Tuesday, 28 January 2014

मोदी : भाजपा की ज़रूरत...

मोदीः भाजपा की ज़रूरत हो सकते हैं राजग की नहीं ?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 गुजरात का विकास एक मिथ है जबकि सरकारी दंगाहकीकत!
     नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने का जैसा विरोध राजग के अंदर हो रहा है, उससे यह बात साफ हो गयी है कि देश तो मोदी को पीएम के रूप में क्या स्वीकार करेगा अभी तो वह गठबंधन ही इसके लिये तैयार नहीं है जिस के समर्थन से  उनको यह पद नसीब होगा। इतना ही नहीं भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवाणी और सुषमा स्वराज भी उनके पीएम बनने के पक्ष में नहीं हैं लेकिन चूंकि भाजपा की कमान आरएसएस के हाथों में होती है और संघ प्रमुख मोहन भागवत यह कह चुके हैं कि देश का अगला पीएम हिंदूवादी ही होना चाहिये जिससे भाजपा के मोदी विरोधी नेता चाहकर भी मोदी का खुलकर विरोध नहीं कर सकते। इस बात पर दावे के साथ कुछ कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि देश की जनता मोदी को विकासपुरूष के रूप में स्वीकार करती है या एक कट्टर हिंदूवादी और गुजरात दंगों के विवादास्पद सीएम के नाते ठुकरा देती है?
यह बात पहले ही साफ हो चुकी थी कि भाजपा के साथ गठबंधन की बिहार में सरकार बनाने वाले जनतादल यू के नीतीश कुमार मोदी की छवि से दूरी बनाकर चलते हैं तो उनको मोदी पीएम के नाते किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं हो सकते। जदयू का ही नहीं राजग के किसी भी घटक का सीधा सा वोटों का समीकरण है कि उसे अगर मुस्लिम और उदार सेकुलर हिंदू वोट भी मिलता है तो वह मोदी जैसे कट्टर हिंदूवादी और दंगाई छवि के आरोपी को राजग के नेता के तौर पर स्वीकार करके अपने हाथों से अपने पैरों पर कैसे कुल्हाड़ी मार सकता है? संजय जोशी को जिस तरह से मोदी ने पार्टी नेतृत्व को एक तरह से मजबूर करके भाजपा से बाहर का रास्ता दिखाया उससे उनके अहंकार को बल मिला है लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि गुजरात में दो बार सत्ता दिलाकर और देश की सत्ता में एक बार फिर से भाजपा को लाने का सपना दिखाकर वह संघ परिवार में तो मनमानी कर सकते हैं लेकिन राजग में नहीं।
    यूपीए सरकार का उदाहरण सामने है कि कैसे अकेली ममता बनर्जी ने मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को हर मामले में नाको चने चबवा रखे हैं यह अलग बात है कि ममता की जगह मुलायाम और मायावती के समर्थन की व्यवस्था होने के बावजूद कांग्रेस अभी भी टीएमसी को यह सोचकर नहीं छोड़ रही कि फिर ऐसा ना हो जो दबाव की राजनीति ममता कर रही हैं वही काम मुलायम करना शुरू करदें। प्रेसीडेंट इलेक्शन को लेकर सपा एक दांव चल भी चुकी है। सोचने की बात है कि अगर यूपीए की सरकार बनते समय ही ममता इस बात पर अड़ जाती कि मनमोहन पीएम नहीं बनेंगे तो कांग्रेस उनकी बात ना नकुर करके मानने को मजबूर होती। वही मामला मोदी को लेकर आज सामने है।
