मीडिया
के खि़लाफ़ बोलने वाले सरकार के पक्ष में ?
-इक़बाल हिंदुस्तानी
भ्रष्टाचार
पर घिर चुकी सरकार अब अख़बार- चैनलों पर लगाम लगायेगी?
अन्ना के आंदोलन की सफलता को कुछ मंत्रियों
ने मीडिया का आंदोलन बताते हुए इसको बिना वजह तूल देने का आरोप लगाया था। हो सकता
है कि भ्रष्टाचार पर चारों तरफ से घिर चुकी परेेशान सरकार इस समस्या से निबटने के
लिये अब मीडिया पर लगाम लगाने की बैकडोर से किसी सोची समझी रण्नीति पर काम कर रही
हो ? पूरी
होशियारी और समझदारी से यह नाजुक मुद्दा उसने खुद न उठाकर एक ऐसे वरिष्ठ जज से
उठवाया है जिसकी छवि साफ सुथरी और निष्पक्ष व बोल्ड रही है। हो सकता है कि सरकार
का इरादा इस चर्चा के बाद देेश मंे माहौल बनने पर मीडिया को सेंसरशिप में लाकर
उसकी बोलती बंद करने का हो।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मार्कंडे
काटजू बेशक एक ईमानदार और काबिल जज रहे हैं। उनकी फैसला लिखते समय की जानी वाली
टिप्पणियां काफी चर्चित हुआ करती थीं। अब वे अपने पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं
लिहाज़ा उनको फैसला लिखने और तरह तरह की टिप्पणियां लिखकर पूरे देश का ध्यान अपनी
तरफ खींचने की सुविधा उपलब्ध नहीं रह गयी है। हो सकता है कि वे इसीलिये प्रैस
काउंसिल ऑफ इंडिया का प्रेसीडेंट बनने के बाद कुछ ऐसी बातें कह रहें हों जिनसे
मीडिया में उनकी बातों पर जोरदार चर्चा हो। इसमें किसी हद तक वे कामयाब होते भी
नज़र आ रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि काटजू साहब मीडिया
के बारे में जो कुछ फर्मा रहे हैं वो काफी हद तक सही भी है। वे यह मांग भी कर चुके
हैं कि प्रैस काउंसिल को मीडिया काउंसिल का दर्जा देकर इसके अधीन प्रिंट मीडिया के
साथ साथ इलैक्ट्रानिक चैनलों को भी लाया जाये। इसमें भी उनकी वही जज वाली पॉवर
दिखाने की एक कसक और ललक झलक रही है। वे यह भी शिकायत कर रहे हैं कि काउंसिल को
ऑटोनामस ही नहीं पहले से अधिक पॉवरपफुल बनाया जाये जिससे वह कोर्ट की तरह दोषी
पत्रकारों और उनके संस्थान मालिकों को तलब कर दंडित कर सके।
यहां फिर वही उनकी पुरानी इंसाफ करने और
अपराधियों को जेल भेजकर सज़ा देने की हनक सामने आ रही है। यह अपने आप में शायद पहला
रोचक मामला होगा जिसमें जो शख़्स जिन लोगों की काउंसिल का सदर बना है उन लोगों के
खिलाफ पूर्वाग्रह रखकर मोर्चा खोल रहा है। अगर उनको यह सब ही करना था तो सरकार से
पहले अपने अनुकूल प्रैस काउंसिल बनाने की मांग करते और तब काउंसिल का चार्ज लेते
और अगर सरकार इसके लिये तैयार नहीं होती तो कोर्ट जाते या उसके खिलाफ अन्ना की तरह
संघर्ष का रास्ता अपनाते । यह क्या बात हुयी कि आप सरकार और मीडिया दोनों के खिलाफ
मोर्चा खोले हुए हैं और उसी पद पर विराजमान हैं जिसके खिलाफ हैं।
दरअसल काटजू साहब जानते हैं कि वे जो कुछ कह
रहे हैं वह नई बात नहीं है। नई बात तो यह है कि उनको पता था कि वे जिस न्यायपालिका
का हिस्सा रहेे हैं वहां भी भ्रष्टाचार मौजूद है लेकिन उच्च पद पर आसीन रहते हुए
