Thursday, 27 November 2025

राहुल तेजस्वी घर बैठें

*राहुल तेजस्वी को चुनाव लड़ना नहीं आता तो सियासत छोड़ घर बैठें?*
0 बिहार चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद से विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस राजद को देश का एक वर्ग नाकाम नालायक और बहानेबाज़ बता रहा है। देश के 272 कथित बुध्दिजीवियों ने तो बाकायदा पत्र लिखकर राहुल गांधी पर केंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग पर वोट चोरी के आरोप लगाकर संवैधनिक संस्थाओं की छवि खराब करने का आरोप तक लगा दिया है। इसका मतलब उनके अनुसार अभी भी केेंचुआ की कोई छवि है जो बची हुयी है। यह अलग बात है कि सोशल मीडिया पर इन 272 कथित इंटलैक्चुअल की पोल खोलकर कुछ यूट्यूबर ने खुद इन महामूर्तियों की ही छवि का दिवाला निकाल दिया है। सवाल यह है कि जो लोग राहुल और तेजस्वी पर हमले कर रहे हैं, कहीं वे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत तो चरितार्थ नहीं कर रहे हैं?   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बिहार चुनाव में हार पर कुछ लोग राहुल गांधी पर लानतें भेज रहे हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी सहित पूरा विपक्ष नाच न जाने तो आंगन टेढ़ा बताकर अपनी कमियों को छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहा है। उनका यह भी दावा है कि राहुल गांधी के केंचुआ पर बीजेपी के साथ मिलकर वोट चोरी करने के आरोप भी बिहार चुनाव में जनता ने ठुकरा दिये हैं। वे केंचुआ के एसआईआर और एनडीए की ज़बरदस्त जीत को पवित्र निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव का परिणाम बता रहे हैं। उनका यह भी दावा है कि बिहार चुनाव में सबसे अधिक हालत खराब कांग्रेस की इसीलिये हुयी है कि वह चुनावों में धांधली बेईमानी और पक्षपात के आरोप लगा रही थी। उनका दावा है कि मतदाताओं ने कांग्रेस को एक तरह से न केवल हराया है बल्कि बुरी तरह हराकर उसको अपमानित कर उसकी औकात भी दिखा दी है। वे इसे कांग्रेसमुक्त भारत की दिशा में एक बड़ा कदम मानते हैं। उनके इतना कुछ कहने से हमें भी लगने लगा है कि राहुल जैसे सीध्ेा सच्चे और ईमानदार राजनेता का काम सियासत करना चुनाव लड़ना और मोदी शाह की जोड़ी से टक्कर लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा है। 2014 के बाद से विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की सियासी हालत खराब होती जा रही है। जो थोड़ा सा सुधार कांगे्रस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में किया था वह बढ़त अब तक कई राज्यों के चुनावों में गंवा चुकी है। लगता है कि राहुल को बीजेपी के मुकाबले चुनाव लड़ने के असरदार आक्रामक और मारक तौर तरीके सलीका और तमीज़ बिल्कुल भी नहीं है।
      राहुल को चुनाव लड़ने के अनैतिक और गैर कानूनी रंग ढंग छोड़कर बीजेपी की तरह पूरी तरह ‘पवित्र, शुध्द और आदर्श’ तरीके प्रयोग करने होंगे। राहुल को महंगाई बेरोज़गारी और विकास जैसे फालतू बेकार और बोर करने वाले मुद्दे छोड़कर भावनात्मक धार्मिक साम्प्रदायिक जातिवादी भड़काने वाले उकसाने वाले झूठे बेबुनियाद नफरती मुद्दे उठाने होंगे जिससे जनता उनको अपना हितैषी मानने को तैयार हो सके। राहुल को इसके साथ ही अपना एक चुनाव आयोग बनाना चाहिये जिससे वह एसआईआर के बहाने लाखों कांग्रेस विरोधी वोट काटकर अपने मनमाफिक वोटर लिस्ट तैयार कराकर बीजेपी की तरह अपने पक्ष में काम ले सकें। इसके बाद 16 लाख नये लोगों के आवेदन करने के बावजूद 21 लाख लोगों को वोटर बनवाकर अपने पक्ष में फर्जी मतदान करने को पांच लाख नये वोटों का जुगाड़ करना था। चुनाव आयोग को बीजेपी से शिकायत मिलने पर आंख कान नाक सब बंद रखकर आदर्श चुनाव आचार संहिता का अचार डालकर किसी सीलबंद डब्बे में बंद रखने को मजबूर करना था। इसके साथ ही राहुल को अपना एक सुप्रीम कोर्ट भी बनाना चाहिये था जो बिहार में विवादित एसआईआर प्रक्रिया पूरी होने के बावजूद उसी आरोपों से भरी मतदाता सूची से चुनाव हो जाने के बाद भी यह कहता रहता कि हम पूरी कवायद को निरस्त कर सकते हैं लेकिन स्टे नहीं करेंगे। राहुल को चाहिये था कि तेजस्वी को कहते कि भाई अगर सीएम बनना है कि महिलाओं के खाते में दस दस हज़ार रूपये डलवा दे नहीं तो अपनी जेब से नकद भेज दे। कोई शिकायत करता तो अपने चुनाव आयोग से कहलवा देते कि पहले से चालू स्कीम है, बंद नहीं करेंगे। अगर इतने ही कंगाल हो तो काहे चुनाव में उतरते हो? सियासत से तौबा कर अपने घर चुपचाप बैठ जाओ।
      राहुल की एक गल्ती और थी अपने भाषणों में अपने पापा दादी की हत्या अपनी मां को जर्सी गाय कांग्रेस की विधवा और खुद को पप्पू कहने का रोना नहीं रोया । हद तो तब हो गयी जब राहुल ने एक बार भी कट्टा तमंचा और जंगलराज तक शब्दों का प्रयोग नहीं किया। अरे तो तुम जैसे सीधे शरीफ ‘पप्पू’ लोग क्या खाक चुनाव लड़ोगे? चुनाव लड़ना है और जीतना है तो सड़कछाप छिछोरे और घटिया डायलाॅग तो बोलने ही पड़ेंगे। अगर चुनाव में खराब बयान का जवाब उससे भी खराब बयान बुरे भाषण का जवाब उससे भी सड़े हुए भाषण से और नीच आरोप का जवाब उससे भी घटिया निचले स्तर के और घृणित आरोप से नहीं दे सकते तो क्यों पदयात्रायें निकालकर अपना समय खराब करते हो? क्या बिगड़ जाता अगर एक बार बोल देते कि ट्रंप ने टैरिफ का ‘तमंचा’ लगाकर सीज़फायर कराया था...? राहुल पूरे देश से स्पेशल रेल चलवाकर उसमें इंडिया गठबंधन को वोट देने वालों को बिहार भेजकर चार चार हज़ार रूपये की मामूली रकम तक देने में कंजूसी कर गये तो अब काहे रोते हो? न घुसपैठियों से डराया न ही हिंदू मुस्लिम का राग अलापा तो राहुल के कहने से कौन अपना वोट खराब करता? राहुल ने अपनी ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स विभाग बनाकर बीजेपी के नेताओं को भी नहीं घेरा न ही उनको कांग्रेस में शामिल होने के लिये मजबूर किया, इतना ही नहीं जो व्यापारी और काॅरपोरेट बीजेपी को मोटा चंदा दे रहे थे उनको भी इन एजंसियों से टारगेट नहीं कराया। कांगे्रस शासित राज्यों में जो आदमी बुल्डोज़र चलवाकर और अल्पसंख्यकों की दो चार मोब लिंचिंग तक नहीं करा सकता उससे देश की राष्ट्रवादी जनता क्या आशा करके वोट देगी? एक शायर ने कहा है-
0 किसी के ज़र्फ़ से बढ़कर न कर अहद ए वफ़ादारी,
कभी बेजा शराफ़त भी क़ज़ा का काम करती है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 20 November 2025

ज़ोहराम ममदानी

*ज़ोहराम ममदानी की जीत से क्या सीख सकते हैं मुस्लिम नेता?*
0 अमेरिका के न्यूयार्क का मेयर चुने जाने पर 34 साल के ज़ोहराम ममदानी आजकल चर्चा का विषय बने हुए हैं। आखि़र ऐसा क्या था कि एक देश के एक शहर का मेयर चुना जाना ममदानी के लिये पूरी दुनिया में दो वर्गों के लिये नाक का सवाल बन गया। ममदानी मुस्लिम हैं लेकिन उनकी जीत में इस्लाम का कोई रोल नहीं था इसलिये मुसलमानों का उनकी जीत का जश्न मनाना समझ से बाहर है। उनकी पत्नी सीरियाई है। वे प्रवासी हैं। उनका जन्म युगांडा में हुआ। वे 8 साल की उम्र में अमेरिका के न्यूयार्क आये। जिस तरह से उनके चाहने वाले डेमोक्रेट लिबरल सेकुलर और मानवतावादी समाजवादी पूरे विश्व में फैले हुए हैं वैसे ही उनको उग्रवादी रेडिकल कम्युनिस्ट बताने वाले कंज़रवेटिव और अंधभक्त भी बहुत हैं।   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      सवाल यह है कि 9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले न्यूयार्क में कैसे एक मुसलमान ममदानी ईसाई हिस्पैनिक हिंदू और यहूदियों तक के वोट लेकर वहां के राष्ट्रपति टंªप के ज़बरदस्त विरोध और अंतिम समय में अपनी ही रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी को छोड़कर ममदानी की डेमोक्रेट पार्टी के विद्रोही निर्दलीय प्रत्याशी को सपोर्ट करने के बावजूद वे जीत गये? ट्रंप ने न्यूयार्कवासियों को बेशर्मी से यहां तक धमकाया कि अगर ममदानी को मेयर चुना जाता है तो वे सरकार से न्यूयार्क को मिलने वाला विकास का धन रोक देंगे। लेकिन ममदानी ने जनहित के ऐसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा कि किसी का कोई विरोध कोई धमकी कोई चाल उनकी जीत का रास्ता नहीं रोक सकी। दरअसल ममदानी दो विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बन गये। एक तरफ खुलेआम आवारा पूंजी कारपोरेट और अमीर वर्ग के हित में काम करने वाली पूंजीवादी नीतियों के समर्थक थे तो दूसरी तरफ ममदानी का समाजवाद गरीब समर्थन कमजोर वर्ग का साथ और मकानों का किराया कम करना मेट्रो तक पहुंच पुलिस की इंसाफ वाली छवि बुजुर्गो व मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के साथ जनता व ज़मीन से जुड़े दिल में उतर जाने वाले मुद्दे थे। ममदानी विरोधियों के तमाम हमलों के बावजूद अपनी सादी पोशाक मुस्कुराता हुआ चेहरा कंध्ेा पर छोटा सा बैग हाथ में मामूली माइक लेकर सड़कों पर आम न्यूयार्कवासी के बीच अपनी बात कहते घूमते रहे। उन्होंने भारत की तरह धर्म जाति और क्षेत्रवाद का कार्ड नहीं खेला। आज नतीजा आपके सामने है।
      हालांकि भारत के राजनीतिक पेटर्न से अमेरिकी सियासत की तुलना करना पूरी तरह सही नहीं होगा लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर ममदानी ने अपनी मुस्लिम पहचान के सहारे चुनाव को इस्लामी रंग देने का कुटिल प्रयास किया होता तो उनका हश्र भी भारत के ओवैसी और बदरूद्दीन अजमल जैसा हुआ होता। हम यहां यह दावा नहीं कर रहे कि अगर कोई भारतीय मुस्लिम सेकुलर पार्टी से या सर्वसमाज का नेता सबको साथ लेकर ममदानी की तरह चुनाव लड़ेगा तो वह पहले ही प्रयास में न्यूयार्क की तरह कामयाब हो जायेगा। लेकिन असम की मिसाल हमारे सामने नाकामी के तौर पर मौजूद है। असम में मुसलमानों के लिये लगभग सब ठीक चल रहा था लेकिन एक दिन मसुलमानों की 34 प्रतिशत आबादी की दुहाई देकर इत्र व्यापारी और जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रदेश मुखिया बदरूद्दीन अजमल ने एक मुस्लिम पार्टी बनाकर मुस्लिम सरकार मुस्लिम मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनाने का सपना देखा। उन्होंने चुनाव में मुस्लिम कार्ड खुलकर खेला और पहली बार में ही 18 विधायक कांग्रेस को मुस्लिम झटका देकर जिता लाये लेकिन यहीं से सेकुलर कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये और बीजेपी ने जवाबी हिंदू ध््राुवीकरण करके असम पर कब्ज़ा कर लिया। आज तमाम नाकामी एनआरसी घुसपैठ और क्षेत्रीय अस्मिता पर खतरे के भावनात्मक मुद्दे पर जीत कर बीजेपी राज कर रही है।
    अजमल खुद लोकसभा चुनाव दस लाख के भारी अंतर से हार चुके हैं। उनकी पार्टी का भी सफाया हो चुका है। उधर सेकुलर हिंदू वोट का साथ छूटने और मुस्लिम अजमल की तरफ जाने से कांग्रेस राजनीतिक रूप से कंगाल हो चुकी है। ऐसे ही हैदराबाद के ओवैसी ने अपनी मुस्लिम पहचान मुस्लिम पार्टी और मुस्लिम मुद्दों पर जमकर साम्प्रदायिक राजनीति करनी चाही लेकिन तेलंगाना के अलावा उनको कहीं कुछ खास फायदा नहीं हुआ लेकिन उनकी कट्टर धार्मिक राजनीति ने प्रतिक्रिया के रूप में बीजेपी को हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने का गोल्डन चांस दे दिया है। वे जहां भी मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ते हैं उन पर जवाबी हिंदू वोटों का ध््रुावीकरण होने से बीजेपी को जबरदस्त सियासी लाभ होता है। ओवैसी ने अपने बेरिस्टर होने सियासत घुट्टी में मिलने उच्च शिक्षित होने संविधान और कानून की अच्छी जानकारी होने से धर्म की अफीम के ज़रिये जोशीले भाषण दे देकर मुसलमानों में एक कट्टरपंथी सांप्रदायिक भावुक अंधभक्त खासतौर पर युवाओं का एक वर्ग अपने पक्ष में खड़ा कर लिया है। जो बात बात पर बचकाना तर्क यह कहकर देता रहता है कि एक पार्टी एक नेता और चंद विधायक सांसद तो हांे जो मुसलमानों के पक्ष में बोलते रहें। उनको यह पता नहीं अगर आज के दौर में मुसलमानों को धर्म के नाम पर जोड़कर कोई चुनाव लड़ेगा तो वह 15 प्रतिशत आबादी में से दो चार प्रतिशत के वोट लेकर दो चार जनप्रतिनिधि ही चुन सकता है।
      जिनकी संसद या किसी राज्य विधानसभा में तब भी कोई औकात नहीं होगी जबकि वे कुल सदन की संख्या का 49 प्रतिशत ही क्यों न हों? कहने का मतलब यह है कि जब तक किसी की सरकार नहीं बनती आप विपक्ष में बैठकर चाहे कितना ही शोर मचा लें आपकी बात कोई सुनने वाला नहीं है। आज ज़रूरत इस बात की पहले है कि आप उस पार्टी उस नेता और उन मुद्दों पर जुड़ें जिनपर जीतकर ममदानी अल्पसंख्यक होकर भी भारी विरोध के बावजूद जीतकर आता है। दूसरे जब तक कोई अल्पसंख्यक मुसलमानों के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगा बयान देगा और एकतरफा भाषण देगा तो उसके जवाब मंे बीजेपी जैसी हिंदूवादी पार्टियां हिंदू आबादी 80 प्रतिशत होने से 30 से 35 प्रतिशत वोट मिलने से ही बहुमत लाकर सरकार बना लेगी। उसके बाद मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलकर नफरत फैलाकर और उनका झूठा डर दिखाकर बार बार हिंदू कार्ड खेलकर चुनाव जीतती रहेंगी। इसलिये ममदानी से मुस्लिम नेताओं को यह सीखने की ज़रूरत है कि चाहे जीत मिले या ना मिले या कई साल और दशक बाद जीतें लेकिन सबको साथ लेकर चलने यानी सेकुलर पार्टी से जुड़ने और सर्वसमाज के मुद्दे उठाकर ही भारत में भी केवल मुसलमानों नहीं सभी भारतीयों सभी नागरिकों और सबको जोड़ने वाले सवाल लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। एक शायर ने कहा है-
0 मैं वो साफ ही न कह दूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,
तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