    मोदी एक सच और नहीं समझ रहे कि राजग के पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी अपनी उदार छवि के चलते ही राजग के घटक दलों को स्वीकार हुए थे और आडवाणी दो दो बार इसी कट्टर हिंदूवादी छवि और बाबरी मस्जिद विवाद के कारण पीएम पद से वंचित रह गये हैं। संघ परिवार आडवाणी की जगह मोदी को पीएम पद के लिये आगे करके ऐसा प्रयोग कर रहा है जैसे कोई डाक्टर मरीज को उस दवा की मात्रा पहले से भी बढ़ाकर दे जिससे उसे रिऐक्शन हुआ हो। संघ परिवार पता नहीं क्यों यह बात समझने का तैयार नहीं हो रहा कि विपक्ष का काम केवल सरकार का विरोध करते रहना ही नहीं बल्कि जनहित की वैकल्पिक नीतियां पेश करना भी होता है जिससे जनता का मन जीता जा सके। बेहतर होता कि भाजपा मोदी की बजाये नेतृत्व परिवर्तन के लिये यशवंत सिन्हा या अरूणा जेटली जैसे उदार और अधिक योग्य व विवेकशील नेता का नाम आगे करती।
   अभी तक राजग में मोदी के नाम पर कोई नया घटक जुड़ने के स्थान पर पुराना और मज़बूत जदयू टूटने के कगार पर पहुंच गया है। मोदी के विरोध का स्तर इस बात से भी पता चलता है कि नीतीश अपनी साझा सरकार भी इस मामले में दांव पर लगाने और कुर्बान करने को तैयार हैं। राजनीतिक कारणों से जयललिता और नवीन पटनायक जैसे लोग भले ही राजग में रहते हुए मोदी को पीएम पद का दावेदार स्वीकार करलें लेेकिन चदंरबाबू नायडू और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय राजनेताओं को अपने मुस्लिम वोटों के समीकरण के चलते मोदी को गले उतारना घाटे का सौदा लगेगा। यह भी विडंबना है कि गुजरात में मोदी का जाूद अब तक सर चढ़कर बोलता था वह भी पूर्व सीएम केशुभाई पटेल की बगावत से अब आगामी चुनाव में दोहराने की गारंटी नहीं है।
   मोदी कार्यकर्ताओं में भले ही लोकप्रिय हों लेकिन गुजरात से लेकर दिल्ली तक उनको कोई भाजपा नेता पसंद नहीं करता क्योंकि वह अहंकारी होने के कारण एकला चलो की नीति अपना रहे हैं। जब जब मोदी पर दंगों का आरोप लगता है उनके समर्थक गुजरात के विकास के प्रायोजित आंकड़े बाचने लगते हैं। उनका दावा है कि मोदी राज्य के सभी 6 करोड़ 30 लाख गुजरातियों का समावेशी विकास निष्पक्ष रूप से कर रहे हैं। गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला तो बना ही है साथ ही उद्योग और कृषि के लिये भी उसको आदर्श राज्य का तमगा दिया जाता है। आंकड़ों की रोश्नी में देखंे तो 2009-10 में ग्रामीण गुजरात में श्रम शक्ति का लगभग 45.9 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र मंे काम कर रहा है, जबकि पूरे देश में यह अनुपात केवल 40.8 ही है। शहरी क्षेत्र में यह हिस्सा राष्ट्रीय औसत यानी 35 प्रतिशत से मात्र दो फीसदी अधिक है।
   उल्लेखनीय है कि देश में केवल कर्नाटक और आन्ध्रा में ही यह औसत पूरे देश से ज्यादा है जिससे ये दोनों राज्य भी पूंजीपतियों और उद्योगपतियों की पहली पसंद बने हुए हैं। सच तो यह है कि मोदी जिस तरह से बड़ी कम्पनियों के निर्यात वाले विकास को प्रोत्साहन दे रहे हैं उससे वहां भूमिहीनता बढ़ रही है। 2009-10 में गुजरात में यह अनुपात देश के कुल औसत से चार फीसदी अधिक यानी 45.2 प्रतिशत था। औद्योगिक निवेश का हाल यह है कि श्रमिकों का बड़ा वर्ग नये उद्योगों में ठेका मज़दूरी करने को विवश है। 2011 की वार्षिक सर्वे रिपोर्ट दिखाती है कि देश की सबसे अधिक हड़तालें इसी राज्य में हो रही हैं। इसका कारण यह है कि मोदी सरकार मज़दूरों की जायज़ मांगे मनवाने के लिये बड़े उद्योगपतियों को ख़फा करने को तैयार नहीं है।
