गण- - - तंत्र को बदलने का मन बना
चुका है!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0राष्ट्रीय पर्वों की रस्म अदायगी से आगे बढ़ने का समय आ गया?
26 जनवरी पहले भी आई और चली गयी
लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है जबकि गण तंत्र को बदलने का मन बना चुका है। लोकसभा
चुनाव करीब आ रहा है। यह चुनाव ऐतिहासिक बनने जा रहा है। इसकी वजह यह है कि इस
चुनाव से ना केवल कांग्रेस बल्कि उसके वंशवाद का भविष्य भी तय हो जायेगा। साथ ही
आम आदमी पार्टी ने जनप्रतिनिधि के बजाये जनभागीदारी का जो नया फंडा लोगों के सामने
पेश किया है उसको दिल्ली के बाद पूरे देश में कितना महत्व मिलता है यह देखना रोचक
होगा।
अब जनता केवल सत्ता परिवर्तन नहीं चाहती बल्कि
वह इस सिस्टम में आमूलचूल परिवर्तन देखना चाहती है जिसके रहते गोरे अग्रेज़ों की
जगह हमारे अहंकारी, वीवीआईपी और भ्रष्टाचारी
सामंतवादी सोच के काले अंग्रेज़ों ने ले ली है। अब गण को शासक नहीं सेवकों की ज़रूरत
महसूस हो रही है। यूपीए-2 की मनमोहन सरकार ही नहीं वह
कांग्रेस से बुरी तरह ख़फ़ा और वंशवाद से कुपित
होकर राहुल गांधी से भी कोई आशा नहीं लगा रही है।
दिल्ली की सत्ता में आम आदमी पार्टी के आने के
बाद उसके पांव भाजपा की तरफ पूरी तरह बढ़ते बढ़ते कुछ छिटक गये लगते हैं लेकिन मोदी
से उसका मोहभंग हो गया हो यह भी नहीं कहा जा सकता । महंगाई और भ्रष्टाचार के मामले
में जनता अब किसी कीमत पर कांग्रेस ही नहीं भाजपा सपा या बसपा सहित किसी भी
क्षेत्रीय दल को विकल्प उपलब्ध होने पर बख़्शने के मूड में दिखाई नहीं दे रही है।
उसे विश्वास हो गया है कि भ्रष्टाचार के कारण भी महंगाई को बड़े पर लगे हैं।
हालांकि वह दिल्ली के आप सरकार के सीएम
केजरीवाल को बड़ी उम्मीदों और नये नायक के रूप में देख रही है लेकिन साथ ही बिना
मांगे आप की ही शर्तों पर कांग्रेस द्वारा केजरीवाल को समर्थन देकर बार बार ज़लील
होने के बावजूद आप सरकार बनवाने और चलवाने से लोगों के कान ज़रूर खडे़ हुए हैं कि
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप को कांग्रेस ने मोदी के दिल्ली के लालकिले की पर झंडा
फहराने को बढ़ते क़दम रोकने के लिये मैदान में सोची समझी नूरा कुश्ती के तहत उतारा
हो लेकिन केजरीवाल ने पिछले दिनों संसदभवन के पास पुलिस के नियंत्रण की मांग को
लेकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ धरना देकर और गृहमंत्री सुशील शिंदे की औकात बताने
वाले शब्द इस्तेमाल करके इस भ्रम को दूर कर दिया है कि वह कांग्रेस को लेकर ज़रा भी
नरमी दिखा नहीं दिखायेंगे।
गणतंत्र आज धनतंत्रा और गनतंत्र में तब्दील
होने से हमारा लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रह सकेगा? इसकी वजह यह है कि नेताओं का विश्वास जनता में बिल्कुल ख़त्म होता जा
रहा है। उनमें से अधिकांश बेईमान और मक्कार माने जाते हैं। आम आदमी रोज़गार से लेकर
रोटी, पढ़ाई और दवाई के लिये तरस
जाता है। सरकारी योजनायें कागजों में चलती रहती हैं। जनता के नाम पर पैसा खाया
जाता रहता है। हर काम के सरकारी कार्यालयों में रेट तय हैं।
अगर कोई बड़े अधिकारी से शिकायत करता है तो वह
