प्रवक्ता डॉटकॉम बना
अभिव्यक्ति का खुला मंच
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 संजीव भाई और भूषण जी की
निष्पक्षता को सलाम!
0 10 माह में मेरे 100
आर्टिकिल प्रकाशित हो चुके हैं।
आज से एक साल पहले जब मैंने प्रवक्ता पर
लिखना शुरू किया था तो मन में कई आशंकाएं और सवाल थे कि संघ परिवार से जुड़ा एक
डॉटकॉम क्या मुझ जैसे सेकुलर और समाजवादी सोच के मामूली क़लमकार को जगह देगा अपनी
बात कहने की? हालांकि शुरूआत मैंने डरते डरते एक ऐसे लेख से की जो न्यायपालिका और
कार्यपालिका के टकराव को लेकर बेहद नाज़ुक और संवेदनशील विषय पर लिखा गया था लेकिन
मुझे यह देखकर खुशी हुयी कि भाई संजीव सिन्हा ने इस पहल को हाथो हाथ लिया। इसके
बाद मैंने प्रयोग के तौर पर कई लेख ऐसे लिखे जिनको लेकर मुझे नहीं लगता था कि प्रवक्ता
पर प्रकाशित होने का मौका मिलेगा लेकिन प्रवक्ता ने एक बार फिर मेरी इस धारणा को
तोड़ा कि उनकी अपनी निजी विचारधारा चाहे कुछ भी हो लेकिन जहां तक अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का प्रश्न है वे पूरी तरह निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं।
नतीजा यह हुआ कि जो प्रिंट मीडिया
अपने आप को अधिक कारगर और निष्पक्ष होने का दावा करता है उसने उन लेखों को छापने
में अपने आर्थिक हित अहित ज़रूर देखे होते लेकिन प्रवक्ता ने बेलाग और बेबाक तरीके
से उन सभी लेखों को प्राथमिकता पर आधार पर पब्लिश किया जिनको लेकर मीडिया जगत में
तमाम तरह के अगर मगर बाधा बनते हैं।
मैं इस बात से बहुत खुश हूं कि आज मैं गर्व
से कह सकता हूं कि प्रवक्ता हम जैसे उन सभी रचनाकारों की अभिव्यक्ति का निष्पक्ष
और खुला मंच है जो यह मानते हैं कि हम आपके विचारों से सहमत हों या ना हों लेकिन
आपके अभिव्यक्ति के अधिकार की हम हर कीमत पर रक्षा और कद्र करेंगे। पिछले दिनों जब
प्रवक्ता ने वैचारिक छुआछूत विषय पर परिचर्चा आयोजित की तो मैंने यह बात लिखी भी
थी कि जब तक विपरीत विचार के लोगों से संवाद ही नहीं होगा तब तक आपसी मतभेद और
गलतफहमियां दूर कैसे हो सकती है? क्या हमारी विचारधारा ऐसी कमज़ोर और छुईमुई का पेड़ है जो किसी के संपर्क में
आते ही मुरझा जायेगी? क्या वह सोच ऐसी थोथी और बेतुकी है कि किसी से बात या बहस करते ही अस्तित्व के
ख़तरे से जूझने लगेगी?
तो एक बात तय है कि आज नही
ंतो कल ऐसी सभी विचारधारायें और परंपरायें धराशायी होनी ही हैं जो विज्ञान और
प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरी नहीं उतरेंगी।
बहरहाल मैं बात कर रहा था प्रवक्ता की जिसने
ना केवल ऐसे लेख प्रकाशित किये जिनको पढ़कर समाज में कभी कभी शांत पानी में कंकड़
फैंकने की तरह भूचाल आ जाता है बल्कि ग़ज़लें और व्यंग्य को भी बराबर जगह दी। ‘फतवे
का डर’ एक
ऐसा लेख था जिस पर मुझे सबसे अधिक चर्चा और विवाद होने की आशंका थी लेकिन चूंकि
बात मैंने तथ्यों और तर्कों की बुनियाद पर कही थी लिहाज़ा प्रवक्ता ने बिना किसी
संकोच के ना केवल उस आर्टिकिल को लगाया बल्कि उस पर उम्मीद से कहीं अधिक सकारात्मक
प्रतिक्रियायंे भी आई। आज भी कई अख़बार और पत्रिकाओं के संपादक और मेरे पत्रकार
साथी उस लेख पर मुझे प्रवक्ता पर पढ़ने के बाद से बार बार हिम्मत की दाद और
मुबारकबाद देते रहते हैं।
प्रवक्ता के उस लेख ने मुझे
नई पहचान दी और बोल्ड इमेज में इज़ाफ़ा ही किया है। फिर मेरा मानना रहा है कि अगर आप
समाज की परंपरा और घिसी पिटी सोच का इस डर से विरोध और असहमति नहीं व्यक्त करते कि
ऐसा करने से लोग नाराज़ हो सकते हैं और ख़फा होकर आपको वे नुकसान पहंुचा सकते हैं
तो आप सच्चे और अच्छे लेखक नहीं हो सकते।
प्रवक्ता पर चलने वाली कुछ परिचर्चाओं पर