रोड एक्सीडेंट

*हर मौत पर नहीं केवल अपनों की मौत पर उबलता है हमारा समाज?*
0 क्या हमारा समाज और हम निष्ठुर अमानवीय संवेदनहीन अंतरनिहित आत्मकेंद्रित और स्वार्थी होते जा रहे हैं? जो लोग अपने धर्म जाति और क्षेत्र का एक व्यक्ति मारे जाने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, जो समाज अपने वर्ग का कुख्यात अपराधी तक मारे जाने पर गम और गुस्से में डूब जाते हैं, जो समूह अपने पालतू श्रध्देय और आस्था के प्रतीक जानवर तक मारे जाने या पकड़कर निर्जन इलाकों में दूर छोड़े जाने पर भी सड़कों पर उतर आता है वही लोग एक्सीडेंट में मारे जाने वाले दर्जनों लोगों पर चुप्पी साधे रहते है? क्यों? इससे उनको कोई दुख क्रोध और आक्रोश नहीं होता? इससे उनका मज़हब संस्कृति और सभ्यता ज़रा भी ख़तरे में नहीं पड़ती? यहां तक कि कितना ही बड़ा आदमी दुर्घटना में मारा जाये सब शांत रहते हैं।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     ट्रक और बस की भयंकर आमने सामने की भिड़ंत में दो दर्जन मरे एक दर्जन से अधिक घायल। आपने ख़बर पढ़ी सुनी और देखी। लेकिन आप ज़रा भी विचलित दुखी या सदमे में नहीं आये। यहां तक कि अगर इस तरह के रोड एक्सीडेंट मंे आपका कोई अपना भी मारा जाये तो आप दुखी तो अवश्य होते हैं लेकिन खास गुस्सा या नाराज़गी आपको नहीं होती। आप भगवान खुदा का लिखा मानकर अपने काम धंधे में लग जाते हैं। लेकिन अगर आपके अपने परिवार के सदस्य ही नहीं धर्म के अनुयायी जाति के भाई और क्षेत्र के निवासी की हत्या हो जाये तो आप बुरी तरह उबल पड़ते हैं। आपका खून खौलने लगता है। आप कानून की बजाये खुद अपराधी या आरोपी को सज़ा देने पर उतर आते हैं। यहां तक कि कई बार लोग ऐसे संदिग्ध आरोपियों की बिना सबूत गवाह और ठोस तथ्यों के मोब लिंचिंग यानी हत्या तक कर देते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि हमारे देश में ऐसी हत्यायें आम होती जा रही हैं लेकिन सरकार पुलिस या अदालतों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अब अपने मूल विषय पर आते हैं। सड़क दुर्घटनाओं में जो लोग बेमौत मारे जाते हैं। उनकी ख़बरों में किसी को विशेष रूचि नहीं है। पुलिस मौका मुआयना कर अज्ञात या अमुक के खिलाफ रपट दर्ज कर घायलों को चिकित्सालय और मृतकों को पोस्टमार्टम या पंचनामे के बाद उनके परिवारजनों को सौंप देती है। सरकार मरने वालों को और घायलों को कुछ लाख या कुछ हज़ार मुआवज़ा घोषित कर देती है।
     जो कई बार मिलता ही नहीं। आप ऐसी ख़बरों पर एक सरसरी निगाह डालते हुए अपनी रूचि की चुनाव राजनीति सांप्रदायिक धार्मिक या एग्ज़िट पोल अवैध सैक्स बलात्कार हत्या गबन आॅनलाइन ठगी अपहरण की ख़बरों पर नज़र गड़ाकर रूचि से पढ़ते हैं यह जानते हुए भी ऐसे हादसों का अगला शिकार आप खुद भी हो सकते हैं, तब आपकी भी ख़बर पढ़ने या उस पर अफसोस जताने में कोई दिलचस्पी नहीं लेगा। दि हिंदू अख़बार में ऐसी सड़क दुर्घटनाओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी है। रपट बताती है कि ऐसे हादसों के कितने कारण हो सकते हैं। कोरोना से जितने लोग मरे उससे कहीं अधिक हर साल रोड एक्सीडेंट में मर जाते हैं। इसका कारण हमेशा लापरवाही से वाहन चलाना नहीं होता। रिपोर्ट स्टडी करने पर पता चलता है कि जब खराब सड़कें और खराब फैसले आपस मिलते हैं तो डिजास्टर सा जन्म लेता है। तेलंगाना में एनएच 163 का एक भाग डेथ काॅरिडोर कहा जाने लगा है। यह रिपोर्ट विस्तार से दुर्घटनाओं की स्टडी करके बताती है कि डिज़ाइन की भयंकर कमियां रखरखाव का घोर अभाव हादसों का गंभीर समीकरण पैदा करता है। लंबी रोड उपेक्षा से बड़े भयंकर गड्ढे मिट्टी मिला हुआ बालू और फसल क्षेत्रों का फैलाव अंधेरा मीडियन की कमी गायब चेतावनी बोर्ड अधिकांश हादसों की वजह बन रहे हैं। एक ट्रफिक डीसीपी का कहना था कि ड्राइवर का व्यवहार ही नहीं बल्कि उसका नशा करना सड़कों पर तीखे मोड़ तीव्र ढाल और संरचनात्मक कमियां दुर्घटनाओं की बड़ी वजह बनती हैं। एक सड़क निर्माण करने वाले जाने माने ठेकेदार का दावा है कि गुणवत्ता का सवाल इसलिये नहीं उठाया जा सकता कि उनको टेंडर हासिल करने से लेकर कदम कदम पर जो दलाली देनी पड़ती है उसका प्रतिशत अब बढ़कर 55 तक जा पहंुचा है।
     कथित एक्सप्रेस वे हों या नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे सब की हालत खस्ता है, एनएचएआई कर्ज में डूबा है और उसके लिये ही जगह जगह टोल वसूली जारी है। रोड ही नहीं रेलवे से लेकर एयरवेज़ तक सब जगह सुरक्षा और यात्री सुविधओं का अभाव है। हालांकि राजनेता मंत्री और अफसर सड़कों व ट्रेनों का उदघाटन करते हुए उनके वल्र्ड क्लास होने और उनकी स्पीड बुलेट जैसी होने का दावा करते हैं लेकिन वे सुरक्षा को लेकर चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि उनको भी पता है कि उनकी प्राथमिकता में सुरक्षा का कोई खास स्थान होता ही नहीं। अगर हम अब भी अतीत के गौरव की बात सभ्यता और संस्कृति के नाम पर आपस में बांटो और राज करो की राजनीतिक दलों की चाल को नहीं समझेंगे तो हमें भारी भरकम टैक्स वसूली के बाद भी जिस तरह से खराब सड़कों पर हादसों का आयेदिन शिकार होने को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है, उसका अगला शिकार कोई भी हो सकता है और देश समाज ऐसे ही चलता रहेगा जैसे चल रहा है। इसलिये ज़रूरी है कि रोड एक्सीडेंट को नागरिक सुरक्षा का मुख्य मुद्दा बनाया जाये और चुनाव आने पर सवाल उठाये जायें, बाकी आपकी मर्जी अगर आपको इस तरह के हादसों से कोई परेशानी नहीं है। एक शायर ने कहा है-
 *0 ये लोग पांव नहीं जे़हन से अपाहिज हैं,*
*उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।।* 
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Tuesday, 4 November 2025

बाहुबली में खलबली

*अच्छे बाहुबली? बुरे बाहुबली?* 
*माफियाओं को लेकर खलबली!*
0 कभी अफ़गानिस्तान के तालिबान यानी कट्टरपंथियों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चली थी कि उग्रवादी अच्छे और बुरे भी होते हैं। जब तक वे अमेरिका के खिलाफ लड़ते रहे उनको आतंकवादी बताया जाता रहा लेकिन अब जब वे अफगानिस्तान की सत्ता में आ गये हैं तो अच्छे और भले हो गये। ऐसे ही बिहार में चुनाव के दौरान जंगल राज की बार बार चर्चा होती है। इसके लिये बाहुबलियों को टिकट देने चुनाव जीतने पर सत्ता का संरक्षण देने और विपक्ष में होकर भी उनको बचाने के आरोप सभी दलों पर लगते रहे हैं। अजीब बात यह है कि सत्ताधरी जदयू के बाहुबलि अनंत सिंह ने मोकामा सीट से सुराज पार्टी के बाहुबलि दुलारचंद यादव की हत्या कर दी लेकिन जंगलराज का आरोप राजद पर है।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इस लेख के छपने तक बिहार में पहले चरण का चुनाव हो चुका होगा। लेकिन जिन बाहुबलियों को लेकर राजनीतिक दलों में भीषण घमासान छिड़ा है, वह शायद दूसरे और अंतिम चरण तक नहीं बल्कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी चालू रहेगा। इस मामले में हालांकि सभी दलों का रिकाॅर्ड कमोबेश दागदार है लेकिन जब जंगलराज की बात चलती है तो राजद को लालूराज के लिये घेरा जाता है। हम इस लेख में एक गंभीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे कि आखि़र बाहुबलि इतने ही बुरे होते हैं तो सभी दल उनको चुनाव में टिकट और संरक्षण क्यों देते हैं? दूसरा अहम सवाल है यह है कि अगर सियासी दल सत्ता के लोभ में इन माफियाओं को टिकट दे भी देते हैं तो जनता इनको क्यों नहीं हरा देती?
     तीसरा और अंतिम सवाल यह है कि जब सभी दल समय समय पर अलग अलग अपराधियों हिस्ट्रीशीटर्स और कुख्यात माफियाओं को संरक्षण और टिकट देते ही हैं तो वे किस मुंह से दूसरे दलों को बाहुबलियों को पालने पोसने का ज़िम्मेदार ठहराते हैं? क्या सत्ताधरी दल के बाहुबलि अच्छे और विपक्ष के बाहुबलि बुरे होते हैं? बिहार की तो बात ही क्या यूपी तक जहां छोटे छोटे अपराधिक मामलों में भी आरोपियों के पैर में गोली मारकर उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चला दिया जाता है और कई कई केस वाले कम चर्चित अपराधी भी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराये जाते हैं, वहां भी बड़े अपराधियों घोषित माफियाओं और कई जाति के सिरमौर बनेे बाहुबलियों को सत्ता का और विपक्ष का संरक्षण अकसर मिलता रहा है। सोशल मीडिया में जबरदस्त फजीहत के बाद अनंत सिंह को पकड़ा गया है। यह शर्म की बात है कि न तो सरकार न ही चुनाव आयोग और न ही छोटी छोटी बातों पर सूमोटो लेने वाले कोर्ट ने इस हत्या पर कोई गंभीर पहल की। हालांकि जहां सत्ता में आना और उसमें किसी कीमत पर भी चुनाव जीतकर बने रहना ही लोकतंत्र माना जाता हो वहां जातिवाद साम्प्रदायिकता बाहुबलि भ्रष्टाचार झूठे दावे बेबुनियाद वादे चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी जनता के खाते में लाखों करोड़ सरकार के द्वारा डालते रहना चुनाव आयोग को गलत नहीं लगता। अगर आप गौर से जांच से करें तो आपको पता लगेगा कि चुनाव से ठीक पहले अनंत सिंह और आनंद मोहन सिंह को जेल से बाहर निकाला गया।
     इतना ही नहीं जेल में बंद प्रभुनाथ सिंह के भाई और बेटे को भी टिकट दिया गया। सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों ने कुल आठ बाहुबलियों को टिकट दिया है। मोकामा के ही बाहुबलि सूरजभान नामांकन की अंतिम तिथि से पहले टिकट नहीं मिलने पर एनडीए से महागठबंधन में आकर टिकट पा गये। यूपी में 2012 के चुनाव में अखिलेश यादव ने अपना दामन साफ रखने के चक्कर में बाहुबलि डीपी यादव रमाकांत यादव राजा भैया बृजभूषण शरण सिंह अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को मुलायम सिंह के लाख कोशिश करने पर भी अंतिम समय पर टिकट पर वीटो लगाकर वह चुनाव तो जीत लिया लेकिन वे अगली बार 2017 में जब हारे तो पता लगा एक वजह बाहुबलियों से उनका टिकट काटकर पंगा लेना भी था। सच यह है कि सामान्य या सज्जन विधायकों सांसदों के मुकाबले बाहुबलियों का साम दाम दंड भेद के द्वारा छोटे छोटे अपराधियों भ्रष्ट अधिकारियों और असरदार लोगों के साथ एक बड़ा पुख्ता व सक्रिय नेटवर्क होता है जो उनको न केवल चुनाव जिताने बल्कि जनप्रतिनिधि बनकर जनता के काम तत्काल कराने के लिये भी मुफीद होता है। उनके नाम के डर से भी वोट मिलते हैं। पुलिस प्रशासन उनके बताये काम लोभ और भय से करने से अकसर मना नहीं करते। जो ऐसा करने की हिमाकत करते हैं उनको सबक ये बाहुबलि खुद ही सिखा देते हैं। जनता को इनका यह अंदाज़ अच्छा लगता है।
      यहां तक कि ये बाहुबलि बच्चो के स्कूल एडमिशन और छोटे बड़े ठेके रोज़गार नौकरी इंटरव्यू सड़क बिजली कनेक्शन थाने में रपट राशन कार्ड विभिन्न सरकारी प्रमाण पत्र अस्पताल आॅप्रेशन तक के काम एक काॅल करके करा देते हैं जबकि बड़े बड़े नेता और अधिकारी स्कूल के मैनेजर और प्राचार्य से कई बार कहते कहते थक जाते हैं लेकिन वे उनकी काॅल तक सुनते ही नहीं। बाहुबलि अपने क्षेत्र में ही नहीं अपने आसपास के दर्जनभर चुनाव क्षेत्रों में भी उस दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाता है जिसमें वह शामिल है। इलाहाबाद की आधे से अधिक सीटें समाजवादी पार्टी अतीक अहमद के बल पर जीत जाती थी। ऐसे ही बिहार में लालू यादव की सत्ता को लाने से लेकर बनाये रखने में शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलि बड़ी भूमिका निभाते थे लेकिन सत्ता बदलने पर अधिकांश बाहुबलि नीतीश के दल में चले गये। इससे दोनों को संरक्षण मिला। इस समय शहाबुद्दीन अतीक और मुख्तार जैसे अधिकांश मुस्लिम बाहुबलियों को तो बदली सत्ता का साथ न देने पर ठिकाने लगा दिया गया है लेकिन हिंदू बाहुबलि अभी भी बड़ी संख्या में राजनीति में कई दलों के साथ काम कर रहे हैं। जब तक सियासत में नैतिकता शुचिता और पवित्रता नहीं आती बाहुबलियों को किसी ना किसी दल में सहारा मिलता ही रहेगा।
मस्लहल आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 30 October 2025

