Sunday, 19 January 2014

हेल्मिट

हेल्मेट- हमें खुद अपनी जान की चिंता नहीं है तो कानून क्या करेगा?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 नाबालिगों को बाइक देना यानी बच्चो से प्यार नहीं दुश्मनी है!
  जो बच्चे अभी 18 साल के यानी बालिग भी नहीं हुए हैं, उनको उनके मांबाप लाड प्यार में बाइक दिलाकर उनकी जान तो ख़तरे मंे डाल ही रहे हैं साथ ही सड़क पर चलने वाले दूसरे लोगों की सुरक्षा को भी पूरा ख़तरा खड़ा कर रहे हैं। अजीब बात यह है कि बच्चे तो बच्चे टीनएज के आगे के लड़के भी ऐसे ही मोटरसाइकिल चलाना शुरू कर देते हैं। वे ना तो ड्राइविंग लाइसेंस लेते हैं और ना ही किसी बड़े से ट्रेफिक रूल जानना चाहते हैं। यहां तक कि वे वाहन चलाते हुए हेल्मेट तक लगाना गवाराह नहीं करते जिससे एक्सीडेंट होने पर उनकी जान को और ज्यादा ख़तरा रहता है। कुछ नौजवान 200 कि.मी. से अधिक की यात्रा दोपहिया वाहनों से करने में शान समझते हैं। एक टू व्हीलर व्हेकिल पर चार चार का बैठना आम बात हो चुकी है।
एक तो करेला और दूसरे नीम पर चढ़ने वाली कहावत वे उस समय आज़माते हैं जब हेल्मेट की बजाये मोबाइल से गीत संगीत सुनने को कानों में इयरफोन लगा कर मस्ती में सफर करते हैं। बाइक चलाते हुए मोबाइल पर बात करना या नम्बर मिलाना तो उनके बायंे हाथ का खेल है। इस दौरान कोई वाहन उनसे साइड लेने या ओवरटेक करने को चाहे जितना हॉर्न देता रहे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। कई बार झल्लाकर बड़े वाहन चालक इस लिये भी उनको ठोक देते हैं। इतना ही नहीं कई बार रेलवे क्रॉसिंग से गुज़रते हुए उनको ट्रेन की आवाज़ भी नहीं आती जिससे वे बाइक पर म्यूज़िक सुनने के चक्कर मंे  अपनी जान दांव पर लगा देते हैं।
सबसे हैरत और अफसोस की बात यह होती है कि जब ऐसे टीनएजर्स और बिगड़ैल बच्चे पुलिस के हत्थे यातायात नियम तोड़ते चढ़ जाते हैं तो या तो उनके परिवार वाले या कोई जनप्रतिनिधि उनका चालान काटने से रोककर उनको बिना कानूनी कार्यवाही के बचा लेता है, अब यह सोचने की बात है कि ऐसा करके उस बच्चे को भविष्य में होने वाले एक्सीडेंट में बेमौत मरने या जीवनभर के लिये अपाहिज होने के लिये मदद की जाती है या अभिषाप दिया जाता  है? जहां तक बड़ों का सवाल है वे भी वाहनों का रजिस्ट्रेशन, बीमा और प्रदूषण चैक कराना तो दूर हेल्मेट से अव्वल तो बचते हैं और अगर चालान से बचने को हेल्मेट लगाते भी हैं तो सस्ते से सस्ता ख़रीदते हैं जबकि उनको यह अहसास नहीं होता कि ऐसा करके वे चंद रूपये बचाने के चक्कर में अपनी बेशकीमती जान को ख़तरा पैदा कर रहे हैं।
पता नहीं कब हम अपने बारे मंे सोचेंगे??? हेलमेट निर्माताओं का कहना है कि भारत में बिकने वाले 85 फीसदी हेलमेट केवल इसलिये ख़रीदे जाते हैं क्योंकि वे सस्ते होते हैं और इसलिये लगाये जाते हैं क्योंकि इनके ना लगाने पर यातायात पुलिस चालान करती है। है ना अजीब बात कि हम हेलमेट इसलिये नहीं पहनते कि इससे हमें अपनी सुरक्षा करनी है। इसका नतीजा यह है कि अकसर महिलायें और बच्चे हेलमेट पहनते ही नहीं और हम लोग भी वहां हेलमेट नहीं पहनते जहां इसको चैक नहीं किया जाता। इतना ही नहीं जब दिल्ली की सीमा में प्रवेश करते हैं केवल तब ही हम कार में सफर करते समय सीट बैल्ट केवल इसलिये लगाते हैं क्योेंकि वहां की पुलिस इस मामले में सख़्त है। अगर ट्रेफिक पुलिस मौजूद ना हो तो रेड लाइट होने के बावजूद लोग पार करते रहते हैं।
