Friday, 31 January 2014

आस्था के शोर....

आस्था के नाम पर शोर से कब तक ब्लैकमेल किया जाता रहेगा ?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0अंधश्रध्दा और कर्मकांड के बहाने लोगों का जीना हराम मत करो!
      प्रैस काउंसिल के प्रेसीडेंट और न्यायविद मार्कंडेय काटजू का कहना है कि जब भारत वैज्ञानिक रास्ते पर था, तब उसने तरक्की की। साइंस के सहारे हमने विशाल सभ्यताओं का निर्माण हज़ारों साल पहले किया, जब अधिकतर यूरूप जंगलों में रहता था, उन दिनों हम लोगों ने वैज्ञानिक खोजें कीं लेकिन बाद में हम लोग अंधश्रध्दा और कर्मकांड के रास्ते पर चल पड़े।  यह बयान यहां हमने दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले के संदर्भ में पेश किया है जिसमें माननीय न्यायमूर्ति विपिन संघी ने आस्था के कंेद्रो पर लगे लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनिप्रदूषण पर कानून के ज़रिये सख़्ती से रोक के लिये अमल पर जोर दिया है। हालांकि मामला पूर्वी दिल्ली के एकता विहार और संुदर नगरी से जुड़ा है।
एक स्थानीय नागरिक माधव रॉय ने क्षेत्र के धार्मिक स्थलों से लगातार फैलाये जा रहे ध्वनिप्रदूषण पर कोर्ट में याचिका दायर कर रोक लगाने की मांग की थी। कोर्ट ने याचिका स्वीकार कर इस मामलें मंे रॉय की परेशानी को जायज़ मानते हुए जनहित में 10 मार्च तक इस मामले में कार्यवाही के लिये कुछ महत्वपूर्ण दिशा निर्देश दिये हैं। माननीय जज साहब ने अपने निर्देश में कहा है कि स्थानीय सभी धर्म स्थलों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे लाउडस्पीकरों की आवाज़ को नियंत्रित रखें, उनकी दिशा बाहर की तरफ नहीं बल्कि उन प्रार्थना स्थलों में मौजूद भक्तों की तरफ होनी चाहिये।
साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों को आस्था के केंद्रों में सबसे ऊंची दीवार पर नहीं बल्कि ज़मीन से केवल 8 फुट की ऊंचाई पर लगाया जाये। अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि आस्था के नाम पर किसी को भी इस बात की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वह अपने धर्म और उसके आचार विचारों को दूसरों पर जबरन लादे। कोर्ट ने कहा कि हो सकता है कि धार्मिक संस्थानों के प्रबंधको को यह लगता हो कि उनकी गतिविधियों की तेज़ आवाज़ वहां नहीं पहुंच पा रहे लोगों के लिये लाभप्रद हो सकती है लेकिन इस आधार पर उनको इस बात की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वे अपने आसपास के माहौल को बाधित करें या इलाके की शांति को भंग करें।
वास्तव में यह बात आज बड़े पैमाने पर देखने मंे आ रही है कि लोग केवल यह सोचकर कि धर्म के मामले मंे कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं करेगा इतने अधिक डेसीबल पर लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं कि लोगों के कान की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इस तरह के अवांछनीय शोर से लोगों का अमनचैन के साथ जीने का संवैधाकिन अधिकार भी मज़ाक बनकर रह गया है। इस से समय से पहले कम सुनने की शिकायत आम होती जा रही है। लोग रात में जब पूरी नींद नहीं सो पाते तो दिन में चिड़चिड़े और तनाव में रहते हैं। इससे उनका मन अपने काम में नहीं लगता और कई बार वे छोटी छोटी बातों पर किसी से भी भिड़ जाते हैं।