भी वे केवल टिप्पणी ही करते रहे उसे सुधारने के लिये न तो कोई ठोस काम कर सके और न
ही सरकार से ऐसा करा सके। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि मीडिया में भ्रष्टाचार
या गड़बड़ी नहीं है बल्कि वे उससे भी ज्यादा हैं जितना काटजू साहब कह रहे हैं लेकिन
यह आधा सच है क्योंकि भ्रष्टाचार एक कॉमन प्रॉब्लम है। यह हमारे सिस्टम से लेकर
हमारी नस नस में खून के साथ दौड़ रहा है। केवल मीडिया को उसके लिये फटकारना रोग का
इलाज न करके केवल एक लक्षण का उपचार करना होगा, जो संभव नहीं है।
हकीकत तो यह है कि जब से पंूजीवाद को हमारी
सरकार ने अपनाया है तब से मीडिया में यह सर चढ़कर और अधिक बोल रहा है। काटजू साहब
का यह कहना भी ठीक नहीं है कि मीडिया वाले राजनीति, साहित्य, अर्थजगत और विदेश नीति पर जो कुछ लिखते हैं
उसका उनको कुछ ज्ञान नहीं होता। इन विषयों की केवल डिग्री ले लेनेेेे से ही ज्ञान
प्राप्त नहीं होता और फिर एक सच्चाई और है जिसको काटजू साहब नज़रअंदाज़ कर रहे हैं
कि एकमात्र मीडिया ही तो है जो हर विषय के विशेषज्ञ को अपने विचार प्रकट करने का
बराबर मौका देता है। क्या यह दावे से कहा जा सकता है कि किसी पत्रकार को अपनी
पत्रकारिता के अलावा किसी और विषय का ज्ञान हो ही नहीं सकता। इसी को पूर्वाग्रह
कहा जाता है।
हम यह नहीं चाहते कि मीडिया का भ्रष्टाचार और
गैर ज़िम्मेदारी क्षमायोग्य है लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि केवल मीडिया को
जवाबदेह बनाना कहां का इंसाफ और औचित्य है? पूरी
व्यवस्था को उत्तरदायी बनाने की ज़रूरत है जिसमें मीडिया अपने आप शामिल होगा। क्या
आज भी मीडिया की गलत और जानबूझकर छवि ख़राब करने की हरकत पर उसके खिलाफ कानूनी
कार्यवाही नहीं की जाती है। रहा सवाल इस बात का कि लोग अकसर मीडिया के हाथों
ब्लैकमेल हो जाते हैं और हालत इतनी ख़राब होेेे चुकी है कि मीडिया के स्वामी अपने
निचले स्तर के पत्रकारों को भी बजाये भुगतान करने के उल्टे पैसा लेकर नियुक्त कर
रहे हैं तो कसूर उस व्यवस्था का है जिसमें यह सब संभव हो रहा है।
ज़रूरत पूरी व्यवस्था को बदलने और जवाबदेह
बनाने की है। काटजू साहब को शायद याद हो कि उनकी न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति
का अधिकार ज़बरदस्ती सरकार से ले लिया था जिसपर सरकार में बैठे हुए नाकारा और
भ्रष्ट नेता न्यायपालिका से टकराव के डर से चुप्पी साधने पर मजबूर हो गये। जजों की
सम्पत्ति घोषित कराने के लिये नागरिकों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। सूचना के अधिकार
को रोकने के लिये पूर्व चीफ जस्टिस बालकृष्णन जी ने पूरा जोर लगाया। आज उनके खिलाफ
तरह तरह के आरोप लग रहे हैं लेकिन वे मानव अधिकार आयोग के प्रेसीडेंट के पद पर जमे
हुए हैं। आज भी आरटीआई में कोई सवाल पूछने के लिये पूरे देश मंे किसी भी विभाग और
मंत्रालय में मात्र दस रूपये लगते हैं लेकिन न्यायपालिका में यह शुल्क 500 रुपये
रखने का गरीब देश मंे क्या औचित्य है?
