Friday, 24 January 2014

पुलिस बनाम भ्रष्ट व्यवस्था

पूरी व्यवस्था भ्रष्ट है तो सिर्फ पुलिस कैसे सुधरेगी ?
0सुप्रीम कोर्ट के फटकारने का भी सरकारों पर नहीं होता असर!
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
     एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार के बाद विरोध दर्ज करा रही एक युवती को दिल्ली में एसीपी पुलिस द्वारा थप्पड़ मारने और यूपी के अलीगढ़ में एक बुज़ुर्ग महिला को बेरहमी से सार्वजनिक रूप से पीटे जाने की घटना पर सर्वोच्च न्यायालय ने खाकी के बर्ताव को जानवरों से भी बदतर बताकर  पुलिस के इस तरह के अत्याचार को देश का अपमान करार दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इससे पहले यूपी के बुलंदशहर में एक दलित लड़की के साथ बलात्कार के बाद उल्टे उसी को थाने में बंद करके पिटाई के मामले में यूपी सरकार से जवाब तलब किया था जिसमें यूपी सरकार ने कोर्ट में अपनी गलती स्वीकार करते हुए दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कार्यवाही से अवगत कराया था । दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले हाल ही में पंजाब के तरनतारन में एक दलित महिला की खुलेआम सड़क पर पुलिस द्वारा की गयी बर्बर पिटाई और बिहार में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे शिक्षकों को पुलिस द्वारा दौड़ा दौड़ा कर बुरी तरह से पीटने के मामलों का स्वतः संज्ञान लेते हुए दोनों राज्य सरकारों से जवाब तलब किया था कि पुलिस जनविरोधी तौर तरीके क्यों अपना रही है? अजीब बात यह है कि इस गैर कानूनी और बर्बर हरकत पर बजाये गल्ती मानकर शर्मिंदा होने के पंजाब पुलिस के प्रमुख ने सफाई दी है कि वह दलित महिला पुलिस को गंदी गंदी गालियां दे रही थी जिससे पुलिस ने उसे ऐसा सबक मजबूरी में सिखाया है। सवाल यह है कि किसी के गाली देने से उसके खिलाफ मुकदमा लिखना पुलिस का काम है ना कि उसको पिटाई करके सरेआम सज़ा देना। सज़ा देना तो अदालत का काम है। ऐसे ही पिछले दिनों यूपी में मुज़फ्फ़रनगर ज़िले में एक थाने में तैनात दारोगा ने एक स्कूटी चोरी के आरोप में सैनी जाति के पांच बेकसूर युवकों को पकड़कर थाने में ना केवल रातभर उनकी पिटाई की बल्कि भयंकर यातनायें देते हुए चोरी कबूल कराने को बिजली का करंट लगाया। बाद में दस दस हज़ार रूपये की रिश्वत लेकर इन पांचों को रिहा कर दिया गया। यह मामला जब तूल पकड़ा तो वहां की एसएसपी मंजिल सैनी ने आरोपी  एसओ के खिलाफ बाकायदा मुकदमा कायम कराकर उनको उनकी अत्याचारी टीम के साथ जेल भेज दिया। इस मामले की जांच वहां के एक सीओ को मिली और उसने विभागीय भाईचारा निभाते हुए सरसरी जांच में रिश्वत का मामला फर्जी बताते हुए एसओ की ज़मानत तत्काल होने का रास्ता खोल दिया। जेल से बाहर आते ही भ्रष्ट और अक्खड़ थाना प्रभारी के कड़क तेवर बदस्तूर जारी हैं। मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और अनुसूचित जाति आयोग से थर्ड डिग्री देने और घूस लेने के जो मामले आयेदिन जांच के लिये पुलिस के पास आते हैं उनमें भी पुलिस अधिकारी एक दूसरे को बचाने की कीमत वसूल करके मामलों को रफा दफा करने में लगे रहते हैं। सीबीसीआईडी, सीबीआई और मजिस्ट्रीयल जांच कितनी निष्पक्ष होती है यह हम सबको पता ही है। हालत यह है कि अब तो न्यायिक जांच में भी उन जजों को नियुक्त किया जाता है जो सरकार के वफादार हों और वैसी जांच रपट पेश करें जैसी सराकर की मंशा हो। अगर इसके बावजूद कोई जांच रपट सरकार की चाहत के खिलाफ आ जाती है तो वह उसको ठंडे बस्ते में डाल देती है। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में जस्टिस कृष्णा आयोग की रपट में साफ साफ बताया गया था कि शिवसेना के कार्यकर्ता और विधायक दंगों में शामिल थे लेकिन उनके खिलाफ भाजपा शिवसेना ही नहीं विपक्ष में रहकर शोर मचाने वाली कांग्रेस की सरकार ने भी कोई ठोस कार्यवाही आज तक नहीं की है। दिल्ली में योग गुरू बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान बिना किसी चेतावनी और भागने का अवसर दिये रात को दो बजे सोते बच्चो, बूढ़ों और महिलाओं पर पुलिस ने लाठीचार्ज की थी उससे भी जलियावाला बाग़ के अंग्रेज़ों के जुल्म की याद ताज़ा हो गयी थी। आयेदिन आम आदमी को पूछताछ के नाम पर पकड़कर वसूली, थर्ड डिग्री और हिरासत