Saturday, 25 January 2014

मुसलमान और मौलाना

मुसलमानों की समस्याओं को मौलाना हल कर सकते हैं?
0ग़रीबी, जहालत और कट्टरपंथ का उनके पास इलाज नहीं है !
         -इक़बाल हिंदुस्तानी
   यूपी के ज़िला बिजनौर की तहसील नजीबाबाद में हुसूले इंसाफ़ नाम से दो दिन का आलमी जलसा उलेमा और अवाम के बैनर से आयोजित किया गया जिसमें अरब से लेकर ईरान तक के मौलानाओं ने हिस्सा लिया। मौलानाओं ने मज़हबी बातों के साथ साथ सियासी और समाजी मुद्दे भी यह कहकर उठाये कि इस्लाम में धर्म और राजनीति अलग अलग नहीं है। यह ठीक है कि देश को आज़ाद कराने मंे उलेमाओं का भी बड़ा रोल रहा है लेकिन जहां तक इस मांग का सवाल है कि मुसलमानों को उनके पूरे अधिकार दिये जायें और उनके साथ किसी भी तरह का पक्षपात ना किया जाये, तो इसमें पहली नज़र मेें कोई बुराई नज़र नहीं आती है लेकिन हमारा मानना है कि अगर संघ परिवार का केवल हिंदू धर्म के आधार पर राजनीति करना साम्प्रदायिक माना जाता है तो मुसलमानों का भी मुसलमानों के नाम पर राजनीति करना हिंदू साम्प्रदायिकता को खाद पानी देने का बहाना बन सकता है।
   संविधान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों को अपनी बात कहने का अधिकार दिया गया है तो सवाल यह है कि इस मंच पर मुसलमानों के साथ ही सिख और ईसाई जैसे अन्य अल्पसंख्यकों को भी जोड़ा जाना चाहिये था लेकिन फिर इस्लाम की बात कैसे की जाती? इतिहास के अकबर महान को काफ़िर और कट्टर माने जाने वाले औरंगजे़ब को सच्चा मुसलमान कैसे बताया जाता? जबकि यह भी सच है कि इतिहास में अंग्रेज़ों ने अपने स्वार्थ में फेरबदल बड़े पैमाने पर किया है। हालांकि इसमें दो राय नहीं हो सकती कि मुसलमानों को जब तक बराबर अधिकार और उनके साथ धर्म के आधार पर हर तरह का पक्षपात बंद नहीं किया जायेगा तब देश ना तो सर्वसमावेशी विकास कर  सकता है और ना ही आतंकवाद को ख़त्म करके शांति और भाईचारे का माहौल बनाया जा सकता है, साथ ही रंगनाथ मिश्रा और सच्चर आयोग की सिफ़ारिशें लागू की मांग रखना , लेकिन यह काम सेकुलर मंच से बेहतर तरीके से किया जा सकता है जिसमें सेकुलर बहुसंख्यक भी बड़ी संख्या में शामिल हों।
   मुसलमानों के साथ पक्षपात और अन्याय इसलिये भी होता है क्योंकि उनमें गरीबी, अशिक्षा और कट्टरपंथ अधिक है। 
बात बात पर फ़तवे जारी करने वाले कुछ मौलाना खुद इस समस्या को बढ़ाते हैं , ऐसे में उन मौलानाओं से ही इन मसलों को हल करने की उम्मीद करना रेगिस्तान मंे पानी तलाश करना ही माना जायेगा। मिसाल के तौर पर मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को लेकर अकसर यह बहस  होती रही है कि वे दीनी तालीम को ही असली शिक्षा क्यों समझते हैं? आजकल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की ज़ोरशोर से वकालत की जा रही है। हम यहां इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहते कि यह कवायद  चुनाव नज़दीक देखकर मुसलमानों को वोटों के लिये पटाने के लिये की जा रही है या वास्तव में उनका भला करने की नीयत है? अगर उनका वाक़ई कल्याण करना है तो केवल आरक्षण से काम नहीं चलेगा।
   यह सवाल जल्दी ही सामने आ जायेगा कि दलितों की तरह उनके लिये नौकरियां तो उपलब्ध करा दी गयीं लेकिन वे इतने पढ़े लिखे हैं ही नहीं कि उनको आरक्षित नौकरी भी दी जा सके। एक आंकड़ें से इस बात को समझा जा सकता है। एक शिकायत यह की जाती है कि मुसलमानों की आबादी तो देश मंे सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 13.5 प्रतिशत है जबकि उनकी भागीदारी सरकार की ए क्लास सेवाओं में मात्र एक से दो प्रतिशत है। इसका कारण उनके साथ पक्षपात होना बताया जाता है जबकि हमें यह बात ठीक इसलिये नज़र नहीं आती क्योंकि एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिये चयन का तरीका इतना पारदर्शी और निष्पक्ष है कि उसमें भेदभाव की गुंजाइश ही नहीं है। इसका सबूत दारूलउलूम के एक मौलाना और कश्मीर का वह युवा फैसल है जिसने कुछ साल पहले आईएएस परीक्षा में टॉप किया था।
