Sunday, 26 January 2014

बीजेपी अपनी सोच बदले ...

बीजेपी अपनी सोच बदले तो बदल सकते हैं राजनीतिक समीकरण?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0उसको केवल मुसलमान ही नहीं बहुसंख्यक हिंदू भी नहीं चाहता!
       गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने मुस्लिम समुदाय की दस धर्मिक जमातों ने यह प्रस्ताव रखा है कि अगर वह गुजरात के दंगों को लेकर माफी मांगलंे या खेद ही व्यक्त करदें तो उनको सपोर्ट करने के बारे में सोचा जा सकता है। इन संस्थाओं में जमीयत उलेमा, जमाते इस्लामी  और ऑल इंडिया शिया कांफ्रेंस आदि शामिल हैं। ज्वाइंट कमैटी ऑफ मुस्लिम ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इंपॉवरमेंट नाम की इन दस तंजीमों की संयुक्त कमैटी का चेयरमैन सैयद शहाबुद्दीन को बनाया गया है। उनका मानना है कि मुसलमानों को लेकर मोदी की सोच में अब बदलाव आ रहा है। इसका एक कारण 2002 के बाद वहां कोई दंगा ना होना और गुजरात के थानों में मुसलमानों की आबादी से एक प्रतिशत अधिक नियुक्ति होना भी माना जा रहा है।
शहाबुद्दीन की मांग है कि अगर भाजपा मुसलमानों को लेकर वास्तव मंे गंभीर है तो 20 ऐसी विधानसभा सीटों पर चुनाव में मुसलमानों को टिकट दिया जाना चाहिये जहां मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत तक है। हालांकि दंगों के लिये माफी मांगने या खेद जताने के इस प्रस्ताव पर भी सारा मुस्लिम समुदाय एकमत नहीं है लेकिन यह एक अच्छी शुरूआत हो सकती है। दरअसल राजनीति के जानकार दावा करते हैं कि मोदी ऐसा कभी नहीं करेंगे क्योंकि ऐसा करने से उनका कट्टरपंथी हिंदू समर्थक उनसे नाराज़ हो जायेगा। उनका कहना है कि यह पेशकश इसलिये भी स्वीकार नहीं होगी क्योंकि भाजपा पर आरएसएस का नियंत्रण है और वह किसी कीमत पर नहीं चाहेगी कि जो काम वह अपनी सोची समझी नीति के हिसाब से कर रही है उससे मोदी ज़रा भी पीछे हटें।
समस्या यह आ रही है कि मोदी भले ही गुजरात में चुनाव जीतकर एक बार फिर से वहां सरकार बना लें लेकिन उनका पीएम बनने का सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वे ना केवल सेकुलर हिंदू बल्कि मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को अपने समर्थन में ना खड़ा करलें। हालांकि इस मुद्दे पर पूर्व सपा नेता और उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार शाहिद सिद्दीकी की मोदी से इंटरव्यू लेेेेकर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा करने से पहले ही सपा से छुट्टी हो चुकी है। आज शाहिद का कोई नाम लेने वाला भी नहीं है। उनका क़सूर केवल इतना था कि उन्होंने एक सुनियोजित साक्षात्कार में मोदी के इस दावे को हाईलाइट किया था कि उन्होंने गुजरात के दंगों में कोई भूमिका नहीं निभाई यहां तक कि दंगे रोकने में किसी तरह की कोई कोताही भी नहीं की।
मोदी का कहना था कि अगर यह साबित हो जाये कि दंगों में उनका हाथ किसी भी प्रकार से था तो उनको फांसी पर चढ़ा दिया जाये केवल माफी मंगवाकर ना छोड़ा जाये। दंगों में मोदी की कसूरवार छवि के कारण ही मीडिया से लेकर गैर भाजपाई दल ही नहीं अमेरिका और यूरूप तक उनसे दूर रहना चाहते हैं। हालत यह है कि अमेरिका तो आज तक मोदी को अपने देश में आने की वीज़ा तक देने को तैयार नहीं है। कोर्ट, नानावटी आयोग और एसआईटी से क्लीनचिट मिलना मोदी के दूध का धुला होना उनके विरोधी मानने को तैयार नहीं हैैं। सवाल अकेला यह नहीं है कि मोदी गुजरात के दंगों के लिये गल्ती मानते हैं कि नहीं बल्कि यह है कि भाजपा अपनी मुस्लिम विरोधी सोच को बदलती है कि नहीं।
सबको पता है कि भाजपा राममंदिर, मुस्लिम पर्सनल लॉ, अल्पसंख्यक आयोग, कश्मीर की धारा 370, वंदे मातरम, मुस्लिम यूनिवर्सिटी, हिंदू राष्ट्र, धर्मनिर्पेक्षता और आतंकवाद को लेकर विवादास्पद राय रखती है। इसी साम्प्रदायिक सोच का नतीजा है कि वह आतंकवादी घटनाओं में पकड़े गये बेक़सूर नौजवानों को आयोग द्वारा जांच के बाद भी रिहा करने के सरकार के प्रयासों का जोरदार विरोध करती है। वह सबको भारतीय ना मानकर हिंदू मानने की ज़िद करती है। वह दलितों के आरक्षण में मुसलमान दलितों को कोटा देनेेेे या पिछड़ों के कोेटे में से अल्पसंख्यकों को कोटा तय करने या सीधे मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने का विरोध करती है जबकि सच्चर कमैटी की रिपोर्ट चीख़ चीख़कर मुसलमानों की दयनीय स्थिति बयान कर रही है। भाजपा के नियंत्रणकर्ता आरएसएस के गुरू गोलवालकर के विचार ‘‘बंच ऑपफ थॉट्स’’ में धर्म के आधार पर देशभक्ति का निर्धारण तक किया गया है।
