दिल्ली
गैंगरेपःकानून नहीं व्यवस्था बदलने की ज़रूरत है!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0रोज़ देश
में सैकड़ों बलात्कार होते हैं तो इतना शोर नहीं मचता?
दिल्ली में हुए गैंगरेप की चौतरफा निंदा के
साथ यह सवाल भी उठना चाहिये कि देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज़ के ग्रामीण और
पिछड़े इलाकों में रोज़ होने वाले सैंकड़ों बलात्कार के मामलों को मीडिया कभी इतनी
ज़ोर शोर से क्यों नहीं उठाता? और हर
बलात्कार को लेकर सरकार इतनी संवेदनशील क्यों नहीं नज़र आती? सारे नेता बलात्कारी को फांसी देने से लेकर
चौराहे पर खुलेआम गोली मारने की मांग अब क्यों कर रहे हैं? जब जब वे सत्ता में आते हैं तो ऐसा कानून क्यों
नहीं बनाते? सच तो यह है कि कुछ दिन इस मामले
की चर्चा होने के बाद फिल्म अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन के अनुसार सब भूल
जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़ित लड़की किस हाल में जी रही
है? दरअसल मीडिया को औरतों के
अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता
है।
किसी
महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद मीडिया और सरकार शांत
होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतज़ार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि
हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों का साथ देती नज़र आती है। सत्ताधीश अगर वास्तविकता
जानना चाहते हैं तो आम आदमी बनकर थाने जायें वहां सबसे अधिक अपराध होते हैं।
बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी भी थाने जाने से डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते
देखे जाते हैं। पुलिस किसी को पूछताछ के लिये बुलाने या उठाने आ जाये तो उसकी तो
इज्ज़त की बाट ही लग जाती है। अगर वह बेक़सूर भी है तो भी उसको पुलिस के चंगुल से
निकलने को फीलगुड कराना पड़ता है। जिस मुहल्ले या गली में पुलिस घुस जाये वहां के
सभी बाशिंदों की डर के कारण सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है।
पुलिस रपट
भी तभी दर्ज करती है जब जेब गर्म की जाये या कोई बड़ी असरदार सिफारिश आ जाये।
रूचिका गिरहोत्रा, जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मटटू
कांड इसके गवाह हैं कि जब तक मीडिया ने हल्ला नहीं काटा तब तक पुलिस ने इन मामलों
में गंभीरता नहीं दिखाई। पैसा खिलाकर आप थाने में झूठी रपट चाहे जब चाहंे दर्ज करा
सकते हैं। अब आगे की जांच और भी मुश्किल है क्योंकि हमारी पुलिस सर्वे में ना केवल
समाज के अन्य वर्गाें से अधिक बेईमान है बल्कि वह राजनीतिक, धार्मिक, जातिवादी
और दूसरे लालचों में भी खूब सबूत दबाती और घड़ती है। अब तो वह खुलेआम आरोपी से सौदा
करके कई बार पीड़ित को ही थर्ड डिग्री तक देने लगी है। रस्सी का सांप और सांप की
रस्सी बनाना पुलिस के बायें हाथ का खेल है। अपराधियों से गलबहियां करके पुलिस ने
बाकायदा महीना तक बांध रखा है।
छोटे
मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और
बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज़्यादा केस दर्ज
होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका
प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सज़ा देने
का मतलब है जो केस पुलिस पहले 25 से 50 हज़ार
रू0 में आरोपी को बचाने में तय कर लेती थी उसकी कीमत बढ़ाकर दो से चार लाख
कर देना। प्रियदर्शिनी मट्टू के मामले में आरोपी एक बडे़ पुलिस अधिकारी का बेटा
होने से पुलिस ने आखि़री दम तक सबूतों को या तो बदल दिया या फिर जमकर छेड़छाड़ कर जज
को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि वह जानते हैं कि आरोपी ने ही रेप किया है लेकिन
पुलिस के जानबूझकर सबूत मिटाने या छिपाने से वह मजबूर हैं कि आरोपी को सज़ा ना दें।
राजनेताओं
और प्रभावशाली लोगों के मामलें में भी पुलिस ऐसा ही करती है। जब लोगों का विश्वास
ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर
चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ होने के
लिये हैं? गवाहों को खुद पुलिस डराती
धमकाती है, ऐसे में अपराधी तो निडर होकर
ज़मानत के बाद घूमते हैं। बलात्कारी को फांसी या चौराहे पर गोली मारने की बात करने
वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सज़ा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर
क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन
अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले
