कार्यपालिका
की निष्क्रियता बनाम न्यायपालिका की सक्रियता
-इक़बाल हिंदुस्तानी
यह बहस आजकल काफी तेज़ होती जा रही है कि क्या न्यायपालिका जानबूझकर सरकार
के नीतिगत मामलों में अवांछित दख़ल दे रही है या फिर कार्यपालिका की निष्व्रिफयता और
बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण अदालतों को संविधान की रक्षा और जनहित में सक्रिय होना पड़
रहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि कोर्ट कई बार समाज और सरकार के बीच पैदा होने
वाले तनाव को कम करने के लिये ‘सेफ़्टी वाल्व’ का काम भी करता है।
अगर गौर से देखा जाये तो पिछले कुछ समय में एक
के बाद एक ऐसे निर्णय अदालतों से आये हैं जिनसे सरकार को न केवल नीचा देखना पड़ा है
बल्कि जनता ने राहत की सांस भी ली है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में इलाहबाद हाईकोर्ट ने जहां एक के
बाद एक माया सरकार के कृषि भूमि अधिग्रहित करने के कई फैसलों को अवैध ठहराकर पलट दिया
जिससे यूपी सरकार की काफी किरकिरी हुयी वहीं सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जयपुर में
दो दशक से चल रहे 552 बीघा ज़मीन के एक मामले में यह एतिहासिक फै़सला दिया कि सरकार
सार्वजनिक उद्देश्य के लिये अधिग्रहित भूमि को अन्य लाभार्थियों को फिर से आवंटित नहीं
कर सकती।
इससे पहले उच्चतम न्यायालय सरकार को देश में एक
तरफ भूख से लगातार मौतें होने और दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में खुले में रखे अनाज के सड़ने
से बर्बाद होने पर फटकार लगाते हुए यह आदेश दे चुका है कि इस गेहंू को खराब होने से बचाने में अगर सरकार अक्षम है तो क्यों न इसको
गरीबों में निशुल्क वितरित कर दिया जाये। ऐसा ही एक निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही
में छत्तीसगढ़ सरकार के अवैध सलवा जूडुम अभियान के खिलाफ देते हुए कहा है कि बिना किसी
प्रशिक्षण और नियम कानून के जनता के कुछ लोगों को विशेष पुलिस अधिकारी बनाकर हथियार
देना और माओवादियों से निबटने के नाम पर मनमानी की छूट देना असंवैधनिक है जिसे तत्काल
रोका जाना चाहिये।
मज़ेदार बात यह है कि इस अवैध और विवादास्पद अभियान
में केंद्र सरकार भी मानदेय में 80 प्रतिशत का योगदान कर रही थी। गुरूल्लिाओं की तरह
काम कर रहे इन 5000 विशेष पुलिस अधिकारियों पर नक्सलवाद के सफाये के नाम पर करीब
600 गांवों को लूटने और जलाने सहित मानवाधिकार उल्लंघन के ढेर सारे आरोप लगाये जाते
रहे हैं लेकिन सरकार ने सशस्त्रा सेना विशेषाध्किार अध्निियम की तरह इस मामले में भी
आंखे बंद कर रखी थी।
वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्राी रामजेठमलानी
की एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों सर्वाेच्च न्यायालय ने जब काले
धन पर पूर्व न्यायधीश की देखरेख में विशेष जांच दल का गठन किया तो सरकार बौखला गयी।
माननीय न्यायमूर्ति एस एस निज्जर और न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी की बैंच ने इस
मामले में सख़्त रूख़ अपनाते हुए यहां तक कहा कि उदारवादी आर्थिक नीतियां देश को लूट
और लालच की तरफ ले जा रही हैं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट योगगुरू बाबा रामदेव के द्वारा
दिल्ली के रामलीला मैदान में शांतिपूर्वक किये जा रहे अनशन को सरकार द्वारा पुलिस के
ज़रिये बर्बर ढंग से कुचलने के खिलापफ भी तीखी टिप्पणी करते हुए जवाब तलब कर चुका है।
थोड़ा और पीछे मुड़कर देखें तो सरकार ने भी एक तरह
से पूरी बेशर्मी पर कमर बांध रखी है वह लगातार यह दावे करती रहती है कि वह भ्रष्टाचार
को ख़त्म करने को लेकर पूरी तरह गंभीर है लेकिन जब कानून के काम करने की बारी आती है
तो वह आरोपियों के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। पूर्व केंदीय संचार मंत्राी ए राजा
का मामला हो या विवादास्पद सीवीसी पी जे थामस, यूपीए सरकार के प्रमुख घटक द्रमुक प्रमुख की लाडली
बेटी कनिमोझी की गिरफ़्तारी की बात हो या कॉमन वैल्थ गैम्स घोटाले के प्रमुख आरोपी
सुरेश कलमाड़ी को जेल भेजने की मजबूरी मनमोहन सरकार ने एड़ी से चोटी तक का ज़ोर इनको बचाने
के लिये लगाया लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को हड़काते हुए बार बार उसकी काहिली
पर उंगली उठाई तब कहीं जाकर सरकार और कांग्रेस ने इन आरोपियों से पीछा छुड़ाया।
जिससे सरकार
की कथनी करनी में अंतर के कारण ही कोर्ट को
सक्रिय होना पड़ रहा है। ऐसे अनेक मामले देखने में आते हैं जब लोग गंभीर अपराधों की
भी एफआईआर थानों में दर्ज नहीं किये जाने पर मजबूर होकर अदालतों मंे जाते हैं।
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