बहनजी का विश्वास खत्म

*बहनजी का नहीं रहा विश्वास,* 
*मुस्लिम नहीं आयेगा उनके पास!*
0 बसपा सुप्रीमो बहन मायावती ने कहा है कि मुसलमानों ने सपा के साथ बार बार तनमनधन से जाकर देख लिया लेकिन वे बीजेपी को नहीं हरा सके। उन्होंने मुसलमानों को बसपा से जोड़ने के लिये भाईचारा संगठन में यूपी के 18 मंडलों में एक दलित व एक मुस्लिम को संयोजक बनाने की कवायद शुरू की है। विपक्ष का आरोप है कि कुछ दिन पहले माया ने लखनऊ में योगी सरकार के सहयोेग से बीजेपी के दबाव में एक बड़ी विशाल रैली भी की थी, जिसके द्वारा यह संदेश देने की नाकाम कोशिश की गयी कि बसपा ने पूरी तरह से अपना जनाधार नहीं खोया है। इस रैली के ज़रिये मुसलमानों को गुमराह करके बसपा के साथ आने का यह कहकर लालच दिया गया था कि बसपा भाजपा की बी टीम नहीं है। 
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बसपा की मुखिया मायावती यह भूल रही हैं कि मुसलमान उस दौर में उनकी पार्टी के साथ फिर से जुड़ सकता है जिस दौर में उनके अपने दलित समाज ने उनका साथ छोड़ दिया है। यह बात उनकी किसी हद तक सही है कि अगर मुसलमान दलित समाज के साथ जुड़ जाये तो कुछ अन्य हिंदू कमज़ोर पिछड़े और शोषित वर्ग के प्रत्याशी उतारकर बसपा सपा कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के खिलाफ चुनाव जीत सकती है और माया इसी समीकरण के बल पर एक बार पूरे बहुमत से जीतकर यूपी में सरकार बना भी चुकी है। लेकिन उनको यह पता होना चाहिये कि केवल वोटों के समीकरण से चुनाव नहीं जीते जाते बल्कि इसके लिये जनता का पार्टी व उसके नेता में विश्वास होना पहली शर्त है। 2007 में माया को दलितों व मुसलमानों के साथ ही कुछ पिछड़ों व अगड़ों ने वोट देकर सरकार बनवाई थी। लेकिन उस दौर में माया ने सत्ता के बल पर सबका विकास करके सबका विश्वास जीतने की बजाये केवल दलितों को खुश करने को एकतरफा और पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया और करप्शन के रिकाॅर्ड तोड़कर वह बेहद कीमती मौका गंवा दिया। इसके बाद न केवल उनकी सत्ता चुनाव में छिन गयी बल्कि उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच भी शुरू हो गयी। यही वजह है कि बहनजी जेल जाने के डर से बीजेपी के इशारे पर ऐसे काम बयान और फैसले करती हैं जिससे उनके अपने वोटबैंक दलित पिछड़े और मुसलमान उनसे धीरे धीरे किनारा करते गये। उनका विश्वास पूरी तरह खत्म होता जा रहा है।
       उनको जनता का बड़ा हिस्सा बीजेपी की बी टीम मानता है। बहनजी खुद भी बीजेपी से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ नज़र आती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर 1991 में सबसे अधिक 8.38 प्रतिशत था जबकि सांसद सबसे अधिक 2009 में 21 जीते थे तो 2024 में मत प्रतिशत देश में 2.06 यूपी में 9.39 परसेंट हो गया और सांसद शून्य हैं। यूपी की बात करें तो 2007 में उसका वोट प्रतिशत सबसे अधिक 30.43 था तो विधायक सबसे अधिक 207 जीते थे लेकिन 2022 के चुनाव में वोट 12.88 प्रतिशत तो विधायक मात्र एक रह गया है। माया यह भूल रही है कि उनसे अच्छे लच्छेदार और दिल को छू लेने वाले बयान एआईएमआईएम के ओवैसी देते हैं लेकिन उनको भी जब से मुसलमानों ने बीजेपी की बी टीम माना है, तब से बांस से छूने को भी तैयार नहीं हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती चाहे दावे कुछ भी करें लेकिन यह बात अब साफ हो गयी है कि वे मोदी सरकार के दबाव में अपने खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति मामले में जांच को दबाये रखने के लिये भाजपा के इशारे पर बहुजन समाज के हितों के खिलाफ राजनीति कर रही हैं। यही वजह है कि आम चुनाव शुरू होने के दौरान उनको जब इंडिया गठबंधन ने भावी पीएम का चेहरा बनाकर पेश करने के लिये विपक्षी गठबंधन में आने का न्यौता दिया तो वे इतना घबरा गयी कि बिना इस प्रस्ताव पर चर्चा किये ही उल्टा यह आरोप लगा दिया कि कुछ दल बसपा के बारे में विपक्षी गठबंधन में जाने की अफवाहें फैला रहे हैं।
       इससे पहले उन्होंने अपने भतीजे आकाश को चुनाव की कमान सौंप दी थी। जब आकाश जोरदार चुनाव प्रचार करके जल्दी ही मीडिया में चर्चित होने लगे तो उनके खिलाफ कुछ भाषण में अपशब्द कहने की भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दर्ज कर दी। इसके बाद मायावती ने उनको उनके पद से हटाकर चुनाव प्रचार से भी रोक दिया। ऐसे ही मायावती ने जितने उम्मीदवार खड़े किये उनमें से जीता तो एक भी नहीं लेकिन चर्चा है कि गैर दलितों से चुनाव चंदे के रूप में मोटी रकम लेकर टिकट इस हिसाब से दिये गये जिससे अकेले यूपी में अकबरपुर अलीगढ़ अमरोहा बांसगांव भदोही बिजनौर देवरिया डुमरियागंज फरूखाबाद फतेहपुर सीकरी हरदोई मिर्जापुरा मिश्रिख फूलपुर शाहजहांपुर और उन्नाव आदि 16 सीट पर बसपा के प्रयाशियों ने इतने मुस्लिम दलित वोट काट लिये कि इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार उससे कम वोटों के अंतर से भाजपा केंडीडेट से हार गया। लेकिन यहां सवाल बसपा सुप्रीमो की नीयत का है। वे लगातार ऐसे बयान देती रही हंै जिससे भाजपा को लाभ और सेकुलर दलों को नुकसान हुआ है। 2019 में सपा से गठबंधन करके जब उन्होंने यूपी में संसदीय चुनाव लड़ा था तो उनको शून्य से 10 सीट पर पहुंचने का भारी एकतरफा लाभ हुआ था। जबकि दलित वोट सपा को ना जाने से सपा की सीट पहले की तरह 5 ही रह गयी थीं। फिर भी पूरी बेशर्मी से बहनजी ने झूठ बोलते हुए गठबंधन से बसपा को लाभ ना होने का आरोप लगा कर भाजपा के दबाव में अलग होने का एलान कर दिया था।
       यह अजीब बात है कि आज जब उनकी पोल खुल चुकी है कि वे भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कही जाती बल्कि इसके कई प्रमाण और उदाहरण लोगों के सामने आते जा रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि मायावती क़सम खा लंे कि चाहे कोई मुसलमान कितनी ही बड़ी रकम चंदे मंे दे वे उसको किसी कीमत पर टिकट नहीं देंगी क्योंकि इससे मुसलमानों पर उनका एहसान होगा नुकसान नहीं। सच तो यह है कि करोड़ों रूपये देकर जो बसपा का टिकट लाता है। उसके पास अपवाद छोड़ दें तो नंबर दो यानी हराम का पैसा ही अधिक होता है। इससे मुसलमानों का आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ साथ वोट काटकर बसपा भाजपा को हर बार कई सीट जिताकर राजनीतिक नुकसान भी करती है। मुसलमानों का एक वर्ग जो साम्प्रदायिक है और बसपा प्रत्याशी को अपने ही धर्म का देखकर केवल इस चक्कर में वोट कर देता है कि इससे संसद में मुसलमानों की संख्या कुछ बढ़ सकती है। जबकि सेकुलर दल और उनके हिंदू नेता आज के दौर में मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई बसपा के मुस्लिम से बेहतर लड़ रहे हैं। बहनजी आरपीआई के प्रकाश अंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी जैसे डबल गेम खेलने वाले चालाक धूर्त सभी नेता यह समझ लें कि ये पब्लिक है सब जानती है।
0 एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 23 October 2025

हरामखोर कौन

*50 परसेंट वोटर्स पर क्यों हैं मौन,*
 *गिरिराज को वेतन देता है कौन?* 
0 केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने उन सब लोगों को नमकहराम कहा है जो केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ तो लेते हैं लेकिन बीजेपी को वोट नहीं देते। भले ही उनका इशारा मुसलमानों की तरफ़ हो लेकिन सही बात यह है कि उन्होंने आधे से अधिक उन हिंदुओं को भी लपेट लिया है जो भाजपा को वोट नहीं देते। बीजेपी को लगभग 36 परसेंट वोट मिलते हैं। मुसलमान देश में 14 परसेंट हैं। तो जो 64 परसेंट वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते उनमें 50 परसेंट गैर मुस्लिम हैं। दूसरी बात यह है कि गिरिराज सिंह को जो वेतन भत्ते और सांसद निधि मिलती है उसमें मुसलमानों के टैक्स का पैसा भी शामिल है। तीसरी बात यह है कि संविधान मंत्री को इस नफ़रत भेदभाव और पक्षपात की इजाज़त नहीं देता है।
  *-इकबाल हिन्दुस्तानी* 
बिहार के अरवल में एक रैली के दौरान केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक मौलवी के साथ अपने वार्तालाप को सुनाते हुए कहा है कि ‘‘हमने कहा आयुष्मान कार्ड मिला? उसने कहा हां मिला। हमने कहा हिंदू मुसलमान हुआ? उसने कहा नहीं। हमने कहा बहुत अच्छा आपने हमको वोट किया था? उसने कहा हां दिया था। मैंने कहा खुदा की नाम लेकर बोलिये? तो उसने कहा नहीं दिया था। हमने कहा नरेंद्र मोदी ने गाली दिया था, हमने गाली दिया था? कहा नहीं। मैंने कहा मेरी गल्ती क्या थी? जो किसी का उपकार ना माने उसे क्या कहते हैं? नमकहराम कहते हैं। हमने कहा मौलवी साहब हमें नमकहराम का वोट नहीं चाहिये।’’ इस बातचीत को पूरी तरह सच नहीं माना जा सकता क्योंकि गिरिराज अकसर झूठ बोलते हैं। दूसरी बात यह है कि चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों के 8 प्रतिशत वोट मिलते हैं। गरीब मुसलमान 11 परसेंट तक बीजेपी को वोट देता है। जबकि अमीर 6 और मीडियम क्लास मुसलमान 5 प्रतिशत वोट भाजपा को देता है।
       उधर हिंदू 85 प्रतिशत होकर भी केवल 28 प्रतिशत ही भाजपा को वोट देता है। केंदीय योजनाओं का लाभ तो हिंदू मुसलमान सभी ले रहे हैं। लेकिन यहां नोट करने वाली बात यह है कि जिस तरह से बीजेपी ने मुसलमानों का हर स्तर पर विरोध दमन अन्याय अत्याचार पक्षपात भेदभाव और उनसे दुश्मनी की हद तक नफ़रत का माहौल बनाकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति की है, इसके बावजूद उसको उनके 8 परसेंट वोट मिलना भी हैरत और डर की बात है। अगर आज देश में कानून संविधान और समानता का राज होता तो गिरिराज सिंह जैसे लोग मंत्रिमंडल नहीं जेल में होते। उनकी सांसदी छिन चुकी होती। चुनाव आयोग जीवित होता तो उनके ज़हरीले चुनाव प्रचार पर रोक लगा चुका होता। सुप्रीम कोर्ट न्याय करता तो स्वयं सू मोटो लेकर उनको दो धर्म के लोगों के बीच दरार पैदा करने के लिये तलब कर सज़ा दे चुका होता। मीडिया ज़िंदा होता तो उनसे उनके ज़हरीले आपत्तिजनक और विवादित बयानों पर तीखे सवाल पूछ रहा होता।
        खुद मोदी अगर सबका साथ सबका विश्वास में विश्वास रखते तो उनको ना केवल मंत्री पद से बर्खास्त करते बल्कि भविष्य में चुनाव लड़ने को बीजेपी का टिकट भी नहीं देते। साथ ही सब भारतीयों का डीएनए एक बताने वाला संघ उनको अब तक कभी का आडवाणी बना चुका होता। लेकिन खेद है ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि यह सब एक सुनियोजित योजना बीजेपी का एजेंडा और उसके नफ़रत झूठ व बांटो और राज करो की घटिया नीति का सोचा समझा हिस्सा है। लेकिन बीजेपी को यह नहीं भूलना चाहिये कि बढ़ते करप्शन अपराध बेरोज़गारी महंगाई गरीबी भुखमरी अराजकता साम्प्रदायिकता घृणा झूठ जातिवाद हिंसा माॅब लिंचिंग बलात्कार पक्षपात भेदभाव वोट चोरी अन्याय अत्याचार शोषण घोटालों आॅनलाइन स्कैम आवारा पूंजीवाद रिश्वतखोरी कमीशनखोरी का अनुपात के हिसाब से नुकसान उनको ही अधिक संख्या में हो रहा है जिनका जनसंख्या में हिस्सा अधिक है। केवल मुसलमानों को हर समस्या के लिये टारगेट करके अपने कुकर्मों का ठीकरा बार बार उन पर फोड़कर हिंदुओं को अब आगे लंबे समय तक धोखा नहीं दिया जा सकता। अगर बीजेपी इतनी ही लोकप्रिय होती तो उसको राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ता वह निष्पक्ष जांच कराकर विपक्ष को विश्वास में ले सकती थी।   
       अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
       भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 2.01 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है, ऐसे ही देश में सबसे कम आबादी की बढ़त वाले राज्यों में मुस्लिम बहुल कश्मीर सबसे आगे हैं। देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30.9 से बढ़कर 34.2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है लेकिन सीमा पर घुसपैठ रोकने की ज़िम्मेदारी भी केंद्र सरकार की है।  
*0चाकू की पसलियों से सिफ़ारिश तो देखिये,*
*वह चाहता है काटने में उसको मदद करें।।* 
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Thursday, 9 October 2025

