनके अलावा दुनिया के टाॅप टेन देशों में से कई की जीडीपी या तो मामूली बढ़त के साथ स्थिर रही है या फिर मंदी के कारण वर्तमान से भी कुछ नीचे चली गयी है। अगर अप्रैल के आंकड़ों की बात करें तो अभी हम पांचवे स्थान पर ही हैं। मिसाल के तौर पर जिस ब्रिटेन को पहले हमने पांचवे पायेदान से पीछे छोड़ा था। उसकी जीडीपी बढ़त इस दौरान मात्र 3 तो फ्रांस की 2 और रूस की केवल एक प्रतिशत ही रही है। ऐसे ही जिस जापान को हम इस साल के अंत तक पीछे छोड़ने जा रहे हैं उसकी जीडीपी ग्रोथ मात्र 0.3 प्रतिशत है। इसके लिये यह भी ज़रूरी है कि देश में जंग के हालात न बनें, अमेरिका के लिये भारत का निर्यात बिना टैरिफ बढ़े पहले की तरह चलता रहे, हमारे यहां जीडीपी की रियल ग्रोथ मज़बूत बनी रहे और इस बढ़त में प्रोडक्शन का हिस्सा न केवल 15 प्रतिशत से नीचे न जाये बल्कि इससे आगे रहे।
      इनमें से एक भी चीज़ गड़बड़ होती है तो हम अपनी विकास दर वर्तमान स्तर पर भी बनाये रखने के लिये संघर्ष करने को मजबूर हो सकते हैं। उधर ब्राजील की जीडीपी उल्टा 15 प्रतिशत पीछे चली गयी है। इसकी वजह दुनिया में आई 2008-09 की मंदी भी बनी। हालांकि भारत भी इस मंदी से प्रभावित हुआ लेकिन उसका असर बहुत हल्का सा था। हालांकि पूर्व अनुमान के अनुसार भारत आशा के अनुसार 8 से 9 प्रतिशत की स्पीड से नहीं बढ़ रहा है लेकिन अगर हम 6 प्रतिशत की जीडीपी औसत बढ़त भी बनाये रख सके तो 2026 तक जर्मनी को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इसकी वजह यह होगी कि हमारी इकाॅनोमी तब तक 38 तो जापान और जर्मनी की 15 प्रतिशत ही बढे़गी। 2004-09 में डीडीपी 8.5 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक औसत 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। आज भारत की जीडीपी औसत 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वह दौर एक तरह से मनमोहन सिंह सरकार का भारत में आार्थिक प्रगति का स्वर्ण काल था लेकिन अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में मीडिया व संघ परिवार ने एक सोची समझी योजना के तहत तिल का ताड़ बनाकर उस सरकार को काल्पनिक टू जी घोटाले के बहाने इतना अधिक बदनाम कर दिया जितना उसका कसूर नहीं था। इन आंकड़ों की सहायता से हम यह समझ सकते हैं कि किसी देश की जीडीपी बढ़ने में उसकी सरकार आबादी और दूसरे देशों की मंदी कम स्पीड और प्रति व्यक्ति आय की क्या भूमिका होती है?
     हमारे देश में 35 करोड़ लोग पूरा पौष्टिक खाना नहीं खा पा रहे हैं। 80 करोड़ लोगों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में मदद कर रही है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये कमाकर भी कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं। इससे आमदनी ही नहीं खर्च और कर चुकाने के हिसाब से भी आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। जबकि चोटी के एक प्रतिशत की वार्षिक आय 42 लाख है। जीएसटी हर साल हर माह पहले से अधिक बढ़ने का दावा भी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर करती है जबकि जानकार बताते हैं कि इसका बड़ा कारण तेज़ी से बढ़ती बेतहाशा महंगाई भी है। महंगाई बढ़ाने में खुद सरकार पेट्रोलियम पदार्थों रसोई गैस और चुनचुनकर उपभोक्ता पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाना या कर की दरें लगातार बढ़ाते जाना भी हैै। जीडीपी प्रोडक्शन का पैमाना माना जाता है। लेकिन यह उपभोग का माप भी है। जब आप कन्ज्यूमर की एक विशाल गिनती लेकर उसे एक मामूली राशि से गुणा करेंगे तो एक बहुत बड़ी संख्या आती है। अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 डाॅलर और अमेरिका की 70,000 डाॅलर है।
        अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी सादी जनता को गुमराह करने का एक चुनावी राजनीतिक झांसा ही अधिक है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये और बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसका परिणाम तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई है। इसके साथ ही यह भी एक बड़ा विचारणीय तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था ठीक से फले फूलेगी। इस बार अब तक विदेशी निवेश में भारी कमी की ख़बरें आ रही हैं। कहने का मतलब यह है कि जब तक प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती है तब तक लोगों को निशुल्क शिक्षा, बेहतर इलाज, शानदार सड़कें और 24 घंटे बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराना एक सपना ही बना रहेगा। पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद गर्ग ने भी यही दोहराया है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना अच्छी बात है लेकिन विकसित राष्ट्र बनने के लिये प्रति व्यक्ति आय बढ़ना ज़रूरी है जिसमें हम अभी काफी पीछे हैं। अदम गोंडवी का एक शेर याद आ रहा है- तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है।         नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 22 May 2025

संविधान सर्वोच्च है

सही है चीफ़ जस्टिस का बयान,
सर्वोच्च है भारत का संविधान!
0 सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने बिल्कुल सही कहा है कि लोकतंत्र में विधायिका न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों स्तंभ समान हैं, उनको एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। उनका कहना है कि अगर कोई सर्वोच्च है तो वह संविधान है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विधेयकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट अथवा राष्ट्रपति? जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर पांच पन्ने का संदर्भ मांगा है। प्रेसिडंेट ने यह संदर्भ संविधान में उनको दिये गये अनुच्छेद 143 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए यह जानना चाहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान में व्यवस्था नहीं होने के बावजूद उनको समय सीमा के अंदर बिल पास करने के लिये कह सकता है? दो जजों की बैंच ने जब यह निर्णय दिया था जानकार लोगों ने तभी अनुमान लगाया था कि केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका लगा सकती है। इसके बाद अनुमान है कि यह मामला संविधान पीठ के सामने विचार के लिये जा सकता है। आपको याद दिला दें कि तमिलनाडू सरकार के कुछ बिलों को वहां के गवर्नर द्वारा कई साल तक रोकने और उसके बाद वापस करने पर उनको वहां की सरकार द्वारा दोबारा पास करके भेजने के बाद उन बिलों को विचार के लिये गवर्नर द्वारा प्रेसीडेंट के पास भेज देने और वहां एक बार फिर से वे बिल ठंडे बस्ते में असीमित समय के लिये रूक जाने से नाराज़ होकर सबसे बड़ी अदालत ने अपने विशेष संवैधानिक अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए उन दस बिलों को बिना राष्ट्रपति की सहमति के ही पास मानकर कानून का दर्जा दे दिया था। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने भविष्य में ऐसे विवाद रोकने के लिये राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिये ऐसे बिलों को पास करने या वापस करने के लिये एक से तीन माह का समय तय कर दिया था।
     अब राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाते हुए उससे संदर्भ मांगा है कि क्या वह संविधान में ऐसी कोई समय सीमा न होने के बाद भी उनको निर्धारित समय में ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये आदेश दे सकता है? साथ ही राष्ट्रपति ने इस बात पर भी एतराज़ किया है कि सुप्रीम कोर्ट को उनके विवेक पर सवाल उठाने का अधिकार कहां से मिला है? 2014 के बाद से यह देखा गया है कि केंद्र सरकार के निर्देशों पर काम करने वाले राज्यपाल विपक्षी सरकारों को तरह तरह से पहले की केंद्र सरकारों के मुकाबले कुछ अधिक ही परेशान करते रहे हैं। हालांकि हाल ही में विरोधी दलों की राज्य सरकारों को असंवैधानिक रूप से गिराने की तिगड़मों में कुछ कमी आई है। इस मामले में कांग्रेस की केंद्र सरकार का रिकाॅर्ड अधिक खराब रहा है। जहां तक राज्यों की चुनी हुयी सरकारों का सवाल है उनको राष्ट्रपति और राज्यपाल से अधिक संवैधानिक शक्तियां मिली हुयी हैं। सही मायने में राष्ट्रपति और राज्यपाल तो केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। इसी लिये यह नियम बनाया गया था कि अगर केंद्र या राज्य की कोई सरकार किसी विधेयक को बिना पास किये विचार के लिये लौटाने पर दोबारा पास करके भेजती है तो राष्ट्रपति और राज्यपाल को उन पर हस्ताक्षर करने ही होंगे। ऐसा न करने पर उनको अपना पद छोड़ होगा।
       इसका मतलब यह है कि उनको किसी भी बिल को पास करने से रोकने की संवैधानिक पाॅवर हासिल नहीं है। लेकिन संविधान में ऐसा करने के लिये कोई समय सीमा न होने से वे इसका इस्तेमाल बिलों को अनिश्चित समय तक रोके रखने के लिये करते रहे हैं। सच तो यह है कि ऐसा वे खुद नहीं बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में ऐसी समय सीमा नहीं होने के कारण गलत इस्तेमाल की जा रही इस शक्ति पर रोक लगाकर कुछ भी गलत नहीं किया है लेकिन हां यह संविधान में नहीं लिखा है यह बात सच है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की।
       सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करते हैं। सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये। उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 15 May 2025

सेना का सम्मान

देशभक्तों सेना का सम्मान कीजिये, 
सभी भारतीयों को साथ लीजिये!
0 आॅप्रेशन सिंदूर हमारी सेना का पाकिस्तान को पहलगाम हमले का करारा जवाब है। हर भारतीय को सेना के इस साहस पर गर्व है। पूरा देश इस नाजुक और एतिहासिक अवसर पर सेना के साथ खड़ा है। सरकार ने सेना को इस आॅप्रेशन के लिये खुली छूट दी थी। इसके लिये विपक्ष ने सरकार का पूरा साथ दिया है। हर भारतीय पाक को सबक सिखाने के लिये देश के लिये हर तरह की कुरबानी देने को तैयार है। लेकिन दुख की बात है कि जिनका एजेंडा हिंदू मुस्लिम है उनमें से चंद लोग अभी भी कर्नल सोफिया कुरैशी को मुसलमान होने की वजह से टारगेट कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे विदेश सचिव विक्रम मिस्री को भी पाक के साथ सीज़ फ़ायर का ऐलान करने से ट्राॅल करने लगते हैं। उनके परिवार तक पर कीचड़ उछाला जाता है जिससे तंग आकर वे अपना सोशल मीडिया एकाउंट लाॅक करने को मजबूर होते हैं। यह बहुत निंदनीय और दुखद सोच है। सही मायने में ऐसे लोगों पर देशद्रोह का केस चलाया जाना चाहिये।  
-इक़बाल हिंदुस्तानी
     सेना सेना होती है। उसका कोई निजी धर्म नहीं होता। उसका मकसद सदा देश और जनता की सेवा होता है। सेना से बड़ा देशभक्त कोई दूसरा नहीं साबित कर सकता। सेना अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सीमा की निगहबानी करती है। वो देश की बिना शर्त रक्षा करती है। सैनिक अपनी जान की परवाह किये बिना विषम हालात में भूख प्यासा आंधी तूफान के बीच भी दिन रात देश की आन बान शान के लिये आखि़री सांस तक लड़ता है। लेकिन जब कोई दो कौड़ी का नेता आॅप्रेशन सिंदूर को अपने नेतृत्व में अंजाम तक पहंुचाने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी जैसी जांबाज़ फौजी को उनके धर्म की वजह से पाक के आतंकियों की बहन बताकर अपमान करता है तो वह हमलावरों के देशवासियों को बांटने के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा होता है। वह तो अच्छा हुआ एमपी के हाईकोर्ट ने इस मामले का खुद संज्ञान लिया और आरोपी के खिलाफ रपट दर्ज करने का आदेश दे दिया। लेकिन अफसोस यह रहा कि खुद को सबसे बड़ा देशभक्त बताने वाली पार्टी के मुखिया उनके पितामाह सांस्कृतिक संगठन पीएम सीएम और अन्य बड़े बड़े पदों पर बैठे नेताओं ने उस मुंहफट मंत्री से इस्तीफा तक नहीं लिया। अलबत्ता पार्टी ने जब उनके बयान से खुद को अलग किया तो उसने मजबूरन दिखावे की माफी ज़रूर मांग ली। ऐसे ही विदेश सचिव विक्रम मिस्री का मामला है। उनको सरकार के आदेश का पालन करना होता है। उन्होंने जब मीडिया में पाक के साथ सीज़ फायर का ऐलान किया तो ट्राॅल आर्मी उनके पीछे पड़ गयी।
      14 नवंबर 2015 को लंदन के वेम्बली स्टेडियम में भारतीय प्रवासियों की एक सभा में पीएम नरेंद्र मोदी ने सेल्फी विद डाॅटर अभियान की अपील करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बताया था। जानी मानी काॅरपोरेट लाॅयर डिडोन के पिता विक्रम मिस्री ने अपनी बेटी के साथ एक सेल्पफी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी थी। दस साल बाद इस सेल्फी को ट्राॅल आर्मी ने तलाश कर निकाला और डिडोन के अश्लील मीम बनाकर उनके पिता विदेश सचिव विक्रम मिस्री के ट्विटर हैंडल पर भद्दे चित्रों और कमेंट की बाढ़ ला दी। मिस्री का कसूर यह था कि उन्होंने भारत सरकार के निर्देशानुसार पाक के साथ जंगबंदी की घोषणा की थी। अंधभक्त चाहते थे कि जंग जारी रहे और गोदी मीडिया के झूठे दुष्प्रचार के हिसाब से इस बार पाकिस्तान को पूरी तरह निबटा दिया जाये। उनको यह नहीं पता कि न तो कोई विदेश सचिव जंग की शुरूआत करता है और न ही जंग रोकने का फैसला उसके हाथ में होता है। इससे पहले पहलगाम हमले में अपने फौजी पति को खो बैठी हिमांशी नरवाल को उनकी इस पोस्ट पर निशाने पर लिया गया था कि वे चाहती हैं कि पाक हमलावरों को कड़ी सज़ा मिले लेकिन इसके लिये कश्मीरी और भारतीय मुसलमानों को आरोपी न माना जाये। ऐसे ही नैनीताल में एक लड़की के साथ रेप होने पर जब आरोपी के दूसरे धर्म का होने की वजह से उस धर्म के लोगों को हिंसा का शिकार बनाया गया तो शैला नेगी ने इस अन्याय का विरोध किया तो ट्राॅल आर्मी ने कायदे की बात करने वाली इस बहादुर और समझदार लेडी को ही डराना धमकाना और अपमानित करना शुरू कर दिया था।
       इतना ही नहीं देश के वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने पिछले दिनों सरकार से उसकी नाकामी और गैर ज़िम्मेदारी पर कुछ तीखे सवाल पूछे तो उनकी डीपी पर लगी उनकी बेटी की फोटो लेकर सोशल मीडिया पर अश्लील कमेंट किये जाने लगे। इससे दुखी और नाराज़ होकर कभी संघ के समर्थक रहे राहुल देव ने अपनी डीपी से अपनी बेटी की तस्वीर हटा दी। अब वे खुद भी सोशल मीडिया पर इस मानसिक आघात से बहुत कम पोस्ट कर रहे हैं। इससे पहले सरकार के खिलापफ कुछ कड़े फैसले देने पर कोर्ट के खिलाफ भी ऐसे ही ट्राॅल ने बहुत अभद्र और आक्रामक भाषा का प्रयोग किया था। इस तरह के पीड़ित लोगों की लिस्ट काफी लंबी है। धर्म और साम्प्रदायिकता की नफ़रत भरी झूठी राजनीति करने वालों के संरक्षण के कारण ऐसे ट्राॅल अब निडर होकर किसी पर भी टूट पड़ते हैं। इनका विश्वास न तो संविधान में है और न ही ये लोकतंत्र का सम्मान करते हैं। यही वजह है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता को भी कुछ नहीं समझते हैं। ज़ाहिर बात है कि ऐसे लंपटों के लिये किसी भी मामले में असहमति या विरोध के लिये भी कोई जगह नहीं है। हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि अगर किसी वर्ग जाति या धर्म के लोगों के लिये कोई कानून हाथ में लेगा उनको बात बात पर निशाने पर लेगा या हिंसक और अश्लील तरीके से पेश आयेगा और सरकारें उस पर जानबूझकर चुप्पी साधेंगी तो यह आग एक दिन उनके घर को भी जलायेगी जो दूसरों को नुकसान पहुंचाकर आज बहुत खुश हो रहे हैं। अभी भी समय है कि अगर आप सच्चे देशभक्त हैं तो सेना का सम्मान कीजिये और सभी भारतीयों को साथ लीजिये। मजाज़ का एक शेर याद आ रहा है- बख़्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रत ए मजाज़, डरते नहीं सियासत ए अहले जहां से हम।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 8 May 2025

सम्मान के बदले अपमान...

