121 करोड़ की सरकार मक्कार
भ्रष्टाचार की दावेदार ?
-इक़बाल
हिंदुस्तानी
0एक बार वोट लेकर पांच साल लूट का लाइसेंस मिल
जाता है!
सोशल नेटवर्किंग पर एक लेख में पूछा गया
है कि जब निर्वाचित प्रतिनिधि संसद में मौजूद हैं तो फिर जनता की तरफ से किसी और
को दावेदारी करने का हक़ किसने दिया है? हम उनसे पूछना चाहते हैं कि
अगर कोई नौकर चौकीदार के तौर पर आप रखें और वह चोरों से हमसाज़ होकर उल्टे आप पर ही
बंदूक तान दे तो आप उसके साथ क्या सलूक करेंगे? अगर सरकार को एक बार बनने के
बाद ’’कुछ
भी’’ करने
का अधिकार होता है तो फिर विपक्ष का क्या काम रह जाता है? फिर राज्य सरकारों की क्या
ज़रूरत है? फिर
पंचायतों और स्थानीय निकायों की क्या आवश्यता रह जाती है? फिर तो इसका मतलब किसी भी
सरकार के खिलाफ कोई भी आंदोलन करना, उससे कोई मांग करना और उसके
किसी फैसले का विरोध करना गैर कानूनी और अलोकतांत्रिक माना जायेगा? सरकार भ्रष्टाचार में गले तक
डूबी है।
उसको
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कई मामलों में रंगेहाथ पकड़ भी लिया है फिर भी निर्मल रानी
पूछ रही हैं कि जनता अन्ना के नेतृत्व में उसके खिलाफ क्यों आंदोलन क्यांे कर रही
है? रहा
उनके निर्वाचित प्रतिनिधि होने का सवाल तो अव्वल तो हमारे देश में अकसर 50 प्रतिशत से ज़्यादा मतदान
ही नहीं होता, उसमें
भी चौतरफा मुकाबला होने से कई बार प्रत्याशी 10 से 15 प्रतिशत वोट लेकर चुनाव जीत
जाता है। मतदाताओं में चूंकि 18 साल से कम उम्र के बच्चे
शामिल नहीं होते जिससे जीतने वाले 121 करोड़ जनता के प्रतिनिधि पता
नहीं कौन से गणित से हो जाते हैं? किसी भी सरकार के सारे
जनप्रतिनिधियों को कुल मिलाकर 5 से 10 करोड़ के लगभग वोट ही मिल
पाते हैं।
अरे
शुक्र करो निर्मल रानी कि इस देश के लोगों में इतना सब्र और बर्दाश्त का मादा है
कि वे आज़ादी के 63 साल
बाद भी भूखे नंगे और बेघर और बेरोज़गार होकर भी लाखों करोड़ों की संख्या में करो या
मरो का नारा देकर आर पार की लड़ाई लड़ने को सड़कों पर नहीं उतरते। वे बेचारे तो केवल 43 साल से लटकाये जा रहे
लोकपाल बिल को पास करने की शांतिपूर्वक मांग कर रहे हैं। अगर सरकार की चोरी और
सीनाज़ोरी जारी रही तो देख लेना एक दिन वह भी आ जायेगा जब जनता किसी की एक नहीं
सुनेगी और फिर वह सब होगा जो जनता चाहेगी। यह शायद आपको पता ही होगा कि आम आदमी
नेताओं के बारे में क्या सोचता है और मौका मिले तो उनका क्या करना चाहता है?