बिहार का विवादित एसआईआर

*बिहार का विवादित एसआईआर,* 
 *केंचुआ नहीं मान रहा आधार?* 
0 बिहार का एसआईआर पूरा हो गया। अंतिम मतदाता सूची भी आ गयी लेकिन इस पर विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। चुनाव विश्लेषक और समाजसेवी योगेंद्र यादव का कहना है कि बिहार की कुल व्यस्क आबादी के अनुसार राज्य में 8 करोड़ 22 लाख वोटर होने चाहिये। लेकिन एसआईआर की लास्ट वोटर लिस्ट में 80 लाख वोटर कम हैं। ऐसे ही नये वोटर बनने के लिये आयोग के अनुसार अंतिम तिथि तक 16 लाख 93 हज़ार लोगों ने आवेदन किया था लेकिन नये मतदाता 21 लाख 53 हज़ार बना दिये गये। सवाल यह है कि 4 लाख 60 हज़ार नये मतदाता कहां से आ गये? एक करोड़ 30 लाख से अधिक वोटर के पते सन्दिग्ध हैं। 3 लाख 66 हज़ार नाम जो काटे गये उनका कारण भी नहीं बताया जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और एनडीए एलाइंस के बीच मात्र 11150 वोट का अंतर था। इसकी वजह औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम को माना गया था। जिसने 4 सीट जीती और 11 सीट पर महागठबंधन के वोट काटकर 15 सीट के मामूली बहुमत से जेडीयू भाजपा की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी। विपक्ष का आरोप था कि इस बार महागठबंधन के जीतने के पूरे पूरे आसार देखकर केंचुआ मोदी सरकार के इशारे पर एसआईआर के बहाने विपक्ष के वोट काट रहा है और भाजपा जेडीयू के फर्जी वोट बढ़ा रहा है। एसआईआर जिस जल्दबाज़ी और गैर पारदर्शी तरीके से किया गया है। उससे भी विपक्ष के आरोपों को बल मिल रहा है। बताया जाता है कि जिन लाखों लोगों के वोट केंचुआ ने काटे हैं उनकी विस्तृत जानकारी बार बार मांगने के बाद भी वह अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं कर रहा है कि उनके वोट किस वजह से काटे गये हैं? एसआईआर के दौरान भाजपा ने यह भी दावा किया था कि राज्य में बड़े पैमाने पर विदेशी घुसपैठ हुयी है। लेकिन अब यह नहीं बताया जा रहा है कि कितने घुसपैठियों के वोट काटे गये? यह भी नहीं बताया जा रहा है कि केंचुआ को कैसे पता लगा कि अमुख मतदाता विदेशी है? क्योंकि यह जांचने का काम तो गृह मंत्रालय का है।
      यह बात एसआईआर पर चर्चा के दौरान खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कंेचुआ को कई बार यह भी सलाह निर्देश और आदेश दिया कि वह मतदाता की पहचान के लिये आधार को 12 वां दस्तावेज़ स्वीकार करे, लेकिन केंचुआ अभी भी मक्कारी करते हुए कह रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आधार को लेकर दिये गये आदेश का सम्मान करता है लेकिन पूरे देश में वह आधार तभी स्वीकार करेगा जब पहले से दी गयी पहचान पत्रों की 11 की लिस्ट में से कोई एक कागज़ आधार के साथ दिया जायेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आधार स्वीकार नहीं किया जा रहा है क्योंकि जब उसके साथ पहले से बताये गये 11 में से एक दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो आधार का क्या मतलब रह गया? एसआईआर के बाद जो वोटर लिस्ट सामने आई है उसमें दो लाख से अधिक मतदाताओं के पते के सामने कुछ भी नहीं लिखा है। ऐसे ही 24 लाख घर ऐसे हैं जिनमें 10 से अधिक लोग रहते हैं, क्या यह शक की बात नहीं है। रिपोर्टर कलक्टिव की रिपोर्ट के अनुसार 14 लाख 35 हज़ार वोट अभी भी डुप्लिकेट हैं। इसमें वोटर का नंबर तो अलग अलग है लेकिन उनके माता पिता का नाम एक ही है। उनके अनुसार एक ही पते पर 505 मतदाता अभी भी मौजूद होना एसआईआर की पूरी कवायद को शक के दायरे मंे लाता है। ऐसे ही एक अन्य जगह पर 442 मतदाता एक साथ रहते पाये गये हैं। इनके धर्म और जाति भी अलग अलग है। एक करोड़ 32 लाख मतदाताओं के पते संदिग्ध हैं। अगर केंचुआ के कर्मचारियों ने घर घर जाकर एक एक मतदाता का सत्यापन किया होता तो इतनी बड़ी कमियां गल्तियां और खामियां नहीं होतीं।
      चुनाव आयोग ने अपनी प्रेस वार्ता में एक साथ पांच पांच रिपोर्टर के सवाल लिये जिससे असुविधाजनक सवालों को वह जवाब देने से टाल गया। न्यूज़ लांड्री की रिपोर्ट के अनुसार 2 लाख 92 मतदाताओं के घर का पता जीरो दर्ज किया गया है। इस मतदाता सूची में पहले की तरह लिंग उम्र और अन्य आधार पर दी जाने वाली आठ अलग अलग जानकारी भी केंचुआ देने से पीछे हट गया है। विधानसभा सीट वार कितने वोट काटे गये और कितने नये जोड़े गये यह भी केंचुआ नहीं बता रहा है क्योंकि उसको डर है कि इससे स्थानी लोग उसकी गड़बड़ी और भी जल्दी पकड़ लेंगे। डिजिटली रीडेबिल वोटर लिस्ट के लिये भी विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ी है तो केंचुआ आखिर छिपाना क्या चाहता है? वह लेवल प्लेयिंग फील्ड उपलब्ध कराकर अपने माथे पर लगा सरकार का कठपुतली होने पर दाग हटाने को चिंतित क्यों नहीं है? चुनाव की तिथि घोषित होने के अंतिम समय तक निष्पक्षता किनारे कर नीतीश सरकार एक करोड़ महिलाओं के खाते में 10 दस हज़ार रूपये एक तरह से रिश्वत के तौर पर भेजती रही लेकिन केंचुआ का मुंह बंद ही रहा। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार के बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है।
       विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है।  रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का सवाल तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। वीडियो फुटेज ना दिखाना विपक्ष को डिजिटल वोटर लिस्ट ना देना और एक ही पते पर सैंकड़ो लोगों का वोट बन जाना कुछ ऐसे चर्चित विवादित और शक पैदा करने वाले अनेक मामले हैं जिनसे केंचुआ की साख रसातल में जा रही है, लेकिन उसे और सरकार को कोई मतलब नहीं है। केंचुआ पर एक शेर याद आ रहा है-उसके होंटों की तरफ ना देख वो क्या कहता है, उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 18 September 2025

केंचुआ का दुस्साहस

*केंचुआ क्यों कर रहा है मनमानी,* 
*सुप्रीम कोर्ट की भी नाफ़रमानी?*
0 केंद्रीय चुनाव आयोग यानी केंचुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बार बार अनदेखा कर दावा कर रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसको पूरे देश मंे एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करने से नहीं रोक सकता? केंचुआ ने यह चुनौती सबसे बड़ी अदालत को अपने लिखित शपथ पत्र में दी है। यह हैरत और चिंता की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति गवर्नर और संसद तक को समय समय पर संविधान के खिलाफ काम करने पर चेतावनी पुनर्विचार या उनके बनाये नियम कानूनों तक को निरस्त कर चुका है, उस सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग किसके बल बूते पर चुनौती देने का दुस्साहस कर रहा है? अगर 2014 से पहले का दौर होता तो अब तक सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाकर जेल भेज चुका होता...।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     केेंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने कहा है कि पूरे देश में होने वाले मतदाता सूचियों के एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण में अब अधिकतर राज्यों में आधे से अधिक मतदाताओं को कोई भी दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग का दावा है कि 1978 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई कागज़ नहीं देने की छूट दी गयी है। इसके साथ ही केंचुआ ने अपनी बात काटते हुए इसी प्रेस रिलीज़ में यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को केवल एक हलफनामा देना होगा जिसके साथ एक ऐसा दस्तावेज़ देना ज़रूरी होगा जिससे उनके जन्मतिथि और जन्मस्थान की प्रमाणिकता की पुष्टि होती हो। ऐसा लगता है कि केंचुआ अपने दिमाग से काम न करते हुए किसी के मौखिक आदेश पर काम कर रहा है? उसको यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आ रही कि जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण पत्र भी दस्तावेज़ ही होता है। जब शपथ पत्र के साथ 1978 से पहले पैदा हुए मतदाताओं को यह दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो यह झूठ क्यों बोला जा रहा है कि ऐसे लोगों को कोई दस्तावेज़ नहीं देना है। सवाल यह भी उठता है कि जब आप किसी से अपने जन्म की तिथि और जन्म के स्थान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं तो एक तरह से नागरिकता का ही प्रमाण मांग रहे हैं। 
     जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि नागरिकता तय करने का काम केंचुआ नहीं गृह मंत्रालय का है। दूसरी बात जो लोग आज से 47 साल पहले यानी 50, 60, 70 या 80 साल पहले पैदा हुए थे वे अपना जन्म का प्रमाण पत्र कहां से लायेंगे? उन दिनों कौन बनवाता था जन्म का प्रमाण पत्र? और अगर किसी ने बनवाया भी होगा तो वह अधिक से अधिक जन्म तिथि का प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की मार्कशीट हो सकती है। वो भी 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास ही मिलेगी। सरकारी नौकरी न मिलने या सब काम आजकल आधार से होने की वजह से अधिकांश लोगों ने वह जन्म का प्रमाण भी शायद ही संभाल कर रखा हो। आधार पर याद आया जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर शुरू करने के दौरान केंचुआ से कहा कि वह आधार को भी उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल करे जो वह राज्य में मतदाताओं से उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिये अनिवार्य तौर पर मांग रहा है। केंचुआ ने सबसे बड़ी अदालत के बार बार निर्देश देने के बावजूद आधार को तब तक उस सूची में शामिल नहीं किया जब तक कि याचिका कर्ताओं ने केंचुआ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से उसकी अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शिकायत दर्ज नहीं करा दी। यह बात भी रहस्य बनी हुयी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों केंचुआ को इतनी मनमानी और नाफरमानी की खुलेआम छूट दे रहा है? 
      जिससे उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वह सबसे बड़ी अदालत को बाकायदा लिखित में यह चुनौती शपथ पत्र दााखिल करके दे रहा है कि उसके एसआईआर के काम में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता? यानी केंचुआ कुछ भी गैर कानूनी नियम के खिलाफ और संविधान को ताक पर रखकर मनमानी करने को आज़ाद है? वह भूल गया है कि केंचुआ जनता का नौकर है। नौकर अगर जनता के खिलाफ काम करेगा तो उसको जनता कोर्ट में चुनौती देगी और सुधार नहीं करेगा तो नौकरी से भी निकाला जा सकता है। अगर केंचुआ के पीछे मोदी सरकार नहीं खड़ी है तो उसकी इतनी हिम्मत और हिमाकत कैसे हो गयी कि वह चोरी और सीना ज़ोरी कर रहा है? जब संसद से बने कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त या संशोधित कर स्टे कर सकता है तो केंचुआ की सुप्रीम कोर्ट के सामने औकात ही क्या है? 
      समाजसेवी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का दावा है कि बिहार में केंचुआ की कारस्तानी की पोल खुल चुकी है। वहां उसने 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया। जब 16 लाख लोगों ने अपना नाम शामिल करने और 4 लाख लोगों ने आपत्ति दर्ज की तो पता चला कि 40 प्रतिशत से अधिक वो लोग हैं जिनकी आयु 25 से 100 साल के बीच है। यानी ये लोग पहली बार वोटर बनने के लिये नहीं अपना फर्जी तरीके से कट गया नाम जुड़वाने के लिये आवेदन कर रहे हैं। इनको केंचुआ कह रहा है कि अपना पुराना इपिक भूल जाओ और नये सिरे से मतदाता बनने के लिये ज़रूरी कागजात जमा करो। केंचुआ के दावा है कि आॅब्जक्शन करने वाले 4 लाख लोगों में से 58 प्रतिशत कह रहे हैं कि उनका नाम लिस्ट से काट दीजिये क्योंकि वे मर चुके हैं, विदेशी हैं या कहीं राज्य से बाहर रहने लगे हैं। अब सोचिये क्या कोई मृतक या विदेशी ऐसा कह सकता है? यह सब फर्जीवाड़ा खुद चुनाव आयोग अपने बीएलओ के द्वारा करा रहा है जिससे चुनाव आयोग ने हमारे चुनाव वोटर लिस्ट और लोकतंत्र को तमाशा बना कर रख दिया है। एक शायर ने कहा है-
 *लश्कर भी तुम्हारा है सरदार भी तुम्हारा है,* 
 *तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार भी तुम्हारा है।* 
 *इस दौर के फ़रियादी जाएं भी तो कहां जायें,* 
 *सरकार भी तुम्हारी है दरबार भी तुम्हारा है।।* 
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 3 September 2025

निक्की भाटी की दहेज़ हत्या

*निक्की भाटी की हत्या लक्षण है,*
*असली रोग समाज का लोभ है!*
0 21 अगस्त को ग्रेटर नोयडा में 26 साल की निक्की भाटी की दहेज़ के लिये निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके साथ ही यह बहस एक बार शुरू हो गयी कि दहेज़ हत्या के लिये क्या पति सास ससुर और उसकी ननद ही ज़िम्मेदार होते हैं? या उसके माता पिता रिश्तेदार और पुरूषप्रधान समाज का लड़की को वस्तु समझना बोझ समझना और किसी तरह से उसकी शादी करके सदा के लिये उससे मुक्ति पाने की सोच भी इस तरह के अपराध के लिये उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? निक्की का मर्डर केवल दहेज़ के लिये नहीं बल्कि उसका अपने पैरों पर खड़े होने को फिर से ब्यूटी पाॅर्लर खोलने की ज़िद, लगातार टाॅर्चर किये जाने के बावजूद उसके परिवार वालों का उसको पुलिस के पास न भेजकर समझा बुझाकर वापस उसकी ससुराल भेजना और लड़की को डोली में विदा कर उस घर से अर्थी या जनाजे़ में ही निकलने की दकियानूसी सीख भी वजह बनी है?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में कुल 6450 महिलायें दहेज़ के लिये यातनायें देेकर मारी जा चुकी हैं। दहेज़ हत्या के 60,577 मामलों में केवल 1231 में दोषियों को सज़ा मिली हैं। हमें लगता है कि देश में जिस तरह से लोकलाज गरीबी और विभिन्न सामाजिक भेदभाव के चलते अधिकांश अपराध के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते उस हिसाब से दहेज़ हत्या के वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हो सकते हैं। यह हमारे पूंजीवाद समाज के लिये शर्म की बात है कि आज खुलेआम अधिकांश लोग शादी के लिये रिश्ते की बात तय करते हुए साफ़ साफ़ पूछ लेते हैं कि लड़के वालों की क्या मांग है? उसके बाद लड़की वाला अपना बजट बताता है। फिर दोनों पक्षों में जब किसी खास रकम पर बात तय हो जाती है तो यह भी खोल दिया जाता है कि कितना पैसा किस तरह से लड़की पक्ष की ओर से खर्च किया जायेगा। इसके बाद कई बार यह भी होता है कि लड़के वाला और अधिक की मांग रखता जाता है जबकि लड़की वाला यह कहकर शादी की तैयारी शुरू कर देता है कि चलो देखा जायेगा...। हो जायेगा, देख लेंगे, सोच लेंगे, कोशिश करेंगे आदि आदि। इसके साथ ही कभी कभी यह भी होता है कि तयशुदा रकम या सामान मिलने के बावजूद लड़के वाले की लालच की भूख खत्म नहीं होती और घटिया नीच व अत्यधिक लोभी परिवार होने की वजह से वे एक के बाद एक नई मांग रखते जाते हैं।
    जिससे एक न एक दिन लड़की वाले का बजट और सहनशीलता की सीमा टूट जाती है। इसके बाद टकराव तनाव और लड़की का दहेज़ के लिये उत्पीड़न मानसिक से बढ़कर शारिरिक और पुलिस की थर्ड डिग्री के तौर तरीकों तक पहुंच जाता है। ऐसे में लड़की या तो अपने माता पिता की मजबूरी समझकर चुपचाप सहन करती रहती है या फिर उनको बता भी देती है तो वे असहाय परेशान और तलाक दिलाकर फिर से लाखो रूपये खर्च करने की हैसियत न होने या पैसा हो भी तो सामाजिक पारिवारिक व आर्थिक कारणों से इस जानलेवा समस्या को अनदेखा करते रहते हैं। यह हमारे पुरूषप्रधान समाज की ही निष्ठुरता निर्दयता और बेईमानी है कि लड़की का तलाक होने पर उसकी दूसरी शादी होनी मुश्किल हो जाती है जबकि लड़की को दहेज़ के लिये सताकर मारने वाले लड़के की फिर से शादी बिना किसी बड़े नुकसान सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज को दरकिनार हो जाती है। यह हमारे समाज का दोगलापन बड़बोलापन और नैतिक रूप से खोखलापन ही कहा जा सकता है। निक्की के पिता ने शादी में लगभग 30 लाख खर्च किये थे जो कि छोटी रकम नहीं होती। साथ ही स्काॅर्पियो कार बुलेट मोटर साइकिल और भरपूर जे़वर व दूसरे घरेलू इस्तेमाल के महंगे सामान के साथ ही भव्य दावत भी दी थी। लेकिन कहते हैं कि लालची आदमी को आप सारा ज़मीन आसमान भी दे देंगे तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता है। कुछ लोग आज भी शादी में अपनी बेटी को विदा नहीं करते बल्कि गर्व से इसे कन्यादान कहते हैं।
     क्या लड़की कोई सामान है? वह कोई सम्पत्ति है? जो उसको दान किया जाता है? कुछ लोग लड़की के देवी होने का दावा भी करते हैं लेकिन उसको केवल और केवल इंसान नहीं मानते। उसको लड़के के बराबर नहीं मानते। उसकी शादी के लिये उतनी ही समान आवश्यकता नहीं स्वीकारते जितनी लड़के की होती है। अजीब और दुखद बात यह है कि यह बात लड़के वाला ही नहीं खुद लड़की का परिवार भी मानता है कि लड़की लड़के से छोटी कमतर कम पढ़ी लिखी कमज़ोर कम हैसियत वाली कम प्रभावशाली कम कमाने वाली कम सामाजिक कम सहेली दोस्त वाली कम मोबाइल चलाने वाली कम खुलकर हंसने वाली कम गैरों से बात करने वाली कम सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली कम अपनी मर्जी चलाने वाली कम अपनी पसंद से कपड़े खाना और अपने या परिवार के बारे में फैसला करने की इच्छा रखने वाली ही अच्छी होती है। तथाकथित मान मर्यादा इज़्ज़त छवि बच्चो की चिंता परिवार बिखरने का डर और आन के लिये लड़की के साथ खुद उसका परिवार ही पक्षपात अन्याय और असमान व्यवहार कर हर हाल में वहीं जीने वहीं मरने यानी ‘‘एडजस्ट’’ करने को मजबूर करता है। यह जुल्म और ज़्यादती की इंतिहा ही कही जा सकती है कि समाज के लिये एक लड़की की जान बचाने से अधिक परिवार का सम्मान बचाने को उसका तलाक ना लेने देना अधिक उपयोगी माना जाता है।
      उसकी पसंद के लड़के से शादी करना तो दूर उससे रिश्ता तय करते हुए कई परिवारों में लड़के से मिलाना दिखाना और बात कराना तक वर्जित है। ऐसे ही लवमैरिज या लिवइन रिलेशन को समाज के साथ ही कई राज्य सरकारें अपराध जैसा बनाने का कानून ला चुकी हैं जबकि इससे लड़का लड़की की आपसी समझ पसंद और गुण दोष पहले ही सामने आ जाने से कई लड़कियां शादी के बाद दहेज़ उत्पीड़न मानसिक यातना और हत्या से बच जाती हैं। लानत है ऐसे समाज पर लानत है ऐसी व्यवस्था पर और लानत है ऐसी सोच पर जिसमें पंूजीवाद के चलते लोग अधिक से अधिक पैसा एक मासूम असहाय और कमज़ोर लड़की को दुल्हन बनाकर घर लाकर ब्लैकमेल करके न केवल वसूल लेते हैं बल्कि जब असफल हो जाते हैं तो उसकी जान तक भूखे भेड़ियों की तरह ले लेते हैं लेकिन हमारी सरकार पुलिस और अदालतेें समय पर सख़्त सज़ा देकर अपराधियों को सुधरने के लिये मजबूर तक कई कई साल नहीं कर पाते यानी ये सब न्याय के रास्ते बंद से हो चुके हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे समाज के साथ ही पूरे सिस्टम को बदले बिना इस रोग से छुटकारा मिलना असंभव है। अंजुम रहबर ने एक दुल्हन के दर्द को शेर में क्या खूब बयान किया है-
 *उसकी पसंद और थी मेरी पसंद और,* 
 *इतनी ज़रा सी बात पर घर छोड़ना पड़ा।*   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 27 August 2025