ट्रजिडी! जिनको सम्मानित करना 
चाहिये उनको अपमानित कर रहे हैं!
0 पहलगाम हमले में अपने पति लेफ़निनेंट विनय नरवाल की जान गंवाने वाली उनकी पत्नी हिमांशी नरवाल ने भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में की गयी एयर स्ट्राइक को आतंकवाद ख़त्म होने तक नहीं रोकने की मांग की है। उनका कहना है कि उनके पति का वायुसेना में शामिल होने का मकसद देश में शांति कायम करना और आतंकवाद को खत्म करना था। इससे पहले हिमांशी ने कहा था कि जिन लोगों ने उनके पति की हत्या की है उनको सज़ा मिलनी चाहिये लेकिन इस घटना के लिये सभी मुसलमानों और कश्मीरियों को निशाना नहीं बनाना चाहिये। इस बयान पर हिमांशी को सोशल मीडिया पर ट्राॅल किया गया तो महिला आयोग उनके पक्ष में बोला लेकिन यह दुखद है कि जिस साहस और विवेक के लिये हिमांशी को सम्मानित किया जाना चाहिये था उसके लिये उल्टा उनको अपमानित किया गया। ट्रजिडी यह है कि ऐसा ही कुछ शैला नेगी सहित और भी कुछ लोगों के साथ समय समय पर अनर्थ होता रहा है।   
-इक़बाल हिंदुस्तानी
      हिमांशी नरवाल उन बहादुर समझदार और विवेकशील चंद लोगों में से है। जो दुख गुस्सा और उन्माद के दौर में भी अपनी भावनाओं पर काबू रखकर वही कह रही हैं। जो कि सच है। जो कि कानून के अनुसार है। जो कि संविधान कहता है। जो कि एक सभ्य समाज को कहना चाहिये। जो कि एक अमन चैन न्याय तर्कशील और मानवीय सोच के इंसान को कहना चाहिये। कम लोगों को याद होगा नोएडा के दादरी में जब काफी पहले अख़लाक नाम के एक बुजुर्ग की भीड़ द्वारा लिंचिंग कर हत्या कर दी गयी थी तो वायुसेना में सेवा दे रहे उनके बेटे सरताज ने कहा था कि चंद लोगों द्वारा उनके पिता को मौत के घाट उतार देने के बावजूद वे हत्यारों के धर्म के कारण सारे हिंदुओं को दोषी नहीं ठहरा सकते। इसी तरह पहलगाम हमले में अपने पिता ए रामचंद्रन को खो देने वाली उनकी बेटी आरती ने कहा कि मेरे पिता को आतंकवादियों ने मार दिया लेकिन कश्मीर ने मुझे समीर और मुसाफिर के रूप में दो भाई भी दिये हैं। ऐसे ही एक लड़की दीपिका ने कहा कि आतंकवादियों ने जिस तरह से चुनचुनकर मेरे सामने हिंदुओं को मारकर मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना चाहा उसका जवाब कश्मीरी मुसलमानों ने मेरा साथ देकर हाथो हाथ दे दिया।
      पिछले दिनों नैनीताल में एक लड़की के साथ एक मुस्लिम व्यक्ति ने बलात्कार किया तो पुलिस ने रपट दर्ज आरोपी को पकड़कर जेल भेज दिया। लेकिन कुछ कट्टरपंथी लोगों ने इस घटना को साम्प्रदायिक रूप देते हुए जब हंगामा करना शुरू किया तो शैला नेगी नाम की महिला शेरनी की तरह उनके सामने खड़ी हो गयी। शैला का सवाल था कि जिसने अपराध किया उसको सज़ा देने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ऐसे में सब मुसलमानों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिये। शैला के इस रूख़ पर कट्टरपंथी उनसे नाराज़ हो गये और उनको डराया धमकाया जाने लगा। हालांकि जितनी बड़ी संख्या में इन बहादुर और समझदार महिलाओं के पक्ष में कानून के समर्थक लोगों को खड़ा होना चाहिये था उतने लोग सामने नहीं आये। उल्टा वे साम्प्रदायिक संकीर्ण धर्म की राजनीति करने वाले सत्ता के सहारे लंपट लोग इन महिलाओं को ट्राॅल करने लगे जिनको संविधान हिंदू मुस्लिम भाई चारा और कानून का राज पंसद नहीं है। यह विडंबना ही है कि जिनको उन्माद भीड़तंत्र और जंगलराज के दौर में सम्मानित किया जाना चाहिये उनको कट्टरपंथी लोग निडर होकर सोशल मीडिया पर डरा धमका रहे हैं लेकिन महिला आयोग की मुखिया के हिमांशी नरवाल के पक्ष में बयान के अलावा कोई बड़ा एक्शन नहीं हुआ।
      महिला आयोग ने भी हिमांशी को डराने धमकाने वालों के खिलाफ पुलिस को रपट दर्ज कर आरोपियों के खिलापफ सख़्त कानूनी कार्यवाही की ज़रूरत नहीं समझी। साथ ही पीएम रक्षामंत्री मुख्यमंत्री कथित सांस्कृतिक संगठनों के मुखिया सीएम एमपी एमएलए तक इस मामले पर चुप्पी साध्ेा रहे। हद तो यह है कि सेना का वह संगठन जो शहीदों और उनकी विधवाओं के भले के लिये काम करता है वह भी इस गंभीर आपत्तिजनक और शर्मनाक मामले पर कुछ नहीं बोला। बात बात पर स्वतः संज्ञान लेने वाला कोर्ट और उसमें छोटे छोटे मामलों में जनहित याचिका दायर करने वाले समाजसेवी भी इन साहसी महिलाओं और उनके कानून के राज के समर्थन में बोलने पर रहस्यमयी खामोशी से निराश करता नज़र आया। यह माना कि आज कुछ ऐसे लोग ऐसे बड़े पदों पर बैठे हैं जिनको सत्ता शक्ति और पद का नशा है। लेकिन यह दौर हमेशा रहने वाला नहीं है। जो लोग अपने सियासी स्वार्थ के लिये देश का माहौल बिगाड़ रहे हैं, धर्म के आधार पर लोगों को आपस में लड़ाना चाहते हैं, वे एक तरह से आतंकियों पाकिस्तान जैसे देश के दुश्मनों और समाज विरोधी कट्टर लोगों का ही जाने अंजाने एजेंडा आगे बढ़ाने का अपराध कर रहे हैं। जिनको इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।
       हमारा कहना है जो गलत है वह गलत है। वह चाहे किसी भी धर्म का व्यक्ति करे। किसी एक घटना एक अपराध और एक आदमी के जुर्म के लिये किसी पूरे समुदाय वर्ग या धर्म के लोगों को न तो टारगेट किया जाना चाहिये ना ही उनको कसूरवार मानना चाहिये। सभी धर्मों जातियों और समुदायों में अच्छे बुरे लोग होते हैं। यही बात कट्टरपंथी लोगों पर भी लागू होती है। हमारे देश में लोकतंत्र है। कानून का राज है। देश संविधान से चलेगा। अगर कोई कानून हाथ में लेता है और किसी पूरे समाज को निशाना बनाता है तो वह देशभक्त राष्ट्रवादी और संविधान का मानने वाला नहीं हो सकता। आज नहीं तो कल ऐसे लोगों को पूरा समाज देश और दुनिया उनके असली मकसद को समझकर सज़ा देंगे और उस समय हिमांशी नरवाल शैला नेगी आरती दीपिका और सरताज को याद किया जायेगा सम्मानित किया जायेगा आदर्श माना जायेगा उनको नायक माना जायेगा और उनके साहस समझ और विवेक को मिसाल मानकर इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। मुनीर नियाज़ी ने ऐसे लोगों के लिये ही शायद यह शेर लिखा है- लोग नाहक़ किसी मजबूर को कहते हैं बुरा, आदमी अच्छे हैं पर वक़्त बुरा होता है।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 1 May 2025

पहलगाम हमला

पहलगाम हमला: जनता ने जवाब दे दिया अब सेना की बारी है!
0 1965, 1971 और 1999 में तीन तीन बार भारत से जंग हारकर मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान को शायद यह बात समझ में नहीं आ रही है कि वह आज जिस कंगाली की दहलीज़ पर पहुंच चुका है वहां से अब वापसी का कोई रास्ता नहीं है। कश्मीर को सेना के बल पर जब पाक हासिल करने में नाकाम रहा तो उसने चोर दरवाजे़ से आतंकवाद का शाॅर्टकट रास्ता चुना है। आज़ादी के बाद कुछ दशक तक उसको इस्लाम के नाम पर कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों संगठनों और भटके हुए कश्मीरी बेरोज़गार युवाओं का कुछ साथ मिला भी जिनको अपने लड़ाकों के साथ मिलाकर उसने पैसा हथियार और प्रशिक्षण देकर कश्मीर सहित हमारे देश में समय समय पर आतंकी हमले किये लेकिन आज पूरा देश उसके खिलाफ़ एकजुट है।   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कहावत है कि आप अपना घर बदल सकते हैं लेकिन पड़ौसी नहीं बदल सकते। यही बात आज पाकिस्तान पर लागू होती है। उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह ने टू नेशन थ्योरी के नाम पर इस्लाम के बहाने मुस्लिम लीग की मदद से पाकिस्तान बनाया लेकिन 24 साल बाद ही बंगाल की बगावत से जिनाह का यह सपना टूट गया। पूर्वी बंगालियों के साथ पक्षपात धोखा और जुल्म करने से उसका एक हिस्सा टूटकर अलग देश बंगलादेश बन गया। हालांकि इस बंटवारे का दोष पाक भारत को देता है लेकिन उससे पूछा जा सकता है कि अगर बंगाली मुसलमान न चाहते तो उनको पाक से अलग कौन कर सकता था? शेख़ मुजीबुर्रहमान को पाक के चुनाव में बहुमत मिला था लेकिन वहां हावी पंजाबी मुसलमानों ने शेख़ को पीएम नहीं बनने दिया जिससे टकराव बढ़ा और विद्रोह होने के बाद मुक्ति वाहिनी की मदद से बंगलादेश बन गया। इसका बदला लेने के लिये पाक ने कश्मीर को छीनना चाहा लेकिन वह आमने सामने की लड़ाई में इसमें हर बार नाकाम रहा। वह तो भारत की मेहरबानी रहमोकरम और बड़प्पन था जिससे पाक के 90 हज़ार सैनिकों के बंदी बनाकर उसके एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करने बावजूद हमने पीछे हटकर शिमला समझौता कर उसको माफ कर दिया वर्ना आज पाक का नाम निशान भी नहीं होता।
      इसके बाद पाक को यह बात समझ में आ गयी कि वह भारत का मुकाबला सीधी जंग में कभी नहीं कर सकता तो उसने आतंकवाद का सहारा लेना शुरू कर दिया। अगर इस्लाम के नाम पर सब मुसलमान साथ रह सकते तो दुनिया में 57 मुस्लिम मुल्क ना होते। इसी तरह अगर सभी मुसलमानों के हित एक होते तो ईराक ईरान आठ साल तक जंग नहीं लड़ते। ऐसे ही पाकिस्तान के अहमदिया शिया और बलूच अलग देश की मांग नहीं कर रहे होते। पाक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसने अफगानिस्तान से रूस का कब्ज़ा हटाने को जिस आतंकवाद की नर्सरी को शुरू किया था आज वह कैंसर बन चुका है। आज पाक में उसके ही बनाये आतंकी मस्जिद में नमाज़ पढ़ते मुसलमानों को बम से निशाना बनाते हैं। पहलगाम हमला भी उसी नीच घटिया और अमानवीय सोच का नतीजा है जिसमें बेकसूर निहत्थे और कश्मीर को रोज़गार देने वाले 28 टूरिस्टों को बेदर्दी से मारा गया है। इनका खून बेकार नहीं जायेगा बल्कि एक दिन रंग लायेगा। यह हमला करके पाक ने अपने ताबूत में खुद आखि़री कील ठोक दी है। उसके पापों का घड़ा इस घटना के बाद भर चुका है। अब उसके ऐसे हमले साज़िश और जुल्म आगे और सहन नहीं किये जा सकते। आज पूरा भारत उसके लोग उसके राज्य बिना किसी धर्म भाषा और क्षेत्रीय भेदभाव के छिटपुट घटनाओं को अपवाद मानकर छोड़दें तो पाक की इस नापाक हरकत के खिलाफ एक साथ खड़े हैं।
      हर तरह के बंद विरोध प्रदर्शन कैंडिल मार्च नारेबाज़ी ज्ञापन भाषण और काली पट्टी बांधने के साथ मंदिर व मस्जिदों में मृतकों की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना व दुआ तक सब एक साथ मिलकर कर रहे हैं। पहलगाम की शर्मनाक दर्दनाक और तकलीफदेह घटना ने देश के 140 करोड़ भारतीयों को एक दूसरे के साथ कंध्ेा से कंधा मिलाकर खड़ा कर दिया है। उनकी आंखों में गुस्सा तो दिल में दुख है। वे अब पाक को उसकी नापाक हरकतों के लिये अंतिम और निर्णायक सबक सिखाने की चाहत रखते हैं। खुद कश्मीरियों ने जिस तरह टूरिस्टों को बचाने संभालने और सुरक्षित घर पहुंचाने के लिये अपनी जान तक दी उनकी मेहमान के तौर पर सेवा की और बिना पैसा लिये वापस उनको सुरक्षित ठिकानों तक पहुंचाने मंे मदद की उससे पाक को संदेश मिल गया होगा कि वह जिन कश्मीरियों के कश्मीर को अपने साथ मिलाने के लिये यह सब घटिया और नीच हरकतें कर रहा है वे उसके साथ नहीं अपने मुल्क भारत के साथ खड़े हैं। अलबत्ता यह समय है जब पहलगाम की घटना को सियासत या हिंदू मुस्लिम दरार बढ़ाने के लिये ज़रा भी दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिये नहीं तो जाने अंजाने में ऐसे लोग पाकिस्तान का आतंकवाद अलगाववाद और देश की जनता को गृहयुध्द में झोंकने का एजेंडा ही आगे बढ़ाने का काम कर रहे होंगे।
      विपक्ष ने सरकार का ध्यान इस गंभीर मुद्दे की तरफ दिलाया है और सरकार ने इस मामले को प्राथमिकता के आधार पर लेकर सभी देशवासियों को एकजुट रखने का वादा भी किया है। हम सबको यह बात समझने की ज़रूरत है कि सभी धर्मों मेें कुछ शरारती कट्टर और अपराधी लोग हो सकते हैं लेकिन इन आरोपों को केवल किसी एक मज़हब जाति या रंग के लोगों पर शत प्रतिशत थोपकर आप राष्ट्रवादी देशभक्त और देशप्रेमी नहीं बन सकते। साम्प्रदायिकता कट्टरता और संकीर्णतावाद किसी का भी हो कभी भी अच्छा नहीं हो सकता। देशहित से बड़ा राजनीतिक हित कभी भी नहीं हो सकता। जो पार्टी संगठन या सरकार किसी वर्ग विशेष के खिलाफ दुभार्वना पक्षपात या घृणा रखता हो वह खुद भी कभी देशभक्त या राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। यह समय है जब हम सबको मिलकर आतंकवाद कट्टरता संकीर्णतावाद और पाकिस्तान को उसकी गलत हरकतों का जवाब देना है। पहलगाम के आतंकियों के लिये एक शेर याद आ रहा है- इसी लहू मंे तुम्हारा सफ़ीना डूबेगा, ये कत्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।
नोट- लेखक नवभारट टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 24 April 2025

