Tuesday, 21 January 2014

लेखन का मक़सद प्रशंसा पाना नहीं

मेरे लिखने का मकसद प्रशंसा पाना नहीं है-इक़बाल हिंदुस्तानी

0 पहले मेरे 200 लेखों का अध्ययन करें फिर मेरे बारे में कोई राय बनायें! 

      प्रवक्ता डॉटकॉम पर हाल ही में प्रकाशित मेरे एक लेख वाजपेयी उदार और आडवाणी कट्टर क्यों माने जाते हैं?’ पर कई लोगों ने प्रतिक्रिया लिखी है। उनमें से कुछ लोगों ने सहमति जताई है तो अधिकांश ने असहमति। ऐसा करना उनका अधिकार है। मुझे उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई एतराज़ भी नहीं है लेकिन एक साथी ने मुझ पर साम्प्रदायिक होने और भाजपा विरोधी होने का व्यक्तिगत आक्षेप लगाते हुए कटाक्ष किया है कि आपके प्रशंसकों को पता चलना चाहिये कि आप कैसे हैं? मुझे अपने इस मित्र की बुध्दि पर तरस आ रहा है कि जिस लेखक के प्रवक्ता पर 179 लेख मौजूद हैं जिनमें हर वर्ग, पार्टी, धर्म और जाति आदि की कमियों, बुराइयों और कमज़ोरियों पर कलम निष्पक्ष रूप से बार बार चलाई गयी है उसपर यह आरोप कैसे लगाया जा सकता है? स्वस्थ और सकारात्मक आलोचना करना बुरा नहीं है लेकिन जहां तक प्रशंसा पाने का सवाल है तो मैं स्पश्ट कर दूं कि हालांकि प्रशंसा पाना मानव स्वभाव होता है लेकिन जब आप सच, हकीकत और समाजहित में लिखेंगे या जनहित में कुछ भी करेंगे तो ज़रूरी नहीं आपको प्रशंसा मिलेगी या किसी तरह का प्रत्यक्ष लाभ ही मिलेगा। मैं वो लिखता हूं जो मुझे ठीक लगता है। आप वो पढ़ना चाहते हैं जो आपको अच्छा लगता है।
0उसूलों पर जो आंच आये तो टकराना ज़रूरी है
 जो ज़िंदा हो तो फिर जिं़दा नज़र आना ज़रूरी है।
मुझे हैरत हुयी यह पढ़कर कि फेसबुक की तरह प्रवक्ता पर भी पाठकों को यह पता लगे कि मेरी सोच क्या है? अरे भाई प्रवक्ता की स्थापना के कुछ समय बाद से ही मैं भाई संजीव सिन्हा और भारत भूषण जी से अपने लेखन के माध्यम से जुड़ा हुआ हूं। जो कुछ लिखता हूं वह पाठकों के पढ़ने के लिये ही लिखता हूं। यह भी जानता हंू कि इससे उनकी नज़र में मेरी क्या छवि बनती होगी। मुझे इसकी तनिक भी ना तो चिंता है और ना ही डर। मेरे विचार सेकुलर और समाजवादी सोच से प्रभावित होते हैं यह कोई छिपाने की बात नहीं है, मुझे इस पर गर्व है। जब मेरे विरोधी मेरी प्रशंसा करने लगते हैं तो मैं एलर्ट हो जाता हूं कि कहीं मैं अपनी सोच से भटक तो नहीं रहा हूं। मुझे कोई चुनाव नहीं लड़ना है। जिससे मैं लोगों के नाराज़ होने की चिंता करूं। रहा सवाल भाजपा और मोदी के विरोध का, मेरा आज भी यही मानना है कि ये साम्प्रदायिक हैं। इस सोच को भारत की अधिकांश जनता स्वीकार भी करती है, यह कई बार साबित हो चुका है।
0 हर जु़बां ख़ामोश है अब हर नज़र खामोश है,
  क्या बतायें आदमी क्या सोचकर ख़ामोश है।
सपा बसपा जैसे दल जातिवादी और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को कभी कभी बढ़ावा देते हैं यह भी सच है। कांग्रेस बहुत भ्रष्ट और धर्म व जाति के आधार कई बार राजनीतिक फैसले लेती है, यह भी एक वास्तविकता है। हमारा काम पार्टी बनना या पूर्वाग्रह रखकर किसी व्यक्ति या दल विशेष के पक्ष या विपक्ष में कलम चलाना नहीं है। हम गुण दोष के आधार पर समय समय पर विश्लेषण करते रहते हैं, यह अधिकार हमें संविधान ने दिया है।  
