Wednesday, 29 January 2014

बाबा साहब का कार्टून

कार्टून विवादः बुध्दिजीवियों को ही समाज की सोच बदलनी होगी !
                   -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 वोटबैंक की राजनीति का शिकार राजनेताओं से उम्मीद बेकार!
        एनसीईआरटी की किताबों मेें बाबासाहब अंबेडकर के कार्टून को लेकर शुरू हुआ विवाद अब इस मोड़ पर आ गया है कि सभी दलों के नेता इस बात पर सहमत हैं कि इस तरह के कार्टूनों की बच्चो की पाठ्यपुस्तकों में कोई जगह नहीं होनी चाहिये। हालांकि इस बात पर पहले ही भरपूर चर्चा हो चुकी है कि 63 साल पहले जानेमाने कार्टूनिस्ट शंकर के छपे बाबासाहब के उस कार्टून पर दलित वोटबैंक की खातिर किस तरह से संसद में बहस के दौरान लगभग सभी दलों के नेताओं ने एकसुर में हांक लगाई कि जिससे यह पता चल सके कि दलितों का उनमें एक से बढ़कर एक हितैषी मौजूद है। यह अलग बात है कि जब दलित समाज की कुछ ठोस विकास या प्रगति का सवाल आता है तो यही नेता सबसे ज़्यादा अडं़गे भी लगाते हैं।
   बाबासाहब वाले कार्टून के बहाने सभी दलोें के नेता इस बात पर एक राय नज़र आये कि सांसदों, राजनेताओं और राजनीतिक प्रक्रिया पर कटाक्ष करने वाले सभी कार्टूनों को बच्चो के कोर्सों से निकाला जाये। सवाल यह है कि जब गांधी, नेहरू और इंदिरा पर कार्टून बन सकते हैं तो अंबेडकर पर क्यों नहीं? क्या इस मामले में भी उनसे छुआछूत वाला व्यवहार किया जायेगा? क्या वे केवल दलितों के नेता थे? सच बोलने की नेताओं में अपने स्वार्थ और सत्ता की खातिर हिम्मत बिल्कुल बची ही नहीं है। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि सारी संसद किसी कार्टून के खिलाफ एकजुट हो गयी हो। इससे पहले कभी आरक्षण की राजनीति तो कभी मंदिर मस्जिद की सियासत से देश को खून में नहलाने में हमारे नेताओं को लज्जा या संकोच नहीं हुआ बशर्तेकि उनके वोट बढ़ जायें।
   बंगलादेश से निर्वासित नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन को शरण देने का मामला हो या सलमान रुश्दी को भारत आने देने या उनकी विवादास्पद किताब पर पाबंदी लगाने की पहल करने का एक धर्मनिर्पेक्ष और लोकतांत्रिक सरकार द्वारा कदम अब तक हमारे नेताओं ने संविधान, संसद या समाज की बजाये जिस चीज़ को अपने एजंेडे में सबसे ऊपर रखा है वह उनका वोट बैंक ही है। इतिहास में थोड़ा पीछे चलें तो आपको याद आयेगा कि कैसे शाहबानो नाम की एक बूढ़ी औरत को उसके पति द्वारा अन्यायपूर्वक तलाक देने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने गुज़ारा भत्ता देने का उसके पति को आदेश दिया तो हमारी सरकार इस ऑर्डर को पलटने के लिये अपने वोटबैंक की खातिर खुलकर सामने आ गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि इससे अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का विभाजन वाला जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया।
   हद तो यह  हो गयी कि जिस मुस्लिम मंत्री आरिफ मुहम्मद खां ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का संसद में अपनी पार्टी की ओर से साहस के साथ तर्कसंगत बचाव किया उनको अपने पद से ना केवल इस्तीफा देना पड़ा बल्कि उनको सत्ताधारी दल ने पार्टी छोड़ने को मजबूर कर दिया। आज खां एक तरह से राजनीतिक सन्यास ले चुके हैं। कांग्रेस की राजीव सरकार ने जनता पार्टी में होने के बावजूद उस समय के कट्टरपंथी मुस्लिम नेता सैयद शहाबुद्दीन को हीरो बनाते हुए मुस्लिम महिला गुज़ारा भत्ता बिल पास किया। इसके बाद शहाबुद्दीन साहब का दुस्साहस इतना बढ़ा कि उन्होंने बाबरी मस्जिद का दफन हो चुका मुद्दा कब्र से निकाल कर पूर देश में हंगामा खड़ा करने को संघ परिवार को तश्तरी में रखकर परोस दिया। इसके बाद मुस्लिम बुध्दिजीवियों की एक शब्द भी बोलने की हिम्मत नहीं हो सकी।
