Thursday, 6 February 2014

जनता के दबाव में बीजेपी ?


जनता के दबाव मंे बदल रहा है बीजेपी का एजेंडा ?
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
      हमारे देश में लोकतंत्र होने का फायदा हमें देर से ही सही मिलता नज़र आने लगा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवाणी जी की भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा और गुजरात के सीएम मोदी का सद्भावना उपवास और सबके विकास का नारा बीजेपी के बदले एजेंडे का ही संकेत देता नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जब अन्ना हज़ारे ने आंदोलन शुरू किया था तो अधिकांश लोगों का उदासीन और नकारात्मक रूख था। खासतौर पर यथास्थितिवादी लोगों का दावा था कि अन्ना चाहे जो करलें इस देश में कुछ बदलने वाला नहीं है। फिर यह सवाल आया कि जब योगगुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सरकार ने फेल कर दिया तो अन्ना की क्या मजाल है कि सरकार को झुकने के लिये मजबूर करदें।
    इसके बाद जब सरकार ने अन्ना को अनशन करने से पहले ही तिहाड़ जेल में बंद कर दिया तो एक बार तो देश को ऐसा लगा कि अन्ना को भी सरकार बाबा रामदेव की तरह निबटाने में कामयाब हो ही जायेगी लेकिन जब जनता का सैलाब सड़कों पर उतरा तब सरकार को पता लगा कि उससे भी बड़ी और शक्तिशाली कोई चीज़ होती है जिसको जनता कहते हैं। इसके बाद जो कुछ हुआ उसी से प्रेरित होकर आडवाणी जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकालने की घोषणा की है।
   हम भाजपा के बदले एजेंडे की बात कर रहे थे कि कैसे राममंदिर, हिंदू राष्ट्र और समान नागरिक कानून की मांग से वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावानओं का सम्मान करने को मजबूर हो गयी। पहले उसने कर्नाटक के सीएम येदियुरप्पो को लोकायुक्त की रिपोर्ट उनके खिलाफ होने के बावजूद वहां बगावत के डर से हटाने में आनाकानी की लेकिन जैसे ही अन्ना के आंदोलन से उसे लगा कि वह एक राज्य बचाने के चक्कर में पूरा देश अपने खिलाफ कर लेगी वह पलटी और जोखिम उठाकर भी कांग्रेस से अपनी कमीज़ कम गंदी दिखाने की कोशिश मंे लग गयी। यही काम उसने कांग्रेस द्वारा जनलोकपाल बिल को पास करने में की जा रही हीलहवाली को लेकर किया।
   बीजेपी दूसरी पार्टी थी जिसने कम्युनिस्टों के बाद सीधे सीधे सरकार से अन्ना के जनलोकपाल बिल की तरह मज़बूत कानून भ्रष्टाचार के खिलाफ लाने की खुलकर मांग की और जनसमर्थन का रूख अन्ना के साथ अपनी तरफ भी किसी हद तक मोड़ने की कोशिश की। बीजेपी यहीं नहीं रूकी अब उसने उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे भाजपाई सीएम रमेश पोखरियाल निशंक को चलता कर ईमानदार छवि के धनी भुवन चंद खंडूरी को इस पहाड़ी राज्य की कमान सौंप दी।
   इसके साथ ही वोटों की कहो या अवसर की राजनीति भाजपा के वरिष्ठ नेता एल के आड्वाणी ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रथयात्रा निकालने का ऐलान कर दिया। इससे भ्रष्टाचार कितना रूकेगा और बीजेपी इस मुद्दे पर अगर चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाती है तो वह कितनी साफ सुथरी सरकार दे पायेगी हम यहां यह दावा नहीं कर सकते, क्योंकि बीजेपी की सरकारों का अब तक का रिकार्ड इस मामले में कोई खास बेहतर नहीं रहा है। बहरहाल एक बात जो दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नज़र आ रही है वह यह है कि बीजेपी यह मान चुकी है कि उसका साम्प्रदायिक या अलगाववादी एजेंडा इस देश की जनता पसंद नहीं करती जिससे वह मुस्लिमों द्वारा ही नहीं बल्कि हिंदुओं के बहुमत के द्वारा भी बार बार ठुकराई जा रही है।
   यह भी एक सच्चाई है कि आरएसएस चाहे बीजेपी से कुछ भी चाहे लेकिन बीजेपी को अगर सरकार बनानी है तो उसको वह करना होगा जो इस देश की जनता चाहती है। दरअसल धार्मिक और भावुक मुद्दों पर लोगों को कुछ समय के लिये ही जोड़ा जा सकता है जबकि ज़मीन से जुड़े आम जनता के मुद्दों को जब भी जो दल या नेता उठायेगा उसको जनता का जबरदस्त सपोर्ट और विश्वास हासिल होगा यह बात अन्ना हज़ारे ने साबित कर दी है।
