Friday, 31 January 2014

कोर्ट मीडिया से पुलिस पर लगाम

 कोर्ट-मीडिया न हों तो पुलिस जीना मुश्किल कर देगी !
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
पुलिस दमन पर सभी दलों की सरकारें एक सी क्यों हो जाती हैं ?
              4 जून 2011 को रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे योगगुरू बाबा रामदेव के समर्थकों के खिलाफ आधी रात को हुयी पुलिस कार्यवाही  को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनतंत्र विरोधी करार दिया जाना एक सुखद पहल माना जायेगा। हालांकि कोर्ट ने पुलिस को फटकार लगाने के साथ ही इस घटना के लिये कुछ हद तक बाबा को भी ज़िम्मेदार ठहराया है लेकिन सवाल यह है कि सोते हुए लोगों पर पुलिस कार्यवाही पर कोर्ट का सवाल उठाया जाना क्या हमारी सरकार के जनविरोधी रूख़ पर भी एक तमांचा नहीं समझा जाना चाहिये? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सच तो यह है कि हमारी पुलिस वही करती है जो हमारे राजनेता चाहते हैं।
    पुलिस सुधार के लिये कई आयोग बने उनकी रिपोर्ट भी आईं लेकिन आज वे कहां धूल चाट रही हैं किसी को नहीं पता। जब भी कोई पार्टी विपक्ष में होती है वह हमेशा इस बात की शिकायत करती है कि पुलिस सत्ताधारी दल की गुलाम बनकर काम करती है, जबकि उसको कानून के हिसाब से काम करना चाहिये। आश्चर्य की बात यह है कि जब वही विपक्षी दल सरकार बनाता है तो वह भी पहले की सरकार की तरह पुलिस का दुरूपयोग करता है। वह भी अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिये पुलिस का हर तरह से दुरूपयोग कर फर्जी केस से लेकर आंदोलन कुचलने के लिये बेक़सूर लोगों पर लाठीचार्ज से लेकर और झूठे एनकाउंटर कराने में भी उसको परेशानी नहीं होती।
    कुछ समय पहले ही तमिलनाडु के धर्मपुरी ज़िले की एक अदालत ने  215 सरकारी कर्मचारियों को आदिवासियों के साथ बर्बर अत्याचार के आरोप सही साबित होने के बाद कड़ी सज़ा सुनाई थी। इन सरकारी सेवकों में पुलिस, वन विभाग और राजस्व विभाग के अधिकारी भी शामिल हैं। यह मामला 1992 का है जिसमें कुल 269 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ पश्चिमी तमिलनाडु के वाचाती गांव के आदिवासियों के साथ रौंगटे खड़े करने वाले जुल्म की दास्तान सुनकर मद्रास हाईकोर्ट ने मुकदमा कायम करने का आदेश दिया था। हालांकि सरकार इस दौरान लगातार यह सफेद झूठ बोलती रही कि किसी के साथ कहीं कोई अत्याचार और अन्याय नहीं हुआ।
   दरअसल पुलिस, वन विभाग और राजस्व विभाग के सैकड़ों अधिकारियों और कर्मचारियों ने इस 655 लोगांे के छोटे से गांव पर यह मनगढ़ंत आरोप लगाकर भयंकर जुल्म ढाया था कि ये लोग कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं और चंदन की तस्करी का यह गांव गढ़ बताया गया था। पुलिस ने यहां छापे के दौरान गांववालों की न केवल बर्बर पिटाई की बल्कि पशु मार डाले, घर जलाये बल्कि 18 लड़कियों व महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक किये।
     पहले तो तमिलनाडु सरकार ने इन आरोपों को सिरे से झुठलाया लेकिन जब मामला स्वयंसेवी संस्थाओं और वामपंथी दलों द्वारा लगातार आंदोलन के बावजूद कानूनी कार्यवाही न होने से सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा तो पुलिस को इस मामले मंे सरकार के न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी। यह मामला मद्रास हाईकोर्ट ने ज़िला अदालत को सौंप दिया था। ज़िला न्यायधीश ने सारे आरोप सही पाये और आरोपियों को एक से दस साल की अलग अलग सज़ा सुनाई। इस निर्णय से एक बार फिर यह साबित हुआ कि अगर धैर्य और सुनियोजित तरीके से संघर्ष जारी रखा जाये तो आज नहीं तो कल शक्तिशाली लोगों को भी सज़ा दिलाई जा सकती है। इस गांव की कुल 655 की आबादी में 643 आदिवासी रहते हैं।
    इनमंे से 190 लोगांे के पास ज़मीन थी। शेष ग्रामीण मेहनत मज़दूरी करके अपना गुजारा करते हैं। उनका कसूर इतना था कि ये लोग रोज़गार के रूप में जंगल से जड़ी बूटियां और लकड़ी भी एकत्र कर लेते थे। 20 जून 1992 का दिन इन लोगों के लिये क़यामत का दिन बन गया। गांववाले आज भी उस मुसीबत के दिन को याद करके सिहर उठते हैं, जब 269 पुलिस, वन और राजस्व विभाग के लोगों ने इस छोटे से गांव पर विदेशी फौज की तरह हमला किया था। उनका दावा था कि गांववालों ने चंदन की लकड़ी गांव के आसपास कहीं छिपा रखी है।
