मलाला को मुस्लिम सपोर्ट तालिबानी सोच
के अंत की शुरूआत ?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया का
बहुमत कट्टरपंथ के खिलाफ़!
पाकिस्तान की बहादुर बच्ची मलाला यूसुफज़ई की जान तालिबान के जानलेवा हमले
के बाद बच गयी यह अपने आप में एक लड़की का ज़िंदा रहना या मर जाना ही नहीं है बल्कि
यह बराबरी की एक सोच का दूसरी कट्टर सोच पर जीत का एतिहासिक मोड़ है। अब तक यह माना
जाता था कि तालिबान जैसे कट्टरपंथी जो कुछ कर रहे हैं उसको पाकिस्तान और वहां की
जनता का सपोर्ट हासिल है लेकिन मलाला के मामले ने यह साबित कर दिया है कि अब
तालिबान का अंतिम समय आ गया है। मलाला को अंतर्राष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार तो
मिल चुका है अब उसको नोबल शांति पुरस्कार दिलाने की पूरी दुनिया में जोरदार आवाज़
बुलंद होने लगी है। मलाला को नोबल प्राइज़ दिलाने के अभियान को कामयाब बनाने के
लिये अब तक विश्व के दस हज़ार से ज़्यादा जाने माने लोग ऑनलाइन हस्ताक्षर कर चुके
हैं।
15 अक्तूबर को इलाज के लिये बकिंघम आने
के बाद से उसे सात हज़ार से अधिक शुभचिंतकों ने अस्पताल के संदेशपट पर दुआएं दी
हैं। आज उसके हौंसले को पूरी दुनिया सलाम कर रही है। मलाला अपनी हिम्मत और समझ
दिखाने की शुरूआत गुलमकई के नाम से बीबीसी रेडियो पर डायरी लिखकर कर चुकी थी अब जब
उस पर पढ़ने की ज़िद के कारण तालिबान ने जानलेवा कायराना हमला किया तो उसकी बहादुरी
का लोहा पूरी दुनिया ने माना है। उसके पिता ज़ियाउद्दीन यूसुफज़ई पहले ही लड़कियों का
एक स्कूल चलाते रहे हैं। हालांकि पूरी दुनिया में मलाला पर तालिबानी हमले की निंदा
होने से तालिबानी हमलावर की बहन ने मलाला और उसके परिवार से अपने भाई की करतूत के
लिये माफी मांगकर यह साफ कर दिया है कि वह और उसका परिवार लड़कियों की तालीम के
खिलाफ क़तई नहीं है।
उधर तालिबान को यह चिंता सता रही है कि
जिस सोच को वह यह सोचकर लागू कर रहा था कि इसे ना सिर्फ पाकिस्तान बल्कि पूरी
दुनिया के मुसलमान अमल में लाना चाहते हैं उसके खिलाफ खुद पाकिस्तान के लोग उठ खड़े
हुए हैं। तालिबान चाहता है कि मुस्लिम औरतें केवल घर की चारदीवारी में रहकर बच्चे
पैदा करने की मशीन बनी रहें और पूरी तरह पर्दे में रहें और हद यह है कि उनकी आवाज़
और हाथ पांव भी घर आये पराये मर्द को सुनाई और दिखाई ना दें। अगर बेहद मजबूरी हो
तो घर की औरत को चाहिये कि वह दरवाज़े पर खड़े गैर मर्द को इतने कर्कश और तल्ख़ लहजे
में सवाल का जवाब दे जिससे सामने वाले का आकर्षण उसकी तरफ धोखे से भी ना हो।
तालिबान का मानना है कि औरत और मर्द एक
दूसरे को देखते ही और मिलते ही बातचीत के बाद फौरन बाद सैक्स की तरफ बढ़ सकते हैं
जैसे वे इंसान ना होकर जानवर हों जबकि जानवर भी हमेशा ऐसा नहीं करते बल्कि उनका इस
काम के लिये एक खा़स वक़्त और सीज़न व मूड होता है। अरब में औरत को आज भी कमोबेश
इसी तरह बांधकर रखे जाने का रिवाज रहा है लेकिन वहां भी अब इसमें उदारता बरती जा
रही है। वहां पहली बार एक महिला का मंत्री बनाया गया है और एक होटल केवल औरतों के
लिये ही बनाया जा रहा है। आगे एक पूरा शहर भी वहां उनके लिये अलग से बसाये जाने का
विचार चल रहा है। इतिहास में पहली बार अरब की महिलायें पर्दे में ही सही खेल में शरीक
हो सकी हैं। भविष्य में उनको पालिका चुनाव में वोट का हक भी दिया जाने वाला है।
दरअसल एक दौर था जब पाक में जनरल ज़िया उल हक़ और जमाते इस्लामी ने मिलकर
कट्टरता फैलाई जिससे तालिबान नाम का जिन्न बोतल से बाहर आया। अगर इतिहास देखा जाये
तो भारत में भी हिंदूवादी और जातिवादी लिंगभेद वाला ढांचा कट्टरपंथी स्थापित करना
चाहते रहे हैं लेकिन भारत की उदार और शांतिपसंद हिंदू जनता के बहुमत ने ही इस
विचार को कभी निर्णायक महत्व नहीं दिया। इतना ही नहीं हमारे देश में भी मलाला की
तरह सावित्री बाई फुले ने जब पहला स्कूल लड़कियों के लिये खोला तो उनको ज़बरदस्त
विरोध का सामना करना पड़ा। उसी तरह बंगाल की रास सुंदरी देवी को भी छिप छिपकर पढ़ना
पड़ा। उस ज़माने में लड़कियों का छपे पन्ने छूना भी पाप माना जाता था। उन्होंने अपनी
आत्मकथा आमार जीवन में लिखा है कि जब घर के पुरूष काम पर चले जाते थे वो पुराने
अख़बारों से पढ़ना सीखती थीं।
ऐसे ही पंडिता रमाबाई और आनंदी गोपाल ने भी तमाम
