Thursday, 27 November 2025

राहुल तेजस्वी घर बैठें

*राहुल तेजस्वी को चुनाव लड़ना नहीं आता तो सियासत छोड़ घर बैठें?*
0 बिहार चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद से विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस राजद को देश का एक वर्ग नाकाम नालायक और बहानेबाज़ बता रहा है। देश के 272 कथित बुध्दिजीवियों ने तो बाकायदा पत्र लिखकर राहुल गांधी पर केंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग पर वोट चोरी के आरोप लगाकर संवैधनिक संस्थाओं की छवि खराब करने का आरोप तक लगा दिया है। इसका मतलब उनके अनुसार अभी भी केेंचुआ की कोई छवि है जो बची हुयी है। यह अलग बात है कि सोशल मीडिया पर इन 272 कथित इंटलैक्चुअल की पोल खोलकर कुछ यूट्यूबर ने खुद इन महामूर्तियों की ही छवि का दिवाला निकाल दिया है। सवाल यह है कि जो लोग राहुल और तेजस्वी पर हमले कर रहे हैं, कहीं वे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत तो चरितार्थ नहीं कर रहे हैं?   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बिहार चुनाव में हार पर कुछ लोग राहुल गांधी पर लानतें भेज रहे हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी सहित पूरा विपक्ष नाच न जाने तो आंगन टेढ़ा बताकर अपनी कमियों को छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहा है। उनका यह भी दावा है कि राहुल गांधी के केंचुआ पर बीजेपी के साथ मिलकर वोट चोरी करने के आरोप भी बिहार चुनाव में जनता ने ठुकरा दिये हैं। वे केंचुआ के एसआईआर और एनडीए की ज़बरदस्त जीत को पवित्र निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव का परिणाम बता रहे हैं। उनका यह भी दावा है कि बिहार चुनाव में सबसे अधिक हालत खराब कांग्रेस की इसीलिये हुयी है कि वह चुनावों में धांधली बेईमानी और पक्षपात के आरोप लगा रही थी। उनका दावा है कि मतदाताओं ने कांग्रेस को एक तरह से न केवल हराया है बल्कि बुरी तरह हराकर उसको अपमानित कर उसकी औकात भी दिखा दी है। वे इसे कांग्रेसमुक्त भारत की दिशा में एक बड़ा कदम मानते हैं। उनके इतना कुछ कहने से हमें भी लगने लगा है कि राहुल जैसे सीध्ेा सच्चे और ईमानदार राजनेता का काम सियासत करना चुनाव लड़ना और मोदी शाह की जोड़ी से टक्कर लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा है। 2014 के बाद से विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की सियासी हालत खराब होती जा रही है। जो थोड़ा सा सुधार कांगे्रस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में किया था वह बढ़त अब तक कई राज्यों के चुनावों में गंवा चुकी है। लगता है कि राहुल को बीजेपी के मुकाबले चुनाव लड़ने के असरदार आक्रामक और मारक तौर तरीके सलीका और तमीज़ बिल्कुल भी नहीं है।
      राहुल को चुनाव लड़ने के अनैतिक और गैर कानूनी रंग ढंग छोड़कर बीजेपी की तरह पूरी तरह ‘पवित्र, शुध्द और आदर्श’ तरीके प्रयोग करने होंगे। राहुल को महंगाई बेरोज़गारी और विकास जैसे फालतू बेकार और बोर करने वाले मुद्दे छोड़कर भावनात्मक धार्मिक साम्प्रदायिक जातिवादी भड़काने वाले उकसाने वाले झूठे बेबुनियाद नफरती मुद्दे उठाने होंगे जिससे जनता उनको अपना हितैषी मानने को तैयार हो सके। राहुल को इसके साथ ही अपना एक चुनाव आयोग बनाना चाहिये जिससे वह एसआईआर के बहाने लाखों कांग्रेस विरोधी वोट काटकर अपने मनमाफिक वोटर लिस्ट तैयार कराकर बीजेपी की तरह अपने पक्ष में काम ले सकें। इसके बाद 16 लाख नये लोगों के आवेदन करने के बावजूद 21 लाख लोगों को वोटर बनवाकर अपने पक्ष में फर्जी मतदान करने को पांच लाख नये वोटों का जुगाड़ करना था। चुनाव आयोग को बीजेपी से शिकायत मिलने पर आंख कान नाक सब बंद रखकर आदर्श चुनाव आचार संहिता का अचार डालकर किसी सीलबंद डब्बे में बंद रखने को मजबूर करना था। इसके साथ ही राहुल को अपना एक सुप्रीम कोर्ट भी बनाना चाहिये था जो बिहार में विवादित एसआईआर प्रक्रिया पूरी होने के बावजूद उसी आरोपों से भरी मतदाता सूची से चुनाव हो जाने के बाद भी यह कहता रहता कि हम पूरी कवायद को निरस्त कर सकते हैं लेकिन स्टे नहीं करेंगे। राहुल को चाहिये था कि तेजस्वी को कहते कि भाई अगर सीएम बनना है कि महिलाओं के खाते में दस दस हज़ार रूपये डलवा दे नहीं तो अपनी जेब से नकद भेज दे। कोई शिकायत करता तो अपने चुनाव आयोग से कहलवा देते कि पहले से चालू स्कीम है, बंद नहीं करेंगे। अगर इतने ही कंगाल हो तो काहे चुनाव में उतरते हो? सियासत से तौबा कर अपने घर चुपचाप बैठ जाओ।