कुछ लोगांे का यह सवाल भी होता है कि इससे क्या बदलाव आना है? मेरा
कहना यही है कि
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये
मेरे सीने में नही ंतो तैरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।
आज नहीं तो कल लोगों के दिमाग में यह बात ज़रूर
आयेगी कि हम जो पूर्वाग्रह, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता की संकीर्ण सोच अपने अपने स्वार्थ की खातिर
रखते हैं वो गलत है। हिंसा और कट्टरपंथ से किसी समाज का आज तक भला नहीं हो सका और
ना ही आगे होगा। शिक्षा और सर्वसमावेशी निष्पक्ष विकास की सोच ही हमारी समस्याओं
का समाधान कर सकती है। आज अगर भारत का संविधान धर्मनिर्पेक्ष और समानतावाद में
विश्वास रखता है तो केवल इसी लिये कि हिंदू भाई सबसे अधिक सहिष्णु, उदार
और शांति में यकीन करते हैं। इसी का जीता जागता नमूना प्रवक्ता डॉटकाम भी माना जा
सकता है।
मेरा प्रवक्ता के संचालकों को इस मौके पर एक
सुझाव यह भी है कि प्रवक्ता पर आस्था को लेकर एक परिचर्चा चलाई जाये जिसमें इस बात
पर खुले दिल और दिमाग से बहस हो कि किसी की आस्था से दूसरे को असहमति रखने का
बुनियादी अधिकार हमारे संविधान ने हमको दिया है। अगर हाल ही के कुछ मामलों को देखा
जाये तो पता चलता है कि किस तरह से समय के साथ लोगों की सोच वैज्ञानिक और
प्रगतिशील होने की बजाये दकियानूसी और अनुदार होती जा रही है। फिल्म अभिनेता
अमिताभ बच्चन को यूपी के झांसी से मुदस्सिर नाम के एक आदमी ने कोर्ट के ज़रिये
नोटिस दिया है कि बच्चन ने एक टीवी प्रोग्राम में एक धार्मिक ग्रंथ को ‘रचित’ क्यों
कहा?
ऐसे ही इंडियन रेशनलिस्ट
एसोसियेशन के सर्वेसर्वा सनल एरमादुक ने जब मुंबई के एक चर्च में ईसा मसीह की
मूर्ति के पांव के पास गिरते पाक पानी की करामात का भंडाफोड़ किया तो एक चर्च ने
उनके खिलाफ लोगों की आस्था को ठेस पहुंचाने का मुकदमा कायम करा दिया। इससे पहले
पश्चिमी बंगाल के एक्स सीएम बुध्ददेव भट्टाचार्य ने जब यह कहा था कि उनके विचार से
सेतुसमुद्रम मानवनिर्मित नहीं बल्कि प्राकृतिक प्रक्रिया का परिणाम है तो उनके
खिलाफ बिहार में एक थाने में एफआईआर दर्ज करा दी गयी थी। ऐसे ही आर्यसमाजी नेता
स्वामी अग्निवेश को शिवलिंग को खुद ही बर्फ जमने और पिघलने की बात कहने पर आस्था
को ठेस पहुंचाने के केस का सामना करना पड़ा। ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं
जिनमें आस्थावान लोग कानून का सहारा लेकर यह आरोप लगाते हैं कि आपकी असहमति की
अभिव्यक्ति से ही उनकी भावनायें आहत हुयीं।
कई मामलों में असहमति दर्ज
करने वालों को हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। हमारा कहना है कि हम सबकी आस्था का
सम्मान करते हैं लेकिन किसी को भी तानाशाह राजा की तरह अपनी आस्था सब पर जबरन
थोपने का अधिकार संविधान ने नहीं दिया है। अगर अनास्था वालों का पक्ष देखें तो
आयेदिन ध्वनि प्रदूषण, धार्मिक आडंबरों से रोड जाम, और नदियों में मूर्ति विसर्जन से पानी को गंदा किया जाना जैसे हज़ारों मामले
मिलंेगे जिससे अनास्था वालों को अल्पसंख्यक होने के कारण आस्थावान बहुसंख्यक सभी
धर्मांे के कट्टरपंथी फतवा जारी करने से लेकर, सामाजिक बहिष्कार और कदम कदम पर अपमान व जान
से मारने की धमकी आयेदिन देते रहते हैं। इस विषय पर व्यापक बहस होनी ही चाहिये।
एक बार फिर प्रवक्ता की निष्पक्षता और खुले
मंच को सादर प्रणाम!
0 चोटों पे चोट देते ही जाने
का शुक्रिया,
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया,
तुम बीच में न आती तो कैसे बनाता सीढ़ियां,
दीवारों में मेरी राह में आने का
शुक्रिया।।
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