संघर्षों के बाद अपनी पढ़ने लिखने की इच्छा पूरी की थी। कुछ लोग यह भ्रम पाले हैं
कि हिंदू और मुसलमान ही इस मामले में महिला शिक्षा के खिलाफ दकियानूसी रूख़ अपनाते
रहे हैं जबकि खुद अमेरिका में कट्टरपंथी इसाइयों ने बाक़ायदा दस पुस्तकों का एक सैट
‘फंडामेंटल्स’ छापकर उसमें दावा किया था कि बाइबिल में
महिलाओं और मज़दूरों को बराबर अधिकार नहीं दिये गये हैं। फंडामंेटल शब्द इसके बाद
ही कट्टरपंथियों के लिये इस्तेमाल होना शुरू हुआ है। ऐसे ही साम्राज्यवाद के दौर
में महिलाओं को समान अधिकार देने से सदा मना किया गया। हिटलर के दौर का अध्ययन
करके इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। पाकिस्तान में तालिबान का जहां तक सवाल है, इसका इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है।
आज अमेरिका और पाकिस्तान जिस तालिबान को
ख़त्म करने के लिये ज़मीन आसमान एक कर रहा है उस तालिबान को पैदा करने से लेकर खाद
पानी देने तक में ये दोनों ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं। जब अफ़गानिस्तान में रूस
ने घुसपैठ की तो अमेरिका ने पाकिस्तान के ज़रिये रूस को वहां से बेदख़ल करने के
लिये जो कुछ किया उसकी देन तालिबान हैै। रूस तो अफ़गानिस्तान से चला गया और तालिबान
ने रूस के पिट्ठू राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को काबुल के सबसे व्यस्त चौराहे के
लैम्पपोस्ट से लटकाकर फांसी दे दी थी, लेकिन तालिबान का जिन्न बोतल से बाहर ही खुला छोड़कर अमेरिका
ने भी अपना मिशन पूरा मान लिया।
नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान ने पहले
तालिबान को कश्मीर मामले में भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया लेकिन जब कामयाबी नहीं
मिली और रूस के बिखर जाने से भारत अमेरिकी गुट में शरीक हो गया तो पाकिस्तान पर
भारत के मामले में तालिबान का इस्तेमाल ना करने का दबाव बढ़ गया। इसके बाद मुहल्ले
के गंुडे और घर के दादा की तरह वही हुआ जिसका डर था कि तालिबान ने ना केवल अमेरिका
बल्कि अपने ही देश की सरकार के खिलाफ
हथियार उठा लिये। तालिबान का दावा है कि अमेरिका के इशारे पर नाचने वाली पाक सरकार
दरअसल इस्लाम की दुश्मन है जिससे पहले उसे ही सबक सिखाना होगा। तालिबान ने धीरे
धीरे पाकिस्तान के स्वात सहित उन इलाकोें में कब्ज़ा जमाया जहां पाक सरकार पहले ही
कमज़ोर थी।
उसने वहां की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर
भुट्टो ही नहीं एक मंत्री शहबाज़ भट्टी एक गवर्नर सलमान तासीर को भी चलते फिरते मौत
की नींद सुला दिया और वज़ीरिस्तान सहित कई इलाकों में आज पाकिस्तान की पुलिस तो
क्या फौज तक घुसते हुए डरती है इसकी वजह यह है कि यहां लंबे समय से तालिबान ने
जड़ें जमा लीं हैं। तालिबान को जमाते इस्लामी के मुखिया मौलाना फ़ज़लुर्रहमान जैसे
कट्टरपंथी राजनीतिकों का संरक्षण प्राप्त रहा है इसीलिये मलाला के मामले को जमात
ने पश्चिमी ताक़तों और भारत का दुष्प्रचार बताकर अप्रत्यक्ष रूप से तालिबान का
बेशर्मी से बचाव किया है। हालत यह है कि तहरीके इंसाफ पार्टी तक ने मलाला पर हमले
की निंदा तो की लेकिन साथ साथ इस मामले को चालाकी से अमेरिका के ड्रोन हमलों से
जोड़कर तालिबान के प्रति अपनी छिपी हमदर्दी का इज़हार भी कर दिया।
सच तो यह है कि तालिबान यह हकीकत अच्छी
तरह से जानता है कि अगर लड़कियों को स्कूल जाने से नहीं रोका गया तो वे हर क्षेत्र
में लड़कों की बराबरी करना शुरू कर देंगी और ऐसा करने से तालिबान की साम्राज्यवादी
सोच और सपने के टूटने का ख़तरा पैदा हो जायेगा। तालिबानी सोच ने ही किसी मुस्लिम
देेश की पहली बार पीएम बनी बेनज़ीर भुट्टो का एक के बाद एक फ़तवा जारी कराके हर हाल
में रोकना चाहा था लेकिन बेनज़ीर की दिलेरी और पश्चिमी देेशों के समर्थन से वे उनको
पद से हटा नहीं सके थे। आज अच्छी बात यही है कि माहौल बदला हुआ है और संयुक्त
राष्ट्र ने 10 नवंबर को हर साल मलाला दिवस मनाने का ऐलान करके तालिबान उन
मुसलमानों का हौंसला बढ़ा दिया है जो मलाला जैसी लड़कियों को लड़कों के बराबर शिक्षा
में ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अवसर देना चाहते हैं।
0जिन पत्थरों को हमने अता की थी धड़कनें,
जब बोलने लगे तो हम ही पर बरस पड़े।।
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