   चलो अच्छा हुआ आरएसएस ने देश की यह चिंता खुद ही दूर कर दी कि रथयात्रा निकालने के बावजूद भाजपा के वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं होंगे। दरअसल आडवाणी की 84 साल की आयु को देखते हुए देश की आबादी की सबसे बड़ी तादाद बन चुके युवा वर्ग को यह बात साल रही थी कि हमारे यहां जब युवा हर क्षेत्र में एक के बाद एक रिकॉर्ड बना रहे हैं तो राजनीति के क्षेत्र में रिटायरमेंट की उम्र से भी दो दशक आगे निकल चुके एक बूढ़े पुरातनपंथी सोच के नेता को पीएम पद का दावेदार बनाने की क्या तुक है?
     हालांकि रामरथयात्रा के मुकाबले भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा शुरू करने की आडवाणी की घोषणा का देश के कई वर्गाें ने यह सोचकर स्वागत किया था कि यह समाजसेवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन का ही विस्तार होगा और इससे देश में भ्रष्टाचार और बेईमानी के खिलाफ माहौल बनाने और आने वाले चुनावों में इसका सकारात्मक असर पैदा करने में बड़ी भूमिका हो सकती है लेकिन राजनीति के जानकार सूत्रों की यह आशंका अपनी जगह ठीक थी कि इससे हाशिये पर जा चुके भाजपा नेता आडवाणी एक बार फिर से पीएम पद के दावेदार बन जायेंगे। इसीलिये सबसे पहले संघ परिवार में ही इस मुद्दे को लेकर हंगामा मचा।
    इसका नतीजा यह हुआ कि एक तरफ तो आडवाणी के दावे की हवा निकालने के लिये औपचारिक रूप से गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को बाकायदा पीएम पद का दावेदार घोषित किया गया दूसरे अप्रत्यक्ष ही सही आडवाणी जी से भी मोदी के नाम का प्रधनमंत्री पद के लिये अनुमोदन सार्वजनिक रूप से कराया गया।
   यह अलग बात है कि मोदी को सीएम की कुर्सी तक पहुंचाने से लेकर गुजरात दंगों तक में र्फ्री हैंड देने वाले आडवाणी को उम्मीद रही होगी कि जब वह मोदी को पीएम पद का दावेदार मानने की बात स्वीकार करेंगे तो एक अच्छे चेले की तरह मोदी स्वयं लौटकर पीएम पद का प्रस्ताव उनके लिये वरिष्ठता के आधर पर भी करेंगे ही, लेकिन सब कुछ चूंकि आरएसएस में पहले से ही तयशुदा योजना के अनुसार चल रहा था इसलिये मोदी ने वही किया जो उनको संघ के इशारे पर करना चाहिये था। इतना ही नहीं अमेरिका के थिंकटैंक की तरफ से भी मोदी का नाम पीएम पद के लिये काफी सोच समझकर 2012 के चुनाव के लिये लिया गया है। इससे संघ परिवार ने भी इस मामले में अमेरिका की तरफ से मोदी के लिये पीएम पद की दावेदारी को लेकर क्लीनचिट मान ली है।
    अगर पीछे मुड़कर देखा जाये तो आडवाणी ने तो अपनी पीएम पद की दावेदारी उसी दिन खो दी थी जिस दिन उन्होंने पाकिस्तान जाकर मौ0 अली जिन्नाह को सेकुलर बताया था। संघ परिवार को उनका यह बयान आज तक भी बुरी तरह से चुभता है। उसी बयान का नतीजा था कि आडवाणी जी को भाजपा का अध्यक्ष पद और संसदीय विपक्षी नेता का पद तक खोना पड़ा था। इस एक बयान ने आडवाणी जी का भविष्य तय कर दिया था जिससे उनको पीएम पद का प्रत्याशी तो संघ परिवार स्वीकार कर ही नहीं सकता। जहां तक उनका भाजपा में बने रहने का सवाल है यह उनकी वरिष्ठता और पार्टी के लिये उनके योगदान को देखते हुए नरम रूख़ की वजह रही वर्ना एक और वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह का हश्र सब देख ही चुके हैं। वह भी पाकिस्तान सिंड्रोम का ही शिकार हुए थे।
   खास बात यह है कि माकपा और भाजपा जैसी पार्टियों में आज भी सत्ता से अधिक विचारधारा पर जोर दिया जाता है जिसकी वजह से ये सरकार बनाने से बार बार वंचित रह जाती हैं। सब जानते हैं कि अगर कम्युनिस्ट अपनी नास्तिकता और भाजपा साम्प्रदायिकता छोड़ दे तो कांग्रेस कभी की सत्ता से बाहर हो जाये लेकिन ये दोनों जनता के बार बार संदेश देने के बावजूद अपनी अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं जिसका नतीजा यह है कि एक कट्टरपंथी आडवाणी को पीएम पद की दौड़ से बाहर करके गुजरात दंगों से पूरी दुनिया में भारत की नाक कटवाने वाले मोदी जैसे अहंकारी, अमानवीय और संकीर्ण सोच के विवादास्पद नेेता को पीएम पद के लिये आगे लाया जा रहा है। एक कवि की पंक्तियां याद आ रही हैं।

0इब्तिदा ए इष्क है रोता है क्या, आगे आगे देखिये होता है क्या।

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