      राहुल की एक गल्ती और थी अपने भाषणों में अपने पापा दादी की हत्या अपनी मां को जर्सी गाय कांग्रेस की विधवा और खुद को पप्पू कहने का रोना नहीं रोया । हद तो तब हो गयी जब राहुल ने एक बार भी कट्टा तमंचा और जंगलराज तक शब्दों का प्रयोग नहीं किया। अरे तो तुम जैसे सीधे शरीफ ‘पप्पू’ लोग क्या खाक चुनाव लड़ोगे? चुनाव लड़ना है और जीतना है तो सड़कछाप छिछोरे और घटिया डायलाॅग तो बोलने ही पड़ेंगे। अगर चुनाव में खराब बयान का जवाब उससे भी खराब बयान बुरे भाषण का जवाब उससे भी सड़े हुए भाषण से और नीच आरोप का जवाब उससे भी घटिया निचले स्तर के और घृणित आरोप से नहीं दे सकते तो क्यों पदयात्रायें निकालकर अपना समय खराब करते हो? क्या बिगड़ जाता अगर एक बार बोल देते कि ट्रंप ने टैरिफ का ‘तमंचा’ लगाकर सीज़फायर कराया था...? राहुल पूरे देश से स्पेशल रेल चलवाकर उसमें इंडिया गठबंधन को वोट देने वालों को बिहार भेजकर चार चार हज़ार रूपये की मामूली रकम तक देने में कंजूसी कर गये तो अब काहे रोते हो? न घुसपैठियों से डराया न ही हिंदू मुस्लिम का राग अलापा तो राहुल के कहने से कौन अपना वोट खराब करता? राहुल ने अपनी ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स विभाग बनाकर बीजेपी के नेताओं को भी नहीं घेरा न ही उनको कांग्रेस में शामिल होने के लिये मजबूर किया, इतना ही नहीं जो व्यापारी और काॅरपोरेट बीजेपी को मोटा चंदा दे रहे थे उनको भी इन एजंसियों से टारगेट नहीं कराया। कांगे्रस शासित राज्यों में जो आदमी बुल्डोज़र चलवाकर और अल्पसंख्यकों की दो चार मोब लिंचिंग तक नहीं करा सकता उससे देश की राष्ट्रवादी जनता क्या आशा करके वोट देगी? एक शायर ने कहा है-
0 किसी के ज़र्फ़ से बढ़कर न कर अहद ए वफ़ादारी,
कभी बेजा शराफ़त भी क़ज़ा का काम करती है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 20 November 2025

ज़ोहराम ममदानी

*ज़ोहराम ममदानी की जीत से क्या सीख सकते हैं मुस्लिम नेता?*
0 अमेरिका के न्यूयार्क का मेयर चुने जाने पर 34 साल के ज़ोहराम ममदानी आजकल चर्चा का विषय बने हुए हैं। आखि़र ऐसा क्या था कि एक देश के एक शहर का मेयर चुना जाना ममदानी के लिये पूरी दुनिया में दो वर्गों के लिये नाक का सवाल बन गया। ममदानी मुस्लिम हैं लेकिन उनकी जीत में इस्लाम का कोई रोल नहीं था इसलिये मुसलमानों का उनकी जीत का जश्न मनाना समझ से बाहर है। उनकी पत्नी सीरियाई है। वे प्रवासी हैं। उनका जन्म युगांडा में हुआ। वे 8 साल की उम्र में अमेरिका के न्यूयार्क आये। जिस तरह से उनके चाहने वाले डेमोक्रेट लिबरल सेकुलर और मानवतावादी समाजवादी पूरे विश्व में फैले हुए हैं वैसे ही उनको उग्रवादी रेडिकल कम्युनिस्ट बताने वाले कंज़रवेटिव और अंधभक्त भी बहुत हैं।   
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      सवाल यह है कि 9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले न्यूयार्क में कैसे एक मुसलमान ममदानी ईसाई हिस्पैनिक हिंदू और यहूदियों तक के वोट लेकर वहां के राष्ट्रपति टंªप के ज़बरदस्त विरोध और अंतिम समय में अपनी ही रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी को छोड़कर ममदानी की डेमोक्रेट पार्टी के विद्रोही निर्दलीय प्रत्याशी को सपोर्ट करने के बावजूद वे जीत गये? ट्रंप ने न्यूयार्कवासियों को बेशर्मी से यहां तक धमकाया कि अगर ममदानी को मेयर चुना जाता है तो वे सरकार से न्यूयार्क को मिलने वाला विकास का धन रोक देंगे। लेकिन ममदानी ने जनहित के ऐसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा कि किसी का कोई विरोध कोई धमकी कोई चाल उनकी जीत का रास्ता नहीं रोक सकी। दरअसल ममदानी दो विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बन गये। एक तरफ खुलेआम आवारा पूंजी कारपोरेट और अमीर वर्ग के हित में काम करने वाली पूंजीवादी नीतियों के समर्थक थे तो दूसरी तरफ ममदानी का समाजवाद गरीब समर्थन कमजोर वर्ग का साथ और मकानों का किराया कम करना मेट्रो तक पहुंच पुलिस की इंसाफ वाली छवि बुजुर्गो व मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के साथ जनता व ज़मीन से जुड़े दिल में उतर जाने वाले मुद्दे थे। ममदानी विरोधियों के तमाम हमलों के बावजूद अपनी सादी पोशाक मुस्कुराता हुआ चेहरा कंध्ेा पर छोटा सा बैग हाथ में मामूली माइक लेकर सड़कों पर आम न्यूयार्कवासी के बीच अपनी बात कहते घूमते रहे। उन्होंने भारत की तरह धर्म जाति और क्षेत्रवाद का कार्ड नहीं खेला। आज नतीजा आपके सामने है।
      हालांकि भारत के राजनीतिक पेटर्न से अमेरिकी सियासत की तुलना करना पूरी तरह सही नहीं होगा लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर ममदानी ने अपनी मुस्लिम पहचान के सहारे चुनाव को इस्लामी रंग देने का कुटिल प्रयास किया होता तो उनका हश्र भी भारत के ओवैसी और बदरूद्दीन अजमल जैसा हुआ होता। हम यहां यह दावा नहीं कर रहे कि अगर कोई भारतीय मुस्लिम सेकुलर पार्टी से या सर्वसमाज का नेता सबको साथ लेकर ममदानी की तरह चुनाव लड़ेगा तो वह पहले ही प्रयास में न्यूयार्क की तरह कामयाब हो जायेगा। लेकिन असम की मिसाल हमारे सामने नाकामी के तौर पर मौजूद है। असम में मुसलमानों के लिये लगभग सब ठीक चल रहा था लेकिन एक दिन मसुलमानों की 34 प्रतिशत आबादी की दुहाई देकर इत्र व्यापारी और जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रदेश मुखिया बदरूद्दीन अजमल ने एक मुस्लिम पार्टी बनाकर मुस्लिम सरकार मुस्लिम मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनाने का सपना देखा। उन्होंने चुनाव में मुस्लिम कार्ड खुलकर खेला और पहली बार में ही 18 विधायक कांग्रेस को मुस्लिम झटका देकर जिता लाये लेकिन यहीं से सेकुलर कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये और बीजेपी ने जवाबी हिंदू ध््राुवीकरण करके असम पर कब्ज़ा कर लिया। आज तमाम नाकामी एनआरसी घुसपैठ और क्षेत्रीय अस्मिता पर खतरे के भावनात्मक मुद्दे पर जीत कर बीजेपी राज कर रही है।