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट

न संसद न कोर्ट न ही राष्ट्रपति,
 हमारा संविधान ही है सर्वोपरि!
0 इस देश में 2014 के बाद से जो थोड़ी बहुत उम्मीद कानून के राज न्याय और निष्पक्षता की बची है वह सुप्रीम कोर्ट से ही है। पिछले दिनों वक़्फ़ कानून के कुछ प्रावधानों पर सबसे बड़ी अदालत ने जिस तरह से सरकार से सख़्ती से कुछ सवाल पूछे उससे यह आशा एक बार फिर मज़बूत हुयी है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विध्ेायकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों संसद में दावा किया था कि जो भी कानून सरकार बनायेगी उसको सबको मानना ही होगा। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दख़ल नहीं देगा। हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा। इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की। इतना ही नहीं अपने पहले के विवादित बयान पर तमाम हंगामा विरोध और आलोचना होने के बाद भी वाइस प्रेसिडेंट धनकड़ ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई है। सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधनमंत्री करते हैं। यही वजह है कि खुद राष्ट्रपति ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह सच है कि संविधान में ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गयी है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये।
      उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। नियम यह है कि अगर सरकार दोबारा उन कानूनों को गवर्नर के पास फिर से पास करने के लिये बिना बदलाव किये भेज देती है तो राज्यपाल को उनको पास करना ही होगा लेकिन यहां गवर्नर केंद्र के इशारे पर उनको फिर से दबाकर बैठ गये। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है। ऐसे मंे सुप्रीम कोर्ट ने मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार के उन दस कानूनों को बिना गवर्नर और प्रेसीडेंट के हस्ताक्षर के ही पास घोषित करके आगे के लिये ऐसे मामलों में दोनों के लिये कानून पास करने या फिर से विचार के लिये वापस लौटाने के लिये तीन महीने का समय निर्धारित करके सराहनीय काम किया है। यह एक तरह से लोकतंत्र संविधान और चुनी हुयी सरकार के अधिकार की रक्षा का आदेश माना जाना चाहिये। लेकिन धनकड़ साहब मोदी सरकार का अंध समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बोल रहे हैं।
       उनको लगता है जिस तरह से वे बंगाल का गवर्नर रहते हुए ममता सरकार को नाको चने चबवाकर इनाम के तौर पर उपराष्ट्रपति बन गये वैसे ही शायद अब मोदी सरकार को खुश करके राष्ट्रपति भी बन सकते हैं। हम यह दावा नहीं कर सकते कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। हम यह भी नहीं कह रहे कि सुप्रीम कोर्ट के 12 मई के बाद नये बनने वाले चीफ जस्टिस सबसे बड़ी अदालत के पुराने फैसलों पर टिके ही रहेंगे या सरकार द्वारा फिर से विचार करने की अपील पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिये गये निर्णय की तरह पीछे हट जायेंगे? यह बात किसी से छिपी नहीं रह गयी है कि विपक्ष के आरोप के अनुसार वर्तमान सरकार का पूरा विश्वास संविधान कानून के राज और निष्पक्षता में नहीं है। संघ परिवार पर सेकुलर दल यहां तक आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार लोकतंत्र समानता धर्मनिर्पेक्षता जनपक्षधरता समाजवाद निष्पक्षता पारदर्शिता और स्वायत संस्थाओं की स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करती है। यही वजह है कि वह सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसलों से तिलमिला रही है। अमित शाह हों रिजिजू हों धनकड़ हों या दुबे और शर्मा ये सब संघ परिवार के एजेंडे के लिये किसी सीमा तक भी जा सकते हैं। सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ही आज लोकतंत्र संविधान और समानता को बचाने का प्रयास कर रहा है जबकि मोदी सरकार उसको भी मीडिया पुलिस सीबीआई ईडी और चुनाव आयोग जैसी अन्य संस्थाओं की तरह अपने दबाव में लेकर अपना मनमाना जनविरोधी और संविधान विरोधी एजेंडा किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है, जिससे आशंका यही है कि वह एक दिन सफल हो सकती है। शायर ने कहा है कि - तारीख़ के औराक़ में जो लोग बड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं जो लाशों पर खड़े हैं।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 17 April 2025

मुर्शिदाबाद हिंसा

मुर्शिदाबाद हिंसा है अस्वीकार, 
कट्टर मुसलमान, ममता ज़िम्मेदार?
0 केंद्र सरकार के पक्षपातपूर्ण वक़्फ़ कानून के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करना तो समझ में आता है लेकिन जब बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने साफ कह दिया था कि वह बंगाल में नये वक़्फ़ कानून को लागू नहीं करेंगी तो वहां इस कानून के खिलाफ़ शुरू हुए आंदोलन का हिंसक हो जाना समझ से बाहर है। खासतौर पर मुस्लिम बहुल ज़िले मुर्शिदाबाद में इतनी अधिक हिंसा होना कि वहां तीन गै़र मुस्लिमों का मारा जाना और सैंकड़ों गै़र मुस्लिमों का जान बचाने को पड़ौसी ज़िले मालदा में भागकर शरण लेना अफसोसनाक शर्मनाक और दर्दनाक है। हालांकि जांच के बाद ही यह पता लगेगा कि इतनी हिंसा के पीछे किसकी और क्या साज़िश थी लेकिन ममता और कट्टर मुसलमान अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले का इतिहास दिलचस्प है। इस ज़िले को मुस्लिम बहुल होने के कारण आज़ादी के समय पाकिस्तान का हिस्सा माना गया था। लेकिन बाद में जब हिंदुस्तान पाकिस्तान की सीमा तय हुयी तो इसको वापस भारत का हिस्सा बना दिया गया। इसके बावजूद आज तक इस जनपद में कभी भी भारत विरोधी या हिंदू मुस्लिम विवाद सामने नहीं आया। मुर्शिदाबाद बंगाल के उन तीन ज़िलों में शामिल है जिनमें मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है। सबको पता है कि बंगाल के बाकी 20 जनपद ही नहीं बल्कि देश के एक राज्य कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी राज्यों और उंगलियों पर गिनने लायक क्षेत्रों को अपवाद मानें तो लगभग सभी ज़िलों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। उनको कई जगह कभी कभी तनाव या दंगा होने पर अल्पसंख्यक होने के कारण पक्षपात अन्याय और अत्याचार का सामना भी करना पड़ता है। ऐसे में मुर्शिदाबाद सहित जिन चंद ज़िलों में वे बहुसंख्यक हैं उनको वहां अल्पसंख्यक गैर मुस्लिमों के साथ प्यार मुहब्बत अमन चैन और भाईचारे से रहकर एक मिसाल पेश करनी चाहिये। तभी वे हिंदू भाइयों से यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे भी उनके साथ अन्य राज्यों और ज़िलों में ऐसे ही आपसी सद्भाव से रहें। यह माना जा सकता है कि किसी भी समुदाय या कौम में सब लोग हिंसक हमलावर या दंगाई नहीं होते लेकिन यह भी सच है कि अगर किसी भी धर्म के बहुसंख्यक लोग चाहें तो अपने ही समाज के चंद मुट्ठीभर शरारती लड़ाकू और दंगाई लोगों को लगाम लगाकर रख सकते हैं। कभी कभी किसी समाज के अधिकांश लोग जब किसी विवादित तनावपूर्ण और हिंसक मुद्दे पर चुप्पी साधकर अपने घर में बैठ जाते हैं तो ऐसे में दंगाई तत्वों के हौंसले बुलंद हो जाते हैं। साथ ही जब सरकारें किसी वर्ग विशेष धर्म विशेष जाति विशेष को अपना वोट बैंक मानकर उनको खुलकर अपनी मनमानी करने का मौका देती हैं तो उन लोगों के पर निकल आते हैं।
      इस मामले में पक्ष विपक्ष सभी दलों की सरकारों को समय समय पर परखा गया है तो वे संविधान कानून और अपनी निष्पक्षता की शपथ पर पूरी तरह से खरी नहीं उतरती हैं। भाजपा सरकारें तो ऐसे आरोपों को लेकर इस मामले में सबसे आगे हैं। यहां बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कोई बहाना कोई राजनीतिक आरोप और कोई तर्क उनका बचाव नहीं कर पा रहा है कि राज्य की मुखिया होने के कारण यह उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वे मुर्शिदाबाद सहित उन क्षेत्रों की समुचित निगरानी राज्य के सभी नागरिकों की रक्षा और अपना संवैधानिक उत्तरदायित्व पूरा करती जो वे नहीं कर पायीं हैं। उनकी खुफिया एजेंसी पुलिस और पूरा सरकारी अमला इस मामले में नाकाम रहा है कि वे इतनी बड़ी हिंसक घटना आंदोलन और उनके अनुसार साज़िश को होने से पहले न तो पता लगा सकीं और न ही रोक सकीं। यह बात अपनी जगह ठीक हो सकती है कि जिन ज़िलों में अधिक हिंसा हुयी है वहां मालदा सहित कांग्रेस का बहुत अधिक असर है। यह तथ्य भी सही हो सकता है कि प्राथमिक जानकारी यह मिल रही है कि अधिकांश दंगाई मूल रूप से बंगाल के निवासी नहीं थे बल्कि पड़ौसी देश बंग्लादेश से अवैध रूप से सीमा पार करके आये थे। ऐसे में यह भी सवाल उठना स्वाभाविक है कि हमारे बाॅर्डर पर हमारी बाॅर्डर सिक्योर्टी फोर्स क्या कर रही थी? सीएम ममता के इस गंभीर आरोप की भी जांच होनी चाहिये कि केंद्र की भाजपा सरकार ने जानबूझकर पड़ौसी देश से घुसपैठियों को दंगा करने के लिये मुर्शिदाबाद में आने दिया? उधर भाजपा का दावा है कि ममता ने उन दंगाइयों को बंगाल में आने का रास्ता खुद ही दिया है?
      कुछ ऐसे वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं जिनमें कुछ उग्र कट्टर मुस्लिम यह कहते नज़र आ रहे हैं कि हम ममता के नहीं ममता हमारे रहमो करम यानी वोट पर निर्भर है लेकिन कोई बंगाली मुस्लिम अपने पूरे होश ओ हवास में ऐसी बेतुकी भड़काने वाली और बेवकूफी की बात कहेगा यह शक पैदा करता है। उनको यह तो पता होगा ही ऐसा कहने से न केवल वे खुद और ममता कमज़ोर होंगी बल्कि उन दोनों की विरोधी माने जाने वाली भाजपा मज़बूत होकर तृणूमूल कांग्रस का हिंदू वोट और अधिक अपनी खींचने में सफल होगी। बंगाल में 2026 में विधानसभा चुनाव होना है। वहां इस बार भाजपा दिल्ली की तरह किसी कीमत पर साम दाम दंड भेद से सत्ता ममता से छीनना चाहती है। यह भी सबको पता है कि जहां जहां दंगा होता है वहां वहां भाजपा मज़बूत होती जाती है और एक दिन सरकार बना लेती है। हालांकि वक्फ कानून गलत है उस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रूख अपनाया है लेकिन उस कानून के खिलाफ विरोध करते हुए कानून किसी को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिये। साथ ही ममता बनर्जी के लिये एक शेर याद आ रहा है- न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफ़िला क्यों लुटा, मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 10 April 2025

जज भी हैं इंसान

जज भी ग़ल्ती करेंगे हैं इंसान, 
सरकार में बैठे नेता हैं भगवान?
0 दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से भारी नक़दी मिलने के मामले की जांच जारी है। यह बात सही है कि अदालतों पर जनता का विश्वास बनाये रखने के लिये इस मामले की निष्पक्ष और शीघ्र जांच पूरी की जानी चाहिये। यह भी सही है कि अगर जांच के बाद जज साहब कसूरवार पाये जाते हैं तो उनके खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही भी होनी चाहिये। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान हमें यह भी याद रखना चाहिये कि जिस तरह से अचानक सरकार से जजों की नियुक्ति के लिये एक बार फिर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग व्यवस्था लागू करने की मांग तेज़ हो गयी है, उससे न्यायालयों में पारदर्शिता निष्पक्षता और ईमानदारी नहीं बढ़ेगी बल्कि सरकार का हिंदुत्व एजेंडा आगे बढ़ाने के लिये मसले का रूख़ बदला जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
   जस्टिस वर्मा का दावा है कि स्टोर रूम में मिली नक़दी की उनको जानकारी नहीं थी। उनका यह भी कहना है कि उनके कर्मचारियों की स्टोर तक पहंुच थी और स्टोर खुला था। जस्टिस वर्मा मात्र इतना कहने से ही बेकसूर माने जा सकते हैं क्योंकि जज लोया की संदिग्ध मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने जो फैसला सुनाया था उसमें चार जजों जज श्रीकांत कुलकर्णी एसएम मोदक वी सी वार्डे और रूपेश राठी के बयान के आधार पर ही बिना किसी ठोस सबूत और गवाह के सभी आरोपों को दरकिनार कर दिया गया था। सीजेआई का मानना था कि जज लोया के साथ अंतिम समय मंे जो चार जज मौजूद थे, उनका कहना है कि जज लोया की मौत वास्तव में दिल का दौरा पड़ने से हुयी थी। इसके बाद इस मामले को बंद कर दिया गया। इस मामले को नज़ीर मानें तो जस्टिस वर्मा का मामला भी आगे चलकर उनके बयान के आधार पर खत्म किया जा सकता है। जस्टिस वर्मा का यह भी दावा है कि उनको फंसाया जा रहा है। लेकिन सवाल और भी हैं। अगर जस्टिस वर्मा के घर आग बुझाने गयी टीम को वहां नकदी मिली तो दिल्ली पुलिस सीबीआई और ईडी ने वहां तत्काल पहुंचकर उनके स्टाफ को हिरासत में क्यों नहीं लिया? आधे जले नोट व कमरा सील क्यों नहीं किये गये? जब जले नोट वीडियो में देखे जा सकते हैं? जब जले नोट की गड्डिया बाहर सड़क पर कूडे़े में पड़ी बाद में बरामद की गयीं तो आग बुझाने वाली फायर ब्रिगेड टीम से पूछताछ क्यों नहीं की गयी?
      यह भी जांच होनी चाहिये कि वो कौन सी शक्ति थी जिसने फायर ब्रिगेड के इंचार्ज से यह बयान दिलाया कि जज के घर से कोई नोट बरामद नहीं हुए जबकि उनके ही स्टाफ के द्वारा बनाई गयी अधजले नोटों की वीडियो तब तक सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट और सरकार के सामने मजबूरी थी कि वे चाहकर इस मामले को न तो दबा सकते थे और न ही लीपापोती कर दफन कर सकते थे। माना न्यायमूर्ति वर्मा को अभियोजन से कानूनन छूट प्राप्त है लेकिन क्या उनके स्टाफ को भी ऐसी ही विशेष छूट मिली हुयी है? आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक और दलित से लेकर अल्पसंख्यक तक अगर ऐसा ही मामला होता तो गोदी मीडिया ने अब तक आसमान सर पर उठा लिया होता लेकिन एक खास एजेंडे पर चलने वाला दलाल मीडिया अब कोर्ट और सरकार के डर से चुप्पी साध गया है। वैसे भी इस दौर में मीडिया के साथ ही पुलिस चुनाव आयोग सीबीआई ईडी और ज्यूडशरी सहित तमाम स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्ता और स्वतंत्रता सवालों के घेरे में आ चुकी है।
    संविधान में चाहे जो भी लिखा हो लेकिन हम देख रहे हैं कानून सबके लिये एक समान नहीं है। यहां तक कि आम जनता में भी अमीर और गरीब के लिये कानून अलग अलग तरीके से काम करता देखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जाने माने वकीलों की फीस इतनी अधिक है कि उसको हर भारतीय सहन नहीं कर सकता। यही हालत बड़े निजी अस्पतालों और कालेजों की हो चुकी है। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस पर कोर्ट की ही एक महिला कर्मचारी ने यौन अपराध के गंभीर आरोप लगाये थे। उस महिला हो तत्काल उसके पद से निलंबित कर दिया गया मानो वह जांच को अपने पद पर रहते प्रभावित कर सकती थी और जो सबसे बड़े जज ऐसा कर सकते थे वे अपने पद पर बने रहे क्योंकि उनको कौन हटाता? उस मामले की सुनवाई में आश्चर्यजनक रूप से आरोपी चीफ जस्टिस खुद उस बैंच में शामिल थे जो उनके मामले की सुनवाई कर रही थी। बाद में वे अपनी ही बैंच के आदेश से ससम्मान निर्दोष पाये गये। इसके बाद वह महिला भी अपने पद पर बहाल हो गयी। सवाल यह है कि अगर आरोप झूठे थे तो उस महिला का सज़ा क्यों नहीं दी गयी? फिर मंदिर मस्जिद विवाद का एतिहासिक फैसला आस्था के आधार पर देने के बाद वह चीफ जस्टिस और बैंच के अन्य जज रिटायर होकर सरकार से सम्मानजनक अन्य पद पाकर इनाम पाते पाये गये।
     यह ठीक है कि अदालतों में जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिये काॅलेजियम सिस्टम को लेकर अकसर सवाल उठते हैं। लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान सरकार जितना पक्षपात अन्याय और अत्याचार कर रही वह काॅलेजियम की जगह नेशनल ज्यूडशरी कमीशन लागू करने के बाद अपनी पसंद के जज ही नियुक्त करेगी और सरकार की मंशा के हिसाब से काम न करने वाले जजों का रातो रात ट्रांस्फर कर दिया करेगी। जो पहले के काॅलेजियम से भी खराब सिस्टम होगा। साथ ही यह भी माना जा सकता है कि जिस तरह से हमारे नेता अधिकारी और समाज के अन्य वर्ग करप्ट बेईमान और पक्षपाती हैं उसी तरह से जज भी हो सकते हैं लेकिन यह भी अपनेआप में अन्याय से कम नहीं है कि केवल जजों से ही ईमानदारी की आशा की जाये। अगर हम सरकार व्यवस्था और सिस्टम को सुधारना चाहते हैं तो पूरे समाज को सही करना होगा। किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि- क़ातिल की यह दलील भी मुंसिफ ने मान ली, मक़तूल खुद गिरा था खंजर की नोक पर।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 27 March 2025