जजों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिये
न्यायपालिका की तरफ से काटजू साहब ने कोई सार्थक पहल, मांग या अभियान चलाया हो याद नहीं आता।
अन्ना की इस मांग पर भी न्यायपालिका का कोई
खास रेस्पांेस नहीं आया कि जनलोकपाल में न्यायपालिका को भी शामिल किया जाये। खुद
काटजू साहब का भी ऐसा कोई बयान हमारी नज़रों से नहीं गुज़रा। सही बात तो यह है कि आज
मीडिया इतनी कमियांे और बुराइयों के बावजूद जितने घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले
खोल रहा है उससे जनता का विश्वास उसपर संविधान के तीन कथित स्तंभों विधयिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका से कहीं अधिक जमा
हुआ है। इसके अधिकांश सदस्य निचले स्तर पर अपने शोषण और अन्याय के बावजूद दिनरात
चौबीस घंटे अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर आम गरीब और बेसहार आदमी का सहारा बने हुए हैं।
मीडिया का सदुपयोग अधिक हो रहा है। यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि कई चर्चित केसों
में जब मीडिया ने आवाज़ बुलंद की तब ही वे केस दोबारा खुले और कोर्ट ने सरकार के ठीक
से पैरवी करने पर उन मामलों में न्याय किया।
इसका श्रेय तो कम से कम मीडिया को ही दिया
जाना चाहिये। आज अन्ना का आंदोलन अगर सरकार को जनलोकपाल बिल पास करने को मजबूर
करता नज़र आ रहा है तो इसके पीछे भी मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। कई मंत्री और
सत्ताधारी दल के नेता तो इस बात को स्वाीकार भी कर चुके हैं कि वे अन्ना के आंदोलन
से नहीं बल्कि मीडिया के इसकी कवरेज से तंग आ चुके हैं। सरकार पहले से चाहती है कि
किसी न किसी बहाने से मीडिया पर सेंसर लगाया जाये लेकिन वह खुद भ्रष्ट और नाकाम
होने से जनता का भरोसा खो चुकी है। आज यह भरोसा सबसे अधिक मीडिया को हासिल है।
काटजू साहब जाने अंजाने सरकार और उस वर्ग की इच्छा पूरी करते नज़र आ रहे हैं जिसकी
कोशिश हमेशा यह रही है कि किसी न किसी तरह संेसर के बहाने मीडिया को काबू किया
जाये जिससे वह उनकी करतूतों को जनता के सामने उजागर न कर सके।
इसके लिये सरकार तो विज्ञापन से लेकर सत्ता
का खासा दुरूपयोग भी समय समय पर करती रही है लेकिन उसकी यह हिम्मत नहीं हुयी कि वह
कानून बनाकर उसके पर कतर सके लेकिन काटजू साहब जिस तरह से माहौल बना रहे हैं उससे
ज़रूर सरकार को मीडिया को सबक सिखाने या मंुह बदं रखने को मजबूर करने का हथियार मिल
सकता है। काटजू साहब बेशक मीडिया को पाक साफ बनाने के लिये प्रैस काउंसिल को शक्तिशाली बनाने की बात करें
लेकिन उससे पहले पूरी व्यवस्था और सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिये अन्ना हज़ारे की
तरह कोई ठोस मुहिम चलायें तो उनकी नीयत पर शक भी नहीं होगा और मीडिया भी इसके लिये
जनता की तरफ से मजबूर किया जा सकेगा क्योंकि पत्रकार भी इसी समाज का हिस्सा हैं और
जब सब बदलेंगे तो वे भी अवश्य बदलेंगे यह विश्वास रखना होगा। अकेले मीडिया नहीं
बदलेगा।
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दूसरों पर जब तब्सिरा किया कीजिये,
आईना सामने रख लिया कीजिये ाा
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