नरौदा पाटिया के हत्यारों को सज़ा मिलने का मतलब ?
-इक़बाल
हिंदुस्तानी
0 सरकार की शह पर दंगा करने वाले भी कानून के शिकंजे में!
27 फरवरी 2002
को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रैस के एक कोच में 59 कारसेवकों
को जिं़दा जलाकर मार देने के बाद भड़के दंगों में नरौदा पाटिया में विश्व हिंदू
परिषद के उग्रवादी नेता बाबू बजरंगी और भाजपा विधायक माया कोडनानी के नेतृत्व में
भीड़ ने 97 लोगों की हत्या कर दी थी। इस मामले मंे विशेष अदालत ने आरोपियों को जो
सख़्त सज़ा दी है उससे यह साबित हो गया है कि सत्ता की शह पर किये गये अपराधों में
भी कानून जब अपना काम करता है तो एक ना दिन अपराधी पर शिकंजा कसा जा सकता है।
हालांकि देश और
गुजरात में दंगे इससे पहले और इससे बड़े हो चुके हैं लेकिन 2002 के गुजरात दंगों की
खास बात यह थी कि इनको लेकर यह आरोप लगता रहा है कि यह अल्पसंख्यकों का एकतरफा
नरसंहार अधिक था। हालांकि गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को इन दंगों के लिये आज तक
न्यायिक ट्रॉयल के दायरे में नहीं लाया गया है जिससे उनका यह दावा करना अपने मुंह
मियां मिट्ठू बनना ही है कि उनके खिलाफ दंगा कराने का कोई आरोप साबित नहीं हो सका
है। सोचने की बात है कि जब किसी के खिलाफ थाने में कोई एफआईआर ही दर्ज नहीं की
जायेगी तो उसकी जांच कैसे की जाये? इसके साथ ही यह सवाल
भी सौ टके का है कि क्या किसी प्रदेश की पुलिस हमारे यहां इतनी बहादुर और ईमानदार
है कि पद पर बैठै मुख्यमंत्री के खिलाफ निष्पक्ष जांच करके चार्जशीट पेश करदे?
क्या गवाह हिम्मत कर सकते हैं प्रदेश के प्रथम पुरूष के
खिलाफ मुंह खोलने की? यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों की जांच विशेष
जांच दल और प्रदेश के बाहर की पुलिस से कराने का फैसला सुनाया था। मोदी ने दंगों
का नेतृत्व करने वाली भीड़ को उकसाने वाली भाजपा विधायक माया कोडनानी को इस घिनौनी
हरकत का इनाम मंत्री बनाकर दिया था जिससे साफ पता चलता है कि मोदी की मंशा दंगों
में क्या थी।
इसका ही नतीजा है कि आज नरौदा पाटिया मामले में भी विशेष
अदालत न्याय कर सकी है। यह ठीक है कि सीएम मोदी के बारे में एसआईटी को कुछ ठोस
सबूत और गवाह चूंकि नहीं मिल सके इसलिये आरोप गंभीर और वीभत्स होने के बावजूद मोदी
के खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं शुरू हो सकी, लेकिन
यह भी सच है दंगों की जांच के लिये बनी सक्सेना कमैटी, मानवाधिकार
आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, महिला आयोग, ब्रिटिश
सरकार की स्वतंत्र जांच एजंसी और मीडिया की तमाम रिपोर्टें उनको इन दंगों को कराने
के आरोप से लेकर जानबूझकर ना रोकने का कसूरवार ठहराती रहीं हैं। हद तो यह है कि
खुद अमेरिका ने उनको दंगों का आरोपी मानकर आज तक अपने देश का वीज़ा नहीं दिया है।
हालांकि यह बेशर्मी और ढीटता की पराकाष्ठा ही कही जायेगी कि
मोदी समर्थक दस साल बाद हुए इस आंशिक न्याय का भी राजनीतिक गुणा भाग लगाकर यह दावा
कर रहे हैं कि इससे एक बार फिर हिंदू वोटों का ध्ु्रावीकरण होगा और इस साल के अंत
मंे होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसका लाभ मिलेगा लेकिन यह भी सच है कि
जिस दिन मोदी कुर्सी से हट जायेंगे उस दिन गुजरात दंगों का भूत एक बार फिर से बाहर
आ सकता है। समय बदलने में देर नहीं लगती यह भी हो सकता है कि जो पुलिस के वरिष्ठ
अधिकारी और मानवतावादी सोच के लोग आज मोदी की सत्ता के डर से चुप्पी साधने को
मजबूर कर दिय गये हैं कल वही चीख़ चीख़ कर यह बयान देने को तैयार हांे जायें कि
हां मोदी ने ही उनसे दंगों के दौरान कहा था कि हिंदुओं का गुस्सा निकलने दिया
जाये।
हर्षमंदर सिंह और संजीव भट्ट जैसे वरिष्ठ अधिकारियों ने इस