   इसके साथ साथ कम्पटीशन के दौर में बच्चे अपना होमवर्क और प्रतियोगिताओं की तैयारी ठीक से नहीं कर पाते। बीमार और बूढे़ रात में शोर होने पर ठीक से सो नहीं पाते। कभी कभी ऐसे मामलों मेें सामान्य नागरिक समस्या साम्प्रदायिक रूप भी धारण कर लेती है जिससे दंगा तक हो जाता है। ईमानदारी से देखा जाये तो यह हर शांतिपसंद और अमनप्रिय भारतीय की समस्या है ना कि किसी धर्म विशेष या क्षेत्रविशेष की । आशा की जानी चाहिये कि सरकार इस मामले में वोटों का समीकरण सामने न रखकर इस जनहित के फैसले पर निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से कार्यवाही न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में आज नहीं कल मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने पर करने को मजबूर होगी।
शिक्षित नागरिकों को भी चाहिये कि वे कट्टरपंथ और अंधश्रध्दा के नाम पर अन्य लोगों को धर्म के बहाने सताने से खुद ही बाज़ आ जायें क्योंकि भगवान भी शायद यह ज़बरदस्ती पसंद नहीं करेगा कि लोगों को जबरन सुनने को मजबूर किया जाये।
    इत्तेफाक की बात यह है कि ऐसे ही एक मामले में इन पंक्तियों के लेखक ने मुसलमानों के पवित्र रम्ज़ान माह मंे बार बार रात में सहरी के लिये मस्जिदों से रोज़े को उठाने के लिये होने वाले ऐलान के बारे में दारूलउलूम देवबंद और बरेली शरीफ से राय मांगी थी। दोनों ने ही इस बात को माना कि बूढ़ों, बीमारों, बच्चो और आसपास की गैर मुस्लिम आबादी को बार बार होने वाले गैर ज़रूरी ऐलान से नींद और आराम में ख़लल होता होगा जिससे इस तरह की बात से बचा जाना चाहिये। इन फतवों में यह भी कहा गया था कि आज के दौर में इतना काफी है कि सहरी का समय शुरू होने पर एक बार आगाह कर दिया जाये और एक बार आखि़र में रोज़ा रखने लिये सहरी खाने का वक्त़ जब ख़त्म होने वाला हो तब फ़ज्र की अज़ान से पहले यह बता दिया जाये कि सहरी का समय समाप्त हो रहा है।
इस के साथ ही मुफती साहेबान ने यह सख़्त हिदायत भी दी कि आधी रात से या बार बार सहरी का ऐलान ही नहीं इस दौरान धार्मिक नज़मंे या सलाम वगैरा भी ना पढ़ा जाये क्योंकि मिलीजुली आबादी में इससे गैर रोज़ेदार हमवतनों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।
   ऐसा ही एक मामला मुझे अपने नगर नजीबाबाद ज़िला बिजनौर की स्टेशनवाली मस्जिद का याद आता है। यह मस्जिद ऑनरोड है। एक बार रम्ज़ान के दौरान तरावीह यानी रोज़ ईशा की नमाज़ के बाद पढ़ी जाने वाली कुरानपाक की 20 रकात पढ़ी जा रही थीं। तभी वहां से हिंदू भाइयों की महाकाली की शोभायात्रा का भव्यजुलूस निकला। इस दौरान जुलूस के बैंड मस्जिद के सामने अनजाने में बजने से तरावीह पढ़ने वालों को इमाम साहब का पढ़ा हुआ कुछ भी सुनाई नहीं दिया। जब इस बात पर कुछ नमाज़ियों ने नाराज़गी दर्ज की तो वहां के इमाम साहब ने समझाया कि मस्जिद में साउंड प्रूफ शीशे लगने चाहिये जिससे शोर अंदर न आये क्योंकि सड़क तो सबकी है, वहां से तो दूसरे लोग भी अपने जुलूस वगैरा लेकर ऐसे ही जाने का हक़ रखते हैं। अल्लामा इक़बाल का एक शेर है-
0मस्जिद तो बनाली पलभर में ईमां की हरारत वालों ने,

 दिल अपना पुराना पापी था बरसों भी नमाज़ी हो न सका।

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