अन्ना हज़ारे के कामयाब आंदोलन से भ्रष्टाचार
के खिलाफ कानून बनाने को मजबूर हुयी सरकार के दावेदार यह सवाल पूछ रहे हैं कि देश
की 121 करोड़
जनता के आखि़र कितने दावेदार हांेगे? मतलब साफ है कि जब जनता ने
जाति, धर्म
या क्षेत्र के झांसे मंे फंसकर एक बार अपने आका रूपी सेवक चुनने की गल्ती कर ली तो
अब पूरे पांच साल उनको झेलना ही होगा। यही वजह है कि वे राइट टू रिजेक्ट और राइट
टू रिकॉल का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। उनको यह भी ख़तरा है कि जनलोकपाल पास
होने के बाद उनकी रिश्वतखोरी और काला धन विदेशों में जमा कराने की काली करतूतें
बेरोकटोक नहीं चल पायेंगी।
वे
सीबीआई व सी,डी
ग्रेड के सेवकों को भी इसीलिये लोकपाल के अंतरगत नहीं लाना चाहते क्योंकि फिर वे
सीबीआई का अपने दुश्मनों के खिलाफ मनमाना दुरूपयोग नहीं कर पायेंगे। साथ ही म0प्र0 में भ्रष्टाचार से 10 करोड़ बनाने वाला चपरासी
नरेंद्र देशमुख और 40 करोड़
की काली कमाई करने वाला क्लर्क रमन ध्ुालधेई फिर कैसे ए और बी क्लास के अधिकारियों
को मासिक सुविधा शुल्क देकर अपने उूपर बैठे मंत्रियों और बड़े बड़े आक़ाओं की जेब
गर्म कर सकेंगे।
माना जनता की समझ यह है कि वे जेल में बंद
यूपी के उस अमरमणि त्रिपाठी को जिता देती है जिस पर कवित्री मध्ुामिता की हत्या का
आरोप था। वजह थी कि अमरमणि अपनी बिरादरी की नाक का सवाल बन गये थे। लड़ाई उनके
क्षेत्र में ब्रहम्ण बनाम ठाकुर बन गयी। ध्रुवीकरण मंे वे 20 हज़ार वोटों से जीत गये। एक
और चुनाव में यादव बहुल सीट बदायूं के सहसवान से खुद डी पी यादव और बगल की सीट
बिसौली से अपनी पत्नी उमलेश को अपने परिवर्तन दल से खड़ा करने वाले बाहुबली ने
मुलायम सिंह को ध्ूाल चटाकर दोनों सीटें जीत ली थीं। दरअसल मुलायम ने यहां नारा
दिया कि अगर केवल यावद विधायक चाहते हों तो डीपी और उनकी पत्नी को जिताओ और अगर यादव
मुख्यमंत्री चाहते हो तो सपा के प्रत्याशियों को वोट करो।
लोगों
ने फैसला जातिवाद के बल पर डीपी और उनकी पत्नी के पक्ष में दिया। एक और माफिया
मुख़्तार अंसारी 1996 से
लगातार विधायक चुने जा रहे हैं। 2007 में तो जेल में रहते वे 70 हज़ार से अधिक वोटों से
एमएलए बने। उनकी हालत यह है कि 2009 के संसदीय चुनाव में भाजपा
के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी के मुकाबले वाराणसी से वह पौने दो लाख वोट लेकर
मात्र 18 हज़ार
वोटों से जीत से वंचित रहे। लोगों का कहना है कि उनके एक फोन या चिट्ठी पर सरकारी
अधिकारी और कर्मचारी वे काम भी करने को तैयार हो जाते हैं जो वे सीएम और पीएम की
सिफारिश पर भी नहीं करते।
दरअसल होता यह है कि जनता का जो पढ़ा लिखा
बुध्दिजीवी कहलाने वाला वर्ग भ्रष्टाचार पर खूब बढ़ चढ़कर चर्चा करता है और आजकल
आंदोलन भी करने लगा है वह चुनाव के समय आराम से घर बैठकर या तो टीवी देखता है या
फिर उस दिन बाज़ार और कार्यालय की छुट्टी होने से पिकनिक पर चला जाता है। जो दलित, पिछड़े और मुस्लिम वर्ग बड़े
पैमाने पर और उच्च जातिया कमोबेश मतदान करते हैं उनमें जाति, धर्म, और सारी संकीर्णतायें इस
दौरान भी काम करती हैं। इन में कुछ लोग नक़द या उपहार लेकर भी वोट देने लगे हैं।
इसी समीकरण के हिसाब से सभी दल अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं। जहां तक सियासी
जमातों द्वारा उम्मीदवारों का चयन है तो कोई अपराधी, दागी या पापी जिताउू हो तो
उनको इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह चुनाव जीतकर क्या गुल खिलायेगा?
सपा
पूर्व डकैत फूलनदेवी और भाजपा तहसीलदार सिंह को चुनाव लड़ा चुकी है। अन्य दलों का
रिकॉर्ड भी इस मामले में कमोबेश उन्नीस इक्कीस ही है। संसद में जहां 107 से अधिक गंभीर अपराधी
प्रवृत्ति के एमपी बैठे हैं वहीं यूपी में 155 दागी एमएलए राज चला रहे
हैं। इससे नेताओं को यह मौका मिल गया है कि जनता को इसी हालत में गरीब और अनपढ़ रखो
जिससे उनको लूट का लाइसंेस यूं ही मिलता रहे। जनवादी कवि अदम गांेडवी ने ठीक ही
कहा है-
0 पैसे से आप चाहे तो सरकार गिरादो,
स्ंासद बदल गयी है यहां की नख़ास मंे।
जनता के पास एक ही चारा है बगा़वत,
यह बात कह रहा हूं मैं होशो हवास में।।
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