मोदी सरकार और भ्रष्टाचार

*सरकार पर लगे हैं आरोप लगातार,*
*लेकिन साबित कैसे होता भ्रष्टाचार?*
0 पीएम मोदी ने कहा है कि इतने वर्षों में हमारी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी दाग नहीं लगा। यह बात किसी हद तक तो सही है क्योंकि जब मोदी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे अगर वे उनकी निष्पक्ष जांच कराते तो सच सामने आता। हालांकि आज के दौर में निष्पक्ष तो सीबीआई या ईडी भी नहीं है जो केवल विपक्ष के नेताओं को चुनचुनकर भ्रष्टाचार के आरोप में निशाने पर लेती है। यही आरोपी विपक्षी नेता जब भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो उनकी जांच ठंडे बस्ते में चली जाती है या फिर उनको क्लीन चिट दे दी जाती है। मोदी सरकार में भ्रष्टाचार को कई मामलों में या तो लीगलाइज़ कर दिया गया है या फिर ऐसे तौर तरीके निकाल लिये गये हैं जिनसे करने पर करप्शन करप्शन की परिभाषा से बाहर हो गया है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इलेक्टोरल बांड की मिसाल ताज़ा है। यह करप्शन का जीता जागता नमूना था। इसको सुप्रीम कोर्ट ने अवैध मानकर निरस्त कर दिया था लेकिन इसके द्वारा जो लाखो करोड़ रूपया वसूला गया उसको राजनीतिक दलों से वापस नहीं कराया गया। आंकड़े बताते हैं कि इसका आधे से अधिक हिस्सा भाजपा के मिला था। विपक्ष का आरोप यह भी था कि जिन्होंने करोड़ों के इलेक्टोरल बांड खरीदकर भाजपा को दिये थे उनको चंदा लेकर ध्ंाधा दिया गया था। इतना ही नहीं मोटा चंदा इन बांड के द्वारा लेकर कई ठेके उन लोगों से निरंतर छापे रेड डालकर बीच में ही वापस ले लिये गये थे जो पहले से उनके पास चले आ रहे थे। इसके बाद ये ठेके नियम विरूध मोदी सरकार ने अपने चहेते उद्योगपतियों को दे दिये थे। ऐसे लोगों की एक लंबी सूची सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने जारी की थी जिनमें 12000 करोड़ से अधिक रूपयों के इलेक्टोरल बांड देने वालों को सरकार ने नियम कानून ताक पर रखकर आॅब्लाइज किया था। विपक्ष के सरकार पर करप्शन के आरोप का दूसरा बड़ा उदाहरण पीएम केयर फंड है। इसमें सरकारी कंपनियों धनवान लोगों और सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों के वेतन सहित कंपनी सोशल रेस्पोंसिबिलिटी यानी सीएसआर का पैसा जमकर लिया गया लेकिन जब इसके बारे में सूचना के अधिकार में जानकारी मांगी गयी तो सरकार ने दावा किया कि यह तो निजी ट्रस्ट है इसपर आरटीआई कानून लागू नहीं होता।
     कमाल की बेशर्मी और मनमानी थी कि 30,000 करोड़ की विशाल धनराशि पीएम केयर, जो सरकारी पद है, के नाम पर आप जमा करते हैं और उसका हिसाब किताब मांगने पर उसको निजी बताकर छिपा लेते हैं। कोरोना महामारी के दौरान इस पीएम केयर से जो वंेटीलेटर खरीदे गये थे। उनकी गुणवत्ता और बहुत अधिक कीमत को लेकर भी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे थे लेकिन उनकी आज तक कोई जांच नहीं हुयी। करप्शन का तीसरा चर्चित तरीका जो संस्थागत हो गया वह चुने हुए चंद कारपोरेट घरानों को बिना उनकी हैसियत काबिलियत और विशेषज्ञता जांचे सरकारी बैंकों से पहले भूरपूर कर्जा दे दो। उनको ही सरकारी सम्पत्ति औने पौने दाम पर बेच दो। उसके लिये भी उनका पिछला रिकाॅर्ड चैक किये बिना सरकारी बैंकों से लोन दिला दो। उनमें से कुछ बड़ी बड़ी रकम डकार कर विदेश भाग गये। कुछ ने अपना झूठा दिवाला निकालकर एनसीएलटी में अपना कुल कर्जा मात्र 5 से 10 प्रतिशत में लेदेकर सेटल करा लिया। उसके बाद ये ही उद्योगपति फिर से किसी नये प्रोजेक्ट में लग गये। लगता है इन चहेते धंधे वाले लोगों ने बांड के ज़रिये सत्ताधरी दल की सेवा कर दी। अडानी अंबानी और टाटा जैसे चंद पूंजीपतियों को काॅकस बनाकर सारा काम सारे ठेके और सारी योजनायें देते जाओ। उनसे कमीशन या रिश्वत लेने की ज़रूरत ही नहीं है।
        उनको जो करोड़ो अरबों का मुनाफा होगा उसमें से वे आपको चुनावी चंदा जितना आप चाहोगे वो देते रहेंगे। इसमें भ्रष्टाचार कहां हुआ जो पकड़ में आयेगा? एक दौर था जब भ्रष्टाचार होता था तो दिखता भी था। आरोप लगते थे तो ईमानदारी से जांच भी होती थी तो कई मामालों में साबित भी हो जाता था। उस ज़माने में नेता लोग ठेकेदारों अधिकारियों और उद्योगपतियों यहां तक कि छोटे छोटे व्यापारियों से भी चवन्नी अठन्नी से लेकर हज़ार पचास हज़ार लाख और करोड़ तक चंदा लेकर बदनाम होते थे क्योंकि जितना बड़ा चंदे का दायरा उतने मुंह उतनी ही पोल खुलने पर बातें आरोप चर्चा और शोर मचने का खतरा रहता था। अब करपशन को लीगलाइज़ और इंस्टीट्यूशनलाइज करने का मतलब ही यह है कि जो बेईमानी पहले किकबैक या एक्सटाॅर्शन कहलाती थी वह अब लीगली कंट्रीब्यूशन बना दी गयी। अब एक ही कारपोरेट से करोड़ों अरबों रूपया राजनीतिक चंदा चुपचाप ले लिया जाता है। यहां तक विधायक खरीदकर सराकरें भी गिरा दी जाती है। उसके बाद होने वाले चुनाव में वोटर लिस्ट में लाखों फर्जी वोटर जोड़कर उनको किसी एनजीओ के द्वारा जगह जगह मतदान को भेजने के लिये बड़ी रकम खर्च की जाती है। चुनाव लड़ने को एमपी के लिये 90 लाख और एमएलए के लिये 27 लाख की तय सीमा से कई गुना अधिक धन पार्टी मुख्यालयों से महानगर से लेकर गांवों तक पंचायत चुनाव में पार्टी का परचम लहराने को भेजा जा रहा है। 1200 करोड़ के बड़े बड़े राजनीतिक कार्यालय भवन बन रहे हैं। जिनमें फाइव स्टार होटल जैसी सुविधायें हैं।
        सवाल यह है कि अगर करप्शन नहीं हो रहा है तो इतना अरबों खरबों रूपया कहां से आ रहा है? खुद ईडी का कहना है कि उसने पिछले कुछ सालों में जो 400 केस पीएमएलए के तहत दर्ज किये उनमें से मात्र 10 में सज़ा दिला पाई है। पीएम का भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार का दाग न होने का आरोप कुछ ऐसा ही है जैसे कोई थाना इंचार्ज अपने इलाके में अपराध न होने का दावा तब करता है जबकि वो अपराध होने पर एफआईआर दर्ज ही नहीं करता। आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस के नये एप ग्रोक से पूछा गया तो उसने ही ऐसे एक दर्जन से अधिक करप्शन के गंभीर आरोप गिना दिये जिनमें बिड़ला सहारा डायरी, व्यापम घोटाला, नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, राफेल सौदा, आईएल एंड एफएस संकट, पीएमसी बैंक, डीएचएफएल धोखाधड़ी, कार्वी ब्रोकिंग, यस बैंक, पेगासस, अडानी हिंडनबर्ग, नीट लीक, यूजीसी नेट लीक, अडानी रिश्वतखोरी, फ्रीडम 251 जैसे करप्शन के बड़े मामले शामिल हैं जिनको विपक्ष ने समय समय पर उठाया है और विकीपीडिया पर भी मौजूद हैं, लेकिन सरकार ने इनपर कभी कान ही नहीं दिये जिससे ये बिना जांच के सही या गलत साबित कैसे हो सकते हैं? शायर ने कहा है- 
*हम कहंे बात दलीलों से तो रद्द होती है,*
*उनके होंठो की ख़ामोशी भी सनद होती है।* 
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 21 August 2025

राहुल का एजेंडा

समझ से बाहर है कें.चु.आ. का फ़ंडा, 
भारी पड़ रहा है राहुल का एजेंडा!
0 राहुल गांधी के चुनाव चोरी के आरोपों पर केंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने पिछले दिनों प्रैसवार्ता की लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने जो कुछ कहा वह बताने से अधिक छिपाने वाला था। उन्होंने कहा कि वोटिंग की वीडियो फुटेज देने से बहु बेटियों की प्राइवेसी खत्म होगी। पहले के सीईसी राजीव कुमार ने कहा था कि वीडियो देखने में 273 साल लगेंगे। इससे साफ पता लग रहा है कि वीडियो देने से केंचुआ की पोल खुल जायेगी। यही वजह है कि वे विपक्ष को मशीन रीडिंग वोटर लिस्ट भी नहीं दे रहे क्योंकि इससे उनकी धांधली पकड़ने में आसानी हो जायेगी। इतना ही नहीं आरोप लगने के बाद उल्टे केंचुआ ने बिहार में अपनी वेबसाइट पर डाली गयी डिजिटल वोटर लिस्ट हटाकर स्कैन की गयी सूची डाल दी है। केंचुआ राहुल गांधी के आरोपों की जांच कराने की बजाये उनको देश से माफी मांगने की धमकी दे रहा है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कंेचुआ यह भूल गया है कि उसके आयुक्त की नियुक्ति समिति में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी शामिल थे। एक तरह से राहुल उसके बाॅस हैं। चुनाव आयुक्त सेवक है। उनको जनता के टैक्स के पैसों से वेतन मिलता है। उसको पता होना चाहिये कि विपक्ष के नेता का पद संवैधानिक पद होता है। उसका दर्जा कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर होता है। आज जब राहुल गांधी ने देश का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है तो केंचुआ सरकार और भाजपा बचाव में एक साथ खड़े हो गये हैं। क्या केंचुआ को पता नहीं है कि पिछले चुनाव में भाजपा को केवल 37 प्रतिशत मत मिले थे। उसमें भी राहुल गांधी के आरोपों की निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चलेगा कि कितने असली थे और कितने फर्जी? अगर इनमें पूरे एनडीए यानी भाजपा के सहयोगियों के मत भी जोड़ लें तो भी यह 42 प्रतिशत होता है। इसका मतलब यह है कि आध्ेा से अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व विपक्ष करता है। इनमें से भी अगर गैर एनडीए और गैर इंडिया गठबंधन की 16 सीट निकाल दें तो भी विपक्ष के नेता राहुल गांधी बहुत बड़ी जनसंख्या का संसद में नेतृत्व करते हैं। लेकिन केंचुआ का रूख पूरे विपक्ष के साथ इतना बेरूखी शत्रुता और उपेक्षा का है जैसे उसे उनसे कोई लेना देना ही न हो। केंचुआ उनको मिलने तक का टाइम नहीं देता है। जब समय देता है तो उनके नेताओं की संख्या को लेकर सीमा लगाता है। उनके सवालों मांगों और आरोपों पर केंचुआ तमाम इधर उधर की बात करता है लेकिन मूल मुद्दे पर जवाब नहीं देता है। 
       केंचुआ आरोपों की जांच के लिये राहुल से शपथ पत्र की मांग कर रहा है लेकिन दो पूर्व चुनाव आयुक्त स्पश्ट कर चुके हैं कि एफिडेविट जांच से बचने का एक बहाना है क्योंकि नियमानुसार इसकी ज़रूरत ही नहीं है। यूपी में सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने 18000 शपथ पत्र जमा कर केंचुआ से एक वर्ग और जाति के वोट काटे जाने की शिकायत की थी लेकिन आज तक केंचुआ उस पर चुप्पी साधे है। ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी पिछले कुछ दिनों से देश का एजेंडा तय कर रहे हैं। पहले संसद में उन्होंने मोदी सरकार को पहलगाम हमला पाकिस्तान से सीज़फायर और चीन द्वारा हमारी ज़मीन पर घुसपैठ के आरोपों पर घेरा जिस पर सरकार की काफी किरकिरी हुयी। इसके बाद राहुल ने सबूत के साथ भाजपा पर चुनाव आयोग के साथ मिलकर कई राज्यों और केंद्र का 2024 का चुनाव चुराने का आरोप लगाया जिससे सरकार भाजपा और केंचुआ आज तक बदहवास हैं लेकिन उनके पास इसकी कोई काट नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने पलटकर कांग्रेस पर आधा दर्जन संसदीय सीटों पर फर्जी वोट से जीतने के हास्यास्पद और आत्माघाती आरोप लगाये जिससे राहुल के केंचुआ पर आरोपों की ही पुष्टि हुयी। राहुल गांधी जानते हैं कि सरकार चुनाव आयोग या कोर्ट उनके आरोपों की निष्पक्ष जांच नहीं करा सकते क्योंकि इससे न केवल कई राज्यों की भाजपा सरकारों बल्कि मोदी सरकार भी गिरने के कगार पर आ सकती है, साथ ही केंचुआ के आयुक्त से लेकर नीचे के कई अधिकारी कर्मचारी जेल जा सकते हैं। लेकिन इतना तो हुआ है कि जिस दिन से राहुल ने सप्रमाण भाजपा और केंचुआ पर चुनाव चुराने के गंभीर आरोप लगाये हैं, पूरी दुनिया में केंचुआ और मोदी सरकार की वैधता विश्वसनीयता और साख पर ज़बरदस्त बट्टा लगा है। 
        खुद भारतीयों की नज़र में इस सरकार की वैल्यू छवि और औकात कम हो गयी है। 17 अगस्त के दि हिंदू अख़बार में सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे में बताया गया है कि 2019 में जहां एमपी राज्य में 57 प्रतिशत लोग चुनाव आयोग पर पूरा भरोसा करते थे वह घटकर अब मात्र 17 प्रतिशत रह गया है, यूपी में यह 56 से 21 प्रतिशत पर आ गया है। केरल में यह आंकड़ा 57 से 35 प्रतिशत रह गया है। जो लोग केंचुआ पर शून्य प्रतिशत विश्वास करते थे उनमें भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुयी है। एमपी में यह 6 से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया है। यूपी में ऐसे लोग 11 से बढ़कर 31 प्रतिशत तक जा पहुंचे हैं। यह कितने दुख और लज्जा की बात है कि एक समय था जब देश में ऐसे सर्वे होते थे तो जनता का कहना होता था कि उनको सबसे अधिक भरोसा तो सेना पर है लेकिन दूसरे नंबर पर चुनाव आयोग को वे विश्वसनीय मानते थे। इतना ही नहीं दुनिया के दूसरे देश केंचुआ को अपने यहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में सलाह सहयोग और कार्य करने को सादर आमंत्रित करते थे। सेंटर फाॅर दि स्टडी आॅफ डवलपिंग सोसायटी लोकनीति के सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि जनता को 2024 के चुनाव में ही मोदी सरकार चले जाने का अनुमान था लेकिन जब विपक्ष के आरोप के अनुसार 79 सीटों पर गड़बड़ी करके भाजपा कम हार जीत के मार्जिन वाली अधिकांश सीट जीतकर तिगड़म से साझा सरकार बनाने में सफल हुयी तो एक साल में ही जनता का भरोसा मोदी सरकार से घटने लगा। वसीम बरेलवी ने क्या खूब कहा है- 
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन डरता है।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 7 August 2025