    अजमल खुद लोकसभा चुनाव दस लाख के भारी अंतर से हार चुके हैं। उनकी पार्टी का भी सफाया हो चुका है। उधर सेकुलर हिंदू वोट का साथ छूटने और मुस्लिम अजमल की तरफ जाने से कांग्रेस राजनीतिक रूप से कंगाल हो चुकी है। ऐसे ही हैदराबाद के ओवैसी ने अपनी मुस्लिम पहचान मुस्लिम पार्टी और मुस्लिम मुद्दों पर जमकर साम्प्रदायिक राजनीति करनी चाही लेकिन तेलंगाना के अलावा उनको कहीं कुछ खास फायदा नहीं हुआ लेकिन उनकी कट्टर धार्मिक राजनीति ने प्रतिक्रिया के रूप में बीजेपी को हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने का गोल्डन चांस दे दिया है। वे जहां भी मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ते हैं उन पर जवाबी हिंदू वोटों का ध््रुावीकरण होने से बीजेपी को जबरदस्त सियासी लाभ होता है। ओवैसी ने अपने बेरिस्टर होने सियासत घुट्टी में मिलने उच्च शिक्षित होने संविधान और कानून की अच्छी जानकारी होने से धर्म की अफीम के ज़रिये जोशीले भाषण दे देकर मुसलमानों में एक कट्टरपंथी सांप्रदायिक भावुक अंधभक्त खासतौर पर युवाओं का एक वर्ग अपने पक्ष में खड़ा कर लिया है। जो बात बात पर बचकाना तर्क यह कहकर देता रहता है कि एक पार्टी एक नेता और चंद विधायक सांसद तो हांे जो मुसलमानों के पक्ष में बोलते रहें। उनको यह पता नहीं अगर आज के दौर में मुसलमानों को धर्म के नाम पर जोड़कर कोई चुनाव लड़ेगा तो वह 15 प्रतिशत आबादी में से दो चार प्रतिशत के वोट लेकर दो चार जनप्रतिनिधि ही चुन सकता है।
      जिनकी संसद या किसी राज्य विधानसभा में तब भी कोई औकात नहीं होगी जबकि वे कुल सदन की संख्या का 49 प्रतिशत ही क्यों न हों? कहने का मतलब यह है कि जब तक किसी की सरकार नहीं बनती आप विपक्ष में बैठकर चाहे कितना ही शोर मचा लें आपकी बात कोई सुनने वाला नहीं है। आज ज़रूरत इस बात की पहले है कि आप उस पार्टी उस नेता और उन मुद्दों पर जुड़ें जिनपर जीतकर ममदानी अल्पसंख्यक होकर भी भारी विरोध के बावजूद जीतकर आता है। दूसरे जब तक कोई अल्पसंख्यक मुसलमानों के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगा बयान देगा और एकतरफा भाषण देगा तो उसके जवाब मंे बीजेपी जैसी हिंदूवादी पार्टियां हिंदू आबादी 80 प्रतिशत होने से 30 से 35 प्रतिशत वोट मिलने से ही बहुमत लाकर सरकार बना लेगी। उसके बाद मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलकर नफरत फैलाकर और उनका झूठा डर दिखाकर बार बार हिंदू कार्ड खेलकर चुनाव जीतती रहेंगी। इसलिये ममदानी से मुस्लिम नेताओं को यह सीखने की ज़रूरत है कि चाहे जीत मिले या ना मिले या कई साल और दशक बाद जीतें लेकिन सबको साथ लेकर चलने यानी सेकुलर पार्टी से जुड़ने और सर्वसमाज के मुद्दे उठाकर ही भारत में भी केवल मुसलमानों नहीं सभी भारतीयों सभी नागरिकों और सबको जोड़ने वाले सवाल लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। एक शायर ने कहा है-
0 मैं वो साफ ही न कह दूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,
तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

रोड एक्सीडेंट

*हर मौत पर नहीं केवल अपनों की मौत पर उबलता है हमारा समाज?*
0 क्या हमारा समाज और हम निष्ठुर अमानवीय संवेदनहीन अंतरनिहित आत्मकेंद्रित और स्वार्थी होते जा रहे हैं? जो लोग अपने धर्म जाति और क्षेत्र का एक व्यक्ति मारे जाने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, जो समाज अपने वर्ग का कुख्यात अपराधी तक मारे जाने पर गम और गुस्से में डूब जाते हैं, जो समूह अपने पालतू श्रध्देय और आस्था के प्रतीक जानवर तक मारे जाने या पकड़कर निर्जन इलाकों में दूर छोड़े जाने पर भी सड़कों पर उतर आता है वही लोग एक्सीडेंट में मारे जाने वाले दर्जनों लोगों पर चुप्पी साधे रहते है? क्यों? इससे उनको कोई दुख क्रोध और आक्रोश नहीं होता? इससे उनका मज़हब संस्कृति और सभ्यता ज़रा भी ख़तरे में नहीं पड़ती? यहां तक कि कितना ही बड़ा आदमी दुर्घटना में मारा जाये सब शांत रहते हैं।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     ट्रक और बस की भयंकर आमने सामने की भिड़ंत में दो दर्जन मरे एक दर्जन से अधिक घायल। आपने ख़बर पढ़ी सुनी और देखी। लेकिन आप ज़रा भी विचलित दुखी या सदमे में नहीं आये। यहां तक कि अगर इस तरह के रोड एक्सीडेंट मंे आपका कोई अपना भी मारा जाये तो आप दुखी तो अवश्य होते हैं लेकिन खास गुस्सा या नाराज़गी आपको नहीं होती। आप भगवान खुदा का लिखा मानकर अपने काम धंधे में लग जाते हैं। लेकिन अगर आपके अपने परिवार के सदस्य ही नहीं धर्म के अनुयायी जाति के भाई और क्षेत्र के निवासी की हत्या हो जाये तो आप बुरी तरह उबल पड़ते हैं। आपका खून खौलने लगता है। आप कानून की बजाये खुद अपराधी या आरोपी को सज़ा देने पर उतर आते हैं। यहां तक कि कई बार लोग ऐसे संदिग्ध आरोपियों की बिना सबूत गवाह और ठोस तथ्यों के मोब लिंचिंग यानी हत्या तक कर देते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि हमारे देश में ऐसी हत्यायें आम होती जा रही हैं लेकिन सरकार पुलिस या अदालतों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अब अपने मूल विषय पर आते हैं। सड़क दुर्घटनाओं में जो लोग बेमौत मारे जाते हैं। उनकी ख़बरों में किसी को विशेष रूचि नहीं है। पुलिस मौका मुआयना कर अज्ञात या अमुक के खिलाफ रपट दर्ज कर घायलों को चिकित्सालय और मृतकों को पोस्टमार्टम या पंचनामे के बाद उनके परिवारजनों को सौंप देती है। सरकार मरने वालों को और घायलों को कुछ लाख या कुछ हज़ार मुआवज़ा घोषित कर देती है।