रहे।
जिस देश
में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम
और दहेज़ एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सज़ा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम
ईमानदार और ज़िम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है। समाज को भी नैतिकता और चरित्र
का पाठ सिखाना होगा। हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं।
आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार
और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ
चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं हमें अपनी
सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह
की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम को घुन की
तरह खा रहा है।
बसों से
काले शीशे और पर्दे हटाने, रात में
बस में लाइट अनिवार्य रूप से जलाने, उनको बस
स्वामी के घर ही पार्क करने, बलात्कारियों
को फांसी की सज़ा, सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक
कोर्ट बनाने की मांग करने वालों को याद दिलादें पिछले दिनों मनमोहन सिंह की
कैबिनेट ने महिलाओं को अश्लील एसएमएस, एमएमएस और
ईमेल भेजने वालों को भी कानून में संशोधन करके एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है। ऐसा
करने वालों को पहली बार दो साल की कैद और 50 हज़ार तक जुर्माना तथा दोबारा ऐसा करने
वालों को सात साल की सज़ा और आर्थिक दंड एक लाख से पांच लाख तक करने की व्यवस्था है
लेकिन इससे कोई चमत्कार इसलिये नहीं होगा क्योंकि बीड़ी सिगरेट पीना सार्वजनिक रूप
से अपराध है इसका शायद ही सब लोगों को पता हो क्योंकि पुलिस किसी से ऐसा करने पर
आज तक 200 रू0 का जुर्माना वसूल नहीं कर रही है।
आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो देश में हर
22 मिनट के बाद एक महिला या बच्ची का बलात्कार हो रहा है। पिछले दो दशक में रेप की
आशंका दो गुनी हो गयी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के
मामले बढ़ने के साथ ही इसके अपराधियों को पहले से कम मामलों में दंड मिल रहा है।
चार में से केवल एक ही केस में बलात्कार के आरोपी को सज़ा मिल पाती है। यह हालत तो
तब है जबकि बड़ी तादाद में लोग लोकलाज और वकीलों और पुलिस के असुविधाजनक सवालों से
बचने के लिये कानूनी कार्यवाही के लिये ही घर से निकलते ही नहीं। आज बलात्कार के
83 प्रतिशत मामले कोर्ट में लंबे समय से लंबित पड़े हैं जबकि पहले यह आंकड़ा 78
प्रतिशत ही था। 2011 में कुल 24206 रेप के केस दर्ज हुए थे।
इनमें से
अगर सबसे अधिक मध्यप्रदेश के 3406, पश्चिमी
बंगाल के 2363, यूपी के 2042, राजस्थान के 1800 और देश में इस मामले मंे पांचवे
स्थान पर रहने वाले महाराष्ट्र के 1701 मामलों का अध्ययन किया जाये तो कुल 11312
बालिग और 3814 नाबालिगों के साथ ज़बरदस्ती शारिरिक सम्बंध बनाये गये। आज 1लाख 27
हज़ार लोग न्याय की प्रतीक्षा में अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं। 1990 में जहां 41
प्रतिशत रेप केस में अपराधियों को सज़ा मिल जाती थी वहीं 2000 में यह अनुपात 29.8
प्रतिशत हुआ और 2011 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है।
एक तर्क और दिया जाता है कि लड़कियां चूंकि
भड़काऊ कपड़े पहनकर और आकर्षक मेकअप करके सड़कों पर निकलती हैं जिससे उनके साथ रेप की
अधिकांश घटनाएं उनकी इन हरकतों की वजह से ही होती हैं, जबकि भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि गांव में
ऐसे मामले अधिक होते हैं और अकसर यह देखने में आया है कि जो लड़कियां अधिक पढ़ी लिखी
और आध्ुनिक होती हैं उनके साथ बलात्कार का प्रयास करने वाले दस बार उसके बुरे
नतीजों के बारे में सोचते हैं। साथ ही सुशिक्षित और बोल्ड लड़कियां छेड़छाड़ का जहां
विरोध करती हैं वहीं कई बार मनचलों की पिटाई भी कर देती हैं। इसके साथ यह भी देखने
में आया है कि आध्ुनिक और प्रगतिशील सोच के लोग ही ऐसी घटनायें होने पर कानूनी
कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और साहस भी दिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि
पहले बलात्कार जैसे मामलों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक
और शैक्षिक स्तर पर जांचा परखा जाना
चाहिये तब ही इनका कोई सही हल निकाला जा सकता है।
0 लड़ें तो
कैसे लड़ें मुक़दमा उससे उसकी बेवफाई का,
ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह
उसकी।।
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