मोदी की सौगात

मुस्लिम स्वीकारेंगे मोदी की सौग़ात,
बशर्ते ख़त्म तो हो उनसे पक्षपात?
0 32 लाख पसमांदा गरीब मुसलमानों को ईद पर मोदी की सौग़ात किट दी जा रही है। इस किट में मेवा सवईं कपड़े और भी बहुत कुछ होगा। इसके बाद ऐसी ही किट अन्य अल्पसंख्यकों के पर्व बैसाखी और ईस्टर पर बांटी जायेगी। विपक्ष का आरोप है कि यह भाजपा की सियासी चाल है। यह भी सही है कि अगर ऐसा ही कोई तोहफ़ा सेकुलर दलों की तरफ़ से मुसलमानों को दिया जाता तो भाजपा तुष्टिकरण का आरोप लगाकर आसमान सर पर उठा लेती। लेकिन गोदी मीडिया अब चुप है। हमारा मानना है कि मुसलमानों को खुल दिल से मोदी का ईद का उपहार क़बूल करना चाहिये और आगे से भाजपा सरकारों को मुसलमानों से पक्षपात भी बंद करना चाहिये?    
               -इक़बाल हिंदुस्तानी
      एनडीए सहयोगी टीडीपी और जदयू के विरोध के चलते फिलहाल वक्फ़ बिल टल गया है। इन दोनों दलों के चार फीसदी से अधिक वोटर मुसलमान हैं। वक़्फ़ बिल पर इन दोनों की चुप्पी पर हाल ही में मुसलमान उलेमा ने इनकी अफ़तार पार्टियों का बाॅयकाट करने का ऐलान किया था। अगर चुनाव में भी इनका नुकसान हुआ तो ये मोदी सरकार को अपने समर्थन पर आंखे दिखा सकते हैं। विदेशों से लगातार मोदी सरकार को लोकतंत्र संविधान और धर्मनिर्पेक्षता से समझौता करने को लेकर घेरा जा रहा है। हाल ही में अमेरिकी इंटरनेशनल रिलीजियस कमीशन ने मोदी सरकार पर अल्पसंख्यकों से पक्षपात के आरोप लगाये हैं। अमेरिका से टैरिफ वार पर अभी तक कोई राहत ना मिलने से यह तय माना जा रहा है कि भारत को विश्व स्तर पर व्यापार में भारी घाटा हो सकता है? इधर विदेशी निवेशकों के भारत के शेयर बाज़ार में लगातार भारी बिकवाली से उतार चढ़ाव बना हुआ है। हालांकि विगत कुछ दिन से शेयर मार्केट कुछ संभला है। लेकिन इसमें घरेलू कंपनियों का निवेश माना जा रहा है। साथ ही डाॅलर का रेट भी बढ़ता जा रहा है। जीडीपी की दर भी तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद कम हो रही है।
     महंगाई और बेरोज़गार अपने चरम पर पहुंच चुकी है, भले ही सरकार आंकड़ों की जादूगरी से इसको कितना छिपाये और झुठलाये। इन हालात में यह माना जा रहा है कि अरब मुल्कों से निवेश लाने और भारत के कुछ चहेते काॅरपोरेट का कारोबार अमेरिका चीन यूरूप में सिमटने से मुस्लिम देशों में बढ़ाने को भी ऐसे प्रतीकात्मक काम किये जाने की ज़रूरत है जिससे भाजपा सरकार की छवि मुस्लिम विरोधी नज़र न आये। साथ ही भाजपा की हिंदू तुष्टिकरण की सियासत अब चरम पर पहुंच चुकी है। हिंदुत्व की राजनीति का इससे और आगे जाना खतरनाक माना जाता है। ऐसे में औरंगजे़ब पर हाल ही में नागपुर में भड़की हिंसा पर आरएसएस ने यू टर्न लेते हुए दो टूक कहा है कि अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ नहीं होगा। बिहार में चुनाव जीतने को सीएम नीतीश कुमार उर्दू पढ़ने पढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं लेकिन साझा सरकार में सहयोगी भाजपा चुप है। 
       ऐसे ही कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा मुसलमानों को छोटे सरकारी ठेकों में मात्र चार प्रतिशत आरक्षण का मुखर विरोध करने वाली भाजपा आंध्रा में अपने सहयोगी टीडीपी के मुसलमानों को दिये जा रहे चार प्रतिशत रिज़र्वेशन पर चुप्पी साधे है। इसके साथ ही भाजपा के ही कई राज्यों की सरकारें मुसलमानों के खिलाफ लगातार एकतरफ़ा कानून पक्षपातपूर्ण बुल्डोज़र कार्यवाही और उनके सीएम ज़हरीले बयान देने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। केंद्र के भी कुछ मंत्री चंद बड़े भाजपा नेता और उसके सहयोगी संगठन व मुट्ठीभर कथित हिंदू कट्टर धार्मिक नेता लगातार मुसलमानों के खिलाफ नफ़रती बयान देकर सियासी माहौल गर्म करते रहते हैं जिसका राजनीतिक लाभ चुनाव में भाजपा को मिलता है। पिछले दिनों चुनाव आयोग पर विपक्ष ने भाजपा के साथ मिलीभगत कर मतदाता सूचियों में गड़बड़ी करने के गंभीर आरोप भी लगाये थे जिससे लगता है कि अब तक जो हुआ सो हुआ लेकिन आगे विपक्ष के जाग जाने और सांठगांठ के आरोपों से आयोग सचेत हो गया है। अब भाजपा के सामने आगे चुनाव जीतने के लिये यह ज़रूरी होता जा रहा है कि वह सबसे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग मुसलमान को किसी तरह से पार्टी के करीब लाये। यह भी सच है कि अब तक मोदी सरकार द्वारा चलाई जा रही जनकल्याण की सभी योजनाओं का लाभ मुसलमानों को भी मिल रहा है। 
      भाजपा ने मुसलमानों को कई तरह से डराकर भी देख लिया जिससे वे पार्टी के लिये वोट करें लेकिन मुसलमान भाजपा विरोध पर नुकसान उठाकर भी डटा है। अब लालच और उपहार देकर मुसलमानों से दोस्ती का रास्ता ही भाजपा के लिये बाकी बचा है। शायद यही वजह है कि ईद पर मोदी की सौग़ात के तौर पर भाजपा ने यह पहल की है। हमारा मानना है कि मुसलमानों को इस पहल का स्वागत करना चाहिये। साथ ही संघ परिवार भाजपा और मोदी सरकार से बातचीत की शुरूआत कर अपनी शिकायतों मांगों और सुझावों से अवगत कराना चाहिये जिससे दस साल से चली आ रही यह परस्पर विरोध दुश्मनी और टकराव की राजनीति ख़त्म हो सके और आने वाले समय में भाजपा और मुसलमान देशहित में मिलजुलकर काम कर सकें, लेकिन अगर मोदी की सौग़ात का मतलब केवल एक प्रतीकात्मक दिखावा कर राजनीतिक मकसद पूरा करना है और भाजपा नेता उसकी सरकारें व उसके सीएम पहले की तरह मुस्लिम विरोध पर डटे रहते हैं तो इतना भोला मासूम और नादान मुसलमान भी नहीं है कि वह एक किट से उनके सियासी सांचे में बिना सोचे समझे और हकीकत जाने फिट हो जाये। शायर ने क्या खूब कहा है- उसके नज़दीक ग़म ए तर्क ए वफ़ा कुछ भी नहीं, मुतमइन ऐसा है वो जैसे हुआ कुछ भी नहीं।।  
नोट- लेखक नवभारट टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Sunday, 23 March 2025

परिसीमन का विरोध

परिसीमन पर दक्षिण की तक़रार,
आधा सच बोल रही है सरकार?
0 संसद में दक्षिण के पांच राज्यों तमिलनाडू आन्ध्रा कर्नाटक केरल और तेलंगाना की 24 प्रतिशत यानी कुल 124 सीट हैं जबकि नई जनगणना के हिसाब से परिसीमन होने पर साउथ के एमपी 103 रह जायेंगे। उधर उत्तर के राज्यों यूपी बिहार राजस्थान एवं मध्यप्रदेश की सीट 32 प्रतिशत यानी 174 हैं जो नये परिसीमन के बाद बढ़कर 205 हो जायेंगी। अगर लोकसभा के नये भवन की क्षमता 888 के हिसाब से बढ़ाई जाती है तो नाॅर्थ की सीट 39 प्रतिशत यानी 324 और साउथ की 19 प्रतिशत यानी 164 ही हो पायेेंगी। केंद्र सरकार साउथ के इस दावे को झुठला रही है लेकिन उसका यह दावा आधा ही सच है क्योंकि साउथ की सीट अगर घटी भी नहीं तो नाॅर्थ की काफी अधिक बढ़ जायेंगी।      
                 -इक़बाल हिंदुस्तानी
     तमिलनाडू के सीएम स्टालिन ने पिछले दिनों दक्षिण के राज्यों की एक मीटिंग की थी। बैठक में एक प्रस्ताव पास कर केंद्र सरकार से मांग की गयी कि वह नई जनगणना के बाद 2026 में संसदीय सीटों के नये परिसीमन को 25 साल के लिये आगे टाल दे। उनका कहना है कि दक्षिण के राज्यों ने देशहित में परिवार नियोजन को अपनाया है। जिससे साउथ के पांचों राज्यों की आबादी तेज़ी से कम हुयी है। अगर नई जनगणना के बाद बढ़ी आबादी के हिसाब से संसदीय सीटों का परिसीमन होता है तो इससे दक्षिण की सीटें घट जायेंगी। इस पर गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि तमिलनाडू या किसी भी साउथ स्टेट की एक भी सीट कम नहीं होगी। लेकिन यहां वह आधा सच छिपा रहे हैं कि अगर उत्तर के राज्यों के एम पी दक्षिण के सांसदों से संख्या में काफी अधिक बढ़ जाते हैं तो दक्षिण के संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी तो अवश्य आयेगी। दअरसल संविधान का अनुच्छेद 82 कहता है कि हर नई जनगणना के बाद संसदीय और आर्टिकल 170 के अनुसार राज्यों की विधानसभा सीटों का नया परिसीमन होगा। यह परंपरा 1970 की जनगणना के बाद तक जारी भी रही। आखिरी परिसीमन 1976 में हुआ था। लेकिन उस समय भी दक्षिण के राज्यों के विरोध के बाद नया परिसीमन पहले 2001 और फिर बाद में 2026 तक के लिये स्थगित कर दिया था। 
     2001 में संसदीय और विधानसभा सीटों की संख्या तो नहीं बढ़ाई गयी लेकिन वर्तमान सीटों की आबादी को कुछ संतुलित करने के लिये क्षेत्रों का नया परिसीमन कर कुछ मतदाता इधर से उधर अवश्य किये गये थे। साथ ही दलित सीट 79 से बढ़ाकर 84 और आदिवासी सीट 41 से बढ़ाकर 47 की गयी थीं। सैक्शन 55 राज्यों का आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व राष्ट्रपति चुनाव के लिये करने का आदेश देता है। सैक्शन 81 बढ़ी हुयी जनसंख्या के हिसाब से एक वोट एक पाॅवर के अनुसार संसद की सीटें बढ़ाने का निर्देश देता है। लेकिन 1976 में 42वां संशोधन कर दक्षिण के राज्यों के साथ परिवार नियोजन के कारण आबादी घटाने के लिये अन्याय होने से बचाने के लिये लोकसभा की सीट बढ़ाने का विचार त्याग दिया गया था। 1971 में बिहार और तमिलनाडू की आबादी और सीट लगभग बराबर थीं। लेकिन आज बिहार की आबादी बहुत बढ़ चुकी है। अगर बढ़ी हुयी आबादी के हिसाब से सीट बनी तो बिहार की सीट तमिलनाडू से बहुत अधिक बढ़ जायेंगी। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो उत्तर के राज्यों की सीट नई आबादी के हिसाब से 43 प्रतिशत से 50 प्रतिशत के आसपास पहुंच जायेगी। जबकि दक्षिण की सीट कुल संसदीय सीट की 24 प्रतिशत से घटकर 19 प्रतिशत रह सकती हैं। यही वह विवाद है जिस पर उत्तर बनाम दक्षिण की तकरार में नई जनगणना और नया परिसीमन शुरू होने से पहले ही फंसने के आसार लग रहे हैं। 
      यही वजह है कि आंध््राा के सीएम नायडू से लेकर तमिल सीएम स्टालिन तक अपने राज्यों के लोगों से परिवार नियोजन त्याग कर अधिक बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं। दक्षिण के राज्यों को भाजपा की नीयत पर भी शक है। उनको लगता है कि भाजपा कर्नाटक को छोड़कर साउथ के किसी और राज्य में अभी तक दस साल के केंद्रीय शासन के बावजूद कोई खास पकड़ नहीं बना सकी है, लेकिन भाजपा का उत्तर के राज्यों में जिस तरह मज़बूत होल्ड है उससे वह उत्तर के राज्यों की सीट अधिक बढ़ने से राजनीतिक लाभ उठाकर आसानी से आगे बहुमत इन नार्थ के स्टेट के बल पर हासिल कर लेगी जिससे साउथ के राज्य उपेक्षा और पक्षपात का शिकार हो सकते हैं। संघ परिवार भाजपा और मोदी सरकार अब तक जिस मनमाने तानाशाही और संविधान विरोधी तरीके से कम करती रही है उसे देखते हुए साउथ के राज्यों की इस आशंका को बल मिल रहा है। भाजपा का काम करने का तरीका वैसे भी केंद्रीयकरण वाला है जिससे वह एक धर्म एक भाषा एक राष्ट्र और एक चुनाव की बात अकसर करती रहती है। गैर भाजपा और विशेष रूप से दक्षिण के राज्य उस पर हिंदी थोपने नई शिक्षा नीति जबरन लागू करने और वित्तीय पक्षपात का आरोप लगाते रहे हैं। 
       दक्षिण के राज्यों का यह भी कहना रहा है कि एक तरफ वे केंद्रीय कर में साउथ के राज्यों से कहीं अधिक योगदान करते हैं, बदले में उनको उत्तर के मुकाबले कम धन विकास के लिये मिल रहा है। उधर उत्तर के राज्य इस बात से चिंतित हैं कि उनको आबादी के हिसाब से सीटें ना मिलने की वजह से वे अपने बड़े बड़े चुनाव क्षेत्रों के सभी मतदाताओं तक चुनाव लड़ने से लेकर बाद में पांच साल तक पहुंच नहीं बना पाते हैं। मिसाल के तौर पर केरल का एक एमपी जहां 18 लाख तो राजस्थान का एक सांसद 33 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। नार्थ के स्टेट यह भी तर्क सही देते हैं कि अब तो देश का टोटल फर्टिलिटी रेट 1.9 आ गया है जबकि वर्तमान आबादी जस की तस बनाये रखने के लिये यह 2.1 होना चाहिये। केवल यूपी बिहार झारखंड मणिपुर मेघालय का टीएफआर अभी तक 2.1 से अधिक बना हुआ है। इस सब कवायद के पीछे संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का मामला भी बताया जाता है जिससे कुल सीट 543 से बढ़कर 888 हो जाने पर परंपरागत पुरूष सीट कम ना हों लेकिन यहां मोदी सरकार भाजपा व आरएसएस को यह भी याद रखना चाहिये जिस तरह वे आबादी बढ़ाने को लेकर एक वर्ग विशेष को टारगेट करते हैं आज वे खुद उत्तर दक्षिण के चक्कर में परिवार नियोजन के सियासी जाल में फंस गये हैं। अल्लामा इक़बाल ने कहा है- जम्हूरियत इक तर्ज़ ए अमल है जिसमें, बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 20 March 2025