ब्रिटेन के कुछ शोधकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर आंकड़ों और जानकारियों पर रिसर्च करके बताया है कि कट्टरपंथी चाहे किसी भी वर्ग के हांे वे कमअक़्ल होते हैं। उन्होंने शोध में पाया कि बचपन में कम बुध्दिमत्ता वाले लोग बड़े होकर अकसर नस्लवादी, जातिवादी और साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी सोच के हो जाते हैं। ऐसे लोग ही अहंकारी, तानाशाही और संकीर्णतावादी सोच के कारण पूर्वाग्रह, हिंसा और पक्षपात में विश्वास करते हैं जिससे मौका मिलते ही कोई घटना हो ना हो मात्र अफवाह से ये अपने विरोधियों को सबक सिखाने पर उतर आते हैं। दंगे, सामूहिक नरसंहार और अपने दुश्मनों के साथ अन्याय अत्याचार करके कट्टरवादी देश और दुनिया को अपनी सोच के हिसाब से चलाने का सपना दिन में ही देखते रहते हैं लेकिन सच यह है कि इनकी इन तालिबानी हरकतों से इनके दुश्मन और मज़बूत होते हैं और दूसरे वर्ग की आतंकी और बदले की कार्यवाही बढ़ती है। सबसे बड़ा पागलपन ऐसे कट्टरपंथियों का खुद को श्रेष्ठ मानना है। 0 0मज़ा देखा मियां सच बोलने का ,
 जिधर तुम हो उधर कोई नहीं है।
प्रवक्ता डॉटकॉम पर मैंने कुछ दिन पहले मुसलमानों के आज के हालात पर एक लेख लिखा था। इसमें यह बात ख़ास तौर पर उठाई गयी थी कि मुसलमानों को सरकार द्वारा आरक्षण देने का लाभ तब तक नहीं होगा जब तक कि वे कट्टरता और मदरसों की परंपरागत शिक्षा  छोड़कर उच्च शिक्षा में आगे नहीं आयेंगे। इसी कारण वे दलितों से भी अधिक गरीब और पिछड़ चुके हैं। उनका धर्म के नाम पर परिवार नियोजन से परहेज़ करना भी आज के हालात की एक बड़ी वजह है। यह अलग बात है कि खुद भारत सरकार के आंकड़ें इस बात की गवाही दे रहे हैं कि जो मुसलमान आधुनिक, वैज्ञानिक और प्रगतिशील शिक्षा लेकर सम्पन्न हो गये वे गैर मुस्लिमों की तरह ही परिवार छोटा रखने लगे हैं। इस लेख को जहां अनेक लोगों ने सराहा वहीं मेरे कुछ शुभचिंतकों ने मुझे आगाह किया कि ऐसी कड़वी सच्चाई मत लिखा करो जिससे मुसलमानों का कट्टरपंथी सोच वाला वर्ग आप से नाराज़ हो जाये।
0यूं तो ज़बां थी सभी पर मगर,
 चुप हमीं से मगर रहा गया।
उन्होंने यह भी पूछा कि आपको ऐसा लिखने मंे डर नहीं लगता? मेरा कहना है कि सच वह फुटबाल होती है कि जिसको दर्जनों खिलाड़ी सुबह से शाम तक मैदान लातें मारते हैं लेकिन उस बॉल का कुछ भी तो नहीं बिगड़ता अगर कुछ समय के लिये पंक्चर हो भी जाये या हवा निकल जाये तो थोड़ी देर में फिर से ठीक होकर पहले की तरह मज़बूत और फौलादी होकर चुनौती देती नज़र आती है। जबकि झूठ पानी का बुलबुला होता है जिसकी ज़िंदगी भी क्षणिक होती है। सच एक पहाड़ है तो झूठ एक राई की तरह होता है। वैसे तो मैं अपने चाहने वालों का आभारी हूं कि उनको मेरी इतनी चिंता है कि वे मुझे किसी ख़तरे में नहीं डालना चाहते लेकिन एक बात अपने दोस्तों को स्पश्ट करना चाहता हूं कि यह अपना अपना मिज़ाज होता है कि एक आदमी खुद पर भी जुल्म और नाइंसाफी चुपचाप सहता रहता है जबकि दूसरा आदमी किसी दूसरे, पराये कहे जाने वाले या विदेशी आदमी तक पर ज्यादती बर्दाश्त नहीं करता।