     जो कई बार मिलता ही नहीं। आप ऐसी ख़बरों पर एक सरसरी निगाह डालते हुए अपनी रूचि की चुनाव राजनीति सांप्रदायिक धार्मिक या एग्ज़िट पोल अवैध सैक्स बलात्कार हत्या गबन आॅनलाइन ठगी अपहरण की ख़बरों पर नज़र गड़ाकर रूचि से पढ़ते हैं यह जानते हुए भी ऐसे हादसों का अगला शिकार आप खुद भी हो सकते हैं, तब आपकी भी ख़बर पढ़ने या उस पर अफसोस जताने में कोई दिलचस्पी नहीं लेगा। दि हिंदू अख़बार में ऐसी सड़क दुर्घटनाओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी है। रपट बताती है कि ऐसे हादसों के कितने कारण हो सकते हैं। कोरोना से जितने लोग मरे उससे कहीं अधिक हर साल रोड एक्सीडेंट में मर जाते हैं। इसका कारण हमेशा लापरवाही से वाहन चलाना नहीं होता। रिपोर्ट स्टडी करने पर पता चलता है कि जब खराब सड़कें और खराब फैसले आपस मिलते हैं तो डिजास्टर सा जन्म लेता है। तेलंगाना में एनएच 163 का एक भाग डेथ काॅरिडोर कहा जाने लगा है। यह रिपोर्ट विस्तार से दुर्घटनाओं की स्टडी करके बताती है कि डिज़ाइन की भयंकर कमियां रखरखाव का घोर अभाव हादसों का गंभीर समीकरण पैदा करता है। लंबी रोड उपेक्षा से बड़े भयंकर गड्ढे मिट्टी मिला हुआ बालू और फसल क्षेत्रों का फैलाव अंधेरा मीडियन की कमी गायब चेतावनी बोर्ड अधिकांश हादसों की वजह बन रहे हैं। एक ट्रफिक डीसीपी का कहना था कि ड्राइवर का व्यवहार ही नहीं बल्कि उसका नशा करना सड़कों पर तीखे मोड़ तीव्र ढाल और संरचनात्मक कमियां दुर्घटनाओं की बड़ी वजह बनती हैं। एक सड़क निर्माण करने वाले जाने माने ठेकेदार का दावा है कि गुणवत्ता का सवाल इसलिये नहीं उठाया जा सकता कि उनको टेंडर हासिल करने से लेकर कदम कदम पर जो दलाली देनी पड़ती है उसका प्रतिशत अब बढ़कर 55 तक जा पहंुचा है।
     कथित एक्सप्रेस वे हों या नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे सब की हालत खस्ता है, एनएचएआई कर्ज में डूबा है और उसके लिये ही जगह जगह टोल वसूली जारी है। रोड ही नहीं रेलवे से लेकर एयरवेज़ तक सब जगह सुरक्षा और यात्री सुविधओं का अभाव है। हालांकि राजनेता मंत्री और अफसर सड़कों व ट्रेनों का उदघाटन करते हुए उनके वल्र्ड क्लास होने और उनकी स्पीड बुलेट जैसी होने का दावा करते हैं लेकिन वे सुरक्षा को लेकर चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि उनको भी पता है कि उनकी प्राथमिकता में सुरक्षा का कोई खास स्थान होता ही नहीं। अगर हम अब भी अतीत के गौरव की बात सभ्यता और संस्कृति के नाम पर आपस में बांटो और राज करो की राजनीतिक दलों की चाल को नहीं समझेंगे तो हमें भारी भरकम टैक्स वसूली के बाद भी जिस तरह से खराब सड़कों पर हादसों का आयेदिन शिकार होने को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है, उसका अगला शिकार कोई भी हो सकता है और देश समाज ऐसे ही चलता रहेगा जैसे चल रहा है। इसलिये ज़रूरी है कि रोड एक्सीडेंट को नागरिक सुरक्षा का मुख्य मुद्दा बनाया जाये और चुनाव आने पर सवाल उठाये जायें, बाकी आपकी मर्जी अगर आपको इस तरह के हादसों से कोई परेशानी नहीं है। एक शायर ने कहा है-
 *0 ये लोग पांव नहीं जे़हन से अपाहिज हैं,*
*उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है।।* 
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Tuesday, 4 November 2025

बाहुबली में खलबली

*अच्छे बाहुबली? बुरे बाहुबली?* 
*माफियाओं को लेकर खलबली!*
0 कभी अफ़गानिस्तान के तालिबान यानी कट्टरपंथियों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चली थी कि उग्रवादी अच्छे और बुरे भी होते हैं। जब तक वे अमेरिका के खिलाफ लड़ते रहे उनको आतंकवादी बताया जाता रहा लेकिन अब जब वे अफगानिस्तान की सत्ता में आ गये हैं तो अच्छे और भले हो गये। ऐसे ही बिहार में चुनाव के दौरान जंगल राज की बार बार चर्चा होती है। इसके लिये बाहुबलियों को टिकट देने चुनाव जीतने पर सत्ता का संरक्षण देने और विपक्ष में होकर भी उनको बचाने के आरोप सभी दलों पर लगते रहे हैं। अजीब बात यह है कि सत्ताधरी जदयू के बाहुबलि अनंत सिंह ने मोकामा सीट से सुराज पार्टी के बाहुबलि दुलारचंद यादव की हत्या कर दी लेकिन जंगलराज का आरोप राजद पर है।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इस लेख के छपने तक बिहार में पहले चरण का चुनाव हो चुका होगा। लेकिन जिन बाहुबलियों को लेकर राजनीतिक दलों में भीषण घमासान छिड़ा है, वह शायद दूसरे और अंतिम चरण तक नहीं बल्कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी चालू रहेगा। इस मामले में हालांकि सभी दलों का रिकाॅर्ड कमोबेश दागदार है लेकिन जब जंगलराज की बात चलती है तो राजद को लालूराज के लिये घेरा जाता है। हम इस लेख में एक गंभीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे कि आखि़र बाहुबलि इतने ही बुरे होते हैं तो सभी दल उनको चुनाव में टिकट और संरक्षण क्यों देते हैं? दूसरा अहम सवाल है यह है कि अगर सियासी दल सत्ता के लोभ में इन माफियाओं को टिकट दे भी देते हैं तो जनता इनको क्यों नहीं हरा देती?
