डरते हैं
बंदूकों वाले एक निहत्थी लड़की से.........?
-इक़बाल
हिंदुस्तानी
0विचार
की ताक़त के सामने बड़े बड़े हथियार बौने पड़ जाते हैं!
पाकिस्तान में आजकल लाल रॉकबैंड का यह
गाना बड़ा लोकप्रिय हो रहा है- डरते हैं बंदूको वाले एक निहत्थी लड़की से.......
बिना नाम लिये लोग जानते हैं कि बंदूकों वाले पाक के तालिबान हैं और निहत्थी लड़की
मलाला है। हालांकि अभी तक इस बैंड के इस दुस्साहसी कारनामे पर शायद तालिबान की नज़र
नहीं पड़ी है जिससे इस बैंड के संचालक या गायक को तालिबान ने धमकी या हमला करके सबक
नहीं सिखाया है लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि पाकिस्तान की जनता का एक बड़ा वर्ग
इस गाने पर झूम रहा है। ज़ाहिर बात है कि यह प्रगतिशील और आध्ुानिक सोच वाला तबका
तालिबान के खिलाफ और मलाला के पक्ष में है। इसका मतलब यह भी है कि यह क्लास
लड़कियों को पढ़ाने लिखाने और घर से बाहर भेजने व उनको बराबर अधिकार देने के पक्ष
में भी है।
यह एक तरह से मलाला के उस बराबरी और महिला
गरिमा को बहाल करने के विचार की जीत है जिसको तालिबान ने पौधे से पेड़ बनने से पहले
ही गर्भ में ही भ्रूणहत्या करके नेस्तोनाबूद करना चाहा था लेकिन मलाला पाक सरकार
और यूरूपीय सपोर्ट से समय पर सघन चिकित्सा से
से बच गयी थी। इसके बाद से तालिबान कई बार मलाला को झांसा देकर पाकिस्तान
बुलाने की हुब्बुलवतनी और पश्चिमी देशों की इस्लाम विरोधी कथित साज़िशों का हवाला
देकर चाल चल चुका है लेकिन मलाला और उसका परिवार जानता है कि पाकिस्तान में
पाकिस्तान सरकार तक सुरक्षित नहीं है तो ऐसे में मलाला की हिफाज़त कैसे होगी? मलाला
को यह दुहाई भी दी गयी कि इससे पाकिस्तान बदनाम हो रहा है कि एक लड़की अपनी जान
बचाने को विदेश मंे शरण लेकर रह रही है।
कमाल है कि बदनामी तो तालिबान के हमले और फिर
से उसके वापस पाक आने पर उसकी जान लेने को तैयार बैठे कट्टरपंथी आतंवादियों की वजह
से हो रही है लेकिन बहाना दूसरा बनाया जा रहा है। दरअसल तालिबान अच्छी तरह जानता
है कि मलाला कोई मामूली लड़की नहीं है, वह एक विचार का नाम है। मलाला
पाकिस्तान मंे अब एक आंदोलन बन चुकी है। मलाला के पीछे महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग
आज नहीं तो कल खुलकर सड़कों पर उतरने वाला है। मलाला की सोच को पाक के मर्दों के भी
एक वर्ग का खुला या छिपा समर्थन बढ़ रहा है। महिला हो या पुरूष उसको आप हमेशा गैर
बराबरी अशिक्षित और घर की चार दिवारी में जानवरों की तरह बांधकर नहीं रख सकते।
तालिबान के एजेंडे का सबसे बड़ा मुद्दा महिलाओं
को बच्चे पैदा करने की मशीन और मर्दों की गुलाम बनाये रखने का है अगर मलाला की
शिक्षा की ज़िद आगे बढ़ी और महिलाओं ने पढ़ लिखकर बराबर अधिकार हासिल करने शुरू कर
दिये तो तालिबान का तो बना बनाया खेल ही ख़त्म हो जायेगा। तालिबान जानता है कि
हथियारों के बल पर वह विचार को कुछ समय के लिये दबा तो सकता है लेकिन हरा नहीं
सकता। विचार कभी नहीं मरता। तालिबान का राज पाक के छोटे से इलाके पर चलता है लेकिन
मलाला का तालीम का विचार घर घर और बहुसंख्यक पाकिस्तानी के दिल दिमाग़ में जगह बना
चुका है जिससे बंदूको वाले तालिबान एक निहत्थी लड़की मलाला से देश से बाहर रहने के
बावजूद बुरी तरह डर रहे हैं।
पाकिस्तान की सरकार और सेना जिस दिन ईमानदारी
से यह तय कर लेगी कि अब हमें दोगलेपन से अमेरिकी से पैसा पाने के लिये नहीं पाक की
सरज़मीं के लिये कैंसर बन चुके तालिबान को जड़ से उखाड़ कर फैंकना है उसके बाद गिनती
के दिन रह जायेंगे तालिबान के, लेकिन मलाला के महिला
सशक्तिकरण, शिक्षा
और समानता के विचार को पाकिस्तान की सरकार सेना और तालिबान मिलकर भी नहीं हरा
पायेंगे। अब तक यह माना जाता था कि तालिबान जैसे कट्टरपंथी जो कुछ कर रहे हैं उसको
पाकिस्तान और वहां की जनता का सपोर्ट हासिल है लेकिन मलाला के मामले ने यह साबित
कर दिया है कि अब तालिबान का अंतिम समय नज़दीक आ गया है। मलाला को अंतर्राष्ट्रीय
बाल शांति पुरस्कार तो मिल चुका है अब उसको नोबल शांति पुरस्कार दिलाने की पूरी
दुनिया में जोरदार आवाज़ बुलंद होने लगी है।
मलाला को नोबल प्राइज़ दिलाने के अभियान को