   एक वजह और है। इस तरह की सेवाओं के लिये ग्रेज्युएट होना ज़रूरी है जबकि मुसलमानों में स्नातक पास लोगों की दर 3.6 प्रतिशत है। एक समय था जब सर सैयद अहमद खां ने इस ज़रूरत को समझा था और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना की। उनको अंग्रेज़ों का एजेंट बताया गया और बाक़ायदा अंग्रेज़ी पढ़ने और उनके खिलाफ अरब से फतवा लाया गया। मुसलमानों को यह बात समझनी होगी कि आज केवल मदरसे की तालीम से वे दुनिया की दौड़ में आगे नहीं बढ़ सकते। मैं अपने शहर नजीबाबाद मंे ही देखता हूं। यहां मुसलमानों की आबादी 65 प्रतिशत से अधिक है। यहां 12 इंटर कालेज हैं जिनमें से केवल 2 मुस्लिमों के  हैं। दो डिग्री कालेजों मंे से उनका एक भी नहीं है। इन 14 में से 4 जिनमें दोनों डिग्री कालेज भी शामिल हैं, एक और अल्पसंख्यक समाज जैन बंध्ुाओं के बनाये हुए हैं। मात्र एक प्रतिशत आबादी वाले सिख समाज का भी एक इंटर कालेज है।
   ईसाई तो बेहतरीन सैंट मैरिज़ स्कूल हर नगर कस्बे की तरह यहां भी चला ही रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि जो दो कालेज मुसलमानों के हैं उनमें प्रबंधतंत्र में भयंकर विवाद कोर्ट में विचाराधीन है। दूसरी तरफ देखिये नजीबाबाद में पिछले दिनों मस्जिदों का नवीनीकरण और नये मदरसे बनाने का बड़े पैमाने पर अभियान चल रहा है। हो सकता है यह अभियान कमोबेश और स्थानों पर भी चल रहा हो लेकिन मुझे वहां के बारे में पक्का मालूम नहीं है। नजीबाबाद की लगभग पचास मस्जिदों को सजाने संवारने में दस लाख से लेकर एक करोड़ रुपया तक एक मस्जिद पर ख़र्च किया जा रहा है। इस रुपया का अधिकांश हिस्सा मुसलमानों ने अपने खून पसीने की कमाई से चंदे की शक्ल में दिया है। ऐसा ही कुछ मामला मदरसों के नवीनीकरण और नवनिर्माण का भी है।
    मुझे इस अभियान पर एतराज़ नहीं है लेकिन शिक्षा और उच्च शिक्षा को लेकर ऐसे प्रयास क्यों नहीं किये जा रहे असली सवाल यह है? इन मदरसों के मौलाना सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद आध्ुानिकीकरण कर साइंस और मैथ पढ़ाने को तैयार नहीं हैं, ऐसे में मुसलमान दुनियावी, अंग्रेजी मीडियम और उच्च शिक्षा जब नहीं लेंगे तो वे आरक्षण पाकर भी कैसे आगे बढ़ सकते हैं। किसी भी रोग के इलाज के लिये सबसे पहले यह मानना पड़ता है कि आप बीमार हैं। अगर आप अपनी कमियों और बुराइयों के लिये किसी दूसरे की साज़िश को ज़िम्मेदार ठहराकर केवल कोसते रहेंगे तो कभी समस्या का हल नहीं हो पायेगा। यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि हमारे साथ पक्षपात होता है।
    अगर आज मुसलमान शिक्षा, व्यापार, राजनीति, अर्थजगत, विज्ञान, तकनीक, शोध कार्यों, सरकारी सेवाओं और उद्योग आदि क्षेत्रों में पीछे है तो इसके लिये उनको अपने गिरेबान मंे भी झांककर देखना होगा न कि दूसरे लोगों को पक्षपात का सारा दोष देकर इसमें कोई सुधार होगा। माना कि हर जगह शक्तिशाली और बहुसंख्यक कमज़ोर व अल्पसंख्यकों के साथ कम या अधिक अन्याय और पक्षपात तो करते हैं लेकिन यह भी सच है कि समय के साथ बदलाव जो लोग स्वीकार नहीं करते उनको तरक्की की दौड़ में पीछे रहने से कोई बचा नहीं सकता। अंधविश्वास और भाग्य के भरोसे पड़े रहने से जो कुछ आपके पास मौजूद है उसके भी खो जाने की आशंका अधिक हैं।
    हम यह नहीं कह सकते कि प्रगति और उन्नति के लिये हम अपने मज़हब को छोड़कर आधुनिकता और भौतिकता के नंगे और स्वार्थी रास्ते पर आंखे बंद करके चल पड़ें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज के दौर में जो लोग आगे बढ़कर अपना हक़ खुद हासिल करने को संगठित और परस्पर सहयोग और तालमेल का रास्ता दूसरे लोगों के साथ मिलकर नहीं अपनायेंगे उनको पिछड़ने से कोई बचा नहीं सकता। मुस्लिम ही नहीं कोई भी समाज आज उच्च शिक्षित, सम्पन्न, प्रगतिशील, आधुनिक, धर्मनिर्पेक्ष सोच के साथ शक्तिशाली बनकर ही अपने अधिकार पाकर आगे बढ़ सकता है।
  0दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये,

   आईना सामने रख लिया कीजिये ।।   

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