बारे में कई बार मीडिया में मोदी की असलियत बताई भी है लेकिन मोदी ने बदलने की
भावना और इन ईमानदार अधिकारियों को सबक सिखाने की नीयत से इनके खिलाफ जो झूठे केस
दर्ज कराये उससे अन्य सच्चे और अच्छे अधिकारी फिलहाल खामोश रहने को मजबूर हो गये
हैं। सोचने की बात यह है कि अपने आक़ा मोदी के इशारे पर हैवान बनकर वहशियाना दंगा
करने वाले विहिप नेता बाबू बजरंगी और भाजपा विधायक माया कोडनानी जैसे भीड़ को हत्या
और विनाश के लिये उकसाने वाले लोग क्या भविष्य में दोबारा ऐसी जुर्रत करने का
दुस्साहस कर सकेंगे जो उन्होंने इस विश्वास के साथ किया था कि उनका कुछ नहीं
बिगड़ेगा।
जहां तक मीडिया
का सवाल है उसने इन दंगों की सच्चाई को सबके के सामने उजागर करने से लेकर बाबू
बजरंगी का स्टिंग ऑप्रशन करके उससे जो कुछ छिपे हुए कैमरे के सामने कबूल कराया, यह
न्याय उसका नतीजा भी है। हालांकि बाबू बजरंगी को फांसी नहीं दी गयी लेकिन उसको
मरते दम तक अंधेरी कोठरी में रहने की सज़ा मिलने से ऐसे और लोगों को यह कड़वा सबक़
ज़रूर मिलेगा कि चाहे मंत्री कहे और चाहे मुख्यमंत्री अपनी करनी का फल आज नहीं तो
कल आपको मिलता ही है। स्टिंग आप्रेशन के दौरान यह हैवान बड़े गर्व से अपने खून
खराबे के इक़रारनामे के साथ यह भी बयान कर रहा था कि उसने एक गर्भवती महिला का पेट
चीरकर उसके बच्चे को भी बाहर निकालकर मारा।
साथ ही बजरंगी ने यह भी स्वीकार किया कि उसने अपना काम
अंजाम देकर वहां के गृहमंत्री और मुख्यमंत्री को रिपोर्ट की थी कि उसने आपका
तयशुदा काम कर दिया है जिसपर उसे वहां से भाग जाने की सलाह दी गयी थी। इतना तो
मानना ही पड़ेगा कि मोदी ने खुद भले ही दंगों में सीध्ेा किसी को नुकसान ना
पहुंचाया हो लेकिन दंगाइयों को दंगा करने की खुली छूट देकर उन्होंने इसमें
अप्रत्यक्ष भागीदारी ज़रूर की थी। इसका एक सबूत यह भी है कि सेना समय पर पहुंचने के
बावजूद उन्होंने सेना को तैनात करने मंे काफी समय जानबूझकर गंवा दिया। इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर दंगा भड़काने का किसी तरह का आरोप साबित नहीं हो सका
है। सभी जानते हैं कि पहली बार किसी दंगे को लेकर कोर्ट ने इतना सख़्त रूख़
अख्तियार किया है। पहली बार किसी विधायक और पूर्व मंत्री को इतनी कड़ी सज़ा महिला
होने के बावजूद मिली है।
माया कोडनानी की दोनों सज़ा अलग अलग चलने की वजह से ही 28
साल हो जायेंगी वर्ना अदालतें अकसर दोनों सज़ाओं को साथ मानती हैं। ऐसे ही 32 लोगों
को पहली बार एक साथ उम्रकै़द की सज़ा मिलना इस बात का सबूत है कि न्यायालय ने देश
का लोकतान्त्रिक और धर्मनिर्पेक्ष तानाबाना बर्बाद और तबाह होने से बचाने के लिये इतना सख़्त फैसला सुनाया
है। इस निर्णय का एक अच्छा पहलू यह भी है कि जब सरकारोें से निष्पक्षता और न्याय
को लेकर जनता का मोह भंग हो रहा है ऐसे में अदालत ने एक बार फिर आगे आकर लोगों का
विश्वास कानून में बहाल किया है।
सबसे बड़ी बात यह हुयी है कि इस कानूनी लड़ाई को अल्पसंख्यकों
की ओर से बहुसंख्यकों ने ही लड़ा है जिससे यह संदेश गया है कि मुट्ठीभर कट्टर
हिंदूवादियों की सोच का आम भारतीयों से कोई लेना देना नहीं है, वे
आज भी आपसी भाईचारे और प्रेमभाव से मिलजुलकर रहना चाहते हैं। इंसाफपसंद लोगों ने
यह कानूनी लड़ाई इसके बावजूद जीती है जबकि मोदी सरकार और उनकी पुलिस ने दंगों के
गवाहों को खुलकर डराया, धमकाया और लालच दिया लेकिन वह उनको किसी कीमत पर भी तोड़
नहीं पाये। इससे यह तय है कि गुजरात ही नहीं आगे किसी भी प्रदेश में दंगाई दंगा
करते हुए अब सौ बार सोचेंगे।
0 जब जुल्म गुज़रता है हद से कुदरत को जलाल आ जाता है,
फिरऔन जब पैदा
होता है तो मूसा भी कोई आ जाता है।।
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