ट्रंप की मनमानी

जारी रही अगर ट्रंप की मनमानी,
ख़राब होगी अमेरिका की कहानी?
0 अमेरिका दुनिया का सबसे ताक़तवर असरदार और अमीर देश है। इसलिये उसका राष्ट्रपति होना ट्रंप के लिये बहुत बड़ी बात है, लेकिन यह अपनेआप में दुधारी तलवार भी है। वहां राष्ट्रपतियों को कुछ खास अधिकार मिले हुए हैं जिनसे वे समय समय पर अपने वर्चस्व का अहसास कराते रहे हैं। राष्ट्रपति बुश ने ईराक पर तो बराक ओबामा ने बिना अमेरिकी कांग्रेस को विश्वास में लिये लीबिया में जंग छेड़ दी थी। आज ट्रंप कभी कनाडा को अपने देश का 51 वां राज्य बनाने व ग्रीनलैंड को ज़बरदस्ती अमेरिका में शामिल करने का दावा करते हैं तो कभी पनामा नहर व ग़ाज़ा पर अधिकार जताते हैं। साथ ही टैरिफ़ वार की धमकी पूरी दुनिया को देकर वे ब्लैकमेल कर ही रहे है।   
                -इक़बाल हिंदुस्तानी
   अमेरिका अब तक अपनी शक्ति का प्रयोग स्वतंत्रता, वैश्विक शांति और लोकतांत्रिक देशों की रक्षा करने में अधिक लगाने का दावा करता रहा है। वह दुनिया के कई गरीब देशों में अनाज दवाई और अन्य तरह से मानवीय सहायता करने का भी काम अपनी विश्व दारोगा की छवि बनाये रखने के लिये करता रहा है। लेकिन अब ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के दो माह बाद ही अमेरिका ने वल्र्ड हैल्थ आॅगर्नाइजे़शन से हटने के साथ ही यूनाइटेड नेशन हयूमन राइट कमीशन और यूएन रिलीफ़ एंड वर्क एजेंसी को आर्थिक सहायता देने से हाथ खींचने के इरादे ज़ाहिर कर दिये हैं। इतना ही नहीं ट्रंप ने यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फाॅर इंटरनेशनल डवलपमेंट को भी बंद कर दिया है। इससे पूरे विश्व में अमेरिकी सहयोग से होने वाले तमाम मानवीय सहायता के काम रूक गये हैं। हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं जिससे आज नहीं तो कल ट्रंप का यूक्रेन यूरूपीय यूनियन और नाटो देशों को छोड़ना भी तय माना जा रहा है। इतना ही विनाशकाल विपरीत बुध्दि की कहावत को लागू करते हुए वे अमेरिकी नागरिकों के लिये भी मुसीबत बनते जा रहे हैं। 
     इसकी वजह यह है कि वे खुद एक उद्योगपति रहे हैं जिनको किसी भी कीमत पर लाभ कमाने के अलावा और कुछ नज़र नहीं आता है। उन्होंने अपना चुनाव लड़ाने जिताने और उसमें पैसा पानी की तरह बहाने के लिये अपने मित्र और दुनिया के सबसे अमीर काॅरपोरेटर एलन मस्क को सरकारी खर्च घटाने के लिये कर्मचारियों की छंटनी को खुला हाथ दे दिया है जिससे वे हज़ारों अमेरिकीयों की नौकरी छीनने के बाद अब वहां का शिक्षा विभाग बंद करने की योजना बना रहे हैं। इतना शायद कम था कि ट्रंप ने अपने परंपरागत दोस्त यूक्रेन को अपना दुश्मन बना लिया है। यूक्रेन के मुखिया जेलेंस्की को अपने देश बुलाकर जिस बेशर्मी से ट्रंप ने ज़लील कर व्हाइट हाउस से निकाला है उससे अमेरिकी छवि पहले ही काफी ख़राब हो चुकी है। ट्रंप का दावा है कि उन्होंने पूरी ज़िंदगी सौदे ही किये हैं। उनको यह कौन बताये कि बिज़नेस में सौदे करना और देश के लिये डील करना दोनों बिल्कुल अलग अलग बात हैं। 
     आज वे जिस लहजे में अपने परंपरागत प्रतिस्पर्धी चीन को धमका रहे हैं ठीक उसी तरह अपने अब तक दोस्त रहे भारत को भी टैरिफ को लेकर बार बार चेतावनी दे रहे हैं। चीन कनाडा और मैक्सिको ने तो ट्रंप को उनकी ही शैली में उतनी ही टैरिफ लगाने का जवाब दे भी दिया है लेकिन विश्व गुरू बनने का सपना देखने वाला भारत अभी तक उनके सामने नतमस्तक होता ही नज़र आ रहा है। हमारे पीएम मोदी की इतनी भी हिम्मत नहीं हुयी कि वह प्रवासी भारतीयों को बेड़ी और हथकड़ी लगाकर भारत न भेजने की ट्रंप से अपील ही कर दें। ट्रंप के इस तरह के मनमाने तानाशाह और अशिष्ट तरीके से काम करने से दुनिया चिंतित है कि आगे अमेरिका के इस रूख़ से क्या नतीजे निकलेंगे? यह ख़तरा भी मंडराने लगा है कि कहीं ट्रंप रूसी पुतिन और चीन के शी जिनपिंग मिलकर पूरी दुनिया को अपने हिसाब से हांकने को एक काॅकस ना बना लें जिससे तीसरे विश्व युध्द का ख़तरा सामने खड़ा हो सकता है। इन तीनों देशों के इरादे दुनिया के खनिज देशों पर अपना वैध अवैध कब्ज़ा जमाकर उनका आर्थिक शोषण करने और अपने हथियार व तकनीक अपनी शर्तों पर बेचकर उनको कंगाल बनाकर खुद मालामाल बनना है। अमेरिका पूरी दुनिया की जीडीपी में एक चैथाई से अधिक का योगदान करता है। एक दर्जन से अधिक देशों की सुरक्षा का उसने ठेका करार के तहत ले रखा है। 
    हथियारों का वह सबसे बड़ा सौदागर है और कुछ देश यह भी आरोप लगाते हैं कि अमेरिका दुनिया में कहीं ना कहीं जानबूझकर ऐसे हालता पैदा करता रहता है जिससे उसके हथियार बिकते रहें। वह हाल में भारत पर पुराने बेकार और महंगे एफ 35 लड़ाकू विमान खरीदने का भी नाजायज़ दबाव डाल चुका है। अमेरिका ने बड़ी चालाकी से पूरी दुनिया का कारोबार डाॅलर में करने को अनेक देशों को मजबूर कर रखा है। वह यूरो या किसी अन्य करेंसी में वैश्विक कारोबार करने पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की बार बार धमकी भी देता रहता है। ट्रंप को यह अहसास अभी नहीं है कि टैरिफ वार से उसके अपने देश में सामान इतना महंगा हो जायेगा कि खुद अमेरिकी उससे खफा हो जायेंगे। ऐसे ही जिन अवैध प्रवासियों को ट्रंप आज थोक में निकाल रहे हैं। उनके अमेरिका छोड़ने से बेशक कुछ रोज़गार वहां के स्थानीय निवासी अमेरिकी लोगों को मिल सकते हैं लेकिन वे बहुत महंगे और प्रतिभाहीन हो सकते हैं। साथ ही वे साइंस और रिसर्च पर भी सरकारी खर्च घटाने की सोच रखते हैं। इन सब विरोधाभासी आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण निर्णयों से अमेरिका को केवल लाभ ही नहीं उल्टा नुकसान भी हो सकता है इसका पता ट्रंप और अमेरिकीयों को अमेरिका की कहानी ख़राब होने पर कुछ साल बाद ही चल सकता है। ट्रंप के लिये किसी शायर ने क्या खूब कहा है- तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना, मुझे ज़मीं के मसायल पर बात करनी है।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Friday, 14 March 2025

औरंगज़ेब के बहाने...

औरंगजे़ब है अब नया बहाना, 
असली मुद्दों से है ध्यान हटाना?
0 पीएम मोदी के मुताबिक दिनेश विजयन की फ़िल्म ‘छावा’ छा गयी है। इससे पहले वे केरल स्टोरी और कश्मीर फ़ाइल की भी तारीफ़ कर चुके हैं। ज़ाहिर बात है ऐसी फ़िल्में जो संघ परिवार के एजेंडे को आगे बढ़ाती हैं वे पीएम को भी पसंद आयेंगी ही। लेकिन वे यह नहीं बतायेंगे कि हमारी जीडीपी दर क्यों घट रही है? वे इस पर भी चुप्पी साधे हैं कि हमारा शेयर मार्केट लगातार क्यों गिर रहा है? मोदी महंगाई व बेरोज़गारी पर भी म ओर ब बोलने को तैयार नहीं हैं। वे अमेरिका द्वारा प्रवासी भारतीयों को बेड़ी और हथकड़ी लगाकर भेजने पर भी मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं। वे जियो और एयरटेल के एलन मस्क के स्टार लिंक के साथ इंटरनेट क़रार पर देश के संवेदनशील डाटा शेयर करने के ख़तरे पर भी नहीं बोलते तो फिर औरंगज़ेब पर ही बोलेंगे।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      इतिहास गवाह है कि औरंगजे़ब एक कट्टर क्रूर और निर्दयी बादशाह था। मुगलकाल 1526 में बाबर से शुरू होकर अकबर जहांगीर से होता हुआ शाहजहां तक आता है। इसके बाद परंपरा के अनुसार शाहजहां के बड़े बेटे दाराश्किोह को राजा बनना था। लेकिन औरंगजे़ब बगावत कर दाराश्किोह को जंग में पहले हराता है, बंदी बनाता है और फिर उसको मारकर खुद बादशाह बन जाता है। वह अपने पिता शाहजहां को भी ज़िंदगीभर जेल में डाल देता है। वह अपने राज में कुछ मंदिर बनवाने के लिये ज़मीन दान देने जैसे अच्छे काम से लेकर कई ऐसे विवादित फैसले भी करता है जो उसको बड़ा कट्टरपंथी धर्मांध ज़ालिम और घोर साम्प्रदायिक व हिंदू विरोधी ठहराने के आरोप सही साबित करने के लिये कुछ इतिहासकार दावा करते हैं। साथ ही यह भी सच है कि कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम उसको बड़ा महान बताते हैं। जबकि देश के भाईचारे और सौहार्द के लिये ऐसा मानना बिल्कुल गलत है। लेकिन वह दौर ही ऐसा था। अशोक ने कलिंग की जंग के लिये कितना खून बहाया? उसने भी अपने भाइयों की हत्या की थी या नहीं? अंग्रेज़ों ने हमारा कितना नुकसान किया? कितना अन्याय अत्याचार किया? कितना लूटकर ले गये? आप उन मुद्दों पर बात क्यों नहीं करते? वे कौन थे जो देश को आज़ाद कराने के लिये लड़ रहे स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी करके अंग्रेज़ों का साथ दे रहे थे? वे कौन थे जिन्होंने राजा रजवाड़ों का साथ दिया? वे कौन थे जिन्होंने देश आज़ाद होने के 50 साल बाद तक अपने आॅफिस पर राष्ट्रीय झंडा नहीं फहराया? कहने का मतलब यह है कि इतिहास अच्छा या बुरा जो भी हो आप उसको मिटा नहीं सकते, बदल नहीं सकते और छिपा नहीं सकते। 
       आपने औरंगाबाद का नाम बदलकर शंभाजी नगर कर दिया। अब औरंगजे़ब की कब्र का नामो निशान भी मिटाना चाहते हैं तो मिटा दीजिये कौन रोक रहा है? लालकिला और ताजमहल भी आपके रहमो करम पर है जब चाहंे जो चाहें आप उनका कर सकते हैं? सवाल यह नहीं है कि औरंगजे़ब बुरा था या अच्छा था? यूपी के सीएम योगी जी तो अकबर को भी उसी केटेग्री में रखते हैं। जहां तक बहुसंख्यकों की भावनाओं का सवाल है तो देश की एकता भाईचारे और विकास व शांति के लिये उनका सम्मान किया जाना चाहिये। बाबरी मस्जिद राम मंदिर का विवाद खत्म करने को अल्पसंख्यकों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बिना गवाह सबूत और दस्तावेज़ों पर सवाल उठाये अमन चैन के लिये स्वीकार कर लिया था लेकिन अब प्लेस आॅफ वर्शिप एक्ट होने के बावजूद मथुरा कांशी और संभल के धार्मिक स्थलों पर विवाद शुरू हो गया है। 
        क्या अल्पसंख्यकांे की भावनाओं का सम्मान किये बिना शांति एकता और सौहार्द बना रह सकता है? अगर आप गिनने लगें तो गौरक्षा के नाम पर माॅब लिंचिंग, आज़म खां, डा. कफ़ील पत्रकार सद्दीक कप्पन, उमर खालिद, बिल्कीस बानो, फर्जी एनकाउंटर, हाफ एनकाउंटर, आरोपी के घर बुल्डोज़र, मस्जिदों मदरसों पर विवाद, एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म करने की मांग, अलीगढ़ का नाम हरिगढ़ का शिगूफा, एनआरसी, सीएए, एक खास वर्ग से आंदोलन में नुकसान पहुंची सम्पत्ति के हर्जाने की वसूली, सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ पर रोक, वक्फ बोर्ड को माफिया बोर्ड बताना, लोगों को कपड़ों से पहचानना, शाहरूख सलमान सैफ को टारगेट करना, हज सब्सिडी का विरोध कुंभ पर बेतहाशा खर्च, शोभायात्राओं का मस्जिदों के सामने हंगामा, जस्टिस शेखर यादव का अल्पसंख्यकों के लिये विवादित बयान, काॅमन सिविल कोड, कश्मीर की धारा 370 हटाकर उसको विभाजित कर केंद्र शासित प्रदेश बना देना जबकि अन्य उस जैसे राज्यों में 370 जैसी धारा लागू रखना आदि ऐसे अनेक मामले पक्षपात अन्याय और अत्याचारों की लंबी सूची है जिनसे एक वर्ग को टारगेट कर दूसरे बड़े वर्ग के वोट बैंक का तुष्टिकरण कर चुनाव जीतने की सोची समझी योजना पर काम चल रहा है? जबकि असली मुद्दे दबाये जा रहे हैं।
 0 मैं तो इस वास्ते चुप हूं कि तमाशा न बने,
तू समझता है कि मुझे तुझ से गिला कुछ भी नहीं।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Wednesday, 12 March 2025