में मौत के साथ ही फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की पुलिस की कहानी आम हो चुकी है। पुलिस वही करती है जो हमारे नेता चाहते हैं। पुलिस सुधार के लिये कई आयोग बने उनकी रिपोर्ट भी आईं लेकिन आज वे कहां धूल चाट रही हैं किसी को नहीं पता। जब भी कोई पार्टी विपक्ष में होती है वह हमेशा इस बात की शिकायत करती है कि पुलिस सत्ताधारी दल की गुलाम बनकर काम करती है, जबकि उसको कानून के हिसाब से काम करना चाहिये। आश्चर्य की बात यह है कि जब वही विपक्षी दल सरकार बनाता है तो वह भी पहले की सरकार की तरह पुलिस का दुरूपयोग करता है। वह भी अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिये फर्जी केस बनवाता है और झूठे एनकाउंटर कराने में भी उसको परेशानी नहीं होती। तमिलनाडु के धर्मपुरी ज़िले की एक अदालत ने 215 सरकारी कर्मचारियों को आदिवासियों के साथ बर्बर अत्याचार के आरोप सही साबित होने के बाद कड़ी सज़ा सुनाई है। इन सरकारी सेवकों में पुलिस, वन विभाग और राजस्व विभाग के अधिकारी भी शामिल हैं। यह मामला 1992 का है जिसमें कुल 269 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ पश्चिमी तमिलनाडु के वाचाती गांव के आदिवासियों के साथ रौंगटे खड़े करने वाले जुल्म की दास्तान सुनकर मद्रास हाईकोर्ट ने मुकदमा कायम करने का आदेश दिया था। हालांकि सरकार इस दौरान लगातार यह सफेद झूठ बोलती रही कि किसी के साथ कहीं कोई अत्याचार और अन्याय नहीं हुआ। दरअसल पुलिस, वन विभाग और राजस्व विभाग के सैकड़ों अधिकारियों और कर्मचारियों ने 655 लोगांे के छोटे से गांव पर यह मनगढ़ंत आरोप लगाकर भयंकर जुल्म ढाया था कि ये लोग कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं और चंदन की तस्करी का यह गांव गढ़ बताया गया था। पुलिस ने यहां छापे के दौरान गांववालों की न केवल बर्बर पिटाई की बल्कि पशु मार डाले, घर जलाये और 18 लड़कियों व महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक किये। पहले तो तमिलनाडु सरकार ने इन आरोपों को सिरे से झुठलाया लेकिन जब मामला स्वयंसेवी संस्थाओं और वामपंथी दलों द्वारा लगातार आंदोलन के बावजूद कानूनी कार्यवाही न होने से सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा तो पुलिस को इस मामले मंे सरकार के न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी। यह मामला मद्रास हाईकोर्ट ने ज़िला अदालत को सौंप दिया था। ज़िला न्यायधीश ने सारे आरोप सही पाये और आरोपियों को एक से दस साल की अलग अलग सज़ा सुनाई। सवाल यह है कि जब हमारे राजनेता ही भ्रष्ट हैं और वे पुलिस को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं तो पुलिस को सुधारेगा कौन? सिस्टम यह बनाया गया था कि अगर पुलिस का छोटा कर्मचारी या अधिकारी गल्ती करेगा तो उसकी शिकायत बड़े अफसर से की जायेगी। आज हालत यह हो गयी है कि बड़ा अधिकारी उस छोटे अधिकारी से मिला हुआ है। वह उसकी मलाईदार थाने मंे तैनाती के पैसे वसूल रहा है। कई एसपी थानेदारों से मासिक वसूली कर रहे हैं, सवाल यह है कि ऐसे में वे उन थानेदारों के खिलाफ कार्यवाही कैसे कर सकते हैं। कई थानेदार जाति और धर्म के आधार पर राज्य मुख्यालय या अपने खास मंत्री के वरदहस्त के चलते सीधे पोस्टिंग पाये हैं जिनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यहां तक कि जिले का पुलिस अधिकारी उनका स्थानांतरण तक जिले में कहीं और नहीं कर सकता। जो पुलिस अधिकारी ईमानदारी से काम करना चाहता है उसको विभाग में फुटबाल बना दिया जाता है। साथ ही ईमानदारी से हर अपराध की रपट दर्ज करने वाले एसओ पर यह कहकर गाज़ गिरा दी जाती है कि आपके क्षेत्र में अपराध बहुत बढ़ रहे हैं जबकि वास्तविकता कुछ और होती है। अगर जनता का कोई आदमी हिम्मत जुटाकर दोषी पुलिसवाले के खिलाफ मुकदमा कायम कराता है तो सरकार  नागरिक की बजाये पुलिस के साथ खड़ी हो जाती है। सरकार का दावा होता है कि ऐसा ना करने से पुलिस का मनोबल गिरेगा। इसलिये यह सवाल पैदा होता है कि जब तक पूरा सिस्टम भ्रष्ट है तब तक केवल पुलिस को कैसे सुधारा जा सकता है???
 0 ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा,

    मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।। 

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