     तीसरा और अंतिम सवाल यह है कि जब सभी दल समय समय पर अलग अलग अपराधियों हिस्ट्रीशीटर्स और कुख्यात माफियाओं को संरक्षण और टिकट देते ही हैं तो वे किस मुंह से दूसरे दलों को बाहुबलियों को पालने पोसने का ज़िम्मेदार ठहराते हैं? क्या सत्ताधरी दल के बाहुबलि अच्छे और विपक्ष के बाहुबलि बुरे होते हैं? बिहार की तो बात ही क्या यूपी तक जहां छोटे छोटे अपराधिक मामलों में भी आरोपियों के पैर में गोली मारकर उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चला दिया जाता है और कई कई केस वाले कम चर्चित अपराधी भी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराये जाते हैं, वहां भी बड़े अपराधियों घोषित माफियाओं और कई जाति के सिरमौर बनेे बाहुबलियों को सत्ता का और विपक्ष का संरक्षण अकसर मिलता रहा है। सोशल मीडिया में जबरदस्त फजीहत के बाद अनंत सिंह को पकड़ा गया है। यह शर्म की बात है कि न तो सरकार न ही चुनाव आयोग और न ही छोटी छोटी बातों पर सूमोटो लेने वाले कोर्ट ने इस हत्या पर कोई गंभीर पहल की। हालांकि जहां सत्ता में आना और उसमें किसी कीमत पर भी चुनाव जीतकर बने रहना ही लोकतंत्र माना जाता हो वहां जातिवाद साम्प्रदायिकता बाहुबलि भ्रष्टाचार झूठे दावे बेबुनियाद वादे चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी जनता के खाते में लाखों करोड़ सरकार के द्वारा डालते रहना चुनाव आयोग को गलत नहीं लगता। अगर आप गौर से जांच से करें तो आपको पता लगेगा कि चुनाव से ठीक पहले अनंत सिंह और आनंद मोहन सिंह को जेल से बाहर निकाला गया।
     इतना ही नहीं जेल में बंद प्रभुनाथ सिंह के भाई और बेटे को भी टिकट दिया गया। सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों ने कुल आठ बाहुबलियों को टिकट दिया है। मोकामा के ही बाहुबलि सूरजभान नामांकन की अंतिम तिथि से पहले टिकट नहीं मिलने पर एनडीए से महागठबंधन में आकर टिकट पा गये। यूपी में 2012 के चुनाव में अखिलेश यादव ने अपना दामन साफ रखने के चक्कर में बाहुबलि डीपी यादव रमाकांत यादव राजा भैया बृजभूषण शरण सिंह अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को मुलायम सिंह के लाख कोशिश करने पर भी अंतिम समय पर टिकट पर वीटो लगाकर वह चुनाव तो जीत लिया लेकिन वे अगली बार 2017 में जब हारे तो पता लगा एक वजह बाहुबलियों से उनका टिकट काटकर पंगा लेना भी था। सच यह है कि सामान्य या सज्जन विधायकों सांसदों के मुकाबले बाहुबलियों का साम दाम दंड भेद के द्वारा छोटे छोटे अपराधियों भ्रष्ट अधिकारियों और असरदार लोगों के साथ एक बड़ा पुख्ता व सक्रिय नेटवर्क होता है जो उनको न केवल चुनाव जिताने बल्कि जनप्रतिनिधि बनकर जनता के काम तत्काल कराने के लिये भी मुफीद होता है। उनके नाम के डर से भी वोट मिलते हैं। पुलिस प्रशासन उनके बताये काम लोभ और भय से करने से अकसर मना नहीं करते। जो ऐसा करने की हिमाकत करते हैं उनको सबक ये बाहुबलि खुद ही सिखा देते हैं। जनता को इनका यह अंदाज़ अच्छा लगता है।
      यहां तक कि ये बाहुबलि बच्चो के स्कूल एडमिशन और छोटे बड़े ठेके रोज़गार नौकरी इंटरव्यू सड़क बिजली कनेक्शन थाने में रपट राशन कार्ड विभिन्न सरकारी प्रमाण पत्र अस्पताल आॅप्रेशन तक के काम एक काॅल करके करा देते हैं जबकि बड़े बड़े नेता और अधिकारी स्कूल के मैनेजर और प्राचार्य से कई बार कहते कहते थक जाते हैं लेकिन वे उनकी काॅल तक सुनते ही नहीं। बाहुबलि अपने क्षेत्र में ही नहीं अपने आसपास के दर्जनभर चुनाव क्षेत्रों में भी उस दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाता है जिसमें वह शामिल है। इलाहाबाद की आधे से अधिक सीटें समाजवादी पार्टी अतीक अहमद के बल पर जीत जाती थी। ऐसे ही बिहार में लालू यादव की सत्ता को लाने से लेकर बनाये रखने में शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलि बड़ी भूमिका निभाते थे लेकिन सत्ता बदलने पर अधिकांश बाहुबलि नीतीश के दल में चले गये। इससे दोनों को संरक्षण मिला। इस समय शहाबुद्दीन अतीक और मुख्तार जैसे अधिकांश मुस्लिम बाहुबलियों को तो बदली सत्ता का साथ न देने पर ठिकाने लगा दिया गया है लेकिन हिंदू बाहुबलि अभी भी बड़ी संख्या में राजनीति में कई दलों के साथ काम कर रहे हैं। जब तक सियासत में नैतिकता शुचिता और पवित्रता नहीं आती बाहुबलियों को किसी ना किसी दल में सहारा मिलता ही रहेगा।
मस्लहल आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 30 October 2025

बहनजी का विश्वास खत्म

*बहनजी का नहीं रहा विश्वास,* 
*मुस्लिम नहीं आयेगा उनके पास!*
0 बसपा सुप्रीमो बहन मायावती ने कहा है कि मुसलमानों ने सपा के साथ बार बार तनमनधन से जाकर देख लिया लेकिन वे बीजेपी को नहीं हरा सके। उन्होंने मुसलमानों को बसपा से जोड़ने के लिये भाईचारा संगठन में यूपी के 18 मंडलों में एक दलित व एक मुस्लिम को संयोजक बनाने की कवायद शुरू की है। विपक्ष का आरोप है कि कुछ दिन पहले माया ने लखनऊ में योगी सरकार के सहयोेग से बीजेपी के दबाव में एक बड़ी विशाल रैली भी की थी, जिसके द्वारा यह संदेश देने की नाकाम कोशिश की गयी कि बसपा ने पूरी तरह से अपना जनाधार नहीं खोया है। इस रैली के ज़रिये मुसलमानों को गुमराह करके बसपा के साथ आने का यह कहकर लालच दिया गया था कि बसपा भाजपा की बी टीम नहीं है। 