भाजपा से हिंदूवादी राजनीति को छोड़ने की आशा करना ठीक ऐसा ही होगा जैसे किसी बार के संचालक से वहां शराब ना पिलाने की मांग करना या नाई से अपनी दुकान में बाल काटने से परहेज़ करने की अपील करना। इतिहास गवाह है कि 1984 में भाजपा लोकसभा की मात्र 2 सीटों तक सिमट कर रह गयी थी लेकिन हिंदूवादी राजनीति करने के लिये जब उसने रामजन्मभूमि विवाद को हवा दी तो वह दो से सीधे 88 सीटों पर जा पहुंची। इसके बाद उसने उग्र हिंदूवाद  की लाइन पकड़कर पार्टी को डेढ़ सौ सीटों तक पहुंचा दिया। उसकी कई राज्यों में सरकारें भी इसी हिंदूवादी अभियान का पुरस्कार मानी जाती है। हालांकि इसका श्रेय एल के आडवाणी जी को दिया जाता है लेकिन यह भी सच है कि उदारवादी समझे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही राजग की पहली साझा सरकार बनना संभव हुआ।
इसमें भी भाजपा को अपने तीन बड़े मुद्दे राममंदिर, कश्मीर की धारा 370 और कॉमन सिविल कोड ठंडे बस्ते में रखने की शर्त पर सहयोगी घटक मिल सके थे। उसके बाद से दो चुनाव हो चुके हैं देश ने ना तो आडवाणी जी का नेतृत्व और ना ही भाजपा का कट्टर हिंदुत्व स्वीकार किया है। एक बार सत्ता में आकर भाजपा ने अपना चाल चरित्र और चेहरा ऐसा दिखाया कि उसके कट्टर समर्थक भी उसकी कथनी करनी में भारी अंतर देखकर दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर हो गये थे। आज मुसलमान ही नहीं हिंदुओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा की कथनी करनी में भारी अंतर और भ्रष्टाचार से आहत होकर उसका विरोध करता है जिससे कांग्रेस के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगने के बावजूद यूपीए सरकार का विकल्प एनडीए बनता नज़र नहीं आ रहा है।
अब हालत यह हो चुकी है कि जो भाजपा का साथ देता है सेकुलर जनता अगले चुनाव में उसको भी सबक सिखा देती है जिससे एनडीए के घटक सहमे हुए हैं। अगर आडवाणी के नेतृत्व में राजग की सरकार दो बार चुनाव होने पर भी नहीं बन सकी है तो मोदी के नेतृत्व में वह कैसे बन सकती है यह सोचने की बात है। आज गुजरात में मोदी भले ही दावा करते हों कि वह बिना किसी पक्षपात के सबका विकास कर रहे हैं लेकिन मीडिया रिपोर्टें बार बार बता रही हैं कि 2002 के दंगों में जो कुछ हुआ था उसके पीड़ितों का ना तो आज तक ईमानदारी से पुनर्वास किया गया है और ना ही उनको केंद्र सरकार तक से मिलने वाली सहायता राशि दी जा रही है। इसके साथ ही उनको बीमा कम्पनी तक से दंगों में हुए नुकसान का हर्जाना तक लेने में बाधायें खड़ी की जा रही हैं।
जो लोग दंगों के दौरान अपना सबकुछ छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर चले गये थे उनको अपने पुश्तैनी स्थानों पर आज तक वापस नहीं आने दिया जा रहा है। सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है कि जिन्होंने दंगे किये थे उनमें से सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनी विशेष निगरानी में लेकर सुने गये दो चार बड़े मामलों को छोड़कर बाकी किसी केस में मोदी सरकार ने ना तो ईमानदार कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति दिखाई है और ना ही अपने आरोपी मंत्रियों को तब तक बाहर का रास्ता दिखाया जब तक कोर्ट ने ही उनको दोषी नहीं ठहरा दिया। मोदी ही नहीं भाजपा जब तक अपनी साम्प्रदायिक राजनीति छोड़कर सभी भारतीयोें के लिये ईमानदारी से भलाई का काम करना शुरू नहीं करती तब तक कांग्रेस की जगह क्षेत्रीय दल चुनाव में आगे आते जायेंगे, साथ ही अरविंद केजरीवाल और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भाजपा के ताबूत में एक और कील ठोक दी है।
भाजपा हिंदूवादी राजनीति को ना त्याग कर विवादास्पद गडकरी को अगर अपने दल के अध्यक्ष के पद पर बनाये रखती है तो उसकी सत्ता से बाहर रहने की आगामी चुनाव में हैट्रिक बननी तय है जिनको विश्वास ना आ रहा हो वे इस लेख की तारीख़ नोट करलें।   
  0अजीब लोग हैं क्या खूब मंुसफ़ी की है,
   हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदकशी की है।
   इसी लहू में तुम्हारा सफ़ीना डूबेगा,
   ये क़त्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।।

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