Sunday, 26 January 2014

सिर्फ क़ानून नहीं समाज भी बदले!

रेपःकानून व्यवस्था ही नहीं समाज को भी बदलने की ज़रूरत है!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0लड़कियों के साथ पक्षपात घर से ही ख़त्म करना शुरू करें?
     बलात्कार के कुल मामलों में 94.2 प्रतिशत बलात्कारी परिचित होते हैं। इसका मतलब यह है कि लड़की अपनों के बीच ही सुरक्षित नहीं है।  अकसर ख़बरें आती रहती हैं कि लड़की के साथ उसके बाप, भाई, पड़ौसी, रिश्तेदार, गुरू, दोस्त और अपने ही घर के नौकर व ड्राइवर ने ज़बरदस्ती जिस्मानी रिश्ते बना लिये। सवाल यह है कि लड़की अगर अपनों के बीच ही कभी भी शिकार बन सकती है तो वह कानून से भी पूरी तरह कैसे हिफाज़त हासिल कर सकती है। विडंबना यह है कि कई बार बलात्कार पीड़ित युवती या महिला जब थाने गयी तो एक बार फिर उसके साथ पुलिस ने बलात्कार किया। उसके बाद जब मुकद्मा अदालत में चलता है तो उससे ऐसे ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि मानसिक रूप से एक बार फिर उसे उन्हीं लम्हों से गुज़रना पड़ता है जिनसे वह बलात्कार के दौरान गुज़री होती है।
अगर गौर से देखें तो आप पायेंगे कि लड़की के साथ पैदा होने से पहले ही पक्षपात और अन्याय शुरू हो जाता है। मिसाल के तौर पर कन्याभू्रण हत्या एक ऐसा मामला है जिसमें खुद कन्या के माता पिता उसकी हत्या केवल इसलिये कराते हैं कि वह लिंगभेद कर रहे होते हैं। कुछ क्षेत्रों में कन्या के जन्म लेते ही मार देने की परंपरा आज भी मौजूद है। इसके बाद लड़का और लड़की में खाने पीने से लेकर बोलने, चलने, हंसने, नाचने गाने, कपड़े पहनने, बाहर घूमने जाने, शिक्षा लेने, शौक पूरे करने, गाली देने मारने पीटने और उसके बाद शादी करने को लेकर जमकर पक्षपात होता है। इतना ही नहीं कुछ लोग लड़कों को इंग्लिश मीडियम तो लड़की को हिंदी मीडियम के स्कूल में पढ़ाते हैं। उसको महंगी प्रोफेशनल एजुकेशन भी नहीं दिलाई जाती क्योंकि वह पराया धन समझी जाती है।
इसके साथ ही कभी वह बेटी, बहन और मां होकर पुरूष पर निर्भर करती है तो कभी पत्नी बनकर सात जन्मों के लिये किसी दूसरे मर्द के पल्लू से मरने जीने के लिये बांध दी जाती है। सती प्रथा बहुत पुरानी बात नहीं है। लिंगभेद पर आधारित खाप पंचायतों के फैसले देश में खूब चर्चा में आते रहते हैं लेकिन वोटबैंक के लालची हमारे नेता देश को बर्बर युग में ले जाने में कोई बुराई नहीं समझते। ऐसे ही स्त्री विरोधी फतवे आयेदिन आते रहते हैं लेकिन कट्टरपंथियों के डर से सबने अपराधिक चुप्पी साध रखी है। हमारी जिस सभ्यता संस्कृति और सभी धर्मों की खूब दुहाई दी जाती है लेकिन हमारी कई परंपरायें दिखावा और ढोंग से अधिक कुछ नहीं है। एक तरफ मां के पांव तले जन्नत बताते हैं दूसरी तरफ उसी मां को बेटे भूखा बेसहारा तिल तिल मरने को उसके हाल पर छोड़ देते हैं।
एक तरफ महिला को देवी मानकर पूजा जाता है दूसरी तरफ उसकी दहेज़ के लिये हत्या और बलात्कार आम बात है। अगर कानून सख़्त बन भी जाये और बलात्कार के आरोपी को फांसी और नपंुसक बनाने का फैसला लागू कर भी दिया जाये तो क्या घर घर गली गली मुहल्ले मुहल्ले पुलिस तैनात की जा सकती है? बलात्कारी के हिमायती और रिश्वत खाने वाले नेता, पुलिस, डाक्टर और वकील का क्या किया जायेगा जिसका पता ही नहीं चलता कि वह ओरोपी से हमसाज़ हो चुके हैं। पूरा समाज बलात्कारी के बजाये बलात्कार पीड़ित लड़की से नफरत क्यों करने लगता है? उसका नाम स्कूल से क्यों काटा जाता है? उसको नौकरी से क्यों निकाला जाता है? उसका पति उसे कुलटा बताकर क्यों छोड़ देता है? जबरन उसके साथ किसी के यौन सम्बंध बनाने से उसकी इज्ज़त कैसे चली जाती है?