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बसपा की मुखिया मायावती यह भूल रही हैं कि मुसलमान उस दौर में उनकी पार्टी के साथ फिर से जुड़ सकता है जिस दौर में उनके अपने दलित समाज ने उनका साथ छोड़ दिया है। यह बात उनकी किसी हद तक सही है कि अगर मुसलमान दलित समाज के साथ जुड़ जाये तो कुछ अन्य हिंदू कमज़ोर पिछड़े और शोषित वर्ग के प्रत्याशी उतारकर बसपा सपा कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के खिलाफ चुनाव जीत सकती है और माया इसी समीकरण के बल पर एक बार पूरे बहुमत से जीतकर यूपी में सरकार बना भी चुकी है। लेकिन उनको यह पता होना चाहिये कि केवल वोटों के समीकरण से चुनाव नहीं जीते जाते बल्कि इसके लिये जनता का पार्टी व उसके नेता में विश्वास होना पहली शर्त है। 2007 में माया को दलितों व मुसलमानों के साथ ही कुछ पिछड़ों व अगड़ों ने वोट देकर सरकार बनवाई थी। लेकिन उस दौर में माया ने सत्ता के बल पर सबका विकास करके सबका विश्वास जीतने की बजाये केवल दलितों को खुश करने को एकतरफा और पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया और करप्शन के रिकाॅर्ड तोड़कर वह बेहद कीमती मौका गंवा दिया। इसके बाद न केवल उनकी सत्ता चुनाव में छिन गयी बल्कि उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच भी शुरू हो गयी। यही वजह है कि बहनजी जेल जाने के डर से बीजेपी के इशारे पर ऐसे काम बयान और फैसले करती हैं जिससे उनके अपने वोटबैंक दलित पिछड़े और मुसलमान उनसे धीरे धीरे किनारा करते गये। उनका विश्वास पूरी तरह खत्म होता जा रहा है।
       उनको जनता का बड़ा हिस्सा बीजेपी की बी टीम मानता है। बहनजी खुद भी बीजेपी से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ नज़र आती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर 1991 में सबसे अधिक 8.38 प्रतिशत था जबकि सांसद सबसे अधिक 2009 में 21 जीते थे तो 2024 में मत प्रतिशत देश में 2.06 यूपी में 9.39 परसेंट हो गया और सांसद शून्य हैं। यूपी की बात करें तो 2007 में उसका वोट प्रतिशत सबसे अधिक 30.43 था तो विधायक सबसे अधिक 207 जीते थे लेकिन 2022 के चुनाव में वोट 12.88 प्रतिशत तो विधायक मात्र एक रह गया है। माया यह भूल रही है कि उनसे अच्छे लच्छेदार और दिल को छू लेने वाले बयान एआईएमआईएम के ओवैसी देते हैं लेकिन उनको भी जब से मुसलमानों ने बीजेपी की बी टीम माना है, तब से बांस से छूने को भी तैयार नहीं हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती चाहे दावे कुछ भी करें लेकिन यह बात अब साफ हो गयी है कि वे मोदी सरकार के दबाव में अपने खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति मामले में जांच को दबाये रखने के लिये भाजपा के इशारे पर बहुजन समाज के हितों के खिलाफ राजनीति कर रही हैं। यही वजह है कि आम चुनाव शुरू होने के दौरान उनको जब इंडिया गठबंधन ने भावी पीएम का चेहरा बनाकर पेश करने के लिये विपक्षी गठबंधन में आने का न्यौता दिया तो वे इतना घबरा गयी कि बिना इस प्रस्ताव पर चर्चा किये ही उल्टा यह आरोप लगा दिया कि कुछ दल बसपा के बारे में विपक्षी गठबंधन में जाने की अफवाहें फैला रहे हैं।
       इससे पहले उन्होंने अपने भतीजे आकाश को चुनाव की कमान सौंप दी थी। जब आकाश जोरदार चुनाव प्रचार करके जल्दी ही मीडिया में चर्चित होने लगे तो उनके खिलाफ कुछ भाषण में अपशब्द कहने की भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दर्ज कर दी। इसके बाद मायावती ने उनको उनके पद से हटाकर चुनाव प्रचार से भी रोक दिया। ऐसे ही मायावती ने जितने उम्मीदवार खड़े किये उनमें से जीता तो एक भी नहीं लेकिन चर्चा है कि गैर दलितों से चुनाव चंदे के रूप में मोटी रकम लेकर टिकट इस हिसाब से दिये गये जिससे अकेले यूपी में अकबरपुर अलीगढ़ अमरोहा बांसगांव भदोही बिजनौर देवरिया डुमरियागंज फरूखाबाद फतेहपुर सीकरी हरदोई मिर्जापुरा मिश्रिख फूलपुर शाहजहांपुर और उन्नाव आदि 16 सीट पर बसपा के प्रयाशियों ने इतने मुस्लिम दलित वोट काट लिये कि इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार उससे कम वोटों के अंतर से भाजपा केंडीडेट से हार गया। लेकिन यहां सवाल बसपा सुप्रीमो की नीयत का है। वे लगातार ऐसे बयान देती रही हंै जिससे भाजपा को लाभ और सेकुलर दलों को नुकसान हुआ है। 2019 में सपा से गठबंधन करके जब उन्होंने यूपी में संसदीय चुनाव लड़ा था तो उनको शून्य से 10 सीट पर पहुंचने का भारी एकतरफा लाभ हुआ था। जबकि दलित वोट सपा को ना जाने से सपा की सीट पहले की तरह 5 ही रह गयी थीं। फिर भी पूरी बेशर्मी से बहनजी ने झूठ बोलते हुए गठबंधन से बसपा को लाभ ना होने का आरोप लगा कर भाजपा के दबाव में अलग होने का एलान कर दिया था।
       यह अजीब बात है कि आज जब उनकी पोल खुल चुकी है कि वे भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कही जाती बल्कि इसके कई प्रमाण और उदाहरण लोगों के सामने आते जा रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि मायावती क़सम खा लंे कि चाहे कोई मुसलमान कितनी ही बड़ी रकम चंदे मंे दे वे उसको किसी कीमत पर टिकट नहीं देंगी क्योंकि इससे मुसलमानों पर उनका एहसान होगा नुकसान नहीं। सच तो यह है कि करोड़ों रूपये देकर जो बसपा का टिकट लाता है। उसके पास अपवाद छोड़ दें तो नंबर दो यानी हराम का पैसा ही अधिक होता है। इससे मुसलमानों का आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ साथ वोट काटकर बसपा भाजपा को हर बार कई सीट जिताकर राजनीतिक नुकसान भी करती है। मुसलमानों का एक वर्ग जो साम्प्रदायिक है और बसपा प्रत्याशी को अपने ही धर्म का देखकर केवल इस चक्कर में वोट कर देता है कि इससे संसद में मुसलमानों की संख्या कुछ बढ़ सकती है। जबकि सेकुलर दल और उनके हिंदू नेता आज के दौर में मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई बसपा के मुस्लिम से बेहतर लड़ रहे हैं। बहनजी आरपीआई के प्रकाश अंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी जैसे डबल गेम खेलने वाले चालाक धूर्त सभी नेता यह समझ लें कि ये पब्लिक है सब जानती है।