कांग्रेस में भाजपाई

*कांग्रेस से निकालेंगे ‘‘भाजपाई’’,* 
*राहुल कर पायेंगे पूरी सफ़ाई?*
0 राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस में कुछ भाजपा की सोच के नेता हैं। ये तादाद में 30 से 40 तक हो सकते हैं। ये कांग्रेस में रहकर भाजपा के लिये काम करते हैं। उनका यह भी कहना था कि एक रेस का घोड़ा होता है दूसरा बारात का घोड़ा होता है। पार्टी में कभी कभी इनका उल्टा इस्तेमाल होता है जिससे कांग्रेस का नुकसान होता है। गांधी ने मज़ाक में यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस में कई बबर शेर हैं लेकिन वे सो रहे हैं। इससे पहले राजस्थान छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश व हरियाणा की हार के बाद राहुल गांधी कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं पर अपने अपने परिवार के सदस्यों के चुनाव लड़ाने के लिये पार्टी के हित को अनदेखा करने का आरोप भी लगा चुके हैं। लेकिन अभी तक एक्शन क्यों नहीं लिया?    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कांग्रेस अपने सबसे मुश्किल दौर का सामना कर रही है। राहुल गांधी ने जब से कांग्रेस की कमान संभाली है वह केंद्र की सत्ता में भले ही ना आ सकी हो लेकिन वह गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद से मज़बूत हुयी है इसमें कोई दो राय नहीं है। साथ ही जब से मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस का मुखिया बनाया गया है। तब से पार्टी में कुछ जान आई है। इसी का नतीजा है कि संसदीय चुनाव में उसके सांसद बढ़कर बढ़कर लगभग दोगुना हो गये हैं। इतना ही नहीं कांगे्रस के नेतृत्व में बने इंडिया गठबंधन ने भाजपा के 400 पार के नारे की हवा निकालकर उसके एमपी की संख्या पहले से 63 घटाकर उल्टा 240 तक सीमित कर दी है। लेकिन यह भी सच है कि लोकसभा के चुनाव के बाद से जितने भी राज्यों के चुनाव हुए हैं उनमें कश्मीर और झारखंड को छोड़कर भाजपा ने लगभग सबमें बाज़ी मारकर अपना माॅरल हाई कर लिया है। इस सब कवायद में कांग्रेस को सबसे अधिक झटका लगा है। हालांकि कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने एक के बाद एक हार के लिये भाजपा पर मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव आयोग की मिलीभगत का गंभीर आरोप लगाया है। लेकिन इस मामले में आज तक कोई ठोस आंदोलन विरोध प्रदर्शन या कानूनी कार्यवाही होती नज़र नहीं आ रही है। इस दौरान राहुल गांधी ने लीक से हटकर कांग्रेस की हार की निष्पक्ष और साहसी समीक्षा करनी शुरू की है। उन्होंने माना है कि कांग्रेस की सीधी लड़ाई सत्ता की नहीं वैचारिक और उसूलों की लड़ाई है। उनका कहना है कि वे आरएसएस की साम्प्रदायिक झूठी और नफरत की सोच के खिलापफ लड़ रहे हैं। उनका यह भी आरोप है कि मोदी सरकार ने चुनाव आयोग पुलिस ईडी इनकम टैक्स पर पूरा और अदालतों की स्वायत्ता व स्वतंत्रता पर आंशिक रूप से कब्ज़ा कर लिया है। इसके लिये वे इंडियन स्टेट से लड़ने तक का विवादित बयान तक दे चुके हैं। 
     गांधी ने यह भी माना कि जब उनके साथ दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक लंबे समय तक लगभग तीन चैथाई रहे तो कांग्रेस की सराकर उनके लिये उतने भलाई के काम नहीं कर सकी जितने करने चाहिये थे। उनको शायद पता नहीं या बाद में कभी वे यह भी मानेंगे कि पिछड़े आज भाजपा की सबसे बड़ी ताकत बने है जिसे कांग्रेस ने कभी अहमियत नहीं दी। उसको आरक्षण देने के लिये देश आज़ाद होने के दो दशक बाद तक कांगे्रस ने सोचा तक नहीं। इसके बाद काका कालेलकर आयोग बनाया गया। उसकी रिपोर्ट दस साल बाद आई और कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दी। इसके बाद मंडल आयोग बना। उसने पिछड़ों को रिज़र्वेशन देने की सिफारिश की उसको भी कांग्रेस ने अनसुना कर दिया। वी पी सिंह की जनमोर्चा सरकार ने मंडल आयोग लागू कर पिछड़ांे को आरक्षण दिया। जिससे पिछड़े कांग्रेस से नाराज़ हो गये। कांग्रेस सरकार ने संघ और भाजपा को अपनी नीतियां लागू करने को खुलकर मौका दिया। दूरदर्शन पर रामायण व महाभारत दिखाकर उनके पक्ष में हिंदूवादी माहौल बनाया। शाहबानों केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेककर हिंदू ध््राुवीकरण करने का संघ परिवार को खुल मैदान दिया। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर दंगे रामरथ यात्रा गुजरात दंगे और कांग्रेस में भाजपा की सोच के नेताओं को हिंदू कार्ड खेलने का जोखिम लिया। सत्ता में रहते कांग्रेसियों ने करप्शन में भी रिकाॅर्ड तोड़े। आज इसी का नतीजा है कि भाजपा सरकार जिस कांग्रेसी को चाहे उसे ईडी व सीबीआई से टारगेट कर लेती है। 
     बसपा की मायावती को जेल भेजने का डर दिखाकर ही भाजपा ने उनकी पार्टी को लगभग खत्म कर दिया है। ऐसी और भी कई क्षेत्रीय पार्टियां और कांग्रेस सहित अन्य दलों के नेता हैं जिनको जांच के नाम पर डराकर भाजपा या तो कांग्रेस से खींच लेती है या फिर उनको कांग्रेेस में रहकर भाजपा के लिये काम करने को मजबूर कर देती है। एक सच यह भी है कि कई ईमानदार और सच्चे कांग्रेस व विपक्षी नेताओं को झूठे आरोप मुकदमें और जांच में उलझाकर भाजपा उनकी पार्टी छोड़ने को मजबूर कर देती है। ऐसे मामलों में राहुल गांधी के पास क्या बचाव है यह वही बता सकते हैं। इतना ही नहीं भाजपा के पास जो संघ के लाखों कार्यकर्ता हैं जिस तरह समर्पण त्याग और मेहनत से वे पार्टी के लिये काम करते हैं। उसका कोई विकल्प कांगे्रस के पास आज नहीं है। कांग्रेस ने मीडिया और न्यायपालिका में कभी उच्च जातियों के साथ पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से भागीदारी देने की गंभीर कोशिश नहीं की जिसकी कीमत आज वह खुद ही चुका रही है। कांग्रेस ने अपने नवजीवन कौमी आवाज़ और नेशनल हेराल्ड जैसे अखबार बंद कर दिये और कभी कोई नेशनल मैगजीन या टीवी चैनल शुरू नहीं किया जिससे आज उसकी बात जनता तक नहीं पहुंच रही है। कांग्रेस ने जनता पार्टी जनतादल वामपंथी और क्षेत्राीय दलों को स्वस्थ विपक्ष के तौर पर कभी विकसित नहीं होने दिया जिससे विपक्ष की खाली जगह संघ ने भाजपा को धर्म की राजनीति के सहारे सत्ता में लाकर भर दी। 
      कुछ समय पहले खुद राहुल मंदिर मंदिर जाकर अपना जनेउू दिखाकर और खुद को वैष्णवी ब्रहम्ण बताकर भाजपा के पाले में घुसकर उसकी हिंदू साम्प्रदायिकता को जाने अंजाने में मान्यता देने की गल्ती कर चुके हैं। राहुल गांधी को यह भी समझ आ गया होगा कि कांग्रेस भाजपा की तरह हिंदू साम्प्रदायिकता ध््राुवीकरण मुस्लिम विरोध दलित विरोध गरीब विरोध व्हाट्सएप प्रोपेगंडा काॅरापोरेट से दोस्ती कर मोटा चंदा धर्म की राजनीति नफ़रत की सियासत पिछड़ों का आरक्षण निजीकरण कर खत्म करना सत्ता का भाजपा की तरह खुलकर साम दाम दंड भेद से बेशर्म दुरूपयोग कर हर कीमत पर चुनाव जीतना इतिहास बदलना अतीत का झूठा गुणगान करना औरा भविष्य के फर्जी सपने दिखाकर भोली जनता को झांसे में लेना व चीन तथा अमेरिका के सामने अन्याय व अपमान पर चुप्पी साधना उसके बस की बात नहीं है। सवाल अब यह है कि देर आयद दुरस्त आयद ही सही लेकिन जब राहुल गांधी को कांग्रेस की जिन गल्तियों कमियांे और बुराइयों पता चल चुका हैं तो उन पर एक्शन लेने के लिये कौन से शुभ मुहूरत की प्रतीक्षा की जा रही है? बाकी यह बात सही है कि सत्ता मिले या ना मिले लेकिन भाजपा व संघ से बिना डरे अपनी जनहित की बात अपनी निष्पक्ष सोच और अपना सही वीज़न जनता के सामने रखना चाहिये।

0 यहां मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है,

 कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।

 तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं,

 मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है।।    
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Monday, 3 March 2025

आपके दिमाग़ में क्या है?

*आप क्या लिखने की सोच रहे हैं, 
आपको पता है कोई यह जानता है?
इक़बाल हिंदुस्तानी
0 आपने सुना होगा पैगासस एक ऐसा स्पाई साफ्टवेयर है जिसको आपके मोबाइल फोन में इंस्टाॅल करके आपकी हर गतिविधि को ट्रैक किया जा सकता है। हैरत की बात यह है कि इसको आपके सेलुलर फोन मंे पहुंचाने के लिये केवल एक मिस काॅल करनी होती है। लेकिन चूंकि यह बहुत महंगा है इसलिये इसको आम तौर पर देशों के स्तर पर सरकारें अपने विरोधियों और दुश्मनों की जासूसी करने के लिये ही इस्तेमाल करती रही हैं। भारत में भी इसके इस्तेमाल को लेकर काफी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट की जांच कमैटी भी इस मामले में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी। अब आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि आपके दिमाग़ मंे क्या चल रहा है आप क्या सोच रहे हैं और आप क्या लिखना चाहते हैं आज के दौर में तकनीक ने यह सब बहुत आसान बना दिया है। 
               आज का दौर आधुनिक तकनीक का दौर है। टेक कंपनियां आपके दिमाग में झांकने लगी हैं। आपने कभी नोटिस किया है कि आप के माइंड में जो कुछ चल रहा है, गैजेट उसको पहले ही जान जाता है। यही वजह है कि जब आप अपने मोबाइल लैप टाॅप या डेस्क टाॅप पर कुछ लिखने को की बोर्ड पर उंगली रखने की सोच रहे होते हैं तो आपके शब्दों के सुझाव में उूपर ठीक वही वर्ड दिखाई देता है जो आप अभी सोच रहे होते हैं? आखि़र ऐसा कैसा होता है? यह क्या रहस्य है? यह जादू तो नहीं है? तो फिर आपके कीबोर्ड यानी गूगल को कैसे पता लगा कि आप अगला शब्द क्या लिखने जा रहे थे? इतना ही नहीं टेक कंपनी की घुसपैठ आज आपके दिमाग तक हो चुकी है। अगर आपको अभी भी विश्वास नहीं आ रहा है तो हम आपको आज विस्तार से यह राज़ बतायेंगे कि आपका आज कुछ भी छिपा हुआ नहीं रह गया है। हालत यह है कि आपके भविष्य के कामों तक पर टेक कंपनी नज़रें गड़ायें हैं। आप क्या खरीदना चाहते हैं वे यह भी जानती हैं। वो कैसे? आपने नोट किया है कि अगर आप आॅनलाइन कुछ खरीदना चाहते हैं तो आप जिस साइट पर जायेंगे आपको उस ही प्रोडक्ट के एड दिखाई देने लगेंगे। आखि़र गूगल को किसने बताया कि आप क्या खरीदने की सोच रहे हैं? आपके ख्वाब क्या हैं? आप क्या योजना बना रहे हैं?  
     आप भविष्य में कहां की यात्रा करने का प्लान बना रहे हैं? दरअसल आप भूल जाते हैं कि आप जब फेसबुक ट्विटर और यूट्यूब पर जो कुछ लिख रहे पढ़ रहे पोस्ट कर रहे और सर्च कर रहे होते हैं। उसको यह ऐप आर्टिफीशियल इंटैलिजैंस से रिकाॅर्ड कर लेते हैं। यहां तक कि आप जो फोटो वीडियो आॅडियो या रील बनाकर इन साइट्स पर डालते हैं। ये उनके हिसाब से आपकी सोच आपकी पसंद और आपकी आदतों का एक पूरा चार्ट तैयार कर लेते हैं। इतना ही नहीं ये एप आपके कमेंट लाइक और शेयर करने से ही समझ जाते हैं कि आप किस तरह की सोच समझ और पसंद के इंसान हैं। इसके बाद आप जब भी नेट आॅन करेंगे ये आपको आपकी सोच चाहत और तलाश के हिसाब से चीजे़ परोसना शुरू कर देंगे। आपको लगता है कि इससे आपका काम भी आसान हो जाता है। एक दिन ऐसा आता है जब ये वेबसाइट एप और सर्च इंजन आपको कंट्रोल करने लगते हैं।
    यह आपको समय समय पर बिना सर्च किये बताने लगते हैं कि बाज़ार में क्या नया आया है? यह आपको मजबूर करते हैं कि जिस तरह का लेटेस्ट फैशन चल रहा है आप भी वही अपनायें। सोशल मीडिया आपको गाइड करता है कि आप किस तरह सोचें किस तरह से लिखें किस तरह से खायें किस तरह से सोयें किस तरह के कपड़े पहनें और यहां तक कि आपका निजी जीवन कैसा होना चाहिये यह सब भी इंटरनेट से बताया जाने लगता है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि आज आपका सब कुछ इंटरनेट के आॅब्ज़र्वेशन में चल रहा है। आपका पर्सनल कुछ नहीं है। हो सकता है कि टेक कंपनी को आपके बारे में इतना अधिक पता हो जितना आपको खुद भी नहीं पता। यह सब कभी कभी बहुत डरावना भी लगता है। लेकिन यकीन मानिये यह सब सच है। वास्तविकता है। मुमकिन है। आपकी सोच ही नहीं आपकी भावनाओं को पढ़ने की टैक्नालाॅजी भी आज मौजूद है। तकनीकी एक्सपर्ट आपके लिखने के तौर तरीको को ही नहीं बल्कि आपके माइंडसेट को भी जानते हैं। आप कब किस मनःस्थिति में लिख रहे हैं वे यह भी समझने लगे हैं। आपका मूड कब कैसा होता है वे यह भी रीड कर रहे हैं। यही वजह है कि जब आप यूट्यूब पर जाते हैं तो वे आपको बिना सर्च किये ही वही वीडियो आॅटो प्ले कर देते हैं जिनको देखने की अभी आप बस सोच ही रहे थे। नेटफिलिक्स आपकी चाहत वाली फिल्म पहले ही पेश कर देता है। 
    कमाल है न? नहीं यह बाइचांस नहीं है यह आपके डिजिटल प्रोफाइलिंग का कमाल है। जो आसानी से आपके दिल को पढ़ लेता है। आप ने देखा होगा जब आप फेसबुक पर कुछ लिखने या पोस्ट करने के लिये खोलते हैं तो वहां लिखा आता है-व्हाट्स आॅन योर माइंड? यही वह ट्रेप है जिसमें फंसकर आप अपना वह सब साझा कर चुके हैं जो वे आपके लिखने सोचने और करने से पहले ही जान रहे हैं। जब आप अपने दोस्तों से चैट करते हैं तो आपका सब कुछ निजी ज्ञान उनके साथ अंजाने में ही साझा हो जाता है। मेटा फिलिप काॅर्ट अमेज़न गूगल माइक्रोसाॅफ्ट एआई सिरी एलेक्सा और न्यूराल केवल आपके लिये नहीं आपकी जासूसी को भी बनाये गये हैं। आपको अब तक यह खुशफहमी रही होगी कि नेट आपको अपने हिसाब से पोस्ट ख़बरें और कंटेंट दिखाकर आपकी सोच अपने हिसाब से बनाना चाहता है लेकिन तकनीक अब इससे आगे निकल चुकी है। वह आपका व्यवहार आपका नज़रिया और आपका मकसद भी तय करने लगी हैं। वे आपके अंर्तमन तक पहंच चुकी हैं। आज आपका सबसे बड़ा नेता संचालक और कंट्रोलर आप खुद नहीं आपका दिमाग नहीं आपकी अपनी समझ नहीं कोई और है। शायर ने शायद पहले ही इस टैक्नीक को समझ लिया था, तभी तो लिख दिया था- ये लोग पांव नहीं ज़ेहन से अपाहिज हैं, उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 20 February 2025

बीजेपी का अगला निशाना नीतीश कुमार?