    हालत यह है कि कम्पनियों के मुनाफे में दस गुना तक वृध्दि होने के बावजूद मज़दूरों को पांच हज़ार रू. मासिक या कहीं कहीं तो 85 रू. दैनिक मज़दूरी दी जाती है। विकास की दुहाई देने वाली मोदी सरकार बजाये न्यूनतम मज़दूरी लागू कर गरीब मज़दूरों का साथ देने के उद्योगपतियों से मिलीभगत करके उनकी अवैध गिरफ्तारी और डराने धमकाने का अभियान चलाती है। यही एकमात्र कारण है कि बड़े बड़े दौलतमंद मोदी को काफी पहले पीएम पद का दावेदार मानकर उनको प्रायोजित कर चुके हैं। 2002 के भीषण और सरकार प्रायोजित दंगों और विकास को सत्यता के पैमाने पर परखा जाये तो दंगे जहां हकीकत थे वहीं विकास एक मिथ ही अधिक है। 2005 से 2010 तक जीएसडीपी में हुयी बढ़ोत्तरी के हिसाब से देखा जाये तो इसमें गुजरात का स्थान 10 वां है।
   मिसाल के तौर पर सबसे ऊपर उत्तराखंड 250.65, छत्तीसगढ़ 229.46, हरियाणा 226.91, बिहार 225.31, महाराष्ट्र 217.80, दिल्ली 217.15, ओडिशा 211.97, तमिलनाडु 211.65, आन्ध्र प्रदेश 211.50 के बाद गुजरात 211.12 का नम्बर आता है। अगर बड़े शहरों में बने मॉल्स और टाटा जैसे उद्योगपतियों को मिट्टी के मोल गरीब किसानों की ज़मीन औने पौने में अधिग्रहित कर दान करने को कहते हैं तो गुजरात का वास्तव में विकास हो रहा है। मिसाल के तौर पर गुजरात की 55 फीसदी ग्रामीण जनता की पूरे साल की खेती की आमदनी 32000 करोड़ है जबकि मोदी ने टाटा को नैनो प्रोजैक्ट लगाने को जो ज़मीन दी उसकी कीमत 33000 करोड़ है।
   ऐसे में टाटा जैसे उद्योपतियों को इस बात से क्या लेना देना कि गरीब किसानों का अब क्या होगा और उन दंगा पीड़ितों का क्या भविष्य है जिनके हत्यारे आज भी खुले घूम रहे हैं? टाटा के पूरे प्रोजेक्ट की कीमत 2200 करोड़ है जबकि उनको नीलामी के बिना 1100 एकड़ ज़मीन 900 रु. प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दी गयी है, जबकि बाज़ार भाव इसका 10,000 रु. वर्ग फिट है। इसके साथ ही टाटा मोटर्स को यह छूट दी गयी है कि वह हर साल दो किस्तों में 50 करोड़ के हिसाब से इसका भुगतान कर सकती है। इतना ही नहीं टाटा को मोदी सरकार ने 9750 करोड़ का कर्ज़ 0.10 प्रतिशत मामूली ब्याज पर दिया है। ऐसे ही 2003-04 में अदानी समूह को जो ज़मीन मोदी सरकार ने एक से लेकर 32 रु. वर्ग मीटर के हिसाब से दी थी उसकी प्लॉटिंग कर 10,000 रु. वर्ग मीटर तक सरकारी कम्पनियों को बेचा गया।
  गुजरात पर 2008 में जो 87010 करोड़ का कर्ज था वह 2010 में बढ़कर 112462 करोड़ हो चुका है। यह भी जानकारी है कि 2003 से लेकर 2009 के बीच गुजरात में निवेश के लिये 18.77 लाख करोड़ के सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये लेकिन आज तक केवल 2.88 करोड़ का ही वास्तविक काम वहां हुआ है। ऐसे में मोदी पर जब भाजपा में ही एका नहीं हो पा रही तो राजग में उनके नाम पर सहमति कैसे हो सकती है?
0 अजीब लोग हैं क्या खूब मुंसफी की है,
 हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदकशी की है।
 इसी लहू में तुम्हारा सफीना डूबेगा,

 ये क़त्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।।   

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