0 एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 23 October 2025

हरामखोर कौन

*50 परसेंट वोटर्स पर क्यों हैं मौन,*
 *गिरिराज को वेतन देता है कौन?* 
0 केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने उन सब लोगों को नमकहराम कहा है जो केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ तो लेते हैं लेकिन बीजेपी को वोट नहीं देते। भले ही उनका इशारा मुसलमानों की तरफ़ हो लेकिन सही बात यह है कि उन्होंने आधे से अधिक उन हिंदुओं को भी लपेट लिया है जो भाजपा को वोट नहीं देते। बीजेपी को लगभग 36 परसेंट वोट मिलते हैं। मुसलमान देश में 14 परसेंट हैं। तो जो 64 परसेंट वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते उनमें 50 परसेंट गैर मुस्लिम हैं। दूसरी बात यह है कि गिरिराज सिंह को जो वेतन भत्ते और सांसद निधि मिलती है उसमें मुसलमानों के टैक्स का पैसा भी शामिल है। तीसरी बात यह है कि संविधान मंत्री को इस नफ़रत भेदभाव और पक्षपात की इजाज़त नहीं देता है।
  *-इकबाल हिन्दुस्तानी* 
बिहार के अरवल में एक रैली के दौरान केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक मौलवी के साथ अपने वार्तालाप को सुनाते हुए कहा है कि ‘‘हमने कहा आयुष्मान कार्ड मिला? उसने कहा हां मिला। हमने कहा हिंदू मुसलमान हुआ? उसने कहा नहीं। हमने कहा बहुत अच्छा आपने हमको वोट किया था? उसने कहा हां दिया था। मैंने कहा खुदा की नाम लेकर बोलिये? तो उसने कहा नहीं दिया था। हमने कहा नरेंद्र मोदी ने गाली दिया था, हमने गाली दिया था? कहा नहीं। मैंने कहा मेरी गल्ती क्या थी? जो किसी का उपकार ना माने उसे क्या कहते हैं? नमकहराम कहते हैं। हमने कहा मौलवी साहब हमें नमकहराम का वोट नहीं चाहिये।’’ इस बातचीत को पूरी तरह सच नहीं माना जा सकता क्योंकि गिरिराज अकसर झूठ बोलते हैं। दूसरी बात यह है कि चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों के 8 प्रतिशत वोट मिलते हैं। गरीब मुसलमान 11 परसेंट तक बीजेपी को वोट देता है। जबकि अमीर 6 और मीडियम क्लास मुसलमान 5 प्रतिशत वोट भाजपा को देता है।
       उधर हिंदू 85 प्रतिशत होकर भी केवल 28 प्रतिशत ही भाजपा को वोट देता है। केंदीय योजनाओं का लाभ तो हिंदू मुसलमान सभी ले रहे हैं। लेकिन यहां नोट करने वाली बात यह है कि जिस तरह से बीजेपी ने मुसलमानों का हर स्तर पर विरोध दमन अन्याय अत्याचार पक्षपात भेदभाव और उनसे दुश्मनी की हद तक नफ़रत का माहौल बनाकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति की है, इसके बावजूद उसको उनके 8 परसेंट वोट मिलना भी हैरत और डर की बात है। अगर आज देश में कानून संविधान और समानता का राज होता तो गिरिराज सिंह जैसे लोग मंत्रिमंडल नहीं जेल में होते। उनकी सांसदी छिन चुकी होती। चुनाव आयोग जीवित होता तो उनके ज़हरीले चुनाव प्रचार पर रोक लगा चुका होता। सुप्रीम कोर्ट न्याय करता तो स्वयं सू मोटो लेकर उनको दो धर्म के लोगों के बीच दरार पैदा करने के लिये तलब कर सज़ा दे चुका होता। मीडिया ज़िंदा होता तो उनसे उनके ज़हरीले आपत्तिजनक और विवादित बयानों पर तीखे सवाल पूछ रहा होता।
        खुद मोदी अगर सबका साथ सबका विश्वास में विश्वास रखते तो उनको ना केवल मंत्री पद से बर्खास्त करते बल्कि भविष्य में चुनाव लड़ने को बीजेपी का टिकट भी नहीं देते। साथ ही सब भारतीयों का डीएनए एक बताने वाला संघ उनको अब तक कभी का आडवाणी बना चुका होता। लेकिन खेद है ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि यह सब एक सुनियोजित योजना बीजेपी का एजेंडा और उसके नफ़रत झूठ व बांटो और राज करो की घटिया नीति का सोचा समझा हिस्सा है। लेकिन बीजेपी को यह नहीं भूलना चाहिये कि बढ़ते करप्शन अपराध बेरोज़गारी महंगाई गरीबी भुखमरी अराजकता साम्प्रदायिकता घृणा झूठ जातिवाद हिंसा माॅब लिंचिंग बलात्कार पक्षपात भेदभाव वोट चोरी अन्याय अत्याचार शोषण घोटालों आॅनलाइन स्कैम आवारा पूंजीवाद रिश्वतखोरी कमीशनखोरी का अनुपात के हिसाब से नुकसान उनको ही अधिक संख्या में हो रहा है जिनका जनसंख्या में हिस्सा अधिक है। केवल मुसलमानों को हर समस्या के लिये टारगेट करके अपने कुकर्मों का ठीकरा बार बार उन पर फोड़कर हिंदुओं को अब आगे लंबे समय तक धोखा नहीं दिया जा सकता। अगर बीजेपी इतनी ही लोकप्रिय होती तो उसको राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ता वह निष्पक्ष जांच कराकर विपक्ष को विश्वास में ले सकती थी।   
       अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
       भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 2.01 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है, ऐसे ही देश में सबसे कम आबादी की बढ़त वाले राज्यों में मुस्लिम बहुल कश्मीर सबसे आगे हैं। देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30.9 से बढ़कर 34.2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है लेकिन सीमा पर घुसपैठ रोकने की ज़िम्मेदारी भी केंद्र सरकार की है।  
*0चाकू की पसलियों से सिफ़ारिश तो देखिये,*
*वह चाहता है काटने में उसको मदद करें।।* 
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Thursday, 9 October 2025

बिहार का विवादित एसआईआर

*बिहार का विवादित एसआईआर,* 
 *केंचुआ नहीं मान रहा आधार?* 
