बेशक
सलमान रूश्दी का विरोध करें लेकिन संविधान के दायरे में !
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0मज़हबी
हिसाब से तो एम एफ हुसैन का विरोध भी सही ही था!
सलमान रूश्दी भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक
और लेखक हैं। उन्होंने सैटेनिक वर्सेज़ नाम की एक विवादास्पद किताब लिखी है। इसके
अलावा भी उनपर आरोप है कि उन्होंने ऐसा बहुत कुछ कहा और लिखा है जिससे पूरी दुनिया
के मुसलमान उनसे नाराज़ और ख़फ़ा हैं। मैं भी रूश्दी की इस हरकत पर उनसे असहमत हूं
लेकिन मैं उनसे सहमत न होने के बावजूद उनके खिलाफ ईरान के मज़हबी पेशवा मरहूम
अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा जारी किये गये मौत के फरमान से इत्तेफाक नहीं करता। यह मेरी अपनी समझ है हो
सकता है मैं ऐसा करके इस्लाम के हिसाब से गलत कर रहा हूं और गुनाहगार बन रहा हूं
जिसकी मुझे मौत के बाद आखि़रत में सज़ा मिले लेकिन मेरा मानना यह है कि रूश्दी के
खिलाफ भारतीय कानून का सहारा लिया जाना चाहिये न कि कानून अपने हाथ मंे लेकर हिंसा
का सहारा लिया जाये।
यहां रूश्दी के बारे में चर्चा करने से पहले
उनसे ही मिलता जुलता एक और मामला याद करना समीचीन होागा। आपको याद होगा मशहूर
कलाकार एम एफ हुसैन ने कुछ ऐसी कलाकृतियां बनाई थीं जिनसे हमारे कुछ हिंदू भाई
बेहद नाराज़ थे। उनकी प्रदर्शनी जहां कहीं लगती थी, हिंदू कट्टरपंथियों का एक ग्रुप वहां विरोध
प्रकट करने पहुंच जाता था। हालत यह हो गयी कि उन प्रदर्शनियों में तोड़फोड़ करके कई
स्थानों पर आग लगाई जाने लगी। कलाकारों और बुध्दिजीवियों का एक बड़ा वर्ग विरोध
करनेवालों की भावना को बिना समझे हुसैन के पक्ष में खड़ा हो गया। दलील दी गयी कि
जिन कलाकृतियों का आज विरोध हो रहा है वे तो कई दशक पहले बनाई गयी थीं।
मेरी
समझ में यह दलील कभी भी नहीं आई । यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे कोई कहे कि आपकी
सम्पत्ति पर मेरा इतना पुराना अवैध क़ब्ज़ा है। आपने इतने दशकों में आज तक तो कभी
अपनी प्रोपर्टी वापस मांगी नहीं अब क्यों मांग रहे हो। भले ही कानूनन भी कुछ मामलों
में ऐसा होता हो कि एक निर्धारित अवधि बीतने के बाद आप अपने वाजिब हक़ से महरूम कर
दिये जायें लेकिन यह मुझे गलत ही लगता रहा है। जहां तक भावनाओं का मामला है वे तो
हज़ारों साल तक भड़कती रहती है। बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि विवाद आखि़र सैकड़ों साल
पुराना है कि नहीं? 1400
साल पहले करबला की जंग में हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिवार के साथ यज़ीद ने जो
जुल्म किया था उसको हम आज भी कहां भूल पाये हैं।
आज भी हम उसके लिये मातम करके खुद को लहूलुहान
कर लेते हैं और मुहर्रम के ग़मज़दा महीने में मुसलमानों के एक वर्ग में कोई खुशी
नहीं मनाई जाती। ऐसा नहीं है यह मामला केवल मुसलमानों को लेकर ही सामने आया हो
बल्कि हिंदू कट्टरपंथियों के दबाव में सरकार ने ऑबरे मेनन की किताब रामा रिटोल्ड
और अगेहानंद भारती की ऑकर रोब पर भी पाबंदी लगाई है। अगेहानंद आस्टिरया के यहूदी
के यहूदी थे जिन्होंने हिंदू धर्म अपना लिया था लेकिन बाद में बात इतनी बढ़ी कि
उनको देश निकाला दे दिया गया। ख़ैर बात लंबी होती जा रही है। हम यह कहना चाहते हैं
कि बाद में हुसैन के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में बड़ी तादाद
में अलग अलग स्थानों की दर्जनों कोर्ट में मुक़दमे कायम कराये गये।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह बात सही मानते हुए
कुछ मुक़दमों को दिल्ली में स्थानांतरित भी कर दिया कि यह अभियान एक सोची समझी
योजना के तहत हुसैन को सबक सिखाने के लिये चलाया जा रहा है लेकिन बाद में विरोध और
तनाव इतना बढ़ता गया कि हुसैन को विदेश जाकर पनाह लेनी पड़ी और फिर वे वहां से कभी
नहीं लौटे।
मेरे
विचार से वे अगर अपनी विवादास्पद पेंटिंग्स को वापस ले लेते हैं और भविष्य में इस
बात का ख़ास ख़याल रखते कि ऐसी कोई कृति नहीं बनायेंगे जिससे किसी की भावनाओं को
ठेस पहुंचे या किसी को जानबूझकर विवाद खड़ा करने का मौका मिले तो वे अपने वतन में
ही आखि़री सांस लेते और जीवन के अंतिम दिनों में देशनिकाला जैसी विषम दुखद स्थिति
का सामना नहीं करना पड़ता। आखि़र अभिव्यक्ति की भी एक ऐसे समाज में आपको कोई
सीमारेखा तो बनानी ही पड़ेगी जो तर्क और उदारता के बजाये आस्था और अंधश्रध्दा को
अधिक महत्व देता हो। नेहरू जी कहा करते थे कि वे अपने दुश्मन की भी अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का सम्मान करंेगे भले ही वह उनके खिलाफ ही इस औज़ार का इस्तेमाल क्यों न
करे।
रूश्दी को भी भारत आने से रोकने की मांग करने
की बजाये उनके खिलाफ भारतीय कानून के हिसाब से कोर्ट में मुसलमानांे की धर्मिक
भावनाओं को जानबूझकर ठेस पहुुंचाने और लोगों में आपसी वैमनस्य फैलाकर सस्ती
लोकप्रियता हासिल करने का केस चलाया जाना चाहिये। एक अच्छा मौका और है। जब मुक़दमा
कायम हो जायेगा और वे भारत आयेंगे तो उनको गिरफ्तार किया जा सकता है।
0 वो
अपने वक़्त के नशे में खुशी छीन ले तुमसे,
मगर जब तुम हंसी बांटो तो उसको भूल मत जाना।।
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