चुनाव आयोग और राहुल गांधी

चुनाव आयोग राहुल गांधी को सप्रमाण गलत साबित कर सकता है ?
0 एक तरफ चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का विशेष सघन पुनरीक्षण कर 65 लाख से अधिक लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया है। इसका आधार इन मतदाताओं का मर जाना, बिहार छोड़कर दूसरे स्थानों पर हमेशा के लिये चला जाना और उनका नाम दो दो जगह मतदाता सूची में होना बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी ने ताज़ा आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र हरियाणा में फर्जी वोटिंग हुयी है। 5 बजे के बाद वोटर टर्न आउट अचानक बढ़ गया। महाराष्ट्र में 40 लाख वोटर रहस्यमय हैं। हमें लगता है इस बड़े खुलासे का आयोग पर कोई खास असर नहीं होगा क्योंकि वह पूरी तरह से मनमानी बेशर्मी और तानाशाही पर कायम है। चुनाव आयोग को स्वस्थ लोकतंत्र पारदर्शी चुनाव और निष्पक्षता के लिये राहुल को सबूत के साथ गलत साबित करना होगा।    
              -इक़बाल हिंदुस्तानी
      राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं। वह बार बार चुनाव आयोग को सचेत कर रहे हैं कि वह निष्पक्ष काम करे नहीं तो सत्ता में आने पर जांच कराकर जो चुनाव अधिकारी और कर्मचारी दोषी पाये जायेंगे उनको रिटायर हो जाने के बावजूद तलाश कर कड़ी कानूनी सज़ा दी जायेगी। राहुल ने प्रैसवार्ता कर कहा कि चुनाव प्रक्रिया लंबी चलने से लोगों का शक बढ़ रहा है। महीनों चुनाव चलने के बाद दलों के आंतरिक सर्वे एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल से बिल्कुल अलग चैंकाने वाले परिणाम कैसे आ जाते हैं? सत्ता विरोधी भावना यानी एंटी इनकम्बेसी से केवल बीजेपी कैसे बच जाती है? जबकि लोकतंत्र में हर दल इसका शिकार होता ही है। राहुल ने कहा कि डिजिटल वोटर लिस्ट आज तक नहीं देने से हमें यकीन हो चुका है कि महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव चुराया है। राहुल ने वोट चोरी की मिसाल देते हुए कहा कि कर्नाटक की महादेवपुरा सीट पर 6.5 लाख में से एक लाख से अधिक वोट की चोरी हुयी है। राहुल ने कहा कि 11000 वोटर ने तीन तीन बार वोट दिये हैं। 40,000 वोटर्स की मकान संख्या शून्य है। 
         एक पते पर बड़ी तादाद में वोटर कैसे बन गये? एक ही वोटर कई राज्यों में वोट कैसे डाल रहा है? क्या चुनाव आयोग फर्जीवाड़ा नहीं कर रहा है? हमें ना देकर चुनाव के सीसीटीवी फुटेज आयोग ने डिलीट क्यों किये अगर कुछ गड़बड़ नहीं थी? राहुल गांधी का यह भी कहना है कि उनको राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में हुए विधानसभा चुनाव के बाद से ही आयोग की हरकतों को लेकर शक होने लगा था लेकिन हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव के अप्रत्याशित चुनाव परिणाम देखकर उनका आयोग पर पक्षपात का संदेह पूरी तरह से विश्वास में बदल गया। इसकी पुष्टि के लिये उन्होंने अपने स्तर पर मतदाता सूची की जांच कराई जिससे उनको ऐसे तथ्य प्रमाण और दस्तावेज़ मिल गये हैं जिनसे यह पता लगता है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में काम कर रहा है? राहुल ने चुनाव आयोग पर चुनाव में वोट चुराने और भाजपा को धोखे से जिताने तक का गंभीर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि आयोग की नीयत में खोट इस बात से ही साबित हो जाता है कि उसने आज तक बार बार मांगने के बावजूद महाराष्ट्र के मतदाताओं की डिजिटल लिस्ट उनको उपलब्ध नहीं कराई है। इसकी वजह राहुल को यह लगती है कि इससे आयोग का यह गोरखधंधा खुल जायेगा कि जब पूरे महाराष्ट्र में कुल बालिग लोग ही 9 करोड़ 57 लाख हैं तो कुल मतदाता बढ़कर 9 करोड़ 70 लाख कैसे हो सकते हैं? 
        यह भी सच है कि किसी भी राज्य या देश में सौ फीसदी वयस्क लोगों के वोट बनना भी असंभव होता है। साथ ही यह सवाल भी शक को बढ़ाता है कि राज्य के चुनाव में शाम 5 बजे के बाद अचानक 70 लाख वोटर्स कहां से निकल आये जिन्होंने रात 11 बजे तक मतदान किया। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक नये मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार उसके बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है। विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है। आयोग बार बार सुप्रीम कोर्ट के सलाह देने के बावजूद आधार राशन और वोटर कार्ड को उन 11 दस्तावेज़ की सूची में शामिल करने को तैयार नहीं है जो अधिकांश लोगों के पास उपलब्ध हैं। यहां तक कि आयोग पूरी बेशर्मी और ढीठता से उस मतदाता पहचान पत्र को भी वैध मानने से मना कर रहा है जो उसने खुद ही जारी किया है। 
        आयोग से पूछा जाना चाहिये कि क्या उसने फर्जी मतदाता पहचान पत्र बनाये हैं? रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। रही सही कसर चुनाव आयोग ने अपने विवादित पक्षपातपूर्ण और अड़ियल रूख से पूरी कर विपक्ष को खुद पर बार बार उंगली उठाने का मौका देकर पूरी कर दी है। 
          चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्रियूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। लेकिन चुनाव आयोग पता नहीं किसके एजेंडे पर चलने पर अड़ा है। शायर ने शायद चुनाव आयोग की बेहिसी पर कहा है- *उसके नज़दीक ग़म ए तर्क ए वफ़ा कुछ भी नहीं, मुतमइन ऐसा है वो जैसे हुआ कुछ भी नहीं।* 
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Monday, 28 July 2025

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

*धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद,* 
*इनपर क्यों हो रहा है विवाद?*
0 भारत के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने राज्यसभा में बताया है कि संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद शब्द निकालने का सरकार का फिलहाल कोई इरादा नहीं है। कानून मंत्री समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के सवाल का लिखित जवाब दे रहे थे। उन्होंने सदस्यों को आश्वस्त किया कि ऐसा करने के लिये मोदी सरकार ने कोई संवैधानिक या कानूनी प्रक्रिया भी शुरू नहीं की है। साथ ही उनका यह भी कहना था कि इन शब्दों पर राजनीतिक और सार्वजनिक मंचों पर चर्चा चलती रहेगी। आपको याद दिलादें कि आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होशबोले ने कुछ समय पूर्व यह कहकर चर्चा शुरू की थी कि इन शब्दों को संविधान में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान गलत तरीके से जोड़ा था।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      संविधान विशेषज्ञ जानते हैं कि हमारा संविधान मूल रूप से सेकुलर और सोशलिस्ट ही है। संविधान के तमाम अनुच्छेद उपबंध और धारायें इस तथ्य को बार बार परिभाषित करते हैं। इसकी भावना और आत्मा पूरी तरह धर्म जाति क्षेत्र रंग नस्ल भाषा मत आस्था बोली विचारधारा अमीर गरीब शिक्षित अशिक्षित और सबसे बड़े पद पर बैठे नागरिक से लेकर आम आदमी तक सबके लिये बिना पक्षपात बिना भेदभाव और बिना पूर्वाग्रह के एक से अधिकार समान अवसर गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार और वोट देने से लेकर चुनाव लड़ने तक का बराबर हक देने की गारंटी देती है। यह सच है कि संविधान की प्रस्तावना में 1976 में इंदिरा सरकार ने एमरजैंसी के दौरान 42 वां संशोधन करके ये दोनों शब्द संविधान लागू होने के लगभग 25 साल बाद अलग से जोड़े थे। इन शब्दों को पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ तो कैंसर तक बता चुके हैं। जबकि केंद्रीय मंत्री शिवराज चैहान ने इन शब्दोें की तीखी आलोचना की थी। इसी को बहाना बनाकर इन शब्दों को संविधान से निकालने के लिये संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। लेकिन सबसे बड़ी अदालत ने इस मांग को ठुकरा दिया। कोर्ट का कहना था कि चूंकि हमारे संविधान का हर पेज हर लाइन और हर शब्द सेकुलर और सोशलिस्ट होने की पुष्टि पहले ही करता है तो इन शब्दों को बाद में जोड़े जाने से कोई असंवैधानिक गैर कानूनी या जनविरोधी काम नहीं हुआ है।
       याचिका में दलील दी गयी थी कि ये शब्द संविधान सभा ने नहीं अपनाये क्योंकि इनका समावेश पूर्वव्यापी था, यह कुतर्क भी दिया गया कि आपातकाल में जब ये शब्द संविधान में शामिल किये गये, उस समय लोकसभा भंग हो चुकी थी लिहाज़ा यह संशोधन जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते और इन शब्दों से आर्थिक स्वतंत्रता व धार्मिक तटस्थता प्रतिबंधित होती है। दरअसल यह सब संघ परिवार और भाजपा सरकार का कोरा झूठ व दुष्प्रचार है क्योंकि वे देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। वे देश में खुलकर 2014 के बाद से पूंजीवादी नीतियां भी लागू कर रहे हैं। उनको हर समय यह खतरा सताता रहता है कि उनको असली वैचारिक चुनौती कांग्रेस या सपा टीएमसी एनसीपी शिवसेना जेएमएम या आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों से नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से मिल सकती है। सबको पता है कि वामपंथी ही सही मायने में समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता के वास्तविक पैरोकार हैं। वे भले ही भारत में धर्म व जाति की राजनीति के सामने फिलहाल कमज़ोर पड़ गये हैं लेेकिन आने वाले समय में उनका समानता धर्मनिर्पेक्षता और सबको शिक्षा सबको काम का नारा ही हिंदुत्व के लिये सबसे बड़ी चनौती बन सकता है। संघ परिवार का यह भी आरोप रहा है कि धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अब तक सेकुलर दलों ने केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया है। लेकिन वह यह नहीं बताता कि वह खुद बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता की राजनीति करके कौन सी सही और सच्ची धर्मनिर्पेक्षता का पालन कर रहा है?
       वह अपने ही दिये गये नारे पंथनिर्पेक्षता वसुधैवकुटंबकम और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं से भी कोसों दूर है। आज भाजपा के राज में कानून के दो पैमाने साफ नज़र आते हैं। आज भी संविधान पर चलने उसकी बार बार शपथ लेने और संविधान दिवस मनाने के बावजूद व्यवहार में सरकारें एक वर्ग के साथ खुलेआम पक्षपात करती नज़र आती हैं। आप किस धर्म को मानेंगे क्या खायेंगे क्या पहनेंगे किससे प्यार करेंगे किससे शादी करेंगे और क्या सोचेंगे यह सब सरकार तय करने लगी है। ऐसे पक्षपातपूर्ण और संवैधनिक स्वतंत्रता को खत्म कर देने वाले कानून बनाये जा रहे हैं जिससे कल आप अगर किसी खास विचार धारा पार्टी या सोच को व्यक्त करेंगे तो भी महाराष्ट्र के नये अर्बन नक्सल कानून के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। सरकार की आलोचना करने मात्र से कई लोग कई कई साल से बिना ज़मानत जेल में पड़े हैं जबकि संघ भाजपा से जुड़े कई लोग प्रथम दृष्टि में अपराध के दोषी लगने के बावजूद या तो थाने में रपट तक नहीं होने देते या हल्की धाराओं में एफआईआर मजबूरी मंे करनी पड़ जाये तो बाद में तरमीम कर फाइनल रिपोर्ट से लेकर विरोधाभासी चार्जशीट गवाहों को तोड़ना सबूतों को नष्ट करना और अंत में न्यायपालिका के कुछ जजों पर दबाव बनाकर अपने लोगों को बरी करा लेना का विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के कुछ सीनियर वकील अकसर आरोप लगाते रहते हैं।
        अटल बिहारी की सरकार के दौरान संविधान समीक्षा आयोग भी बना था। एक बार बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख संविधान में दिये गये आरक्षण की समीक्षा की बात कहकर राजनीतिक विवाद भी खड़ा कर चुके हैं। 2024 के आम चुनाव से पहले जब भाजपा ने इस बार चार सौ पार का नारा दिया तो उसके कुछ नेताओं ने इसका कारण संविधान बदलने की मंशा भी व्यक्त कर दी थी। सच तो यह है कि संविधान की जगह मनुस्मृति लाने की इच्छा कुछ लोग अभी भी रखते हैं। यह सरकार पूंजीवाद पर भी खुलकर चल रही है। काॅरपोरेट से खुलकर चुनावी चंदा लिया जा रहा है। चंद चहेते पूंजीपतियों को इसके एवज़ में नियम कानूनों को एक तरफ रखकर ध्ंाधा दिया जा रहा है। पुलिस सीबीआई इडी, चुनाव आयोग मानवाधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग अनुसूचित जाति आयोग पिछड़ा आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं को मोदी सरकार ने लगभग पूरी तरह और न्यायालय को आंशिक रूप से साध लिया है। इसलिये साफ है कि इनको धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद से समस्या है और आगे भी रहेगी। शायर ने राजनेताओं के ऐसे ही विरोधाभास पर क्या खूब कहा है- *जो मेरे ग़म में शरीक था जिसे मेरा ग़म अज़ीज़ था, मैं खुश हुआ तो पता चला वो मेरी खुशी के खिलाफ़ है।* 
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 24 July 2025

