सोशल
नेटवर्किंग का कंट्रोल तो समाज के हाथ में ही है!
0 आम
आदमी और वीआईपी लोगों के लिये अलग अलग कानून?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
सूचना तकनीक और संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट
ने साफ कर दिया है कि सरकार का इरादा किसी सोशल नेटवर्किंग या अन्य वेबसाइट को
ब्लॉक करने का नहीं है लेकिन इन साइटांे को भारतीय कानून की सीमा में रहकर अपनी
ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिये। उधर दिल्ली की एक अदालत ने भी 22
नेटवर्किंग साइटों से 15 दिन के अंदर इस बात का जवाब मांगा है कि उन्होंने
आपत्तिजनक सामाग्री हटाने के लिये क्या क़दम उठाये हैं। फेसबुक, याहू और माइक्रोसॉफ्ट की ओर से दलील दी जा
रही है िकइस मामले में उनका कोई रोल नहीं
है इसलिये उनके खिलाफ कार्यवाही करने का कोई औचित्य नहीं है। अब यह तो कोर्ट को तय
करना है कि कानून क्या कहता है।
इंटरनेट के भी फायदों के साथ दुरुपयोग के
नुक़सान मौजूद हैं लेकिन केवल इस एक वजह से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक नहीं लगाई
जा सकती। 11 अप्रैल 2011 को पास किया गया सूचना प्रोद्योगिकी कानून सोशल
नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली अश्लील और अपमानजनक गतिविधियों को रोकने के लिये
पहले से बना हुआ है। इस कानून की धारा 66 ए के अनुसार सरकार द्वारा शिकायत करने पर
आपत्तिजनक सामाग्री हर हाल में 36 घंटे के अंदर हटानी होगी नहीं तो दोषी के खिलाफ
सख़्त कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है। सवाल उठता है कि जब इस तरह का पर्याप्त
साइबर कानून पहले से ही मौजूद है तो फिर इस पर अमल क्यों नहीं हो पा रहा है।
अजीब बात यह है कि आज तक सरकार की तरफ से इस
तरह की मांग अपनी तरफ से तो क्या किसी के शिकायत करने पर भी कभी नहीं उठाई गयी
जबकि अरब देशों में सोशल नेटवर्किंग साइटों द्वारा तख्तपलट होने और सुपर पीएम सोनिया गांधी के बारे में इंटरनेट पर
कुछ आपत्तिजनक सामाग्री डाले जाने के बाद में सरकार हरकत में आई। इससे पहले जब
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने अन्ना हज़ारे जी के बारे में बेसिरपैर के आरोप
लगाये थे तो तब सिंह के बारे में इन साइटों पर ऐसी सामाग्री देखने को मिली तो
उन्होंनेे इसी साइबर कानून के ज़रिये अपनी एफआईआर थाने में दर्ज करा दी थी। यह बात
समझ से बाहर है कि आज सरकार को फेसबुक, ब्लॉग, आरकुट और यू ट्यूब पर अचानक अश्लील, अपमानजनक और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली
चीज़े कैसे नज़र आने लगीं? यह
काम तो इंटरनेट पर लंबे समय से हो रहा है। हम भी यह मानते हैं कि इस तरह की चीज़े
वास्तव में गलत हैं और नहीं होनी चाहिये लेकिन जहां तक हमारी जानकारी है न तो किसी
धार्मिक संगठन और न ही किसी सामाजिक और राजनीतिक दल ने इस तरह की हरकतों का कभी
पहले संज्ञान लिया और न ही इनकी वजह से
कोई तनाव, विवाद
और दंगा हुआ। दरअसल सवाल नीति नहीं नीयत का है। आम आदमी भूखा प्यासा नंगा कुत्ते
बिल्ली की मौत मर जाये तो सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेेंगती लेकिन उसके नेताओं
की शान में गुस्ताखी हो या उसकी सत्ता को इन साइटों से ज़रा सा भी ख़तरा महसूस हो
तो सरकार फौरन हरकत में आ जाती है। आम आदमी का कोई मान सम्मान और जीवन जीने का
बुनियादी संवैधानिक अधिकार नहीं लेकिन नेताओं के राजसी ठाठबाट आज भी बदस्तूर जारी
हैं। पीएम का काफिला दिल्ली के एक अस्पताल वाले रोड से गुज़रता है तो मौत और
जिं़दगी के बीच झूल रहे अनिल जैन नाम के एक नागरिक की एंबुलैंस सुरक्षा कारणों से
रोकने से असमय दुखद मौत हो जाती है। ऐसे ही पीएम कानपुर का दौरा करते हैं तो अमान
खान नाम के बच्चे की उनके रोड से न गुज़रने देने से इलाज न मिलने से दर्दनाक मौत हो
जाती है। हज़ारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं तो कोई बात नहीं। आम
आदमी थाने से लेकर तहसील और अदालत से सरकारी अस्पताल तक चक्कर काट काटकर अपने जूते
और उम्र ख़त्म कर देता है लेकिन न तो उसकी सुनवाई होती है और न ही उसको न्याय और
सम्मान मिलता है। उल्टे उससे रिश्वत लेकर खून चूसने के साथ साथ तिल तिल कर मरने को
उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है तब हमारे मंत्री जी और नेताओं को सांप सूंघ जाता