भाजपा ने शिंदे का किया बंटाधार,
 नीतीश होंगे उसका अगला शिकार?
0 मायावती ने भाजपा से गठबंधन कर तीन बार सरकार बनाई थी। आज बसपा का कोई नामलेवा नहीं है। महाराष्ट्र में यही काम शिवसेना को तोड़कर एकनाथ शिंदे ने किया तो आज उनकी हालत भी ख़राब है। केजरीवाल को भी कुछ लोग संघ का ही छिपा सिपाही मानते रहे हैं, उनको भी ठिकाने लगा दिया गया है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि इस श्रृंखला में अगला नंबर बिहार के नीतीश कुमार का है। यही वजह रही कि जो दल पिछली लोकसभा में चोरी छिपे मोदी सरकार की जनविरोधी कानून बनवाने में मदद कर रहे थे, उनको जनता ने पिछले संसदीय चुनाव में बाहर का रास्ता दिखा दिया है। दोनों गठबंधन के अलावा केवल 16 सीट पर अन्य जीत सके हैं। बीजेडी बीआरएस और वाईएसआर सीपी के पास 2019 मंे 43 सीट थी जो अब घटकर केवल 5 रह गयी हैं। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भाजपा का मुकाबल कांग्रेस ही करेगी।
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      मुंबई से ख़बर आ रही है कि महायुति सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे राज्य के सीएम फडनवीस से बुरी तरह ख़फ़ा लग रहे हैं। इसकी वजह सबको पता है कि पहले शिंदे से शिवसेना को दो फाड़ कराकर महायुति सरकार भाजपा ने बनवाई। उसके बाद चुनाव से पहले उनको ही फिर से सीएम बनाने का वादा करके चुनाव साम दाम दंड भेद से जीता गया लेकिन बाद में उनको यूज़ एंड थ्रो कर दिया गया। उनको जो मलाईदार मंत्रालय दिये जाने थे। वे भी नहीं दिये गये। उनके विधायकों की हाई सिक्यूरिटी भी वापस लेकर उनको उनकी औकात बता दी गयी है। उनको मुख्यमंत्री उच्च स्तरीय सरकारी बैठकों में भी नहीं बुला रहे हैं। जबकि उनसे कम विधायक वाले अजित पंवार को उनसे अधिक महत्व दिया जा रहा है। इसी हरकत से नाराज़ शिंदे अब खुद भी सीएम की ज़रूरी मीटिंग में बुलाने पर भी जाने को तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं सीएम फडनवीस शिंदे को चिढ़ाने के लिये उल्टा उध्दव ठाकरे के साथ कई मुलाकात कर चुके हैं। वे उध्दव की पार्टी के विधायकों के लिये हमेशा मुलाकात को तैयार रहते हैं। उनके बताये काम भी पहली फुर्सत में कराये जा रहे हैं। यहां तक कि विपक्ष में होते हुए शरद पवार का तो अपना जलवा अलग ही है। फडनवीस सरकार पवार को सम्मान वेट और अहमियत देने का कोई मौका चूकती नहीं है। यह बात भी शिंदे को बहुत चुभ रही है। इसके साथ ही हालात को समझते हुए सीएम फडनवीस एमएनएस के राज ठाकरे से भी उनके घर जाकर राजनीतिक हालात पर बंद कमरे में चर्चा कर आये हैं। आने वाले दिनों में मुंबई में कभी भी नया राजनीतिक धमाका हो सकता है, सियासी जानकार इस संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं लेकिन शिंदे के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। बताया जा रहा है कि अगर वे गठबंधन से बाहर निकलना भी चाहें तो उनको पुरानी और असली शिवसेना स्वीकार नहीं करेगी। इतना ही नहीं शिंदे को बाद में पता चला कि उनकी पार्टी के टिकट पर बड़ी संख्या में जीते उम्मीदवार भाजपा के ही सदस्य थे जो बगावत करने पर भाजपा का साथ देंगे। 
      उधर गठबंधन छोड़ने पर शिंदे के लिये सीबीआई ईडी और इनकम टैक्स छापे मारने की रण्नीति एडवांस में ही बनाने में जुट गयी हैं। चर्चा यहां तक है कि शिंदे और उनके वफादार विधायकों व करीबी नेताओं के फोन तक टेप हो रहे हैं। शिंदे को यह बात अब समझ में आई है कि वे जिस मूल शिवसेना से विद्रोह करके भाजपा के साथ सरकार बनाने को भरोसा करके आये थे, उस भाजपा ने उनसे अधिक शक्तिशाली उध्दव ठाकरे को राजनीतिक रूप से कहीं का नहीं छोड़ा तो शिंदे तो संघ परिवार के सामने क्या हैसियत रखते हैं? अब यही खेल 20 साल से साझा सरकार चला रहे नीतीश कुमार के साथ बिहार में होने जा रहा है। इसकी वजह है कि भाजपा और संघ बहुत लंबी योजना के साथ राजनीति करते हैं। वे सही समय का वेट करते रहते हैं। मौका मिलते ही अपने ही सहयोगी दलों और नेताओं को भी निशाना बनाने में उनको ज़रा भी लज्जा या हिचक नहीं होती है। उनका मानना है कि जंग और सियासत में सब जायज़ है। आपको याद रखना चाहिये कि जब भाजपा का पूर्व दल जनसंघ अपने बल पर कांग्रेस को बार बार नहीं हरा पाया तो उन्होंने जनता पार्टी से हाथ मिला लिया। वह संयुक्त सरकार नहीं चली। उसके बाद केंद्र में जनता दल की सरकार को वामपंथियों के साथ मिलकर समर्थन देने में भी भाजपा को समस्या नहीं हुयी। उसको सत्ता में भागीदार न बनाने की कम्युनिस्टों ने शर्त रखी तो उसने वह भी दूर का लाभ देखकर चुपचाप मान ली। आज न तो वामपंथी बचे और न ही जनता पार्टी व जनता दल है। कर्नाटक में एक दौर में भाजपा ने रामकृष्ण हेगड़े की क्षेत्रीय पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और आज वहां भाजपा मुख्य दल है जबकि हेगड़े और उनकी पार्टी का नाम भी कोई नहीं जानता है। ममता बनर्जी बंगाल में चाहे जितनी भी मज़बूत हो वे भी भाजपा की सहयोगी रह चुकी हैं। आप नोट कर लीजिये अगले चुनाव में उनकी खैर नहीं है इसके लिये भाजपा को चाहे जो हथकंडा अपनाना पड़े लेकिन वह बंगाल की सत्ता दिल्ली की तरह हर हाल में ममता से छीनकर ही दम लेगी। 
      साथ ही भाजपा पर जिस तरह से सत्ता का गलत इस्तेमाल कर चुनाव आयोग की मिलीभगत से बार बार राज्यों में चुनाव जीतने के आरोप लग रहे हैं, उससे यह भी तय है कि एक बार अगर किसी विपक्ष शासित राज्य में भाजपा जीत गयी तो वह केंद्र की तरह फिर सत्ता किसी कीमत पर छोड़ने वाली नहीं है, खासतौर पर जिन राज्यों में कांग्रेस का राज था वहां भाजपा ने जीतकर लंबे समय के लिये सरकार पर कब्ज़ा जमा लिया है। भाजपा ने जिनसे गठबंधन कर सहयोग लिया या दिया बाद में मौका आने पर उनको ही मिट्टी में मिला दिया। इसकी एक लंबी सूची है। मिसाल के तौर पर हम कुछ नाम आपको याद दिला देते हैं- प्रफुल्ल महंता, मायावती, महबूबा मुफती, प्रकाश सिंह बादल, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी, उध्दव ठाकरे, दुष्यंत चैटाला, अरविंद केजरीवाल और अब शिंदे के बाद नीतीश कुमार का नंबर आने वाला है। यूपीए और एनडीए की सरकारांे मंे एक बुनियादी अंतर साफ नज़र आ रहा है कि अल्पमत में होने के बावजूद भाजपा अपने घटक दलों के दबाव में काम करने को तैयार नहीं है। एनडीए के दो बड़े घटक टीडीपी और जेडीयू उल्टा भाजपा के दबाव में काम करते लग रहे हैं। इसके बाद जिस दिन उसके पास कुछ छोटे दल या निर्दलीय सांसद दल बदल करके भाजपा में आ जायेंगे वह नायडू की कठिन मांगे मानना भी बंद कर देगी और उनको एनडीए से जाने या बने रहने का खुला विकल्प दे देगी।
0 गिरा दिया है तो साहिल पे इंतिज़ार न कर,
अगर वो डूब गया है तो बहुत दूर निकलेगा।
उस आस्तीन से अश्कों को पोछने वाले,
उस आस्तीन से खं़जर ज़रूर निकलेगा।।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 13 February 2025

आप बुरी, बीजेपी खरी?

आप हार गयी तो वो बुरी है, 
बीजेपी जीत गयी तो खरी है?
0 दिल्ली के चुनाव को लेकर चुनाव आयोग एक बार फिर सवालों के घेरे में आया है। चुनाव की निष्पक्षता और सब दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का भी कानूनी उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों चुनाव आयोग ने दिल्ली राज्य के चुनाव को लेकर और उससे पहले हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव पर विपक्ष के सवालों के या तो जवाब ही नहीं दिये या फिर बाद में विस्तार से लिखित स्पश्टीकरण का बहाना बनाकर टाला उससे जनता का आयोग की निष्पक्षता से भरोसा उठ सकता है। दिल्ली में बड़े पैमाने पर असली मतदाताओं के नाम काटने और फर्जी वोटर बनाने के साथ ही पैसा साड़ी व शराब बांटने व लोगों की उंगली पर स्याही लगाने के गंभीर आरोप लगे लेकिन चुनाव आयोग चुपचाप तमाशा देखता रहा।  
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     एक कहावत आपने सुनी होगी- जो जीता वो सिकंदर। कुछ ऐसा ही मीडिया में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार और भाजपा की जीत को लेकर चर्चा में देखा जा सकता है। आप हार गयी तो उसके सौ ऐब गिनाये जा रहे हैं जबकि भाजपा की जीत को पाक साफ बताया जा रहा है। जबकि आप अभी भी वोट के मामले मंे बीजेपी से मात्र दो प्रतिशत पीछे है। यह बात किसी हद तक सही हो सकती है कि आप के खिलाफ दस साल की एंटी इंकम्बैंसी थी जिससे उसका जनसमर्थन कुछ घट सकता है लेकिन जिस तरह से केंद्र की भाजपा सरकार ने चुनाव आयोग से लेकर केंद्र की सत्ता का खुला दुरूपयोग किया उस पर मुख्य धारा का मीडिया चुप्पी साध रहा है। जो भाजपा कभी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग और केंद्र में आने पर स्वयं ऐसा करने का दावा करती थी उसने केजरीवाल सरकार को काम करने से रोकने के लिये उसके अधिकार संविधान संशोधन करके उल्टे कम कर दिये। इसके साथ ही उपराज्यपाल लगातार आप सरकार के विकास और जनकल्याण के कामों में जानबूझकर बाधा खड़ी करते रहे। 
      इतना ही नहीं केंद्र ने आप सरकार को बदनाम करने के लिये उसके हिस्से का राजस्व भी रोकना शुरू कर दिया था। दिल्ली में आप सरकार को महिलाओं को हर माह दिये जाने वाला पैसा उपराज्यपाल ने बांटने नहीं दिया। साथ ही चुनाव आयोग के आश्वासन के बाद भी आमबजट में 12 लाख की तक आय कर मुक्त करने का श्रेय लेने को भाजपा ने अख़बारों में बाकायदा विज्ञापन दिया। मतदाताओं को लुभाने के लिये तरह तरह के उपहार दिये जाने पर भी चुनाव आयोग ने आंखे बंद रखीं जबकि यमुना का पानी ज़हरीला होने और चुनाव के बाद आपके विधायक खरीदे जाने के आरोप पर आयोग आप नेताओं के दर पर मिनट से पहले नोटिस थमाने पहुंच गया। पक्षपात की हद यह थी कि जब कुछ लोगों को पैसा देकर उनकी उंगली पर चुनाव से पहले उनको आप समर्थक होने की वजह से वोट देने से रोकने को स्याही लगाने का आप ने आरोप लगाया तो दिल्ली पुलिस उल्टा उन लोगों को ही पकड़ ले गयी जो गवाह के तौर पर पेश किये गये थे। आयोग ने दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में चुनाव के बाद दो दिन तक कुल मतदान का आंकड़ा तक नहीं बताया। आयोग की विश्वसनीयता की हालत यह हो गयी कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो आवेश और निराशा में यहां तक कह दिया कि चुनाव आयोग मर चुका है उसको कफन के लिये सफेद कपड़ा भेजा जाना चाहिये जिस पर आयोग सपा मुखिया को नोटिस भेजने पर भी विचार कर रहा है लेेकिन वह अपने गिरेबान में झांककर देखने को तैयार नहीं है कि कोई विपक्षी नेता इतना गंभीर और हताशा वाला आरोप आयोग पर लगाने को क्यों मजबूर है? 
              विपक्ष का सवाल रहा है कि महाराष्ट में कुल 9 करोड़ 54 लाख वयस्क आबादी है तो वहां 9 करोड़ 70 लाख मतदाता कैसे हो गये? जबकि शत प्रतिशत बालिगों का वोट कभी बनता भी नहीं है। दिल्ली में भी संसदीय चुनाव के मुकाबले हुए असैंबली चुनाव की वोटर लिस्ट में 4 लाख मतदाता 7 माह में बढ़ गये हैं। इसके साथ ही महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के वोटों में भी 39 लाख वोटर्स का भारी अंतर है। चुनाव आयोग इस सवाल का भी कोई सही जवाब नहीं दे पाया कि वहां शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक इतना ज़बरदस्त वोटर टर्नआउट कैसे बढ़ा? इस शक को दूर करने के लिये वोटिंग की वीडियोग्राफी देखी जा सकती थी लेकिन यहां तो चुनाव आयोग ने हाल ही में नियम बदलकर यह वीडियोे फुटेज देखने पर ही रोक लगा दी है। जिससे विपक्ष का शक और भी गहरा गया है। दिल्ली के चुनाव आयुक्त ने खुद कहा है कि जिस तरह से 30 दिन में 5 लाख नये लोगों ने मत बनवाने के लिये आवेदन किया है उससे सघन जांच की आवश्ययकता है क्योंकि यह अप्रत्याशित है। आप का आरोप है कि लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रतिशत वोट नये बनाने और साढे़ 5 प्रतिशत लोगों के वोट काटने के आवेदन आ रहे थे। 
      संदेह बढ़ाने वाली बात यह है कि जिनके नाम से ये आवेदन आये हैं उनसे संपर्क करने पर अब वे अपना नाम उनकी जानकारी बिना फर्जी तरीके से प्रयोग करने की बात बता रहे हैं। अजीब बात यह भी है कि ऐसी 4183 एप्लीकेशन मात्र 84 लोगों की तरफ से लिखी गयी हैं। चुनाव आयोग का इस पर कहना है कि बिना ठोस सबूत के किसी का वोट नहीं काटा जाता। लेकिन नये वोट बनाने को लेकर वह उदार क्यों रहा है इसके बारे में आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देेेे पा रहा है? जब चुनाव आयोग के बीएलओ घर घर मुहल्ले मुहल्ले जाकर पहले ही गलत वोट काटने और नये मतदाता जोड़ने का अभियान चला चुके हैं तो नई एप्लीकेशन वोट काटने और जोड़ने के लिये इतने बड़े पैमाने पर कहां से आ रही थीं ? चीफ इलैक्शन कमिश्नर राजीव कुमार ने शेर ओ शायरी करते हुए विपक्ष के आरोप हवा में उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था, लेकिन वह यह नहीं मान रहे हैं कि जहां टी एन शेषन जैसे चुनाव आयुक्त ने आयोग की प्रतिष्ठा शक्ति और विश्वसनीयता आसमान में पहुंचा दी थी वहीं उन्होंने केंद्रीय चुनाव आयोग जिसे कुछ लोग संक्षित में ‘‘केंचुआ‘‘ भी कहने लगे हैं की निष्पक्षता गरिमा और स्वतंत्रता को रसातल में पहुंचा दिया है।
0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,
  हमें यक़ीं था हमारा क़सूर निकलेगा।।        
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Saturday, 8 February 2025

