Saturday, 25 January 2014

पुलिस सुधार और सरकार

पुलिस के तौर तरीके़ सुधारने को सरकार क्यों नहीं होती तैयार?
               -इक़बाल हिंदुस्तानी
0सुप्रीम कोर्ट के फटकारने पर भी सभी दल चुप्पी साधे हैं!
                दिल्ली गैंगरेप के विरोध में जंतर मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान कांस्टेबिल सुभाष तोमर की मौत हार्ट अटैक से होने के बावजूद दिल्ली पुलिस के डीजीपी ने दावा किया था कि तोमर की आंदोलनकारियों ने हत्या की है। इस मामले में जिन आठ बेकसूर लोगों को पुलिस ने इधर उधर से पकड़कर चालान किया था उसकी मीडिया में कड़ी आलोचना हुयी थी। अब दिल्ली हाईकोर्ट में पुलिस ने बैकफुट पर आते हुए यह स्वीकार कर लिया है कि शांतनु, अमित जोशी, कैलाश जोशी और नफीस आदि इन आठ आरोपियों के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है जिससे यह साबित हो सके कि ये लोग कांस्टेबिल की हत्या में शरीक रहे हों। इसके विपरीत इन अभियुक्तों ने ऐसे अनेक सबूत कोर्ट में पेश किये जिनसे ये पता चलता है कि घटना के समय ये नौजवान कहीं और थे।
   दरअसल पुलिस का यह रूटीन काम हो गया है कि वह एक तानशाह और बेलगाम बल की तरह मनमाना काम करती है। इसमें उसका मकसद अपने आका राजनेताओं को खुश करना और अपनी जेब भरना होता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पंजाब के तरनतारन में एक दलित महिला की खुलेआम सड़क पर पुलिस द्वारा की गयी बर्बर पिटाई और बिहार में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे शिक्षकों को पुलिस द्वारा दौड़ा दौड़ा कर बुरी तरह से पीटने के मामलों का स्वतः संज्ञान लेते हुए दोनों राज्य सरकारों से जवाब तलब किया है कि पुलिस जनविरोधी तौर तरीके क्यों अपना रही है? अजीब बात यह है कि इस गैर कानूनी और बर्बर हरकत पर बजाये गल्ती मानकर शर्मिंदा होने के पंजाब पुलिस के प्रमुख ने सफाई दी है कि वह दलित महिला पुलिस को गंदी गंदी गालियां दे रही थी जिससे पुलिसे ने उसे ऐसा सबक मजबूरी में सिखाया है।
   सवाल यह है कि किसी के गाली देने से उसके खिलाफ मुकदमा लिखना पुलिस का काम है ना कि उसको पिटाई करके सरेआम सज़ा देना। सज़ा देना तो अदालत का काम है। ऐसे ही पिछले दिनों यूपी में प्रतापगढ़ ज़िले के कुंडा में पुलिस टीम अपने ही विभाग के सीओ जिया उल हक को अकेला भीड़ के बीच छोड़कर कायरों की तरह या साज़िशन भाग गयी जिसका नतीजा यह हुआ कि सीओ की हत्या हो गयी। इससे पहले यूपी में ही घनश्याम केवट नाम के कुख्यात बदमाश को घेरकर मारने में पुलिस को 48 घंटे से भी अधिक का समय पुलिस बल एकत्र करने में लग गये था। पुलिस की कथित बहादुरी की हालत यह थी कि नाले में छिपा बैठा केवट जब तक खुद ही नाले से बाहर नहीं निकला पुलिस की हिम्मत उसको नाले में उतरकर ललकारने की नहीं हुयी थी।
   दिल्ली में योग गुरू बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान बिना किसी चेतावनी और भागने का अवसर दिये रात को दो बजे सोते बच्चो, बूढ़ों और महिलाओं पर पुलिस ने लाठीचार्ज की थी उससे भी जलियावाला बाग़ के अंग्रेज़ों के जुल्म की याद ताज़ा हो गयी थी। आयेदिन आम आदमी को पूछताछ के नाम पर पकड़कर वसूली, थर्ड डिग्री और हिरासत में मौत के साथ ही फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की पुलिस की कहानी आम हो चुकी है। आतंकवादी घटनायें भी पुलिस रोक पाने मंे बार बार चेतावनी मिलने के बाद भी असफल रहती है। इतना ही हर बार बम विस्फोट होने के बाद पुलिस अकसर कुछ अल्पसंख्यक नौजवानों के फर्जी चालान कर देती है। पुलिस वही करती है जो हमारे नेता चाहते हैं। पुलिस सुधार के लिये कई आयोग बने उनकी रिपोर्ट भी आईं लेकिन आज वे कहां धूल चाट रही हैं किसी को नहीं पता।
   जब भी कोई पार्टी विपक्ष में होती है वह हमेशा इस बात की शिकायत करती है कि पुलिस सत्ताधारी दल की गुलाम बनकर काम करती है, जबकि उसको कानून के हिसाब से काम करना चाहिये। आश्चर्य की बात यह है कि जब वही विपक्षी दल सरकार बनाता है तो वह भी पहले की सरकार की तरह पुलिस का दुरूपयोग करता है। वह भी अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिये फर्जी केस बनवाता है और झूठे एनकाउंटर कराने में भी उसको परेशानी नहीं होती।  एक तरफ बार बार मांग करने के बावजूद सरकार आज तक बटलाहाउस के कथित फर्जी एनकाउंटर की जांच कराने को तैयार नहीं हैं तो दूसरी तरफ राजस्थान के गोपालगढ़ में पुलिस ने ज़मीन के मामूली विवाद को पहले तो रिश्वत खाकर दबाना चाहा जब मामला तूल पकड़ गया तो उसे साम्प्रदायिक रंग देकर एकतरफा कार्यवाही की।
   इसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस ने इतनी अधिक फायरिंग की है कि नौ लोग मौके पर मारे गये जबकि 22 बुरी तरह ज़ख़्मी हो गये। ये सब लोग अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। बताया जाता है कि जब पुलिस के हमले से बचने के लिये लोगों ने पास के धार्मिक स्थल में पनाह ली तो पुलिस ने उनको वहां जाकर भी सबक सिखाया जिसकी गवाही धार्मिक स्थल की दीवारों में सौ से अधिक गोलियों के निशान दे रहे हैं। तमिलनाडु के धर्मपुरी ज़िले की एक अदालत ने  215 सरकारी कर्मचारियों को आदिवासियों के साथ बर्बर अत्याचार के आरोप सही साबित होने के बाद कड़ी सज़ा सुनाई है। इन सरकारी सेवकों में पुलिस विभाग के सबसे अधिक कर्मचारी शामिल हैं।
   यह मामला 1992 का है जिसमें कुल 269 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ पश्चिमी तमिलनाडु के वाचाती गांव के आदिवासियों के साथ रौंगटे खड़े करने वाले जुल्म की दास्तान सुनकर मद्रास हाईकोर्ट ने मुकदमा कायम करने का आदेश दिया था। हालांकि सरकार इस दौरान लगातार यह सफेद झूठ बोलती रही कि किसी के साथ कहीं कोई अत्याचार और अन्याय नहीं हुआ। दरअसल पुलिस, वन विभाग और राजस्व विभाग के सैकड़ों अधिकारियों और कर्मचारियों ने इस 655 लोगांे के छोटे से गांव पर यह मनगढ़ंत आरोप लगाकर भयंकर जुल्म ढाया था कि ये लोग कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं और चंदन की तस्करी का यह गांव गढ़ बताया गया था। पुलिस ने यहां छापे के दौरान गांववालों की न केवल बर्बर पिटाई की बल्कि पशु मार डाले, घर जलाये बल्कि 18 लड़कियों व महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक किये।
     पहले तो तमिलनाडु सरकार ने इन आरोपों को सिरे से झुठलाया लेकिन जब मामला स्वयंसेवी संस्थाओं और वामपंथी दलों द्वारा लगातार आंदोलन के बावजूद कानूनी कार्यवाही न होने से सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा तो पुलिस को इस मामले मंे सरकार के न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी। यह मामला मद्रास हाईकोर्ट ने ज़िला अदालत को सौंप दिया था। ज़िला न्यायधीश ने सारे आरोप सही पाये और आरोपियों को एक से दस साल की अलग अलग सज़ा सुनाई।  सब जानते हैं कि हमारी पुलिस अकसर किस तरह की मुठभेड़ें करती है और उनमंे से कितनी सच्ची होती हैं और कितनी झूठी? जहां तक सरकार के रिकार्ड का सवाल है उसके हिसाब से यह नहीं माना जा सकता कि वह ऐसे मामलों को दबाने का प्रयास नहीं करती।
   जस्टिस आर डी नमेश ने 23 सितंबर 2007 को यूपी की विभिन्न अदालतों में हुए धमाकों की जांच रपट पेश कर दी है। इस रपट में बताया गया है कि एटीएस द्वारा गिरफ़तार आज़मगढ़ के हकीम तारिक़ क़ासमी और जौनपुर के खालिद मुजाहिद को पकड़ना सरासर गलत था। जस्टिस नमेश ने इन दोनों को बेकसूर बताया है। उन्होंने साथ ही एटीएस की इस कार्यवाही पर उसके खिलाफ कार्यवाही की मांग भी की है। अब देखना यह है कि अखिलेश सरकार आंध्रा सरकार की तरह बिना शर्त बेकसूर लोगों से माफी मांगकर उनको मुआवज़ा देने के साथ एटीएस के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करती है या वह भी इसका मनोबल गिरने का पुराना बहाना दोहराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है?
   1984 मंे पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस सरकार के रहते हुए सिखों के क़त्ले आम का मामला हो या गुजरात में मोदी की भाजपा सरकार की देखरेख मंे हुआ मुसलमानों का क़त्ले आम हो सरकारें किसी की मसीहा नहीं होती।
 0 न इधर उधर की बात कर यह बता काफिला क्यों लुटा,

    मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है ।।

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