है। सरकार को यह भी पता होगा कि आज तक ऐसा
कोई साफ़्टवेयर नहीं बना जो यह पता लगा सके कि कोई आदमी इंटरनेट पर क्या लिखने या
फोटो डालने वाला है। वैसे भी अपराध होने के बाद ही अपराधी को सज़ा दी जा सकती है।
फिर यह एकमात्र मीडिया है जहां राजा रंक सब बराबर हैं।
अभी तक तो सरकार अपने प्रिय भ्रष्टाचार पर
ही रोक लगाने के लिये मज़बूत लोकपाल लाने से बच रही थी लेकिन अब वह अरब देशों में सोशल नेेेटवर्किगं साइट्स जैसे
फेसबुक और ब्लॉग आदि के ज़रिये हुयी बग़ावत से डरकर इंटरनेट पर रोक लगाने को पेशबंदी
करने पर उतर आई है। इसको कहते हैं विनाशकाल विपरीत बुध्दि। किसी ने सुपर पीएम
सोनिया गांधी की शान में सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़रा सी गुस्ताखी क्या कर दी, पूरे देश में फेसबुक और ब्लॉग से आग लगने का
ख़तरा दिखाई देने लगा। ये साईटें इतने लंबे समय से काम कर कर रही हैं लेकिन आज तक
किसी को कोई शिकायत हुयी भी तो मौजूदा कानून के ज़रिये साइबर क्राइम का मामला थाने
में दर्ज हो गया। अगर पुलिस ने किसी केस में मुक़द्मा लिखने में हील हवाला किया तो
सीधे कोर्ट में मामला दायर कर दिया गया।
सवाल यह नहीं है कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर
कोई गैर कानूनी काम करता है तो उसका क्या किया जाये सवाल यह है कि एक देश में दो
कानून नहीं चल सकते। एक आम आदमी सरकार और उसकी पुलिस के अत्याचार और अन्याय के
कारण या भूख से मर भी जाये तो कोई हंगामा नहीं होता जबकि एक दागदार नेता को कोई
आदमी महंगाई से तंग आकर एक चांटा मार दे तो आसमान सर पर उठालो। ऐसे ही आज सोनिया
गांधी पर अगर किसी ने फेसबुक पर कोई नाज़ेबा कमेंट कर दिया तो पूरी सरकार एक्टिव हो
गयी। फेसबुक के संचालकों को टेलिकॉम मिनिस्टर ने अपने ऑफिस में तलब कर लिया। उनको
यह तालिबानी आदेश दिया गया कि फेसबुक या ब्लॉग पर ऐसा कुछ नहीं आना चाहिये जिससे
किसी नेता की तौहीन हो। सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार हो या फिर साम्प्रदायिक और
अश्लील टिप्पणी की जाये। इससे देश की सभ्यता और संस्कृति एवं अमन चैन को ख़तरा नज़र
आने लगा। क्या इससे पहले जब कांग्रेस ने ऐसी राजनीति की जिससे दंगे हुए , साम्प्रदायिकता और जातिवाद बढ़ा तब देश के अमन
चैन की याद नहीं आई थी। जब बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया गया था और इंदिरा गांधी
की हत्या के बाद सिखांे का कत्लेआम होने पर राजीव गांधी ने यह कहा था कि जब कोई
बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है तब देश का भाईचारा ख़तरे मंे नहीं पड़ा था?
ऐसा लगता है कि सरकार को यह नज़र आने लगा है
कि जिस तरह से मीडिया और ख़ासतौर पर टीवी चैनल उसके खिलाफ अभियन चला रहे हैं अगर
यह सिलसिला जारी रहा तो इंटरनेट पर उसके लिये ऐसे हमले तेज़ हो सकते हैं जिनका न तो
उसे पता चलेगा और न ही वह उनको रोक पायेगी। इसीलिये उसने फेसबुक और ब्लॉग को जड़ से
रोकने का क़दम उठाया है। सरकार ने अन्ना के आंदोलन को नाकाम करने लिये एक दिन में
एक मोबाइल से 200 से अधिक एसएमएस ना करने देने का फरमान भी इसी नीयत से जारी किया
था यह अलग बात है कि जब आंदोलन ठंडा पड़ गया और सरकार का मकसद पूरा हो गया तो उसने
इस आदेश को वापस ले लिया। उसने यह नहीं सोचा कि उसके खिलाफ लोगों ने इंटरनेट पर यह
अभियान क्यों छेड़ रखा है। उसने अपने फेस को न देखकर सीधे आईने पर वार करने की
कोशिश की है लेकिन वह यह नहीं जानती कि आज सरकार की ही नहीं किसी भी नेता की जनता
की नज़र में कोई खास इज़्ज़त बाकी नहीं रह गयी है जिसको वह सोशल नेटवर्किंग साइट पर
रोक लगाकर बचाना चाहती है। वह यह भी भूल रही है कि आज फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग
साइट देश में सेफटी वाल्व का काम कर रही हैं जिनपर लोग अपने दिल की भड़ास और दिमाग
का गुस्सा निकालकर राहत महसूस कर लेते हैं वर्ना एक दो करोड़ लोग जिस दिन अपना
विरोध दर्ज करने सड़कों पर उतर आये तो नेपाल की तरह सरकार को अपनी खाल बचानी
मुश्किल हो सकती है।
0 नज़र
बचाकर निकल सकते हो तो निकल जाओ,
मैं इक आईना हूं मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।।
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