धनकड़ का इस्तीफ़ा

*इस्तीफ़ा दिया नहीं लिया गया है,* 
 *धनकड़ किसानों के लिये बोल रहे थे!* 
0 उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने अचानक अपने पद से इस्तीफ़ा दिया नहीं बल्कि उनसे लिया गया है? हालांकि त्यागपत्र का औपचारिक कारण उन्होंने अपना स्वास्थ्य बताया है लेकिन राजनीति के जानकार बताते हैं कि वजह चाहे कुछ भी हो मगर पद छोड़ने को मजबूर करने वाले अकसर ऐसा ही कारण लिखवाते हैं। अगर धनकड़ की सेहत ही उनके पद त्याग की वास्तविक वजह होती तो बीते मार्च माह में उनकी एंजियोप्लास्टी पद से अलग होने की सही टाइमिंग हो सकती थी। सबने देखा एंजियोप्लास्टी के बाद भी उनकी गतिविधियां पहले की तरह सामान्य थीं। चर्चा है कि धनकड़ का गाहे ब गाहे किसानों के हित में खुलकर बोलना, हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ बिना सरकार की मंशा जाने विपक्ष का प्रस्ताव स्वीकार करना और भाजपा मुखिया नड्डा का राज्यसभा में व्यवहार भी इस्तीफे की वजह हो सकती हैं।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    जगदीप धनकड़ को जो लोग गहराई से जानते हैं उनको पता है कि वे जनता दल के सांसद से लेकर कांग्रेस के विधायक बनकर भाजपा में दलबदल कर राज्यपाल से उपराष्ट्रपति के पद तक अपने ध्ैार्य राजनीतिक चतुराई और अपनी हर चर्चित विवादित व दुस्साहसी बयानबाज़ी के बल पर इन बड़े पदों तक पहुंचे थे। हालांकि बंगाल के राज्यपाल पद पर रहते उनका कार्यकाल संविधान विरोधी पद की गरिमा के खिलाफ और बेहद विवादित कहा जा सकता है लेकिन विपक्ष को उनकी जो बातें परंपरा लोकतंत्र और कानून के खिलाफ नज़र आती थीं वही उनकी उपलब्धि योग्यता और खूबी थी जिसका इनाम उनको भाजपा ने उपराष्ट्रपति बनाकर दिया। राज्यसभा के पदेन सभापति बन जाने के बाद धनकड़ ने वाइस प्रेसीडेंट के साथ साथ दोहरी भूमिका अदा कर भाजपा के लिये रबर स्टैंप की तरह जमकर काम भी किया । यहां तक कि वे तमिलनाडू के गवर्नर के खिलाफ आये सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले के खिलाफ जिन कटु और अतिवादी उग्र शब्दों में मोदी सरकार के पक्ष में सबसे बड़ी अदालत से भिड़े वह भी उनका दुस्साहस ही कहा जा सकता है, लेकिन समय आने पर मोदी सरकार ने उनसे नाराज़गी होते ही उनका इस्तीफा मांगने में इन बातों का तनिक भी खयाल नहीं रखा। यह सच है कि धनकड़ ने राज्यपाल उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति रहते संविधान मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार मखौल उड़ाया। 
      धनकड़ के पक्षपात, विरोधी दलों के खिलाफ समय समय पर अन्याय प्रतिकूल टिप्पणियों से लगातार आहत विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक ले आया। संवैधानिक पद होने की वजह से ही धनकड़ सुप्रीम कोर्ट के विरोध में मानहानि अपमानजनक और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करके भी अपने पीछे खड़ी मोदी सरकार की शक्ति की बदौलत बच निकले। धनकड़ और सरकार के बीच रस्साकशी तो काफी लंबे समय से चल रही थी। पिछले साल धनकड़ ने एक पब्लिक प्रोग्राम में मोदी सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चैहान की उपस्थिति में उनसे तीखे सवाल पूछे थे कि आप बतायंे कि क्या सरकार ने किसानों से किये वादे पूरे किये? धनकड़ ने अपना आक्रोष व्यक्त कर केंद्रीय मंत्री को संबोधित करते हुए यहां तक चेतावनी दे दी थी कि आपका एक एक पल भारी है। वे इतने पर ही नहीं रूके बल्कि उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए मोदी सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि उस समय विपक्ष ने धनकड़ की इस उग्र बयानबाज़ी को विपक्ष का स्पेस छीनने की कवायद करार देते हुए उनके इस रूख को खास वेट नहीं दिया था। लेकिन मोदी सरकार ने इसे धनकड़ के विद्रोह की शुरूआत मानते हुए तभी से उनके बयानों गतिविधियों और राज्यसभा में फैसलों पर पैनी नज़र रखनी शुरू कर दी थी। 
       जिस तरह से आडवाणी का पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्नाह के मज़ार पर उनको सेकुलर नेता बताने का बयान संघ परिवार के लिये आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाने का आखि़री फैसला साबित हुआ था। उसी तरह से धनकड़ के इस्तीफे की पटकथा उनके किसानों के समर्थन में खुलकर मोदी सरकार के खिलाफ तीखे लहजे में बोलने वाले दिन ही लिख दी गयी थी। उनको पद छोड़ने के लिये मजबूर करने को दूसरे कारणों की प्रतीक्षा की जा रही थी। संयोग से वो कारण सरकार को अब मिल गये । यह भी खबर आ रही है कि कभी कभी धनकड़ सरकार की मंशा के खिलाफ बच्चो वाली ज़िद लगाकर कुछ ऐसे काम भी करते थे जिनसे सरकार का कोई नुकसान तो नहीं होता था लेकिन यह मोदी और शाह की जोड़ी को इसलिये सहन नहीं होता था कि ऐसा करने का विशेष अधिकार वे केवल अपने पास रखना चाहते थे। इसी मनमानी स्वछंदता और मनमर्जी पर चलने को लेकर पीएम और होम मिनिस्टर पिछले आम चुनाव में संघ प्रमुख भागवत तक से भिड़ गये थे जिसका उनको चुनाव में साधारण बहुमत तक ना मिलने पर नुकसान और अहसास भी हुआ उसके बाद ही दोनों का संवाद सहकार और समझौता हुआ। 
       धनकड़ ने अप्रैल में भारत आये अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस से बिना किसी प्रोग्राम शेड्यूल और प्रोटोकाॅल के मिलने की नाकाम कोशिश की जिस पर उनको समझा बुझाकर शांत किया गया। धनकड़ ने सभी मंत्रियों को अपने अपने आॅफिस में पीएम प्रेसीडेंट के साथ ही अपना भी फोटो लगाने की सीख दे डाली। अपने काफिले की सभी गाड़ियों को प्रेसीडेंट की फ्लीट की तरह मर्सिडीज़ में बदलने की बार बार बेजा मांग भी धनकड़ सरकार से करते रहते थे। धनकड़ ने वन नेशन वन इलैक्शन और संविधान से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद को निकालने के सरकारी एजेंडे को हवा देने में भी कभी कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन मोदी सरकार को उनकी पूर्ण वफादारी समर्थन और समर्पण पर संदेह हो चला था जिससे जस्टिस वर्मा के खिलाफ विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव बिना सरकार की राय लिये स्वीकार करना उनके लिये सियासी ताबूत में आखि़री कील की तरह बन गया। अलबत्ता सत्यपाल मलिक असम के सीएम हिमंत विस्व सर्मा व धनकड़ जैसे बाहरी नेता भाजपा में कम ही बडे़ पदों पर पहुंचे हैं। धनकड़ पर गालिब का एक शेर याद आ रहा है-
 *ये फ़ितना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है,*
*हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday, 12 July 2025

वाहन की आयु नहीं फिटनेस

*वाहन चलाने लायक है या नहीं,*
*उसकी आयु नहीं फिटनेस बतायेगी!*
0 दिल्ली में 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के वाहनों पर एकाएक रोक लगाकर पहले वहां की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी किया। उसके बाद जब लोगों का गुस्सा सामने आया तो इस आदेश पर पुनर्विचार के नाम पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी गयी। लेकिन यह तय मानकर चलिये कि कुछ दिन बाद इस मनमाने आदेश पर कुछ बदलाव करके फिर अमल होगा। इसकी वजह यह है कि सरकार की मंशा एकदम साफ है। उसको वे सब काम करने हैं जिससे पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। समाजवाद यानी समाज के कमज़ोर गरीब और मीडियम क्लास को इससे क्या नुकसान होगा यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इस बात को ये सरकारें छिपाती भी नहीं हैं और बार बार जीतकर भी आती हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      एक जुलाई से दिल्ली मंे वायु प्रदुषण कम करने के नाम पर 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के चैपहिया वाहनों पर अचानक रोक ही नहीं लगाई गयी, बल्कि उनको पेट्रोल पंपों पर बजाये तेल ना देकर चालान काटने के जबरन पकड़कर कबाड़ करने का अभियान चला दिया गया। वो तो अच्छा हुआ दो तीन बाद ही लोगों में भयंकर रोष देखकर सरकार ने अपने कदम फिलहाल पीछे खींच लिये। लेकिन यह समझना कि अब यह अभियान आगे कुछ अगर मगर के साथ फिर से नहीं चलेगा, मूर्खों के स्वर्ग में रहना होगा। दरअसल कम लोगों को पता होगा कि इस अभियान के पीछे सरकार की असली मंशा क्या रही होगी? आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है। कार बनाने वाली कंपनियों के पास तीन माह से अधिक तक की इन्वेंट्री बिना सेल के बाकी है। कंपनियों को नये वाहन बनाने में परेशानी आ रही है क्योंकि उनके पास उनको बनाकर स्टोर करने तक के लिये और स्थान नहीं बचा है। सरकार की पूंजीवादी नीतियों से मीडियम क्लास जो कारें और नये मकान सबसे अधिक खरीदता है, आजकल सदमे में हैं। उसकी जेब खाली हो रही है। उसकी आय घट रही है और उसका कर्ज़ बढ़ता जा रहा है। इन सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भी यही क्लास रहा है और बेचारा इसकी कीमत भी यही चुका रहा है क्योंकि गरीब के पास खोने के लिये कुछ अधिक है नहीं और अमीर को इन बातों की चिंता नहीं है। 
     जानकारों का कहना है कि विश्व में किसी भी देश में प्राइवेट व्हेकिल की निर्धारित आयु नहीं होती है बल्कि उनको फिटनेस के हिसाब से 10, 20 या 30 साल तक चलाने की छूट दी जाती है और साथ ही अगर वाहन अधिक चलने या रखरखाव सही नहीं रखने से दो चार साल बाद ही खटारा हो जाता है तो उसको भी सीज़ कर दिया जाता है। हमारे देश में भी नियम है कि आप अपना वाहन तब तक ही चला सकते हैं जब तक उसका प्रदूषण प्रमाण पत्र ओके है। मतलब प्रदूषण फैलाने वाला फोर व्हीलर ही नहीं कोई सा वाहन जब आप चला ही नहीं सकते तो इसमें केवल कारों या भारी वाहनों पर 10 या 15 साल की तय उम्र का कानून कहां से आ गया? सच तो यह है कि वाहनों से सबसे अधिक पाॅल्यूशन चलने से नहीं जाम या रेलवे फाटकों पर उनके रूके रहने से होता है। या फिर भीड़ अधिक होने पर उनके धीरे धीरे चलने रूकने फिर से चलने बंद करने फिर स्टार्ट करने बार बार गियर बदलने या फिर रेस घटाने बढ़ानेे से होता है। वाहन आप अगर आज ही शोरूम से लाये हैं फिर भी वह इंजन चालू कर कहीं जाम में फंसा है तो काॅर्बन डाईआॅक्साइड तेजी से और अधिक छोड़ेगा ही छोड़ेगा। इसमें नई पुरानी डीज़ल पेट्रोल 10 साल 15 साल का कोई खास अंतर नहीं पड़ता है। 
       दूसरी पते की बात यह है कि सबसे अधिक प्रदूषण दिल्ली में टू व्हीलर्स करते हैं। लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं कि उनको उम्र के हिसाब से बैन करने की बात भी सोचे। टू व्हीलर वाला वर्ग बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि सरकार एक झटके में 62 लाख वाहन कैसे पकड़कर कैसे उनको स्क्रैप में बेचकर आपके हाथ में लाखों की गाड़ी के चंद हज़ार रूपये पकड़ा सकती है? मीडियम क्लास परिवारों ने किसी तरह से पेट काटकर पाई पाई जोड़कर या बैंक से कर्ज़ पर ये वाहन लिये होंगे ये उनका दुखता हुआ दिल ही बेहतर जानता होगा। हर साल माॅडल के चक्कर में कार बदल देने वाले मुट्ठीभर अमीर लोगों पर इस अभियान का क्या असर पड़ना है? अगर सरकार का यह जनविरोधी प्रयोग दिल्ली में सफल हो जाता है तो इसके बाद यूपी राजस्थान हरियाणा सहित एनसीआर के अन्य प्रदेशों का नंबर आना तय है। इस चक्कर में वाहन निर्माताओं का तो मज़ा आ जायेगा लेकिन वाहन मालिकों के लिये यह सज़ा बन जायेगा। सरकार यह सोचने को तैयार नहीं है कि दिल्ली राजधनी है और वहां पूरे भारत से लोग अपने अपने काम से आते हैं। उनकी मजबूरी है। उनका शासन प्रशासन से जुड़े कामों के साथ साथ पिकनिक ही नहीं इलाज और रोज़गार के लिये आना ज़रूरत है। इसके लिये जो शानदार जानदार और आसानी से उपलब्ध होने वाला यातायात साधन होना चाहिये वो केवल मैट्रो ही है। लेकिन विडंबना देखिये कि उस तक पहुंचने के लिये भी कार होना ज़रूरी है। 
    इसका विकल्प केवल आॅटो और किराये की ओला उूबर की टैक्सी है जिसका किराया सरकार ने पहले व्यस्त समय पर अप्रैल में डेढ़ गुना किया था अब सीधा दोगुना कर दिया है। सरकार से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि माना आपने दिल्ली में ये वाहन आज नहीं तो कल चलने बंद कर ही दिये तो लोग उनको आधे पौने दाम पर आसपास के दूसरे राज्यों में बेच देंगे। क्या वे प्रदेषण वाले वाहन लोगों के गैराज में खड़े रहेंगे या फिर जहां जायेंगे वहां ही प्रदूषण फैलायेंगे तो क्या वहां के लोगों का जीवन कम मूल्यवान है जो दिल्ली को बचाकर आप बाकी देश के लोगों को साफ आॅक्सीजन की जगह काॅर्बन डाईआॅक्साइड से समय से पहले बीमार बना देना चाहते हैं? अलग अलग स्थान के आधार पर नागरिक नागरिक में यह अंतर क्या सरकार को शोभा देता है? धर्म के आधार पर तो यह सरकार पहले ही अंतर करने के लिये विपक्ष के आरोपों का सामना करती रही है। इस मामले में सरकार पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वाहन कंपनियां सत्ताधरी दल को मोटा चुनावी चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवाने का प्रयास करती रही हैं। साथ ही जब लोग लाखों वाहन कबाड़ कर देने पर नये वाहन खरीदेंगे तो सरकार का टैक्स कलैक्शन और अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ाने का लक्ष्य भी पूरा होगा? ग़ालिब ने क्या खूब कहा है- ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 3 July 2025