केजरीवाल की हार

केजरीवाल की वैचारिक बेईमानी, 
दिल्ली की सत्ता पड़ गयी गंवानी!
0आम आदमी पार्टी दिल्ली में हार गयी। उसके मुखिया केजरीवाल अपनी सीट भी हार गये। उसके और भी कई बड़े नेता हार गये। हालांकि कम लोगों को पता होगा कि आप के वोट केवल 10 प्रतिशत ही कम हुए हैं लेकिन उसकी सीट 62 से 22 पर आ गयी। आप जितने वोटों से 13 सीट हारी उससे अधिक वोट कांग्रेस और ओवैसी की एआईएमआईएम को मिले। यही काम आप ने गोवा गुजरात और हरियाणा में कांग्रेस को दर्जनों सीट हराकर किया था। केजरीवाल मजबूरी मंे लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन में गये लेकिन वे भाजपा से अधिक कांग्रेस का विरोध करते रहे। मुस्लिम मुद्दों पर चुप रहकर वे हिंदूवादी बनने चले थे लेकिन भाजपा ने उनको अपना कार्ड खेलन नहीं दिया और उनकी इमेज बिगाड़ कर उनका खेल खत्म कर दिया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      आम आदमी पार्टी ने अपना सफर समाज सेवा से शुरू किया था। उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने करप्शन के खिलाफ अन्ना हज़ारे के कथित गैर राजनीतिक आंदोलन का सफल प्रबंधन और संचालन किया था। वे अपने इनकम टैक्स कमिश्नर के बड़े भारी भरकम और कमाई वाले पद से इस्तीफा देकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले जनलोकपाल कानून बनाने को लेकर आमरण अनशन में अन्ना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शामिल होकर लोगों का यह विश्वास जीतने में उस समय सफल रहे थे कि यह नौजवान समाज के लिये कुछ बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहता है। लेकिन बाद में देश को पता लगा वे संघ परिवार के छिपे एजेंडे के तहत तत्कालीन मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बदनाम करने भाजपा को सत्ता में लाने और खुद अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा पूरी करने के लिये यह सब कर रहे थे। यही वजह थी कि बाद में यूपीए सरकार पर उस समय लगाये गये अधिकांश आरोप झूठे साबित हो गये। जब कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने उनकी मांगों पर कोई खास तवज्जो न देते हुए उनको राजनीति में आकर खुद लोकपाल जैसे कानून बनाने और भ्रष्टाचार खत्म कर साफ सुथरा शासन चलाने के लिये चुनौती दी तो वे अपनी सरकार बनाने की आकांक्षा पूरी करने को अपने गुरू अन्ना के मना करने के बावजूद आम आदमी पार्टी बनाकर सियासत में कूद पड़े। 
       बाद में उनमें इतना अहंकार और स्वार्थ भर गया कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के वकील और सोशल एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण, जाने माने सेफोलोजिस्ट योगेंद्र यादव पूर्व जज हेगड़े वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष व पूर्व पुलिस कमिश्नर किरण बेदी सहित दर्जनों वरिष्ठ साथियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह सही है कि केजरीवाल ने दिल्ली में शिक्षा स्वास्थ्य और निशुल्क बिजली पानी के साथ महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा व वरिष्ठ नागरिकों को तीर्थ यात्रा कराने जैसी समाज कल्याण की अनेक योजनायें शुरू कीं लेकिन जिस सुशासन भ्रष्टाचार मुक्त और उच्च मानक के सर्वसमावेशी विकास के दावे के साथ वे सत्ता में तीन बार आये उनको पूरा करने में नाकाम नज़र आने लगे थे। साथ ही उन्होंने दिल्ली दंगों शाहीन बाग आंदोलन मुसलमानों के मकानों दुकानों पर चलने वाले बुल्डोज़र पर चुप्पी साध्कर और कोरोना लाॅकडाउन के दौरान तब्लीगी जमात को टारगेट करके खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी नेता साबित करने का अवसरवादी साम्प्रदायिक और ध्ूार्तता वाला संकीर्ण कार्ड खेला वह आज उनके लिये आत्मघाती साबित हो गया। हालांकि उन पर मोदी सरकार द्वारा लगाये गये करप्शन के आरोप अभी तक सच साबित नहीं हुए लेकिन जिस तरह उनको ईडी ने शराब घोटाले के आरोप में और आप के कई बड़े नेताओं को कई माह तक जेल भेजा उससे उनकी छवि काफी खराब हो गयी। 
       इसके साथ ही आम आदमी की तरह सादगी और किफायत से सरकार चलाने के दावों के बावजूद जिस तरह से केजरीवाल ने अपने घर को भारी भरकम सरकारी खर्च पर सुसज्जित कराया उससे उन पर भाजपा का शीशमहल का आरोप चस्पा होता नज़र आया। हालांकि उनकी पार्टी के अभी भी केवल 10 प्रतिशत वोट ही पिछले चुनाव से कम हुए हैं जिनमें से भाजपा को आठ और कांग्रेस को दो प्रतिशत वोट मिले हैं लेकिन उनकी सीट 62 से कम होकर मात्र 22 ही रह गयी हैं। दो प्रतिशत वोट बढ़ने के बावजूद कांग्रेस का अभी भी विधानसभा में खाता तक नहीं खुला है। लेकिन बीजेपी ने केवल 8 प्रतिशत वोट बढ़ने से अपनी सीटों की संख्या 7 से बढ़ाकर 48 कर ली है। इतना ही नहीं केजरीवाल ने चुनाव के दौरान ही आरोप लगाये थे कि भाजपा मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर फेरबदल कर रही है। इस बारे में खोजी वेबसाइट क्विंट ने दावा किया है कि 2020 से 2024 के आम चुनाव तक चार साल में जहां दिल्ली में चार लाख वोट बढ़े वहीं हैरतनाक तरीके से 7 माह बाद चार लाख वोट और बढ़ गये। कुछ इसी तरह के आरोप भाजपा सराकर पर महाराष्ट्र के चुनाव में भी लगे थे। 
      हाल ही में राहुल गांधी ने इस बारे में प्रैस वार्ता कर आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र में जितने वोट चुनाव आयोग ने बताये हैं उतने तो वहां कुल बालिग भी नहीं हैं। अलबत्ता यह आरोप प्रतिआरोप चर्चा और विवाद चलते रहेंगे जबतक इनकी निष्पक्ष जांच नहीं होगा तब तक कोई अंतिम नतीजा नहीं निकाला जा सकता। बहरहाल जो जीता वह सिकंदर और जो हार गया उसकी लाख कमियां गल्तियां और नालायकियां तलाशी जाती हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि इस बार आपका एकमुश्त वोटबैंक रहा 17 प्रतिशत दलित 13 प्रतिशत मुस्लिम 15 प्रतिशत मिडिल क्लास 14 प्रतिशत झुग्गी झोंपड़ी वाला 15 प्रतिशत पूर्वांचली वोट बिखर गया। आठवे वेतन आयोग के गठन और बजट में 12 लाख तक की आय करमुक्त करके भाजपा ने आप के मिडिल क्लास वोट में खासी सेंध लगा दी है। बीजेपी ने आप द्वारा शुरू की गयी निशुल्क स्कीमें जारी रखने का वादा कर भी उस वोटर को अपनी ओर खींचा जो हर बार लोकसभा में भाजपा को वोट देकर अपनी सुविधायें खत्म होने के डर से विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के साथ चला जाता था। केजरीवाल और भाजपा संघ मोदी व लेफटिनेंट गवर्नर के बीच लगातार चलने वाले टकराव से भी दिल्ली की जनता यह सोचकर परेशान होने लगी थी कि एक ही पार्टी की सरकार दोनों जगह बनने से शायद रूका हुआ विकास तेज़ हो सकता है। शायर ने क्या खूब इशारा किया है अगर विपक्षी दल समझ रहे हों तो- मैं आज ज़द पर अगर हूं तो खुश गुमान ना हो, चिराग़ सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।।    
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं। ।

Thursday, 6 February 2025

प्रवासी भारतीय और ट्रंप

अमेरिका बेेशक सुपर पाॅवर है तो होगा, 
प्रवासी भारतीयों का अपमान सहन नहीं होगा!
0 अमेरिका में ट्रंप के सत्ता संभालते ही बहुत कुछ बदल रहा है। नये राष्ट्रपति अपने देश से अवैध प्रवासियों को निकाल रहे हैं। गैर कानूनी तरीके से अमेरिका में रह रहे प्रवासियों की संख्या एक करोड़ से अधिक बताई जा रही है। इनमें से लगभग 7 लाख भारतीय बताये जाते हैं। फिलहाल कुल 18000 भारतीयों की पहचान की जा चुकी है जिनको स्वदेश वापस भेजा जाना है। इनमें से 104 प्रवासी भारतीयों की पहली खेप को लेकर अमेरिकी सेना का मिलिट्री एयरक्राफ्ट सी 17 ग्लोबमास्टर 5 फरवरी को अमृतसर में लैंड हुआ। इस विमान में जिस अमानवीय तरीके से प्रवासी भारतीयों को हथकड़ी और बेड़ी में जकड़कर लाया गया वह मानवीय गरिमा का असहनीय अपमान है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
        अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस ने अमेरिका से भारत लाये गये एक प्रवासी हरविंदर सिंह से बातचीत के आधार पर बताया कि इन प्रवासियों को विमान मंे भी 40 घंटे तक हथकड़ी व बेड़ियां लगाकर रखा गया। बार बार अपील करने पर भी उनको मुक्त नहीं किया गया। हालत यह थी कि उनको विमान के एकमात्र वाशरूम तक जाने को भी घिसटना पड़ा। हरविंदर सिंह ने बताया कि टाॅयलेट जाने के लिये उनको अमेरिकी क्रू के कर्मचारी गेट खोलकर अंदर धकेल देते थे। सारा सफर पूरा करने के दौरान उनको उनकी सीट से ज़रा सा भी हिलने नहीं दिया गया। उनका कहना था कि यह यात्रा उनके जीवन की सबसे मुश्किल कष्टदायक और अपमानजनक नरक से भी बदतर यात्रा थी। इस दौरान वे ठीक से खाना तक नहीं खा पाये। ज़ाहिर बात है कि कोई इंसान अपने हाथ हथकड़ी से कसकर बंध्ेा होने पर आराम से भोजन कैसे कर सकता है? अमेरिकी सरक्षाकर्मी जानते थे कि विमान के दरवाजे़ बंद होने और आसमान में उड़ रहे होेने के दौरान कोई प्रवासी यात्री चाहकर भी कहीं भाग नहीं सकता था लेकिन बार बार अपील करने के बावजूद उनके हाथ थोड़ी देर के लिये भी जानबूझकर नहीं खोले गये। इससे अमेरिका के तथाकथित प्राचीन लोकतंत्र स्वतंत्रता और उसके मानव मूल्यों के सम्मान का ढांेग पता लगता है। सिंह का कहना था कि उनको यह यात्रा शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी आघात पहुंचाने वाली रही है। सिंह का कहना था कि सारे सफर में वे एक मिनट भी सो नहीं पाये। 
      उनको कुछ माह पहले देखे गये अपने सारे सपने याद आते रहे। अपनी एक एकड़ ज़मीन गिरवी रखी, कुछ लाख का कर्ज़ बहुत अधिक ब्याज दर पर लिया तब एजेंट के ज़रिये बड़ी मशक्कत से अमेरिका गये थे। उनके एक रिश्तेदार ने 42 लाख में कानूनी तरीके से 15 दिन में अमेरिका भेजने का दावा किया था। इसके बावजूद धोखा कर उनको डंकी रूट यानी गैर कानूनी तरीके से चोरी छिपे गलत रास्ते से अमेरिका भेजा गया। इन रास्तों से जाने वालों को बहुत अधिक खतरों मुसीबतों और नुकसान का सामना करना पड़ता है। कई बार शाॅर्टकट से नंबर दो में जाने वाले लोगों के साथ अपराध्यिों द्वारा यह सोचकर भी लूट हत्या और रेप तक कर दिये जाते हैं कि ऐसा करने से उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जा सकेगा। हरविंदर की पत्नी आंख में आंसू भरकर बताती हैं कि उनके पति को 8 महीने तक इधर से उधर फुटबाल बनाकर घुमाया जाता रहा जिसके दर्दनाक वीडियो बनाकर हरविंदर अपनी आपबीती अपने परिवार को लगातार बताते रहे लेकिन वे ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुके थे जहां से ससम्मान और सुरक्षित वापसी के रास्ते भी बंद थे। ढाई माह पहले एजेंट ने अमेरिका के ग्वाटेमाला में उनसे तयशुदा रकम में से बाकी बचे 10 लाख भी वसूल लिये थे। 
       15 जनवरी के बाद हरविंदर का अपने परिवार से संपर्क नहीं हो पाया था। हरजिंदर ने गांव की पंचायत में उस धोखेबाज़ एजेंट की शिकायत भी सार्वजनिक रूप से की थी लेकिन एजेंट की पहंुच शासन प्रशासन के कई बड़े अधिकारियों तक होने से उसके खिलाफ कोई जांच एफआईआर या कानूनी एक्शन आजतक नहीं हो सका है। हरजिंदर जैसे लोग नादान महत्वाकांक्षी और मासूम हैं जो अपने देश से बेहतर रोज़गार कम समय में अधिक पैसा कमाने और अपने परिवार को खुशहाल बनाने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाकर डंकी रूट से अमेरिका सपने पूरे करने जाते हैं लेकिन वहां उनको वह सब नहीं मिल पाता जो वे सोचकर गये थे साथ ही न अब उनके पास गुज़ारा करने को ज़मीन बची है और न ही लाखों का भारी कज़ उतारने को कोई रास्ता है। सवाल यह भी है कि अगर हमारे देश में सबको बेहतर रोज़गार बढ़िया वेतन और शानदार भविष्य दिखाई देता तो हरजिंदर जैसे लोग अमेरिका इतना जोखिम लेकर क्यों जाते? लेकिन हमारे देश की सरकार इस सच को स्वीकार नहीं करेगी। 
        उसको तो यूनिविज़न मीडिया एजेंसी की उस ख़बर से भी शायद ही कोई सरोकार हो जिसमें कोलंबिया जैसे छोटे से देश के राष्ट्रपति गुस्ताव पेट्रो ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को दो टूक कहा है कि बेशक वे अपने देश से प्रवासी लोगों को वापस उनके देश भेजें लेकिन कोलंबिया के किसी भी नागरिक को हथकड़ी और बेड़ी नहीं लगायें क्योंकि वे प्रवासी तो ज़रूर हैं लेकिन अपराधी नहीं हैं। यह तो सही सही पता नहीं कि उनकी इस मांग पर अमेरिका ने कान दिये या नहीं लेकिन गुस्ताव ने अपने देश की संप्रभुता आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा के पक्ष में बयान देकर भारत के सामने एक चुनौती ज़रूर पेश कर दी है कि दुनिया का विश्वगुरू बनने वाला देश इस अपमानजनक पीड़ादायक और अमानवीय अमेरिकी व्यवहार पर चुप्पी क्यों साध्ेा बैठा है? इससे पहले मैक्सिको कनाडा और चीन भी अमेरिका द्वारा टैरिफ बढ़ाने पर ट्रंप को मुंहतोड़ जवाब देकर अपने देश की ताकत दिखा चुके हैं। यह माना कि अमेरिका दुनिया की सुपर पाॅवर है तो होगा लेकिन भारत दुनिया में अपना अलग और विशेष स्थान रखता है। हम भारतीयों का अपना आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा है। 
         संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सिटीज़न चार्टर है। इसके हिसाब से वो सब देश चलने को मजबूर हैं जिन्होंने इस पर हस्ताक्षर किये हैं। ट्रंप जिस तरह की मनमानी तानाशाही और जोरज़बरदस्ती कर रहे हैं उसका दुनिया के कई स्वाभिमानी स्वतंत्र और छोटे देश भी हिम्मत दिखाकर अभी से विरोध करने लगे हैं। यह समय है जब भारत को भी अमेरिका के अन्याय अत्याचार और मनमानी के खिलाफ अपना मंुह खोलना चाहिये। अमेरिका कोई राक्षस नहीं है तो हमें सही बात बोलते ही खा जायेगा। अमेरिका को वियतनाम ईराक और अफगानिस्तान में अवैध कब्ज़ा करने पर विरोध हुआ तो दुम दबाकर भागते हुए दुनिया ने देखा है। मोदी सरकार को निडर होकर यह समझना चाहिये कि जितनी भारत को अमेरिका की ज़रूरत है उससे कहीं अधिक अमेरिका को भारत की भी ज़रूरत है। बेज़मीर लोगों के लिये शायर ने क्या खूब कहा है- मौत के डर से नाहक़ परेशान हैं, आप ज़िंदा कहां हैं जो मर जायेंगे।।        नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीपफ एडिटर हैं। ।