  देश के बुध्दिजीवियों को कार्टून वाली घटना का मलाल इसलिये भी अधिक हो रहा है कि इससे उनको शायद पहली बार यह पता चला है कि अब हमारे सभी नेताओं में सहनशीलता लगभग ख़त्म होती जा रही है। हैरत की बात यह है कि हमारे बुध्दिजीवियों को जो बात पहले से पता थी उन्होंने उस पर आज तक कोई व्यापक अभियान नहीं चलाया। क्या वे नहीं जानते कि हमारे नेताओं ने जनता के जाति और सम्प्रदाय के दायरों में बंटे होने का जमकर राजनीतिक लाभ उठाया है। क्या वे नहीं जानते कि हमारे चुनाव में क्षेत्र, भाषा और कालेधन की भूमिका निर्णायक होती जा रही है। क्या उनको नहीं जानकारी कि हमारे नेता बाहुबल सहित साम दाम दंड भेद के ज़रिये सत्ता हासिल करने से लेकर उसको किसी कीमत पर भी बनाये रखने के लिये कोई भी असामाजिक कार्ड खेलने में माहिर हैं।
  नेताओं को पता है कि अगर लोगों के लिये ठोस काम करके उनको सम्पन्न और शिक्षित बना दिया गया तो उनका राजनीतिक समीकरण और वोटबैंक का खेल खत्म हो जायेगा। वे इसी लिये लोगों के बीच कार्टून जैसे भावनात्मक मुददे उठाकर उनका मसीहा होने का काम आसान समझते हैं।
   मिसाल के तौर पर बंगाल की वामपंथियों से अधिक जनवादी और मानवीय होने का दावा करने वाली सीएम ममता बनर्जी अपना कार्टून बनाने पर एक प्रोफेसर को बाकायदा मामला थाने में दर्ज कराकर जेल भेज देती हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्राी जयललिता और यूपी की एक्स सीएम मायावती के अहंकारी तेवर भी लोगों को याद हैं। गुजरात के विकासपुरूष होने का दावा करने वाले फासिस्ट और वनमैन शो में विश्वास रखने वाले सीएम नरेंद्र मोदी का कड़क चेहरा किसी से छिपा नहीं है। सच तो यह है कि हमारे सभी दलों के नेता कमोबेश सहिष्णुता और उदारता त्यागते चले जा रहे हैं। एक दौर था जब प्रथम प्रधनमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने विरोधियों को भी ना केवल मंत्रिमंडल में शामिल करते थे बल्कि यहां तक कहा करते थे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मैं अपने खिलाफ बोले और लिखे जाने की हद तक समर्थन करता रहूंगा।
   आज अन्ना हज़ारे जैसे समाजसेवी को हमारे राजनेता ही नहीं विपक्षी नेता भी अपना शत्रु मानकर जबरदस्त विरोध करते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने तो बिना किसी आधार और प्रमाण के उनको सर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबा बता दिया था। शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उनका खुला विरोध किया । हालत यहां तक हो गयी कि कांग्रेस के एक मंत्री बेेेनी प्रसाद वर्मा ने बाहुबली की तरह उनको अपने क्षेत्र बाराबंकी में भ्रष्टाचार के खिलाफ सभा करके दिखाने तक को ललकारा। सांसदों की आलोचना करने पर अरविंद केजरीवाल को विशेषाधिकार हनन का नोटिस थमाया गया तो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और अन्ना की कोर कमैटी के सदस्य प्रशांत भूषण पर नेताओं के उकसाने पर हमला हुआ।
0 अजीब लोग हैं क्या खूब मुंसफी की है,
 हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदकशी की है।
 इसी लहू में तुम्हारा सफीना डूबेगा,

 ये क़त्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।।   

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