कामयाब बनाने के लिये अब तक विश्व के दस हज़ार से ज़्यादा जाने माने लोग ऑनलाइन
हस्ताक्षर कर चुके हैं। उधर तालिबान को यह चिंता सता रही है कि जिस सोच को वह यह
मानकर लागू कर रहा था कि इसे ना सिर्फ पाकिस्तान बल्कि पूरी दुनिया के मुसलमान अमल
में लाना चाहते हैं उसके खिलाफ खुद पाकिस्तान के लोग उठ खड़े हुए हैं। तालिबान
चाहता है कि मुस्लिम औरतें केवल घर की चारदीवारी में रहकर पूरी तरह पर्दे में रहें
और हद यह है कि उनकी आवाज़ और हाथ पांव भी घर आये पराये मर्द को सुनाई और दिखाई ना
दें। अगर बेहद मजबूरी हो तो घर की औरत को चाहिये कि वह दरवाज़े पर खड़े गैर मर्द को
इतने कर्कश और तल्ख़ लहजे में सवाल का जवाब दे जिससे सामने वाले का आकर्षण उसकी
तरफ धोखे से भी ना हो।
तालिबान का मानना है कि औरत और मर्द एक दूसरे
को देखते ही और मिलते ही बातचीत के बाद फौरन सैक्स की तरफ बढ़ सकते हैं जैसे वे
इंसान ना होकर जानवर हों जबकि जानवर भी हमेशा ऐसा नहीं करते बल्कि उनका इस काम के
लिये एक खा़स वक़्त और सीज़न व मूड होता है। दरअसल एक दौर था जब पाक में जनरल ज़िया
उल हक़ और जमाते इस्लामी ने मिलकर कट्टरता फैलाई जिससे तालिबान नाम का जिन्न बोतल
से बाहर आया। अगर इतिहास देखा जाये तो भारत में भी हिंदूवादी और जातिवादी लिंगभेद
वाला ढांचा कट्टरपंथी स्थापित करना चाहते रहे हैं लेकिन भारत की उदार और शांतिपसंद
हिंदू जनता ने ही इस विचार को कभी निर्णायक महत्व नहीं दिया।
इतना ही नहीं हमारे देश में भी मलाला की तरह
सावित्री बाई फुले ने जब पहला स्कूल लड़कियों के लिये खोला तो उनको ज़बरदस्त विरोध
का सामना करना पड़ा। उसी तरह बंगाल की रास सुंदरी देवी को भी छिप छिपकर पढ़ना पड़ा
था। उस ज़माने में लड़कियों का छपे पन्ने छूना भी पाप माना जाता था। उन्होंने अपनी
आत्मकथा आमार जीवन में लिखा है कि जब घर के पुरूष
काम पर चले जाते थे तब वो पुराने अख़बारों से पढ़ना सीखती थीं। ऐसे ही
पंडिता रमाबाई और आनंदी गोपाल ने भी तमाम संघर्षों के बाद अपनी पढ़ने लिखने की
इच्छा पूरी की थी। कुछ लोग यह भ्रम पाले हैं कि हिंदू और मुसलमान ही इस मामले में
महिला शिक्षा के खिलाफ दकियानूसी रूख़ अपनाते रहे हैं जबकि खुद अमेरिका में
कट्टरपंथी इसाइयों ने बाक़ायदा दस पुस्तकों का एक सैट ‘फंडामेंटल्स’ छापकर
उसमें दावा किया था कि बाइबिल में महिलाओं और मज़दूरों को बराबर अधिकार नहीं दिये
गये हैं।
ऐसे ही साम्राज्यवाद के दौर में महिलाओं को
समान अध्किार देने से सदा मना किया गया। हिटलर के दौर का अध्ययन करके इस तथ्य की
पुष्टि की जा सकती है। पाकिस्तान में तालिबान का जहां तक सवाल है, इसका
इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है। आज अमेरिका और पाकिस्तान जिस तालिबान को ख़त्म करने के
लिये ज़मीन आसमान एक कर रहा है उस तालिबान को पैदा करने से लेकर खाद पानी देने तक
में इन दोनों की पूरी तरह से ज़िम्मेदारी हैं। जब अफ़गानिस्तान में रूस ने घुसपैठ की
तो अमेरिका ने पाकिस्तान के ज़रिये रूस को वहां से बेदख़ल करने के लिये जो कुछ किया
उसकी देन तालिबान हैै। रूस तो अफ़गानिस्तान से चला गया लेकिन तालिबान का जिन्न बोतल
से बाहर ही खुला छोड़कर अमेरिका ने भी अपना मिशन पूरा मान लिया।
नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान ने पहले तालिबान को
कश्मीर मामले में भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया लेकिन जब कामयाबी नहीं मिली और रूस
के बिखर जाने से भारत अमेरिकी गुट में शरीक हो गया तो पाकिस्तान पर भारत के मामले
में तालिबान का इस्तेमाल ना करने का दबाव बढ़ गया। इसके बाद मुहल्ले के गंुडे और घर
के दादा की तरह वही हुआ जिसका डर था कि तालिबान ने ना केवल अमेरिका बल्कि अपने ही
देश की सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिये।
तालिबान का दावा है कि अमेरिका के इशारे पर नाचने वाली पाक सरकार दरअसल इस्लाम की
दुश्मन है जिससे पहले उसे ही सबक सिखाना होगा। अमेरिका और पाकिस्तान तालिबान के
लिये यही कह सकते हैं-
0जिन
पत्थरों को हमने अता की थी धड़कनें,
जब बोलने लगे तो हम ही पर बरस पड़े।।
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