0 बिहार का एसआईआर पूरा हो गया। अंतिम मतदाता सूची भी आ गयी लेकिन इस पर विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। चुनाव विश्लेषक और समाजसेवी योगेंद्र यादव का कहना है कि बिहार की कुल व्यस्क आबादी के अनुसार राज्य में 8 करोड़ 22 लाख वोटर होने चाहिये। लेकिन एसआईआर की लास्ट वोटर लिस्ट में 80 लाख वोटर कम हैं। ऐसे ही नये वोटर बनने के लिये आयोग के अनुसार अंतिम तिथि तक 16 लाख 93 हज़ार लोगों ने आवेदन किया था लेकिन नये मतदाता 21 लाख 53 हज़ार बना दिये गये। सवाल यह है कि 4 लाख 60 हज़ार नये मतदाता कहां से आ गये? एक करोड़ 30 लाख से अधिक वोटर के पते सन्दिग्ध हैं। 3 लाख 66 हज़ार नाम जो काटे गये उनका कारण भी नहीं बताया जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और एनडीए एलाइंस के बीच मात्र 11150 वोट का अंतर था। इसकी वजह औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम को माना गया था। जिसने 4 सीट जीती और 11 सीट पर महागठबंधन के वोट काटकर 15 सीट के मामूली बहुमत से जेडीयू भाजपा की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी। विपक्ष का आरोप था कि इस बार महागठबंधन के जीतने के पूरे पूरे आसार देखकर केंचुआ मोदी सरकार के इशारे पर एसआईआर के बहाने विपक्ष के वोट काट रहा है और भाजपा जेडीयू के फर्जी वोट बढ़ा रहा है। एसआईआर जिस जल्दबाज़ी और गैर पारदर्शी तरीके से किया गया है। उससे भी विपक्ष के आरोपों को बल मिल रहा है। बताया जाता है कि जिन लाखों लोगों के वोट केंचुआ ने काटे हैं उनकी विस्तृत जानकारी बार बार मांगने के बाद भी वह अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं कर रहा है कि उनके वोट किस वजह से काटे गये हैं? एसआईआर के दौरान भाजपा ने यह भी दावा किया था कि राज्य में बड़े पैमाने पर विदेशी घुसपैठ हुयी है। लेकिन अब यह नहीं बताया जा रहा है कि कितने घुसपैठियों के वोट काटे गये? यह भी नहीं बताया जा रहा है कि केंचुआ को कैसे पता लगा कि अमुख मतदाता विदेशी है? क्योंकि यह जांचने का काम तो गृह मंत्रालय का है।
      यह बात एसआईआर पर चर्चा के दौरान खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कंेचुआ को कई बार यह भी सलाह निर्देश और आदेश दिया कि वह मतदाता की पहचान के लिये आधार को 12 वां दस्तावेज़ स्वीकार करे, लेकिन केंचुआ अभी भी मक्कारी करते हुए कह रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आधार को लेकर दिये गये आदेश का सम्मान करता है लेकिन पूरे देश में वह आधार तभी स्वीकार करेगा जब पहले से दी गयी पहचान पत्रों की 11 की लिस्ट में से कोई एक कागज़ आधार के साथ दिया जायेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आधार स्वीकार नहीं किया जा रहा है क्योंकि जब उसके साथ पहले से बताये गये 11 में से एक दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो आधार का क्या मतलब रह गया? एसआईआर के बाद जो वोटर लिस्ट सामने आई है उसमें दो लाख से अधिक मतदाताओं के पते के सामने कुछ भी नहीं लिखा है। ऐसे ही 24 लाख घर ऐसे हैं जिनमें 10 से अधिक लोग रहते हैं, क्या यह शक की बात नहीं है। रिपोर्टर कलक्टिव की रिपोर्ट के अनुसार 14 लाख 35 हज़ार वोट अभी भी डुप्लिकेट हैं। इसमें वोटर का नंबर तो अलग अलग है लेकिन उनके माता पिता का नाम एक ही है। उनके अनुसार एक ही पते पर 505 मतदाता अभी भी मौजूद होना एसआईआर की पूरी कवायद को शक के दायरे मंे लाता है। ऐसे ही एक अन्य जगह पर 442 मतदाता एक साथ रहते पाये गये हैं। इनके धर्म और जाति भी अलग अलग है। एक करोड़ 32 लाख मतदाताओं के पते संदिग्ध हैं। अगर केंचुआ के कर्मचारियों ने घर घर जाकर एक एक मतदाता का सत्यापन किया होता तो इतनी बड़ी कमियां गल्तियां और खामियां नहीं होतीं।
      चुनाव आयोग ने अपनी प्रेस वार्ता में एक साथ पांच पांच रिपोर्टर के सवाल लिये जिससे असुविधाजनक सवालों को वह जवाब देने से टाल गया। न्यूज़ लांड्री की रिपोर्ट के अनुसार 2 लाख 92 मतदाताओं के घर का पता जीरो दर्ज किया गया है। इस मतदाता सूची में पहले की तरह लिंग उम्र और अन्य आधार पर दी जाने वाली आठ अलग अलग जानकारी भी केंचुआ देने से पीछे हट गया है। विधानसभा सीट वार कितने वोट काटे गये और कितने नये जोड़े गये यह भी केंचुआ नहीं बता रहा है क्योंकि उसको डर है कि इससे स्थानी लोग उसकी गड़बड़ी और भी जल्दी पकड़ लेंगे। डिजिटली रीडेबिल वोटर लिस्ट के लिये भी विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ी है तो केंचुआ आखिर छिपाना क्या चाहता है? वह लेवल प्लेयिंग फील्ड उपलब्ध कराकर अपने माथे पर लगा सरकार का कठपुतली होने पर दाग हटाने को चिंतित क्यों नहीं है? चुनाव की तिथि घोषित होने के अंतिम समय तक निष्पक्षता किनारे कर नीतीश सरकार एक करोड़ महिलाओं के खाते में 10 दस हज़ार रूपये एक तरह से रिश्वत के तौर पर भेजती रही लेकिन केंचुआ का मुंह बंद ही रहा। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार के बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है।
       विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है।  रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का सवाल तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। वीडियो फुटेज ना दिखाना विपक्ष को डिजिटल वोटर लिस्ट ना देना और एक ही पते पर सैंकड़ो लोगों का वोट बन जाना कुछ ऐसे चर्चित विवादित और शक पैदा करने वाले अनेक मामले हैं जिनसे केंचुआ की साख रसातल में जा रही है, लेकिन उसे और सरकार को कोई मतलब नहीं है। केंचुआ पर एक शेर याद आ रहा है-उसके होंटों की तरफ ना देख वो क्या कहता है, उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*