0मैं एक क़तरा ही सही मेरा अलग वजूद तो है,
  हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
ऐसे ही नजीबाबाद मंे गंगा जमुनी तहज़ीब को जिं़दा रखने के लिये 1992 में अयोध्या में विवादित इमारत के ध्वंस के बाद जब होली मिलन कराने के लिये कोई मुस्लिम सामने आने को तैयार नहीं था उस समय इन पंक्तियों के लेखक ने संयोजक बनकर इस एकता और भाईचारे की परंपरा को जारी रखने का बीड़ा उठाया और इस चुनौती को कट्टरपंथियों की तमाम धमकियों के बावजूद अंजाम तक पहंुचाने में मेरे परम मित्र और कवि प्रदीप डेज़ी, छोटे भाई शादाब ज़फर शादाब जी हां प्रवक्ता पर लेख लिखने वाले, और आफताब नौमानी ने भरपूर सहयोग किया। लेख और ख़बरों पर धमकी भरे फोन और चिट्ठी आना तो आम बात रही है लेकिन हम जानते हैं कि ऐसे लोग कायर और ढोंगी होते हैं इसलिये कई बार पुलिस को बताना तो दूर हमने परिवार और मित्रों में भी धमकी की चर्चा करना ज़रूरी नहीं समझा।जिस तरह से डायबिटीज़ के एक मरीज़ को वह डॉक्टर अच्छा लगता है जो यह कहे कि मीठा खूब खाओ और किसी तरह की दवाई या परहेज़ की भी ज़रूरत आपको नहीं है उसी तरह से कलमकार का मामला होता है कि अगर वह अपने पाठक को यह कहे कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह बिल्कुल ठीक है। सच कहने का साहस इसलिये न करे कि इससे उसका पाठक नाराज़ और ख़फ़ा हो सकता है तो मेरा मानना है कि वह कड़क और सख़्त डाक्टर पहले डॉक्टर से कहीं अधिक बेहतर है जो यह कहता है कि आपको डायबिटीज़ है और अब आपको ज़िंदगीभर मीठे से परहेज़ रखना है यानी लिमिट में शुगर लेनी है और अगर आप मेरी सलाह नहीं मानेंगे तो आपको इंसुलिन इंजैक्शन से देनी होगी। इतने पर भी काम नहीं चलेगा तो अस्पताल में भर्ती कर लूंगा। कहने का मतलब यह है कि हमें यह नहीं देखना कि सामने वाले को क्या अच्छा लगेगा बल्कि यह देखना चाहिये कि उसके लिये वास्तव में अच्छा है क्या? यह बात तो क्षणिक बुरी लगेगी लेकिन जो लोग चापलूसी और चाटुकारिता से लोगों को यह अहसास नहीं होने देते कि कमी और गल्ती कहां है उनसे बड़ा दुश्मन कौन हो सकता है? जब किसी बंदे को यही नहीं पता चलेगा कि रोग क्या है और उसकी जड़ कहां है तो उसका इलाज कैसे होगा? मुसलमानों की और समस्याओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनको असलियत का आईना दिखाने की हिम्मत कोई नहीं करता? वे जज़्बाती और भावुक होते हैं जिससे उनकी संवेदनशीलता को कैश करने के लिये अकसर ऐसे बयान दिये जाते हैं जिनसे मुसलमानों को फायदा तो दूर उल्टे नुकसान अधिक होता है। हालांकि मेरे खिलाफ न तो किसी ने कोई फतवा जारी किया और न ही कोई नोटिस लेने लायक़ धमकी दी गयी लेकिन इससे पहले मेरे बेबाक लेखों पर कुछ लोगों ने नाखुशी ज़रूर जताई।
0यह सच तो टूटकर कब का बिखर गया होता,

अगर मैं झूठ की ताक़त से डर गया होता।

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