वोटर की नागरिकता

आयोग का काम है चुनाव कराना, 
 ना कि नागरिकता पता लगाना?
0 जो चुनाव आयोग हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों को लेकर पहले ही विपक्ष के निशाने पर था। अब बिहार के विधानसभा चुनाव चार महीने दूर होने पर एक माह के भीतर मतदाता सूची के सघन परीक्षण के बहाने मतदाताओं की नागरिकता के प्रमाण मांगने को लेकर एक बार फिर विवाद के घेरे में आ गया है। यह माना कि आयोग को यह जांचने का अधिकार है कि जो भी नागरिक मतदाता बनना चाहते हैं वे चुनाव में वोट देने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं या नहीं? लेकिन सवाल यही है कि जब आयोग किसी नागरिक को मतदाता बनाता है तो उसी समय यह जांच क्यों नहीं की जाती कि वह आदमी वोटर बनने का सही पात्र है कि नहीं? अचानक जल्दबाज़ी और आनन फानन में आयोग का यह कदम चर्चा में है।    
                 -इक़बाल हिंदुस्तानी
     बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं। इनमें से 59 प्रतिशत 40 साल या उससे कम आयु के हैं। इनमें से 4 करोड़ 75 लाख को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी नहीं तो वे वोटर लिस्ट से अपने आप ही बाहर हो जायेंगे। चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिये कुल 11 दस्तावेज़ तय किये हैं। अभी तक मतदाता मतलब 18 साल आयु पूरी करना माना जाता था। आपको अपना वर्तमान पता बताना होता था और आप एक फार्म भरकर आराम से मतदाता बन जाते थे। लेकिन अब यह दावा किया जा रहा है कि चूंकि बिहार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग वोटर बन गये हैं जो मूल रूप से तो बिहारी हैं लेकिन वे काम ध्ंाध्ेा के सिलसिले में राज्य से बाहर रहते हैं। ऐसे लोगों को उसी स्थान पर मतदाता बनने के लिये कहा जा रहा है जहां वे रोज़गार करते हैं। यहां तक तो बात समझ में आती है लेकिन आयोग यह भी दावा कर रहा है कि बड़ी संख्या में ऐसे घुसपैठिये भी मतदाता बन गये हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं। 
      सवाल यह है कि जब वह मतदाता सूची में किसी का नाम जोड़ता है तब उनसे ऐसे दस्तावेज़ क्यों नहीं मांगे गये जिससे यह साबित होता हो कि वे देश के नागरिक हैं। दूसरी बात यह है कि यह सरकार का काम है कि वह घुसपैठियों की जांच समय समय पर और देश की सीमाओं पर करे जिससे कोई विदेशी नागरिक देश में प्रवेश ही ना कर सके। अगर जांच में यह सच सामने आता है कि बड़े पैमाने पर घुसपैठिये देश में रह रहे हैं तो उनका नाम केवल चुनाव आयोग की मतदाता सूची से ही क्यों भारतीय नागरिकों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे सरकारी नौकरी किसी प्रकार का सरकारी लाइसेंस बैंक खाता स्कूल में एडिमिशन वजीफा राशन कार्ड ज़मीन खरीदने बेचने स्वास्थ्य का अधिकार पैन कार्ड आधार कार्ड मनरेगा कार्ड आयुष्मान कार्ड और हर सरकारी सुविधा से वंचित किया जाना चाहिये। अगर आयु 18 साल और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने का नियम नहीं होता तो दिल्ली और महाराष्ट्र में लाखों लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पते पर रहने का दावा करके बोगस मतदाता बनने का विपक्ष का आरोप नहीं झेल रहे होते? यही वजह है कि निवास स्थान बदलने पर वोट कटने का प्रावधान रहा है। अन्यथा दूसरा कारण किसी मतदाता की मृत्यु होने पर उसका नाम वोटर लिस्ट से निकाला जाता है। 
       इसके अलावा आज तक कोई तीसरा आधार मतदाता का नाम काटने का सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस एनआरसी को लाने में सकरार 2019 में सीएए लाकर फंस गयी थी और उसने विवाद से बचने को अपने कदम वापस खींच लिये थे, उसी एनआरसी को बैकडोर से चुनाव आयोग के द्वारा लाया जा रहा हो? वैसे भी किसी नागरिक का वोट कटना या बनना तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं होता लकिन चुनाव आयोग अपने बूथ लेवल आॅफिसर से किसी की नागरिकता तय कराने लगे तो यह बड़ा मामला बन जाता है। चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्यूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। 
       पासपोर्ट बनाने वाले नियम मतदाता सूची के लिये लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। इस सारी कवायद के पीछे राजनीतिक मंशा तलाशी जा रही है। अब तक भाजपा का आरोप रहा है कि सेकुलर दल अपना वोटबैंक बनाने के लिये अवैध घुसपैठियों को मतदाता बनाकर उनके वोट से सत्ता हासिल करते रहे हैं। इसलिये उनको मतदाता सूची से हटाकर विपक्ष को सत्ता में आने से रोका जा सकता है। उधर विपक्ष का भाजपा पर आरोप है कि वह बहुसंख्यकों का धार्मिक तुष्टिकरण करके दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का नाम बड़ी संख्या में विभिन्न आधार पर सूची से काटकर अपनी जीत का रास्ता साफ करना चाहती है। सवाल यह है कि अगर यह राज्य की सरकारों ने जानबूझकर किया है तो बिहार में भाजपा की साझा नीतीश सरकार पिछले 20 साल से है। क्या वह इन घुसपैठियों के थोक वोट बनवाकर चुनाव जीतकर सत्ता सुख नहीं भोग रही है? क्या यह सब नीतीश को अगले चुनाव में ठिकाने लगाने का सोचा समझा प्लान है? यह भी हो सकता है कि भाजपा को लग रहा हो कि इस बार चुनाव में उसको बेरोज़गारों दलितों और आदिवासियों का पहले की तरह वोट नहीं मिलेगा तो उनको नागरिकता और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र जांचने के बहाने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये? जो अल्पसंख्यक भाजपा के खिलाफ अकसर खुलकर विपक्ष को वोट करते हैं उनके वोट भी बड़ी तादाद में काटकर विपक्ष को चोट दी जाये? 
        भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2 के अनुसार 40 से 60 साल की आयु के केवल 13 प्रतिशत लोगों ने हाईस्कूल की सनद और जन्म तिथि बताने वाली अंक तालिका हासिल की है। एनएफएसएच सर्वे-3 के अनुसार 2001 से 2005 तक जन्मे कुल बच्चो में से मात्र 2.8 प्रतिशत के पास ही जन्म प्रमाण पत्र हैं। एक बात यह समझ से बाहर है कि पिछली बार वोटर लिस्ट जांचने में दो साल लगे थे इस बार मात्र एक महीने में यह काम किसी इमरजैंसी के तहत पूरा करने का तुगलकी आदेश क्यों जारी किया गया है? बिहार में वोटर लिस्ट की बड़े पैमाने पर जांच 2003 में हुयी थी। 2003 की इस सूची में जिनका नाम है उनको नागरिकाता का कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं होगी। एक जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए लोग जन्मजात भारत के नागरिक माने जायेंगे लेकिन इसके लिये उनको अपना जन्म प्रमाण पत्र जिसमें जन्म की तिथि और स्थान हो, प्रस्तुत करना होगा। जो लोग 2 दिसंबर 2004 से पहले और एक जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना साबित करना होगा। तीसरी श्रेणी में वो लोग आयेंगे जो 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता दोनों का भारत का नागरिक होना प्रमाणित करना होगा। अन्यथा वे भारत के नागरिक नहीं माने जायेंगे।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीपफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 26 June 2025

ईरान ने ताकत दिखा दी...

*क्यों लड़ रहे थे इज़्राइल इरान,*
*क्या हासिल हुआ क्या नुक़सान?* 
0 इज़राइल ने 12 जून को इरान पर हमले की यह कहकर शुरूआत की थी कि वह परमाणु बम बना रहा है। उसने इरान के परमाणु केंद्रों पर हमले के साथ ही उसके कई सैनिक कमांडर और बड़े साइंटिस्ट की हत्या कर दी थी। पलटवार करते हुए इरान ने इज़राइल पर जब अपनी आध्ुानिक और मारक मिसाइलों की ताबड़तोड़ बौछार की तो इज़राइल उनको ना रोक पाने से बौखला गया। इसके बाद इज़राइल के बार बार मदद मांगने पर अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु सेंटर फोरडो नतांज़ और इस्फाहान पर बी टू स्टील्थ बाॅम्बर से बंकर बस्टर बम गिराकर दावा किया कि उसका एटम बम बनाने का प्रोग्राम सदा के लिये ख़त्म कर दिया है। इरान ने बदला लेने को क़तर स्थित अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर भी मिसाइल दाग दीं इसके बाद उसी रात इरान इज़राइल में जंग थम गयी।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      14 मई 1948 को इज़राइल फिलिस्तीन की धरती पर यहूदी शरणार्थियों के जर्मनी द्वारा नरसंहार के बाद आने पर यूरूपीय देशों द्वारा बनाया गया था। इज़राइल को सबसे पहले अमेरिका ने मान्यता दी थी। उसके बाद इज़राइल के विवादित विस्तारवाद फिलिस्तीनियों के उत्पीड़न निर्वासन और अन्याय के खिलाफ कई बार उसके आसपास के अरब देशों ने हमला किया लेकिन इज़राइल को अमेरिका का असीमित और बिना शर्त सपोर्ट मिलने से वह हर बार जीतकर आगे बढ़ता रहा। आज अधिकांश अरब देश अमेरिका के सैन्य अड्डे अपने यहां बनाकर और उससे सुरक्षा की गारंटी किराये पर लेकर इज़राइल के खिलाफ अपना मंुह बंद रखते हैं। लेकिन इज़राइल के जुल्म ज़्यादती और नाइंसाफी के खिलाफ फिलिस्तीनी लगातार लड़ते आ रहे हैं। अरब देशों से अलग राह पर चलकर इरान ने हमेशा फिलिस्तीन को हर तरह से सपोर्ट किया है। यह भी कहा जाता है कि हमास हिजबुल्लाह और हूथी जैसे कथित उग्रवादी संगठन भी इरान की सपोर्ट से ही इज़राइल पर आयेदिन छिटपुट हमले करते रहते हैं। लेकिन अमेरिका द्वारा इज़राइल को दिये गये अरबों डाॅलर आध्ुानिक हथियार और आइरन डोम जैसी दुश्मन की मिसाइलों को ज़मीन पर गिरकर नुकसान करने से पहले ही बीच में इंटरसेप्ट करके नाकाम कर देने वाली माॅडर्न तकनीक से उसका कोई भी देश संगठन या बम मिसाइल कुछ खास बिगाड़ नहीं सकी है। 
     फिलिस्तीन और उसके समर्थक संगठन जहां अपने मूल अधिकार दो राष्ट्र सिध्दांत और सह अस्तित्व लिये संघर्ष करते रहे हैं वहीं इरान इज़राइल का नाम ओ निशान इस धरती से मिटाने की क़समें खाता रहा है। लेकिन इरान को भी अब इज़राइल का वजूद स्वीकार कर लेना चाहिये। साथ ही स्थायी अमन के लिये इज़राइल को भी आज़ाद फिलिस्तीन स्वीकार करना होगा। अब तक इरान की इज़राइल से सीधी लड़ाई नहीं हुयी थी। लेकिन इस बार जब इज़राइल ने 12 जून को उस पर अचानक सीधे हमले कर उसको नुकसान पहंुचाया तो इरान ने पलटवार कर यह भ्रम तोड़ दिया कि इज़राइल अपराजय है। 12 दिन की जंग में इरान ने अपनी सीमा से 2500 किमी. दूर इज़राइल पर इतनी ज़बरदस्त मिसाइल बरसा दीं कि इज़राइल को अपना वजूद इरान के बिना एटम बनाये ही खतरे में नज़र आने लगा। उसने अपने आका अमेरिका से अपील कर इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर हमले कराये लेकिन इरान उन केंदों को पहले ही खाली कर चुका था। इस दौरान चीन और रूस इरान के साथ खुलकर खड़े हो गये। रूस ने परमाणु बम बनाने वाले 200 वैज्ञानिक इरान को दे दिये। चीन ने इज़राइल के हमलों से बचाव की नई तकनीक और हथियार इरान को पर्दे के पीछे से देने शुरू कर दिये। 
      इससे इज़राइल और अमेरिका बौखला गये। उधर अमेरिका में जनता ने अफगानिस्तान और इराक की नाकामी को देखते हुए अमेरिका के जंग में शामिल होने का सड़कों पर खुलकर विरोध शुरू कर दिया। साथ ही जंग के लिये अमेरिकी कांग्रेस से सहमति ना लेने पर ट्रंप की सत्ता पर विपक्ष ने जोरदार हमले शुरू कर दिये। वहां का मीडिया भी ट्रंप की जंग में एंट्री के खिलाफ मुखर हो गया। उधर इज़राइल इरान की आधुनिक नवीनतम और सुपरसोनिक मिसाइलों के ताबड़तोड़ हमलों से इतना हलकान हो गया कि वह अमेरिका से गिड़गिड़ाने लगा कि किसी तरह से जंग रूकवा दीजिये। इरान जब इज़राइल पर जंग मंे भारी पड़ने लगा तो वह सीज़फायर के लिये तैयार नहीं हो रहा था। इस दौरान जब अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर उसे बाकायदा सूचित कर दिखावे के लिये हमले किये तो इरान ने 60 से 90 प्रतिशत तक परिष्कृत परमाणु सामाग्री अपने 16 बड़े वाहनों में पहले ही लोड कर किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा दी थी। किसी भी केंद्र पर रेडियेशन ना होने से हमले नाकाम साबित हो गये। 
       खुद अमेरिकी जांच एजेंसी ने ट्रंप के दावों की पोल खोलते हुए कहा कि उनको इरान के परमाणु केंद्र खत्म होने के अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। इरान ने भी जंग रोकने के लिये शर्त रखी कि वह जब तक बदला लेने के लिये अमेरिका के सैन्य ठिकानों पर हमला नहीं कर लेगा तब तक जंग नहीं रोक सकता। इसके बाद क़तर स्थित अमेरिका के मिलैट्री बेस पर अमेरिका को इरान ने खबर करके हमला किया जिससे जान का नुकसान ना के बराबर हुआ। इसके बाद अमेरिका को अपनी धमकी के मुताबिक इरान पर और बड़े हमले करने चाहिये थे लेकिन वह अपनी नाक नीची करके उसी रात इरान इज़राइल को सीज़फायर के लिये राज़ी करने में कामयाब होेे गया। इस दौरान इरान ने इज़राइल को पहली बार इतिहास में अपनी मिसाइलों से इतनी ज़बरदस्त चोट और नुकसान पहुंचाया जिसकी इज़राइल ने आज तक कल्पना भी नहीं की थी। हालत इतनी खराब थी कि इज़राइल के लोग अपना देश तक छोड़कर भागने लगे थे। जो देश में थे वे दिन रात बंकर में अपनी जान की खैर मांग रहे थे। इज़राइल के पास जंग का साज़ ओ सामान गोला बारूद दूसरे हथियार और अरबों डाॅलर का नुकसान होने से आगे जंग जारी रखने को पैसा तक खत्म होने वाला था। उसको पहली बार इरान ने जंग का खौफ और मज़ा चखाया है जो वह निहत्थे और कमजोर फिलिस्तीनियों पर हमला करके अपना रौब झाड़ा करता था। 
        अब सवाल यह है कि इससे अमेरिका और इज़राइल को क्या मिला? जंग से पहले ये दोनों देश इरान में सरकार परिवर्तन परमाणु केंद्रों का सफाया उसके सबसे बड़े धार्मिक और सियासी रहनुमा खामनई की हत्या और इरान से बिना शर्त सरेंडर की मांग कर रहे थे लेकिन अब इरान ने इनके चारों मकसद पर पानी फेरकर खुद को इज़राइल से बेहद ताकतवर और परमाणु बम हर हाल में बनाने का एलान कर दिया है। सही भी है कि अगर दुनिया के पांच देशों अमेरिका चीन रूस ब्रिटेन फ्रांस के पास घोषित और भारत इज़राइल पाकिस्तान व उत्तरी कोरिया के पास अघोषित एटम बम मौजूद हैं तो इरान को परमाणु बम बनाने से रोकने का किसी को क्या नैतिक अधिकार है? अगर दुनिया ताकत की ही भाषा समझती है तो इस बार संयोग से इरान ने इज़राइल ही नहीं उसके आका अमेरिका को भी अपनी पाॅवर का एहसास कराकर अपना बम बनाने का इरादा साफ कर दिया है।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*