    कुछ दिन बाद सरकारी अमले ने 62.7 टन चंदन की लकड़ी पास की एक नदी के रेत के नीचे से बरामद करने का अनोखा झूठ और बोला जबकि गांववालों के पास से न तो लकड़ी काटने के आरे और कुल्हाड़ी मिली और न ही जंगल और पहाड़ियों से इतनी भारी मात्रा में लकड़ी ढो कर नदी तक लाने के संसाधन ही बरामद हुए। इसके बावजूद पुलिस और अन्य सरकारी कर्मचारियों ने न केवल तीन दिन इस गांव पर कहर बरपा किया बल्कि 76 महिलाओं और 15 पुरूषों को जेल भी भेज दिया। यह घटना तमिलनाडु के आदिवासी संगठन के मंत्री को जब वाचाती के पड़ौस के गांव का दौरा करने दौरान पता चली तो उन्होंने यह जानकारी माकपा के प्रदेश सचिव को दी।
   जब माकपा सचिव ने यह शिकायत तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिलकर की तो उन्होंने ऐसी किसी घटना से ही दो टूक इन्कार कर दिया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और ज़िला न्यायालय में झूलने के बाद 1995 में जब सीबीआई के पास पहंुचा तब दूध का दूध पानी का पानी हुआ। बीती 14 सितंबर को कांग्रेस शासित राजस्थान के भरतपुर ज़िले के गोपालगढ़ में पुलिस ने ज़मीन के एक मामूली विवाद को लेकर दो सौ राउंड गोली चलाकर 9 लोगों को मौत के घाट उतार दिया और 22 को इतनी बुरी तरह घायल कर दिया कि वे अस्पताल में मौत और जिं़दगी के बीच झूल रहे हैं।
    एक चर्चित मामले में ऐसे ही 19 सितंबर 2008 को दिल्ली के बटला हाउस में पुलिस के साथ हुयी मुठभेड़ में वास्तव में हुआ क्या था? आपको याद दिलादें कि इस एंकाउंटर मंे मारे गये दो संदिग्ध युवकों आतिफ़ अमीन और मौ0 साजिद का सम्बंध यूपी के आज़मगढ़ के संजरपुर गांव से हैं। पुलिस का दावा रहा है कि ये दोनों आतंकवादी थे और इनका तआल्लुक़ इंडियन मुजाहिदीन से था। पुलिस इनके तार 13 सितंबर 2008 के दिल्ली बम विस्फोट से भी जोड़ती रही है। इस मुठभेड़ में एक पुलिस इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा भी शहीद हो गये थे। आज तक यह भी रहस्य ही बना हुआ है कि शर्मा की शहादत कैसे हुयी?
    जब तक इस मामले की निष्पक्ष जांच न हो जाये यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि यह मुठभेड़ फर्जी थी लेकिन यह भी सच है कि हमारी पुलिस की विश्वसनीयता भी इतनी अधिक नहीं है कि उसके इस दावे को जैसा का तैसा मान लिया जाये कि मरने वाले दोनों युवक आतंकवादी ही थे। सब जानते हैं कि हमारी पुलिस अकसर किस तरह की मुठभेड़ें करती है और उनमंे से कितनी सच्ची होती हैं और कितनी झूठी? जहां तक सरकार के रिकार्ड का सवाल है उसके हिसाब से यह नहीं माना जा सकता कि वह ऐसे मामलों को दबाने का प्रयास नहीं करती। इस मामले में कांग्रेस नेता और मंत्री विरोधाभासी बयान देते रहे हैं।
पुलिस सुधारों के लिये सरकार लंबे समय से दावे करती रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के लगातार निगरानी करने के बावजूद अब तक कुछ भी ठोस बदलाव नहीं हो पाये है।
    अब कहा जा रहा है कि पुलिस को आंदोलनकारियों पर सीधे लाठीचार्ज या गोली ना चलाकर विकसित देशों की तरह अन्य कम नुकसान वाले विकल्प अपनाने चाहिये। बताया जाता है कि भीड़ को काबू करने के लिये अब यूपी पुलिस ऐसे हथियार ख़रीदने जा रही है जिनसे लोग मौके से भागने को मजबूर हो जायेंगे। इनमें एलर्जी बमभी शामिल है। जब यह एलर्जी बम विस्फोट करेगा तो इससे निकलने वाली गैस से लोग छींक छींक कर आधे घंटे तक इतने बेहाल हो जायेंगे कि पुलिस को उनको वहां से हटाने के लिये बल प्रयोग नहीं करना पड़ेगा। ऐसे ही टेसर गनजब चलेगी तो इससे कोई मरेगा तो नहीं लेकिन बेहोश ज़रूर हो जायेगा और पेपर बॉल गनके चलाये जाने से कोई गोली तो नहीं निकलेगी अलबत्ता इससे वातावरण में ऐसा मिर्च पॉवडर फैल जायेगा कि लोग बचाव के लिये खुद ही भाग खड़े हांेगे।
   इसी तरह रबड़ बॉल लांचर से गंेद के आकार की ऐसी गोलियां हवा में उछलेंगी कि इनके लगने से लोग घायल तो नहीं होंगे लेकिन इनकी तीखी मार से इतना तेज़ दर्द होगा कि उपद्रवी वहां से दूर जाना ही बेहतर समझेंगे। हालांकि पुलिस अब तक पानी की तेज़ बौछार का लाठीचार्ज और फायरिंग से पहले सहारा लेती रही है लेकिन इसका इस्तेमाल सब जगह न होने और असरदार उपाय न माने जाने से शिकायतें बढ़ती ही जा रही हैं।
   0खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते,
    कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।
    शराफतों की यहां कोई अहमियत ही नहीं,

    किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है ।।

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