बलात्कार करने वाला शर्मिंदा क्यों नहीं होता? उसकी पत्नी और परिवार उसको क्यों नहीं छोड़ देते? उसकी होने वाली शादी क्यों नहीं रूक जाती? उसके भाइयों को समाज शक की निगाह से क्यों नहीं ेदेखता कि शायद यह भी कल किसी से बलात्कार कर सकता है? हम बेटी को शादी के बाद यह समझाकर भेजते हैं कि वह अपने पति का दिल जीतकर ससुराल में राज करे और घर में आने वाली बहु से यह उम्मीद करते हैं कि वह हमारे संयुक्त परिवार में घुलमिलकर रहे,अलग होने की बात भी ना सोचे? ये दो पैमाने कैसे चल सकते हैं? दिल्ली गैंगरेप के बाद पूरे देश में यह आम राय बनती जा रही है कि बलात्कार की सज़ा सात साल या उम्रकैद ना होकर फांसी या अपराधी को रसायनिक तरीके से नपंुसक बनाने की होनी चाहिये।
मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि जब तक हमारी पूरी व्यवस्था ईमानदार और ज़िम्मेदार नहीं बन जाती तब तक सज़ा को सख़्त करना ना केवल बेकार होगा बल्कि उसका दुरूपयोग होने से यह ख़तरा और बढ़ जायेगा कि बदले की भावना से दहेज़ एक्ट और दलित एक्ट की तरह एक नई समस्या सामने आयेगी लेकिन चूंकि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं जिससे देश का बहुमत अगर ऐसा ही चाहता है तो हमारे नेता वोटों के चक्कर में मंदिर मस्जिद विवाद और शाहबानों केस की तरह हम जानते हैं ऐसा करके ही दम लेंगे। अभी इस कानून के बनने में मानवाधिकारवादी ज़रूर रुकावटें पैदा कर सकते हैं।
जहां वे दुनिया के अधिकांश देशों में फांसी की सज़ा ख़त्म होने का तर्क जोरशोर से सबके सामने रखेंगे वहीं बलात्कार के अपराधी को रसायनिक रूप से नपुंसक बनाने को वे यह कहकर रोकने का प्रयास करेंगे कि ऐसे में अगर आरोपी की हाल फिलहाल में शादी हुयी हो और उसके बच्चे भी पैदा ना हुए हों तो यह सज़ा उसकी पत्नी को भी मिलेगी जिसका कोई कसूर नहीं है। इसका जवाब यह भी दिया जा सकता है कि अगर अपराधी को फांसी चढ़ा दिया जाता या उम्रकैद की सज़ा मिलती तो भी उसकी पत्नी को यौनसुख या बच्चे पैदा करने से वंचित रहना ही था लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठेगा कि बलात्कार के बाद किसी को नपंुसक बनाने से उसे तो शारिरिक के साथ ही मानसिक सज़ा मिलेगी ही लेकिन उसके परिवार को भी समाज में अपमान और उपेक्षा का सामना करना होगा।
इसके साथ ही राजनीतिक या ज़मीन जायदाद के मामलों में इस कानून का दुरूपयोग कैसे रोका जायेगा इस बारे में किसी के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है। इस सच को हमें नज़र में रखना होगा कि हमारा देश तेज़ी से कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल अपनाता जा रहा है जिससे यूरूपीय तकनीक के साथ उनकी सभ्यता और संस्कृति भी हमारे देश में पांव पसार रही है। लिव इन रिलेशनशिप, पोर्न साइटें देखना, डेटिंग, चैटिंग और शादी से पहले सैक्स को बुरा ना मानना इस सोच का एक हिस्सा है। ऐसे में सवाल यह भी उठेगा कि अगर कोई लड़की या महिला अपने पुरूष मित्र के साथ अपनी मर्जी से या किसी षड्यंत्र के तहत योजना के अनुसार जिस्मानी रिश्ते बनाती है और फिर उस व्यक्ति को बलात्कार का आरोप लगाकर ब्लैकमेल करती है तो या तो वह जिं़दगीभर उसके इशारों पर नाचता रहे या फिर फांसी और नपुंसक बनने को तैयार रहे।
इससे एक सकारात्मक बदलाव यह भी आ सकता है कि कोई भी मर्द अपनी पत्नी के अलावा किसी भी औरत से सैक्स करने से पहले दस बार सोचेगा। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाले हमारे कुछ मित्र दावा करेंगे कि जो ऐसा करेगा वह भरेगा, मतलब विदेशी तौर तरीकों को अपना ही क्यों रहे हो? हमारा कहना है कि यह संभव नहीं हो सकता कि आप विदेश की तकनीक, फैशन और तौर तरीकों को अपनायें और उसके दुष्प्रभाव से बच जायें। यह तो ऐसा ही है जैसे गुड़ खायेंगे तो गुलगुलों से परहेज़ कैसे रख सकते हैं। हमें अपनी सोच और मानसिकता को बदलना होगा।
0 बदनज़र उठने ही वाली थी किसी गै़र की जानिब,

 अपनी बेटी का ख़याल आया तो दिल कांप गया।

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