इतना ही नहीं जिन नेशनल हाईवे पर गाड़ियां 100 कि.मी.  की स्पीड से भी अधिक तेज़ दौड़ती हैं उनपर भी लोग जल्दी और शॉर्टकट के चक्कर में लोगों की जान ख़तरे में डालने को गलत साइड से घुस आते हैं। और तो और वाहनों पर उनके मानक से अधिक लोड, सामान की लंबाई और सवारियों की तादाद भरना तो ऐसा लगता है कि कोई जुर्म है ही नहीं। यातायात नियमांे को तोड़ना और ऐसा करते समय किसी के टोकने पर उसका सर फोड़ना हमारे समाज में आम बात है। यातायात पुलिस हो या सिविल पुलिस कितना ही बड़ा मामला हो रिश्वत खाकर नियम कानून तोड़ने वालों को बचाने के लिये तैयार बैठी रहती है जिससे सिस्टम एक तरह से फेल होता नज़र आ रहा है।
बड़े बड़े रईसज़ादे तेज़ स्पीड से शराब के नशे मेें कार चलाकर अकसर रोड साइड पर सोते गरीब लोगों को बेमौत मार डालते हैं लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि केस लड़ने के लिये उनकी पास बेतहाशा पैसा होता है। हम वैसे तो विदेशों की नकल करते हैं लेकिन हमारे यहां ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना सबसे आसान है भले ही आप अंधे लूले या लंगड़े हों, जबकि दूसरे देशों में पासपोर्ट से भी कठिन काम डीएल बनवाना है। वहां एक बार लापरवाही से वाहन चलाने पर अगर डीएल कैंसिल हो जाये तो किसी कीमत पर दोबारा नहीं बन पाता है और हमारे यहां घर बैठे घूस देकर कई कई डीएल बन जाते हैं। इसी वजह से हमारे मुल्क में दुनिया की सबसे अधिक दुुर्घटनायें होती हैं जिनमें एक लाख से अधिक लोग बेमौत मारे जाते हैं। 35 लाख लोग घायल होते हैं। प्रति 1000 वाहनों पर भारत में 35 एक्सीडेंट होते हैं जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा केवल 4 है।
ऐसा नहीं है कि बढ़ते एक्सीडेंट का एकमात्र कारण ख़राब रोड हों क्योंकि मुंबई-पुणे देश का सबसे चौड़ा और आधुनिक रोड है लेकिन इस पर सबसे अधिक दुर्घटनायें हो रही हैं वजह लोग काबू से बाहर स्पीड से वाहन चलाते हैं। एक आंकड़े के अनुसार 75 फीसदी हादसे मानवीय भूलों से होते हैं। हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि 2001 में जहां ज़िलों में ऐसे हादसों में केवल 5 लोग मरते थे वहीं 2005 में यह आंकड़ा बेतहाशा बढ़कर 250 तक जा पहुंचा है। पता नहीं अभी कितनी और जानें खोकर हमारी आंखे खुलेंगी? हमने तो कई चैकप्वाइंट पर पत्रकार के नाते यातायात पुलिस वालों से बात करके यह कहते सुना है कि जब जनता को हेल्मेट ना लगाकर चलने में अपनी जान दांव पर लगाने में कोई परेशानी नहीं है तो हमें क्या हमें क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो उनको पकड़ंे और फिर वीआईपी सिफारिश पर उनको छोड़ने के लिये मजबूर हों।
0 आज सड़कों पर लिखे सैकड़ों नारे न देख,

   घर अंध्ेारे देख तू आकाश के तारे न देख ।।

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