चूंकि खुद निचले स्टाफ से बंधे बंधाये पैसे खा रहा होता है इसलिये या तो कोई
कार्यवाही नहीं करता या फिर उल्टे भ्रष्टाचारी का ही पक्ष लेता नज़र आता है। जब
ज़्यादा दबाव या सिफारिश भी आती है तो वह अकसर आरोपी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी
को लीपापोती कर बचाता ही नज़र आता है। रिटायर्ड गृह सचिव आर के सिंह ने होममिनिस्टर
सुशील कुमार शिंदे पर यह आरोप लगाकर हंगामा खड़ा कर दिया है कि शिंदे पुलिस
अधिकारियों की पोस्टिंग और तबादलों के लिये पर्ची लिख लिखकर दिया करते थे।
केजरीवाल ने इस आरोप को और खुलासा करके लगाया
कि गृहमंत्री पर्ची रिश्वत लेकर लिखते थे। उनका यह भी दावा था कि दिल्ली के डीजीपी
अपनी पुलिस से रेहड़ी और पटरी वालों से पैसा वसूल कराकर सीधे शिंदे तक पहुंचाते हैं
इसलिये वह आप सरकार के सीएम तक की नहीं सुन रहे आम आदमी की तो बात क्या सुनंेगे? इससे आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि वह कुछ नहीं कर सकता और रिश्वत
देकर जो काम समय पर हो सकता है वह भ्रष्टाचार स्वीकार करके कराने में ही समझदारी
है।
आज हमारी संसद में 302 करोड़पति सांसद बैठे हैं। उनको क्या पता गरीबी किसे कहते हैं। जाहिर है
कि आज चुनाव लड़ना जितना महंगा हो चुका है उससे शेष 243 सांसद भी ऑनपेपर करोड़पति भले ही न हो लेकिन उनकी हैसियत भी करोड़पति के
आसपास ही होगी। आंकड़ों में बात करें तो देश के मात्र 55 परिवारों के पास 13,04,930 करोड़ और 8200 परिवारों के पास 51,38,140 करोड़ यानी देश की कुल सम्पदा का 5 प्रतिशत परिवारों के पास 38 प्रतिशत 35 प्रतिशत मीडियम क्लास के पास 49 प्रतिशत और 60 प्रतिशत गरीब परिवारों के पास
केवल 13 प्रतिशत हिस्सा बचता है।
राजनेता यह भी बहाना करते हैं कि महंगाई केवल
हमारे देश में ही नहीं बढ़ रही बल्कि यह वैश्विक समस्या है। सरकार का यह दावा भी
रहा है कि हमारा संसैक्स, विदेशी निवेश और अमीरों की
तादाद बढ़ रही है जिससे देश के बजट से अधिक चंद उद्योगपतियों का टर्नओवर हो चुका
है। सरकार महंगाई घटाने को जितने तौर तरीके अपना रही है उससे उल्टे ही नतीजे आ रहे
हैं और गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सारी दुनिया की जनता समझ चुकी है कि
सरकारें पूंजीपतियों के एजेंट के रूप मंे काम कर रही हैं।
हमारे यहां खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा कर रहे हैं। बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और बड़ी बीमारियो से हर साल 3.5 करोड़ नये लोग गरीबी रेखा के नीचे जाने को मजबूर हैं। सरकार
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की दुहाई देकर अपनी नाकामी छिपाना चाहती है लेकिन
खाने पीने के सामान की देश में कोई किल्लत न होने के बावजूद जहां किसान को उसकी
वाजिब कीमत नहीं मिल रही वहीं बिचौलिये इसमें इतना मोटा मुनाफा कूट रहे हैं कि
गरीब आदमी की जेब कट रही है। शायर शेर हुसैन उर्फी ने आम आदमी की तकलीफ इन शब्दों
में बयान करते हुए कहा है-
किसी को जानता कोई नहीं है, हमारी मानता कोई नहीं है,
शहर में अजनबी से हैं हम, हमें पहचानता कोई नहीं है!
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